शंभुनाथ

अज्ञेय ने एक जगह लिखा है, ‘स्वाधीनता एक ऐसी चीज है जो निरंतर आविष्कार, शोध और संघर्ष मांगती है।’ इसका अर्थ है, स्वाधीनता की कोई आखिरी मंजिल नहीं है। भारत की स्वतंत्रता के 75 साल पर कई तरह से चर्चा हुई। इस दौर को अमृतकाल कहा गया और 15 अगस्त की महत्ता को खुलकर नकारा भी गया। यह भी फिर से उजागर हुआ कि भारत के लोगों के लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी की तारीखें कितना अधिक महत्व रखती हैं।

स्वाधीनता अतीत की जंजीरों के टूटने की आवाज है। स्वाधीनता के अनुभव की एक कसौटी यह है कि हम भारत के लोग अपने साझे मूल्यों, लक्ष्यों और सेवाओं को कितना मजबूत बना पाए हैं। क्या 21वीं सदी के नागरिकों में कुछ भी निजी, मानवीय और सामाजिक बचा हुआ है? क्या जातिवाद, धर्मांधता और प्रांतीयतावाद से बंधे आदमी को स्वाधीन कहा जा सकता है? क्या ऐसा व्यक्ति स्वाधीनता को सत्य की निरंतर खोज में बदल सकता है?

ऐसे समय में बुद्ध याद आते हैं, उनकी करुणा याद आती है, फिर अज्ञेय की ही एक और पंक्ति याद आती है, ‘करुणारहित योद्धा केवल आततायी हो सकता है या (किसी) आततायी का उपकरण हो सकता है।’ भारत की उदारवादी परंपरा बहुत दीर्घ और गौरवपूर्ण है। देखने की जरूरत है कि बौद्ध होते हुए भी किस तरह अश्वघोष (100 ई.) ने ‘बुद्धचरित’ की शुरुआत में ‘रामायण’ के रचयिता वाल्मीकि का आदरपूर्वक स्मरण किया है! अतीत के ऐसे कितने ही उदाहरण हैं।

21वीं सदी का यह एक खास दौर है, जब स्वाधीनता का अर्थ धुंधला हुआ है। यह एक तरफ दायित्वहीन कुकथनों और दुरुपयोगों से प्रदूषित है। दूसरी तरफ इतिहास से खिलवाड़, ‘राष्ट्र’ की तुलना में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती क्षमता, कृत्रिम मेधा सहित हाई टेक्नोलॉजी के स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल, मीडिया की स्वायत्तता के ह्रास, नव-पुनरुत्थानवादी उभार और लोकप्रियतावाद के तिलिस्म के कारण लगभग विस्थापित है। मनुष्य की निस्सहायता बढ़ गई है। इन दिनों मिथ्या धारणाओं और वस्तुओं का एक बृहद जाल फैल गया है, जिसमें स्वाधीनता वस्तुतः एक हांफती मछली है!

इतिहास की पुनर्रचना और इतिहास में घुसकर अफवाह फैलाना

बचपन में सुदर्शन की एक कहानी पढ़ी थी ‘हार की जीत’। इसमें एक डाकू खड़ग सिंह भिखारी का वेश बनाकर छल से बाबा भारती का घोड़ा लेकर भागता है। बाबा भारती उसे बुलाते हैं और दुखी मन से कहते हैं- घोड़ा ले जाओ पर यह बात किसी को न बताना, अन्यथा लोग भिखारियों पर विश्वास करना छोड़ देंगे।

यही बात उनके बारे में कही जा सकती है, जो इतिहास की डकैती करके अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं की गुफा में ले जा रहे हैं। यह राजनीति में हो रहा है, साहित्य में हो रहा है और फिल्मों की दुनिया में हो रहा है। इस तरह देश को समझने का एक महत्वपूर्ण आईना चूर-चूर हो रहा है।

साहित्य में सलमान रुश्दी, विलियम डेलेरेंपिल जैसे व्यक्तियों ने और हाल के दशकों में कुछ हिंदी लेखकों ने भी अपने-अपने तरीके से इतिहास को रंगा। लोकप्रियता का शार्टकट चुनते हुए कई उल्टे-सीधे उपन्यास इतिहास को डिस्टार्ट करते हुए आए। लेखकों ने इतिहास-क्रीड़ा की। निश्चय ही हमें इतिहास की पुनर्रचना और इतिहास के भीतर घुसकर अफवाह फैलाने में फर्क करना होगा।

