वरिष्ठ कवि। तीन कविता संग्रह, पांच व्यंग्य संग्रह प्रकाशित। ‘व्यंग्योदय’ का संपादन।
अंधेरे के खिलाफ
अंधेरे का एक फायदा है
कि यकायक आपकी शिनाख्त नहीं हो सकती
न पहचाना जा सकता है आपका मत
किधर भी खड़े हो सकते हैं आप
बेशर्मी ओढ़कर
अंधेरा मुफीद है गायब होने के लिए
आपदा आते ही
वह बचाता है आपको निशाने पर आने से
आप उठा सकते हैं पड़ोसी का सामान
आप धकिया सकते हैं उसे मुसीबत में
अंधेरा सभी बहुरूपियों की
तानाशाहों की, फरेबियों की
कायरों की पहली पसंद है
वह पनपता है धीरे-धीरे अंतर्मन में
फिर छा जाता है हमारी सोच और व्यवहार में
बंद कर देते हैं हम देखना, सोचना और समझना
भाने लगते हैं हमें बने बनाए हल
मुंह छुपाने लगते हैं शुतुरमुर्ग की तरह
कठिन नेतृत्व के समय
अंधेरों से जूझने का सामर्थ्य ही
फैसला करता है
आपकी मिट्टी और कद का
विरोधों से लड़ने का
असल में जो अंधेरा है तराजू
तौलता है आपका वजन समय के पलड़ों पर।
हवा का रुख
लोग कहते हैं
तुम्हें हवा का रुख समझना नहीं आता
जब मौसम था जय-जयकार का
तुम कंदराओं में जाकर मौन बैठ गए
जब साधना था मौन विपरीत दिनों में
बच रहे थे सब बोलने से
यहां तक कि जोर से खांसने से भी
तुम बेबाक करने लगे आलोचना
जब लपकनी थीं चींजें और सुविधाएं
तुम पर हावी थी वितृष्णा
तुम आनंदित थे अभाव के जगत में
तुम हँस रहे थे, ठहाके लगा रहे थे
तुमने कहा यही सबसे बड़ा सुख है
भला कितने लोग हँस सकते हैं
सर्वशक्तिमान राजा पर
लेकिन तुमने निर्भीकता को ही बानक माना
और मौसम की समझ रखकर भी
हवा के साथ चलने से इंकार किया!
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