चर्चित लेखिका। कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, स्त्री-विमर्श पर 33 पुस्तकें।
वह दफ्तर से बाहर निकली तो रात-सी घिर आई थी। सर्दी की शामें छोटी होती हैं। दिन रहते ही अंधेरा छा जाता है। उसने घड़ी देखी, समय ज्यादा नहीं हुआ था। वह स्कूटर लेगी और दस मिनट में घर पहुंच जाएगी। वह काफी देर तक स्कूटर के इंतजार में खड़ी रही, पर कहीं कोई स्कूटर आता दिखाई नहीं दे रहा था ।
‘मैडम आप! गई नहीं अभी। बाबूराम था, दफ्तर का चपरासी।’
‘स्कूटर का इंतजार कर रही थी। जरा देखो चौराहे तक जाकर – वहाँ जरूर मिल जाएगा।’
‘आज तो स्कूटर टैक्सी वालों की हड़ताल है।’
‘ओह!’ उसे याद आया था।
‘आप कहो तो ऊपर चलकर दफ्तर खुलवा दूँ। आप सॉब को फोन कर लें।’ उसने उसका असमंजस भांप लिया था।
इस वक्त अमर को आने के लिए कहना अटपटा लगा था। ‘पास में ही तो रहती हूँ। बस से चली जाऊंगी । तुम जाओ।’ वह साइकिल के पैडल मारता निकल गया था।
वह बस स्टॉप की तरफ चल पड़ी थी। दक्षिणी दिल्ली की पॉश कॉलोनी थी। भीड़-भड़ाका नहीं था। सड़कें चौड़ी और निर्जन थीं। यूं कारें, दोपहिए, बसें, ट्रक वगैरा आ-जा रहे थे। सड़कों की बत्तियों के नीचे धुआं ठहरा था। वह मोड़ घूमी और मुख्य सड़क पर आ गई थी। सामने सिनेमा हॉल था। शाम का शो शुरू हो चुका था पर बाहर अभी भी भीड़ थी। कोई फिल्म थी जो पिछले कई हफ्तों से खूब भीड़ ले रही थी। हाउस फुल की तख्ती टंगी रहती थी। इस वक्त भी फिल्म के बेहूदे पोस्टरों को देखते झुंड-के-झुंड लोग खड़े थे। ब्लैक के टिकट लेने और देने वाले आसपास की पान की दुकानों या इधर-उधर कोनों में मंडरा रहे थे। खाकी वर्दी में कुछ आकृतियाँ बेखबर-सी सब अनदेखा करती इधर-उधर देखती खड़ी थीं।
सिनेमा के सामने से सड़क बाईं और घूम गई थी। थोड़ा-सा सीधे जाकर बस स्टॉप है। वह बस लेगी और घर चली जाएगी। चौराहे की भीड़-भाड़ से यह सड़क एकदम अछूती थी। वाहनों की आवाजा भी कम थी। पैदल चलने वाला कोई इक्का–दुक्का ही था।
उसे लगा उसके पीछे कोई है जो थोड़ी दूरी रखकर उसके साथ-साथ चल रहा है । सिनेमा के सामने से मोड़ मुड़ते ही उसे आभास हुआ था कि कोई उसके साथ थोड़ी दूर से उसका पीछा करने लगा था। इस सड़क पर रोशनी कम थी। कोई आसपास आता-जाता भी नजर नहीं आ रहा था। इस तरह पीछा किए जाने से एक सिहरन-सी उसके भीतर दौड़ी थी। उसने साड़ी के पल्लू को कसकर कंधों के गिर्द लपेट लिया था और अपना पर्स कंधे से उतारकर पल्लू के नीचे बगल में कसकर दबा लिया था। उसे घूमकर पीछे देखने की इच्छा हो रही थी पर बुद्धिमानी इसी में थी कि इस स्थिति से अनजान दिखते हुए भी वह पहले से अधिक सचेत होकर चले। अब उसे साफ लग रहा था कि उसके पीछे एक जोड़ी नहीं कई जोड़ी पैर हैं जो उसका पीछा कर रहे हैं।
उसकी चाल धीमी होते ही वे रुक जाते और चाल तेज होते ही गति तेज कर लेते। उसे धीमे-धीमे की गई बातों की फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ रही थी। रोज ही अपने आसपास हिंसा की अनेक घटनाएं देखते-सुनते-पढ़ते रहने से उसे लगा था जैसे वह किसी जाल में फंस गई है।