इतिहास के दबे यथार्थों का उद्घाटन जरूरी है, पर यह काम मुख्यतः जिंदा सचाइयों को दफनाने के उद्देश्य से किया जा रहा है। आज इतिहास के दबे यथार्थ का उद्घाटन एक निर्मित स्मृति है। ऐसी कृत्रिम स्मृतियां विनाशकारी होती हैं और ऐसे विनाश की भरपाई कठिन होती है।

ऐसा नहीं है कि पहले इतिहास की साहित्यिक-फिल्मी पुनर्रचना नहीं हुई। प्रसाद ने ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘धु्रवस्वामिनी’ जैसे नाटक लिखे। वृंदावनलाल वर्मा, रांगेय राघव, अमृतलाल नागर, हजारी प्रसाद द्विवेदी के ऐतिहासिक उपन्यास हैं। ‘मुगले आजम’ के अलावा 1857, भगत सिंह, मिल्खा सिंह पर फिल्में हैं। इन निर्माणों में एक सौंदर्यबोध है। ये बड़े चित्त से बने हैं। ऐसी कृतियां विध्वंसक की जगह निर्माणात्मक हैं।

फूकोयामा : अब इतिहास का अनंत

डेनियल बेल ने 1960 में ‘विचारधारा का अंत’ घोषित किया था। इसके कुछ नतीजे ऊँचे आदर्शों से मोहभंग, बीट पीढ़ी और युवा विद्रोहों के रूप में सामने आए थे। इससे भिन्न फूकोयामा ने 1990 के दशक में ‘इतिहास का अंत’ की धारणा दी। इसका संक्षेप में अभिप्राय यह है कि शीतयुद्ध के खात्मे और सोवियत रूस के विघटन के बाद इतिहास अब उदारवादी लोकतंत्र के अंतिम मुकाम पर पहुंच गया है, जिसका आदर्श अमेरिका है। विश्व को अब अमेरिकी उदारवाद की राह से एकध्रुवीय हो जाना है।

2017 में अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और इंग्लैंड में ‘ब्रेक्जिट’ की घटनाएं देखकर फूकोयामा का मोहभंग हुआ। उसने वैचारिक पलटी मारी। उसने कहा, ‘पचीस साल पहले मैं सोच नहीं पाया था कि दुनिया के लोकतंत्र पीछे की तरफ भी जा सकते हैं। निश्चय ही वे पीछे की तरफ जा सकते हैं।’ (वाशिंगटन पोस्ट)। इसका अर्थ है, इतिहास में ‘रिट्रीट’ संभव है। इधर दुनिया में भारी सांस्कृतिक और राजनीतिक विपर्यय घटा है। देश सुलग रहे हैं।

इसके बावजूद कहा जाना चाहिए कि इतिहास के पहिये को पीछे की तरफ घुमाया नहीं जा सकता, क्योंकि स्वतंत्रता की जययात्रा को अंततः रोका नहीं जा सकता। इतिहास में दबी चीखों को मिटाना संभव नहीं है। एक तबाह और आदर्शविहीन दुनिया लंबे काल तक नहीं चल सकती। इसलिए इतिहास के अंत को चुनौती देते हुए एक भिन्न दुनिया रची जानी है। इतिहास का पुनर्जन्म होना है।

यह भी कहना होगा, इतिहास का ज्यादा बोझ स्वतंत्रता को सीमित करता है। इसका असर अंततः विकास पर पड़ता है। देखने की जरूरत है, इतिहास में युद्ध के उपकरण ही नहीं, शांति और प्रेम की प्रार्थनाएं भी हैं। उसमें शक्तिमानों के वृत्तांत ही नहीं, दबाए हुए लोगों की आकांक्षाएं भी हैं। शास्त्र के निर्देश ही नहीं, लोकभाषा में काव्यात्मक आवाजें भी हैं। ऐसे इतिहास को ‘नीचे से लिखा गया इतिहास’ कहा जा सकता है। ऐसा ही है नाथपंथियों, संतों, भक्तों और सूफियों का साहित्य! इसमें आम लोगों का इतिहास है, जहां बहुरेखीयता के बावजूद साझापन है। ऐसे इतिहास में तिल को ताड़ और ताड़ को तिल नहीं बनाया जाता।

इतिहास मानव अनुभव के सभी क्षेत्रों में प्रवेश करने से बनता है। सैकड़ों साल से लोग क्या उत्पादन कर रहे थे, क्या खाते-पहनते थे, कौन-सी कविताएँ गाते थे, क्या कलाएं थीं, कैसा स्थापत्य था- ऐसी बहुत सारी चीजें देखने से मालूम होगा कि सचमुच हमारा इतिहास क्या है। इतिहास युद्ध के घोड़ों का अस्तबल नहीं है।

जहां भय है वहां स्वतंत्रता नहीं है

तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में रावण का एक चित्र है-‘भुजबल विस्व बस्य करि राखेसि, कोउ न सुतंत्र।’ रावण ने पूरे विश्व को भौतिक बल से अपने वश में कर रखा है, कोई स्वतंत्र नहीं है। कबीर ने बार-बार कहा है कि प्रेम ही स्वतंत्रता का मुख्य द्वार है। वे कहते हैं, ‘कबीर निरभै राम जपु’। भय सबसे बड़ा कैदखाना है, कबीर भय छोड़ने को कहते हैं। जहां भय है, वहां स्वतंत्रता नहीं है।

‘रामचरितमानस’ के उत्तर कांड में राजा राम अयोध्या के सभी वर्गों के नागरिकों को बुलाकर कहते हैं-नागरिको! यदि मैं कुछ भी अनीतिपूर्ण और अन्यायपूर्ण करूं तो आप निर्भय होकर मुझे रोकें। तुलसी की पंक्ति है, ‘जो अनीति कछु भाषौं भाई तो मोहि बरजहु भय बिसराई।’ यह एक कवि की अनोखी लोकतांत्रिक कल्पना है। इन दिनों दुनिया का कौन सत्ताधारी है, कौन व्यक्ति है जो इस तरह सोचता है। राम कहते हैं निर्भय होकर बोलो! लोक की यह आवाज ही भारत की आवाज है।

आजकल इस तरह के विचार धड़ल्ले से व्यक्त किए जाते हैं, ‘ऐसे लोगों को गोली मार देनी चाहिए’, ‘टिट फॉर टैट’, ‘लड़कियां शाम के बाद घर से बाहर निकलेंगी तो मर्द हमला कर ही सकते हैं’, ‘ऐसा होता रहता है, कौन-सी नई बात है’। ऐसे परिवेश में अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज स्वाधीनता का स्तर क्या है।

इन दिनों यह दिखाने पर जोर है कि स्थानीय स्तर पर कोई कितना ‘भिन्न’ है तथा वैश्विक स्तर पर कितना ‘अ-भिन्न, पश्चिम-जैसा’ है। क्या अब विश्व की हर दिशा में फिर पश्चिम ही पश्चिम है? कहा जा सकता है कि जातिवाद, धर्मांधता, क्षेत्रीयता, अंध-जातीयता, भ्रष्टाचार, भोग-विलास, ‘दूसरे’ से घृणा, पश्चिम का अंधानुकरण, कृत्रिम मेधा और संवेदनहीनता वस्तुतः ये एक ही रावण के अलग-अलग सिर हैं!

बाजार में स्वाधीनता

अब विचारधारा नहीं, बाजार स्वाधीनता की परिभाषा देता है, बल्कि स्वाधीनता को नियंत्रित भी करता है। बाजार ही देश की प्रगति का इंजन है। कई मामलों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां ‘राष्ट्र’ से ज्यादा शक्तिशाली हो चुकी हैं। बड़ी सावधानी से दिखाया जाता है कि नई हालत स्वाभाविक है।

इस दौर में एक विडंबना यह है कि हमें जब भी कुछ चुनना हो, हमारे सामने सिर्फ मिथ्या चीजें होती हैं। हमें ‘बुराइयों’ में से ही कुछ चुनना पड़ता है। लोग खुद अपनी पसंद निर्मित नहीं कर पा रहे हैं। उनकी पसंद निर्मित कर दी जा रही है। उनकी स्मृतियां निर्मित कर दी जा रही हैं। उन्हें ‘फास्ट फूड’ की तरह सबकुछ पहले से ‘सोचा हुआ’ मिल रहा है। उन्हें उपभोक्ता वस्तुओं के एक विराट संसार के साथ सोच की एक पूर्व निर्धारित ‘बाउंडरी’ भी मिल रही है। उनका खुला आकाश छीन लिया गया है। उनका इतिहास धूमिल कर दिया गया है। उनके प्रेरक महान व्यक्तित्व छीन लिए गए हैं। वे अलग से कुछ सोच या रच नहीं पा रहे हैं। यह गरिमा में आत्मरिक्तता का उत्सव है!