फिल्मों में प्रदर्शित और पोस्टरों में उजागर हिंसा और अश्लीलता के अनेकों दृश्य उसके जहन में तैरने लगे। दिनोंदिन बढ़ता जाता हिंसा का आकार। हिंसा जो जिंदगी की लय के साथ जुड़ गई है और देश के नक्शे पर फैल गई है। हिंसा जो धीमे जहर की तरह फिल्मों में परोसी जा रही है। उस छुटपुट अंधेरे में चाकू, छुरियां, तमंचे, रिवाल्वर लिए अनेकों लोग अपने करीब आते और उसे घेरते प्रतीत होने लगे। एकाएक उसने अपनी चाल तेज कर दी। वह जल्दी-से-जल्दी यह सड़क पार कर जाना चाहती थी। सड़क निर्जन-सी थी। मदद के लिए चिल्लाएगी भी तो कौन सुनेगा। लेकिन, सुनकर भी क्या कोई उसकी मदद को आएगा? उसे विचार आया कि वह अपनी घड़ी, कान के बुंदे, गले की चेन वगैरा निकालकर पर्स में डाल ले। पर फिर सोचा कौन जाने पीछे वाले की मंशा क्या है? इन चीजों का महत्व इस वक्त है ही कितना। असली डर तो उसे उस भदेस स्थिति का था, जिसका ख्याल ठंडी सिहरन बनकर उसकी हड्डियों में घुसता जान पड़ा था। उसने अपनी गति और तेज कर दी थी तभी पीछे से कोई तेजी से आया था और उससे जान-बूझकर टकराया। एक गंदी फब्ती कसी और आगे निकल गया। भय से उसकी चीख निकल गई। उसे अपने पीछे हँसी सुनाई दी थी। टकरानेवाला आदमी क्या पीछेवालों में से ही एक था या कोई दूसरा। कुछ कहा नहीं जा सकता था। पीछे चल रहे पैरों की आवाजें अब और पास आ गई थीं। उसने देखा सड़क के किनारे मोड़ पर ढिबरी जलाकर मूंगफली के ढेर के सामने एक व्यक्ति बैठा था। वह लगभग दौड़कर उसके पास पहुंची थी। मूंगफलीवाला उसे खरीदार समझकर उचका था। पूछ रहा था, ‘कितनी मूंगफली दे।’ उसने अनिच्छा से एक रुपये का सिक्का उसके सामने रख दिया था और मूंगफली का लिफाफा बिना पकड़े ही वह आगे बढ़ गई थी। उसके वहां रुकते ही तीन आकृतियां सड़क किनारे बिजली के खंभे की ओट में हो गई थीं ताकि रोशनी उनके चेहरों पर न पड़े। जैसे ही वह आगे बढ़ी उसके पीठ मोड़ते ही वे फिर उसके साथ हो लिए। बस स्टॉप पर कोई नहीं था। खंभे की बत्ती मद्धम उजाला फेंक रही थी। बस या कोई सवारी आती ही होगी, उसने अपने को धीरज बंधाया था। तभी एक साइकिल उसके करीब आकर रुकी। वह डर से सुन्न हो गई थी।
‘यह स्टॉप कैंसल हो गया है। आगे जाइए। उस तरफ से मिलेगी बस ।’
अब तक वह संभल गई थी। ‘उस तरफ कहाँ?’
‘आगे जाकर चौराहे से दाएं ।’
‘शुक्रिया’ वह चला गया था। उसने सोचा हो सकता है वह उन्हीं में से एक हो जो उसका पीछा कर रहे हैं। इसमें उसकी कोई चाल हो। वह असमंजस में खड़ी सोच रही थी, क्योंकि स्टॉप पर कैंसल किए जाने का कोई चिह्न नहीं था। लेकिन बस नहीं ही आ-जा रही थी। अब तक जो भी बसें सामने से आती दिखाई दीं वे मोड़ से घूमकर साथवाली सड़क पर हो लेती थीं। ‘यहाँ खड़े रहना व्यर्थ है ।‘उसने सोचा और आगे बढ़ी थी। इसके सिवा इस वक्त दूसरा रास्ता ही क्या था। एक निरीह भाव से घिरी वह सोच रही थी। अभी कुछ समय पहले दफ्तर में पूरी विद्वता और विश्वास के साथ वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस कर रही थी। उसके निर्णय को पूरा विद्वत समाज सम्मान दे रहा था। वह इतनी असहाय क्यों? उसकी चिंता का सरोकार क्या आज की खुरदरी इस फिल्मी व्यवस्था की नब्ज को नहीं छूता? हिंसा के उस आतंक के बीच और उसके आसपास, जिसे हम सभी और विशेषकर औरतें भोगने के लिए अभिशप्त हैं।