बाजार में अब प्राइवेट सेना तक है। इसके दस-दस लाख मासिक वेतन पाने वाले सैनिक हैं, उनका अपना कोई राष्ट्र नहीं है। यह मामला हाल में रूस से जुड़ी एक घटना से उजागर हुआ। असीमित अमीरी हो तो टाइटेनिक का मलबा देखना भी एक पैकेज टूर है। टूर कंपनियां  दो करोड़ में एवरेस्ट भ्रमण के लिए ले जा रही हैं। एक बिस्कुट कंपनी शादी में उपहार स्वरूप बिस्कुट देने के लिए कह रही है, क्योंकि पैकेट में सोना मिल सकता है! बड़े-बड़े फिल्मी सितारे अखबारों के पहले पेज पर पान मसाला बेच रहे हैं। ऐसे विज्ञापन आज के समाज के चेहरे हैं। बड़े-बड़े सेलेब्रिटी, फिल्म और राजनीति के कलाकार उतरे हुए हैं लोगों की बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी ‘पसंद’ निर्मित करने के लिए!

कारपोरेट सभ्यता में आम नीति है, ‘ठहरे कि मरे, हमेशा गति में रहो’! गति की सीमा नहीं है। लोभ की भी सीमा नहीं है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले जानते हैं कि उनके जीवन का उद्देश्य कंपनी को टारगेट मुनाफे तक पहुंचाना है। अगले साल लाभ का टारगेट बढ़ जाना है। पूरा नहीं किया तो छंटनी के लिए तैयार रहो! पहले की तरह आठ घंटे की ड्यूटी नहीं है, टारगेट पूरा करना है भले 24 घंटे लगें। ऐसे दबाव हमेशा बने रहते हैं, ताकि आप कुछ और सोच न सकें। बदले में वेतन के अलावा बढ़िया बोनस, शेयर और अन्य सुविधाएं लो। इस तरह के लोभ हों तो कोई स्वाधीनता के बारे में क्यों सोचे।

लोभ कारपोरेट सभ्यता की धुरी है। आज शिक्षा और अस्पताल जैसे मानव सेवा के निजी प्रतिष्ठानों का भी यही लक्ष्य है। अपोलो अस्पताल की पिछले साल की कुल प्रदर्शित वार्षिक आमदनी लगभग 5 हजार करोड़ से ऊपर है। इसमें मालिक का मुनाफा 1 हजार करोड़ से ऊपर है। कई अस्पतालों ने शेयर बाजार में प्रवेश ले रखा है। इस स्थिति में मानव सेवा लक्ष्य नहीं होगी। मरीजों के लिए बलात भारी बिल बनता रहेगा, सभ्य तरह से लूट। आजकल मतदाता विचारधारा न देखकर यह देखते हैं कि किसके जीतने से शेयर का भाव बढ़ेगा!

कारपोरेट सभ्यता ‘स्वतंत्रता’ की जगह ‘लाभ’ को धुरी बनाती है। जीवन के हर मामले में यह प्रश्न प्रधान हो जाता है- मेरा फायदा क्या है?

मेधारोबो आ रहे हैं

बाजार में मेधारोबो (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) का आगमन हुआ है, जो कारपोरेट जगत का व्यावसायिक अणु बम है। ये उन हजारों नौजवानों को बेरोजगार कर देंगे जो टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट की दुनिया में हैं। ये सभी कर्मस्थलों और सेवाओं पर असर डालेंगे। ये प्रोपेगंडा के बड़े हथियार बन सकते हैं। ये फे्रंड बनकर सोशल मीडिया में छा सकते हैं और आर्थिक धोखाधड़ी के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं।  मेधारोबो शिक्षकों और वकीलों की जगह ले सकते हैं। ये परंपरागत ढंग के विद्यालयों-विश्वविद्यालयों को उजाड़ सकते हैं। ये विभिन्न कलाकारों, उपन्यासकारों और कवियों की जगह ले सकते हैं। ये यदि बढ़ गए, रोजगार का बड़े पैमाने पर खात्मा होगा। मेधारोबो भुखमरी पैदा करेंगे। ये मानवीय स्वाधीनता के सामने एक बड़ी चुनौती बनने वाले हैं।

मेधारोबो का प्रवेश समाचार वाचन के क्षेत्र में हुआ है। अब चैटजीपीटी है। मेधारोबो बमवर्षक विमान चलाएंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तर में मेधारोबो की सेवाएं बढ़ रही हैं। दो-तीन दशकों के बाद हो सकता है कि बड़े देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति वे ही हो सकें, जिनके पास सबसे अधिक और विकसित मेधारोबो हों!

मेधारोबो के कारण मानव संबंधों में भारी उथलपुथल संभव है। वे मानव बुद्धि तथा संवेदनशीलता के सामने एक बड़ी चुनौती हैं, इसका अनुभव दुनिया भर में किया जा रहा है। लेकिन जिस तरह अणु बम के भयंकर विनाशकारी प्रभाव को जानते हुए भी परमाणु बम बनाना नहीं रुका, उसी तरह संदेह है कि मुनाफे पर नजर गड़ाए कारपोरेट महारथी मेधारोबो के विकसित रूप तैयार करते रहने से कभी बाज आएंगे। हमारे देश में इसके प्रसार पर रोक लगनी चाहिए, क्योंकि इधर तेजी से हो रही छंटनी और बेरोजगारों की ब़ड़ी संख्या पहले से ही एक बड़ी चेतावनी है।

नई टेक्नोलॉजी व्यक्ति को कितना स्वाधीन कर रही है और कितना गुलाम बना रही है, इसका एक उदाहरण मोबाइल में खो गए छोटे-छोटे बच्चे हैं। मोबाइल पर वीडियो गेम में डूबे छोटे-बड़े लोग हैं। नई टेक्नोलॉजी जरूरी है, पर यह आदमी को किस तरह सामाजिकता से विमुख कर रही है, यह भी देखना होगा। इसके अलावा, नई टेक्नोलॉजी-पुरानी आइडियोलॉजी की जोड़ी तगड़ी हो गई है।

अच्छा और बुरा लोकप्रियतावाद

भारत एक बहुलतापरक देश है। यहां लोक के प्रांतीयता, धर्म, जाति, पुराजाति, भाषा आदि के आधार पर सैकड़ों चेहरे हैं। यह देश अतीत में ज्यादा डूबा रहा है। इसलिए उपनिवेशकों के लिए भी स्थानीय भिन्नता का फायदा उठाना आसान रहा है। 19वीं-20वीं सदी में जब दुनिया भर में स्वतंत्रता की लहरें उठीं, हमारे देश के लोग भी साझे उदारवादी लक्ष्यों और मूल्यों की ओर बढ़े। वे विविधता को राष्ट्रीय क्षमता में बदलना चाहते थे। उस समय लोग तर्क कर रहे थे, खुले मन से बहस कर रहे थे और सामाजिक सुधारों पर जोर देते थे। उनकी शिक्षा उन्हें परदुखकातर और संपूर्ण भारत के लिए चिंतित बनाती  थी। सबको आपस में जोड़कर चलने की प्रवृत्ति मजबूत हो रही थी। विषम स्थितियों में भी पुराने भारत से एक नया, बुद्धिपरक और समावेशी राष्ट्रीय भारत निकल रहा था। सवाल है, वैश्वीकरण के दौर में वह उभर रहा नया भारत कहां है?

लोकप्रियतावाद के दो रूप हैं- अच्छा लोकप्रियतावाद और बुरा लोकप्रियतावाद। पुराने आधुनिक युग के राममोहन राय, फुले, नर्मद, विद्यासागर, विवेकानंद, रवींद्रनाथ, अय्यन कलि, गांधी, भगत सिंह, अंबेडकर,  जयप्रकाश नारायण जैसे व्यक्तित्व अपने-अपने समय में लोकप्रिय थे। उनमें जो धार्मिक थे, वे अपनी ऐतिहासिक सीमा में लिबरल और मानवतावादी भी थे। वे रूढ़ियों और पाखंडों में नहीं फँसे थे। वे स्वार्थी नहीं थे। अच्छे लोकप्रियतावाद के उस दौर में रोमांटिसिज्म एक प्रमुख तत्व था।