वह चौराहे से दाईं ओर मुड़ी तो देखा सड़क किनारे से निकलकर तीन छोकरे सड़क की दूसरी तरफ आ गए हैं। क्या अब तक ये ही उसका पीछा कर रहे थे। इतने बित्ताभर के लड़के। अब वे तीनों उसके साथ-साथ कुछ फासले पर दाएं-बाएं चल रहे थे। कभी वे उसकी तरफ देखकर संकेत करते, फिल्मी गीतों की टूटी पंक्तियां गाते, फिल्मी नायक-नायिकाओं के नाम लेते-फिल्मी संवाद दोहराते उसके साथ-साथ चलने लगे थे। उसने ध्यान दिया ये वही छोकरे थे जो सिनेमा हॉल के बाहर पोस्टर देखते खड़े थे। उसे लगा वह सिनेमा हॉल के बाहर लगे किसी अश्लील और उत्तेजक पोस्टर में तब्दील हो गई है। यह पोस्टर सुबह के शो की किसी अंग्रेजी या मलयाली वयस्क फिल्म का पोस्टर है, जिसमें उत्तेजक सूत्र वाक्यों के साथ निर्वस्त्र की सीमा तक स्त्री शरीर की नुमाइश है। झुंड-के-झुंड छोटे-बेड़े, हर वर्ग के लड़के नारी अंग-प्रत्यंगों को आंखों से पलोसते लंबी कतारों में खड़े हैं और हिड़-हिड़कर हँसते हुए तालियाँ और सीटियाँ बजाते रहे हैं। तभी वहाँ किसी नारी संस्था की औरत ने आकर पोस्टर पर तारकोल पोत दिया। तारकोल के उस घने आवरण में सुरक्षित वह नीचे उतर आई है।
सोच रही है कि ये तारकोल इन फिल्मों के निर्माता, वितरक और बनियावृत्तिवाली सरकार के मुंह पर पोतना चाहिए, जिन्होंने सिनेमा के अर्थतंत्र को हिंसा और सेक्स के साथ जोड़कर अपने लिए काला धन कमाने का जरिया बनाया और नई पीढि़यों की धमनियों में धीमे जहर को प्राणवायु की तरह घोल दिया।
देश के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में घुलती हिंसा की बदबू और मध्यम वर्ग के पिटते युवक की आंखों के सपनों की पूरी क्षतिपूर्ति करती चमचमाती फिल्मी दुनिया का कड़वा यथार्थ एक तीखा सवाल बनकर खड़ा हो गया।
वे तीनों छोकरे अब बहुत ही कम फासले पर उसके साथ-साथ चलने लगे थे। एक ने जेब से बीड़ी निकाली थी और दूसरे ने माचिस। वे बीड़ी सुलगाकर बारी-बारी कश खींच रहे थे और झूलते-लटकते फब्तियां कसते उसके साथ-साथ चले आ रहे थे। माचिस की रोशनी में उसने साफ देखा था तेरह-चौदह साल के दो ठिगने से लड़के थे और तीसरा लंबा-तगड़ा था। वे कभी चलते-चलते रुक जाते। फिर तेज कदमों से या भागकर उसके साथ-साथ चलने लगते। वे रुके थे। एक ने अपनी जेब टटोलकर पैकेट निकला था और एक निकालकर मुंह से हवा भरकर गुब्बारे की तरह फुला लिया था। अब वे तीनों जने हिड़क-हिड़ककर हँस रहे थे। उसकी तरफ देखकर इशारा कर रहे थे। अचानक उसके भीतर गुस्से का हड़कंप-सा मच गया। डर कहीं काफूर हो गया। उसके दिमाग में जंगली हवा बहने लगी। उसे लगा पलभर में वह आगे बढ़ी है और उसने झपट्टे से उन्हें दबोच लिया है। तड़ातड़ तमाचे जड़ती गई है। उन्हें प्रतिरोध का मौका दिए बिना उन्हें पीटती गई है। पीटते-पीटते उसे लगा पिटनेवाला लड़का उसके बेटे में बदल गया है। वह उसे वैसे ही पीट रही है जैसे उसने बिट्टू को उसकी गाली सीख आने पर मारा था। उसका ध्यान टूटा । गुस्से से उसकी मुट्ठियां बंध गई थीं। वह उसी त्वरा से उनकी ओर लपकी। बीचवाले छोकरे की बांह उसके हाथ में आ गई थी और उसने उसे कसकर पकड़ लिया था। इधर-उधर वाले दोनों छोकरे छिटककर भाग गए थे। वह कुलबुला रहा था पर उसकी मजबूत पकड़ से छूट नहीं पा रहा था। उसके सिर के ऊपर उठा हाथ वहीं थम गया। खंभे की रोशनी में उसने देखा एक मासूम चेहरा डर से पीला पड़ गया है। उसकी टांगें कांप रही है और धीरे-धीरे अपनी बांह छुड़ाने की कोशिश कर रहा है। दूसरी बांह अपनी सुरक्षा के लिए उठे हाथ से बचने की प्रक्रिया में चेहरे के सामने आड़ी फैला ली थी । ‘गुंडागर्दी करते हो। अभी पुलिस चौकी ले चलती हूँ।’ उसके मुंह का वाक्य और उठा हाथ उसके मासूम चेहरे के ताव से पिघल गए।
‘क्या नाम है तेरा मुन्ने?’