फिल्म से उदाहरण लें तो एक समय राज कपूर, दिलीप कुमार, सुनील दत्त, नरगिस, मधुबाला जैसे कलाकार थे। उनमें उज्ज्वल रोमांटिसिज्म भरा था। राज कपूर ने अपनी किसी फिल्म में मार-धाड़ का सीन नहीं दिया। हमेशा प्रेम का संदेश दिया, क्योंकि दुनिया में एक आशा थी।

फिर बुरे लोकप्रियतावाद का दौर शुरू हुआ। इसने सबसे नुकसानदेह काम यह किया कि आत्मजागरूक हो रही ‘पब्लिक’ को ‘मॉब’ में बदल दिया। एक सियार हुआं-हुआं करता है तो सभी करने लगते हैं। 1970 का दशक स्वातंत्र्य चेतना के प्रबल उत्ताप के साथ लोकतंत्र की विफलता का भी दशक था। यह बुरे लोकप्रियतावाद की शुरुआत का दशक था। इसी समय स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हुए 20 सूत्री कार्यक्रम के साथ आपातकाल लागू हुआ था। पहला लोकप्रियतावादी नारा सामने आया था- ‘गरीबी हटाओ’! बुरे लोकप्रियतावाद और स्वतंत्रता को सीमित करने के बीच गहरा संबंध है।

फिल्मी दुनिया से उदाहरण चुनें तो इस दौर के महानायक थे मारधाड़ के अनोखे दृश्य देने वाले अमिताभ बच्चन। वे फिल्मों में अक्सर शक्तिमान आम आदमी बनकर आए। आम लोगों को अब वह व्यक्ति नायक प्रतीत होने लगा, जो आक्रामक रास्ते से न्याय दिलाने का स्वप्न दिखाता है। अमिताभ बच्चन बुरे लोकप्रियतावादी दौर के आक्रामक और‘एंग्री यंग मैन’ के रूप में सामने आए, क्योंकि दुनिया में एक निराशा थी।

बुरे लोकप्रियतावाद के कई रंग हैं। वह समावेशी राष्ट्रीयता, बुद्धिपरकता, आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैयक्तिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर अंततः भारी पड़ता गया। बुरा लोकप्रियतावाद सामान्यतः समावेशी की जगह वर्चस्व-आकांक्षी है।

यदि लोक इतना छला नहीं जाता

कहना न होगा कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र धीरे-धीरे सिकुड़कर ‘चिह्नों’ में सीमित होते गए। अब सब चिह्नों में देखो- देश का विकास, लोगों की खुशहाली, जनता को नकद, आवास-मुफ्त बिजली आदि देकर राहत, किसी दुखी को दुखी होकर गले लगाना, सुप्रीम कोर्ट का न्याय, स्त्री-दलित-आदिवासी की महत्ता, यहां तक कि धर्म। यहां तक कि प्रतिवाद। अब सबकुछ चिह्नों में है, अंश से संपूर्ण का आभास! आम लोग चिह्नों से ही संतोष करने लगे हैं, उनमें जीने लगे हैं। इसके साथ उनकी बौद्धिक आत्मरिक्तता बढ़ती जा रही है।

इस दौर में प्रवासी और शरणार्थी बढ़ने लगे तो अपने हकों को लुटता देखकर स्थानीय असंतोष आकार लेने लगा। ‘बाहरी और भीतरी’ का मिथ्या द्वंद्व उभरा। दुनिया में हर तरफ घृणा दिखने लगी। विश्वमानवतावाद विघटित हुआ। सत्ताओं ने अपनी सुरक्षा के लिए ‘भिन्नताओं’ को राजनीतिक हथियार बनाया। इन्हीं स्थितियों में सबाल्टर्न विमर्श उभरे, जिन्हें बाजार और शैक्षिक जगत ने हाथों-हाथ लिया।

सबाल्टर्न विमर्श कुछ सकारात्मक बिंदुओं के बावजूद अंततः बुरे लोकप्रियतावाद के रूप में ढल गए। सामान्यतः स्त्रियों और दलितों की स्थितियां बदतर होती गईं, पर स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का बाजार बनता गया। इन्होंने शैक्षिक संसार में जो दिया, उसमें ज्यादातर चीजें शार्टकट वाली और खोखली हैं। गौरतलब है कि विमर्शों से देश की कई बड़ी समस्याएं गायब कर दी गईं, वे एकायामी हो गए।

विमर्श विफल हुए। स्त्री आमतौर पर शृंगार (सौंदर्य बाजार), शौर्य (धर्मांधता) और सेवा (परिवार के कार्यों का भार) के त्रिपाश में जकड़ने लगी। वह तिहरा उपनिवेश है! दलित बिखर गए, इनका उत्पीड़न पहले की तरह जारी है। कुछ की रुचि घृणा उगलने में सीमित हो गई। वे नई चुनौतियों से बचने लगे। आदिवासी मूक कर दिए गए। सामान्यतः विमर्श एकजैसेपन से ग्रस्त हो गए, उनमें नवोन्मेष घटित नहीं हुआ। इस जमाने में सर्वत्र वैचारिक रीढ़ कमजोर होती गई, ऊंट कभी भी कोई करवट ले सकता है। लोक इतना छला गया न होता तो अनुदारवादियों की तरफ इतना आकर्षित न होता।

‘राष्ट्र’ और ‘हाशिया’ के बीच जो सांस्कृतिक युद्ध शुरू हुआ, उसका नतीजा ‘हाशिए’ की इकहरी-बिखरी आवाजों का निगला जाना या प्रभावहीन हो जाना है। प्रतिवाद में भी ‘स्पेशलाइजेशन’ का आ जाना है। कोई स्त्री मुद्दे पर ‘स्पेशलाइज्ड’ है तो कोई दलित, आदिवासी या अन्य किसी मुद्दे पर! इन सबका एक नतीजा एलीट बुद्धिवादी वर्गों का आम लोगों से विच्छिन्न होते जाना है। इस तरह घटित हुआ सुविधाभोगी महत्वाकांक्षी एलीट और उपेक्षित आम लोक का द्वंद्व! अंध-बुद्धिवाद बनाम अंध-आस्था!!

आर्थिक उदारता : सामाजिक अनुदारता

विश्व की सत्ताएं आम लोगों की आर्थिक असहायता, उत्पीड़न या किसी भी अन्य समस्या का समाधान करने में जितनी अक्षम हुई हैं, उन्हें ‘अन्य’ पर आधारित भिन्नता का प्रचार करते हुए लोकप्रियतावाद की उतनी अधिक जरूरत पड़ी है। वे लोकतंत्र और स्वतंत्रता के प्रसार से डरती हैं, क्योंकि इससे मुक्त बाजार की तानाशाही  में विघ्न संभव है। खासकर अनुदारवादी सत्ताएं ‘आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक अनुदारता’ की जोड़ी सलामत रखती हैं। कहा जा सकता है कि अनुदारवाद एक किस्म की संगठित अराजकता है।

अनुदारवादियों का मुख्य औजार बुरा लोकप्रियतावाद है। इसलिए अपराधी भी यदि अपनी जाति, अपनी प्रांतीयता या अपने धर्म का है और सहायक है, तो मस्तिष्कहीन जनसमूह में वह नायक की तरह देखा जाता है। उसकी जाति, उसके धर्म और उसकी प्रांतीयता के लोग चाहते हैं कि वह पकड़े जाने पर भी छूट जाए। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति! सच्चा आदमी भी यदि अंध-समर्थक नहीं है, शत्रु घोषित कर दिया जाता है।

यह समझने की जरूरत है कि एक कट्टरता दूसरी कट्टरता को बढ़ाती है। लगता है, यह भेड़ों की तरह झुंड में रहने का समय है-अपनी-अपनी जाति, अपने-अपने धर्म, अपनी-अपनी प्रांतीयता में। गौर करने की चीज है कि इन दिनों भाषा काफी हिंसात्मक होती जा रही है, क्योंकि जीवन हिंसात्मक होता जा रहा है। संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सोचना निरंतर मुश्किल है। हर जगह लोक एक न एक उन्माद का चेहरा है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में साहस के साथ लिखा है, ‘सत्य के लिए किसी से भी न डरना-गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’ निर्मित लोकरुचि में न बहने पर ही स्वत्व रक्षा संभव है।