इतनी मजबूत पकड़, सिर के ऊपर उठा हाथ और ऐसे कोमल संवाद की अपेक्षा उसे नहीं थी। अपने को छुड़ाने के लिए बिलबिलाना उसने बंद कर दिया था। वह टुकुर-टुकुर उसकी तरफ ताक रहा था।
‘क्या नाम है तेरा?’
वह झेंपा था और अटकते-अटकते बोला था, ‘अैंटी जी, बीरू।’
‘कहां जा रहे हो ?’’
‘घर।’
‘घर कहाँ?’
‘ये पीच्छे अैंटी जी। साब लोगों की कॉलोनी के पीचछे झुग्गियों में।’ उसने हाथ उठाया था। ‘वो सीधे जाके अगले चौराहे से सज्जे हाथ मुड़कर बंगलों के पीच्छे।’
वह समझ गई थी ये लोग भी वहीं जा रहे थे। उसने बस में जाने का इरादा छोड़ दिया था। ‘मैं भी उसी तरफ जा रही हूँ।’
‘जी, अच्छा अैंटीजी ।‘’ उसे इत्मीनान हो गया था कि अब खतरे की कोई बात नहीं है।
‘स्कूल पढ़ने जाते हो?’ उसने गर्दन हिलाई थी।
‘स्कूल पढ़ने नहीं जाते। आवारागर्दी करते घूमते हो… है …।’
‘ना तो। पैले जाता था अैंटीजी । तीसरी जमात तक पढ़ा था। अब छोड़ दिया ।’
‘क्यों, क्यों छोड़ दिया?’
‘अब तो मैं नौकरी करता हूँ ।’
‘नौकरी!’ उसने सिर से पैर तक देखा था। गंदे फटे पैर, सूखी पतली टांगें, उस पर कागडोरना-सा ढीले कुर्ते में झूलता धड़ । छोटे गोल चेहरे में भोलेपन से लबालब भरी दूध कटारें-सी आंखें ।
‘इत्ते छोटे से हो । क्या नौकरी करते हो?’
‘पिच्चर हॉल के सामने पंजाबी के होटल में अैंटी जी।’
‘तुम्हारे पिता क्या करते हैं?’
‘हमारा बाप अैंटीजी। वो∙ तो कुछ बी नहीं करता। बैठा-ठाला शराब पीता है और मां को मारता है। मां की कमाई के पीसे बी झटक लेता है। मेरी कमाई से मां हम छे जनों का पेट भरती है ?’
वह निरुत्तर हो गई थी। ‘अच्छा, वो तुम्हारे साथी कहाँ भाग गए?’
वह नीचे मुंह करके लजाया था। फिर हिम्मत करके बोला था।
‘यही हावेंगे, बुलाऊं अैंटी जी।’ उसने आवाज दी थी, ‘ओ बिशना… ओ राजे, ओ आ जाओ। डर की कोई बात नहीं। अपनी बंगलेवाली अैंटी जी हैं।’ उसकी आवाज के साथ ही वे दोनों छोकरे गली के अंधेरे से एकदम प्रकट हो गए थे। उसे बीच में कई बार लगा था कि छिप-छिपकर सड़क के किनारे आगे-पीछे होकर वे साथ ही आ रहे हैं। उसने उनका परिचय कराया था, ‘अैंटजी, यह बिशना है। यह भी पैले स्कूल में पढ़ता था।’ बीरु की ही उम्र का था पर कद-काठी में उससे अच्छा था।
‘कौन-सी क्लास में पढ़ते हो?’
‘जी… पांचवीं में था।’
‘सबसे ज्यादा अंक कौन-से विषय में आते हैं?’
’जी… हिसाब में ।’
‘अच्छा!’