क्या अब लोग स्वातंत्र्य प्रेमी नहीं हैं

स्वाधीनता से प्रेम उसी में हो सकता है जिसमें वैयक्तिकता हो, बौद्धिक आत्मसजगता हो और आत्मशक्ति हो। कारपोरेट सभ्यता में ‘व्यक्ति’ विलुप्त हो गया। व्यक्ति समाज में होते हैं, मस्तिष्कहीन जनसमूह या भीड़ में नहीं। आदमी की खुद सोचने की शक्ति खत्म कर दी जा रही है। आश्चर्यजनक नहीं है, यदि लोगों को स्वतंत्रता की जगह अब मनोरंजन की चीजें, सुख की चीजें, अपने छोटे-छोटे फायदे की चीजें ज्यादा महत्वपूर्ण लगती हैं।

कुछ व्यक्ति स्वतंत्रता की ऐसी छवियां सामने लाते हैं ः देखो, पहले से अब कितने अधिक लोग अभाव के वृत्त से बाहर निकलकर मुक्त बाजार के मजे ले रहे हैं। फैशन और खाने-पीने के विकल्प बढ़े हैं। ऊपर से मॉल-मल्टीप्लेक्स स्वाधीनता के नए-नए रूपक रचते हैं। अब कितने सुंदर, सुखदायक और बड़े-बड़े भवन हैं! धारणा है, अधिकाधिक विदेशी पूंजी निवेश अधिकाधिक स्वाधीनता देगा। इंटरनेट का अधिक उपयोग अधिक स्वाधीनता का चिह्न है, डेटा खरीदते रहो! कहा जा सकता है कि जिस तरह के सुख के पीछे दौड़ाया जा रहा है, वह स्वाधीनता का दुश्मन है। इस तरह की स्वाधीनता भोग रहे लोगों को न ‘राष्ट्र’ से मतलब है, न बौद्धिक स्वतंत्रता से और न ऊंचे मानवीय आदर्शों से। वे ‘कैपिटल दास’ हैं। उन्हें स्वाधीनता की चिंता नहीं है।

स्वाधीनता के बोध के लिए थोड़ा दुख होना चाहिए, क्योंकि दुख ही स्वाधीनता का गर्भाशय है। हर स्वाधीनता भोगे गए किसी विराट दुख का शिशु है!

यह लंबी रात तारों से भरी है

यह विचारों की दुनिया में एक लंबी रात है, पर वान गॉग(1853-1890) के चित्र ‘द स्टारी नाइट’ को देखें तो यह एक तारों भरी रात है। डच चित्रकार वान गॉग जीवन भर अभाव और मानसिक अशांति में थे। वे असंतोषों से भरे रहते थे। उनके सामने दो रास्ते थे- अवसाद या सृजन। उन्होंने कुछ समय सृजन पर जोर दिया। पर इस स्वाभिमानी कलाकार के मन में छिपी दुर्दमनीय आत्मशक्ति को उसके समय के लोगों ने नहीं पहचाना, बल्कि उसका बहिष्कार किया। फिर भी भले गाढ़े काले रंग में छिपे हों, वान गॉग ने सूरजमुखी बनाए, तारे बनाए और गरीब किसानों की दरिद्रता के चित्र दिए।

आज भी बहुत से लोग मस्तिष्कहीन भीड़ के शोर से दूर अपने अकेलेपन या निस्संगता का अनुभव करते हैं। वे निस्संग हैं, पर अनगिनत हैं। वे हृदय में प्रेम से भरे हैं। वे पिछले जड़ बौद्धिक ढांचों से मुक्ति लेकर नए सिरे से कुछ कहना चाहते हैं। वे कुएं की जगह आकाश की ओर देखते हैं। भले वहां लंबी रात हो, पर वहां टिमटिमाते तारे मिलकर बनाते हैं रात का सूर्य!

कहना न होगा कि कारपोरेट सभ्यता का सुख, अतीत के प्रेतों द्वारा जगाई गई घृणा और इतिहास की प्रतिशोध-वृत्ति मनुष्य की स्वतंत्रता के विरुद्ध एक बड़ा षड़्यंत्र है। यह है जीवन को निषेध की दीवारों से घेर देना, उसे एक खोज बनने से रोकना। कबीर के शब्दों में कहें तो यह हद छोड़कर ‘बेहद’ के मैदान में जाने न देना है।

वैश्वीकरण तो यह कहते हुए आया था -खोल दो घर के सभी खिड़कियां-जंगले, पर वह अंततः क्या दे गया!