‘जी, छमाही की परीक्षा में सौ में से छयानवे अंक मिले थे।’
‘यह तो बहुत अच्छे अंक हैं। आगे भी ऐसे ही होशियारी से पढ़ना।’
‘नहीं जी, अब तो स्कूल छोड़ दिया।’
‘तभी! इधर-उधर आवारागर्दी करते घूमते हो। पुलिस चौकी ले चलना चाहिए तुम लोगों को।’ उसके भीतर रूंधा हुआ गुस्सा था और वह अनायास ही उत्तेजित हो उठी थी।
‘नहीं, अैंटी जी।’ बीरू बोला था। ‘काम से आ रहे हैं हम तो। बिशना की माँ मर गई। बापू नहीं पढ़ाता। कैता है काम कर और पीसे कमा। पढ़कर क्या करेगा। पैले तो ये तांबा और लोहा इकट्ठा करता था कूड़े में से बेचने के वास्ते। लेकिन अब इसकी नौकरी लग गई। ढाबे में बर्तन मांजता है। लेकिन अैंटीजी यह राजू है न! इसको आप पुलिस चौकी ले जाओ।’
वह हैरान हुई थी, ‘क्यों?’
वे दोनों हँस रहे थे और राजू कोहनियाँ मार-मारकर उन्हें बोलने से रोक रहा था।
‘यह राजू है न अैंटजी। इसकी माँ कहती है पढ़। पर ये पढ़ता ही नहीं। इसकी माँ बंगले में काम करके पीसे कमाती है। इसका किताबें, फीस, कपड़ा, लत्ता सब देती है पर ये स्कूल जाने की बजाय पिच्चर देखने घुस जाता है। एक ही क्लास में तीन साल से पड़ा है।’
उसने देखा वह इन दोनों से बड़ा था और सड़क छाप हीरो-सा दिख रहा था। बुश्शर्ट के अगले बटन खोल रखे थे। गर्दन के गिर्द गहरे रंग का रूमाल लपेट रखा था। तंग पैंट और जूते पहन रखे थे। पहले वह झिझका था फिर अपने को बटोरा था उसने।
‘तुम सब भी तो देखते हो फिल्म। आज नहीं गए थे देखने।’
‘हम तो अैंटीजी हफ्ते में एक बार देखते हैं लेकिन यह तो हर रोज देखता है। आज भी हमने फिल्म नहीं देखी। अंदर जाने ही नहीं दिया।’
‘अच्छा हुआ नहीं जाने दिया। इस तरह की फिल्में तुम्हें देखनी ही नहीं चाहिए।’
‘क्यों जी। फिल्म तो सभी देखते हैं।’ बिशना था।
‘सभी नहीं देखते । मैं भी नहीं देखती।’
‘आपके घर में वीडुआ है न। इसी वास्ते ।’
‘नहीं, मेरे घर में वीडियो भी नहीं है।’
‘सच्ची अैंटी जी। आप फिल्म नहीं देखतीं।’ हैरत से उसका मुंह खुला-का-खुला रह गया था। ‘मेरी माँ के बंगलेवाली अैंटियां तो रोज देखती हैं। आप क्यों नहीं देखतीं?’
‘दिमाग खराब हो जाता है। समझे। अब तुम जाओ। मैं भी यहाँ से अंदर जाऊंगी।’
‘आपको घर तक छोड़ आते हैं अैंटीजी। यहाँ बड़ा अंधेरा है और आप डरती भी हैं।
वह हतप्रभ हुई थी पर सख्ती से बोली थी, ‘नहीं! मैं तो नहीं डरती। डर कैसा। तुम जाओ तब।’
‘जी अैंटीजी। बाई-ई-बाई।’ फिल्मी तरीके से तीनों हाथ हिला-हिलाकर आगे बढ़ गए थे। वह उनके चले जाने का इंतजार कर रही थी।
अविश्वास की धुंध में सारा हादसा डूबता जान पड़ रहा था। क्या पता कल कौन-सी फिल्म का कौन-सा प्लाट उनके मन में हो।
तभी बीरू मुड़ा था। ‘अैंटीजी! आपका पैकट। आप मूंगफलीवाले के पास ही छोड़ आई थीं।’ उसने लिफाफा आगे बढ़ाया था और एक निश्छल-सी हँसी हँसा था।
‘तुम खा लेना। रखो।’
वह झेंपी-सी हंसी हंसा था और भागकर अपने साथियों के साथ जा मिला था। उसने सोचा था, ‘दूध में अगर कोई जहर मिला दे तो दूध का क्या कसूर?’ और गेट खोलकर भीतर चली गई थी।