वरिष्ठ लेखक, भाषाविद और अनुवादक।

भूख

मेरे लिए यह मानना मुश्किल था कि
मेरा शरीर मांस से लदा हुआ था

मछुआरे की नसें तन रही थीं
उसने अपने जाल को समुद्र से खींचते हुए
लापरवाही से पूछा
क्या तुम उसका उपभोग करना चाहोगे
मानो उसके शब्द उसके उद्देश्य को
पवित्र कर रहे थे
जिसे वह अपने भीतर महसूस कर रहा था
मैंने देखा उसकी आंखें
विवर्ण हो चुकी हड्डियों से दबी थीं

मैं दूर-दूर तक फैली रेत को लांघता हुआ
उसके पीछे-पीछे चल रहा था
मेरा मन एक प्रत्याशित गदराए यौवन के
स्वाद की कल्पना में मग्न था
मैं बेचैन था अपने पूरे अस्तित्व को
भस्मीभूत करने की चाह में
मेरे आस्तिन में पसरी थी एक घोर निस्तब्धता

मछुआरे की देह समुद्री झागों से झुलस गई थी
उसके पुराने जाल समुद्र से खाली ही लौटे थे

धुंधलके में उसकी झोपड़ी
एक रिसते घाव की तरह खुली थी
मैं ठंडी हवा का एक झोंका बन भीतर घुसा था
जैसे पहले के दिनों और रातों में घुसे होंगे लोग

ताड़ के पत्तों से मेरी चमड़ी खुरच गई थी
झोपड़ी के भीतर जलते तेल के दीये ने
उन दीवारों पर जड़ीभूत समय को
तिरक्षा छितरा दिया था

मेरे मन की खाली जगह में
बार बार एक चिपचिपी कालिख पुत रही थी

मैंने सुना – वह कह रहा था – यह मेरी बेटी है
अभी अभी पंद्रह की हुई है…
उपभोग करो इसका, मैं जल्दी ही लौटूंगा
तुम्हारी बस नौ बजे रवाना होगी

मुझपर मानो आसमान टूट पड़ा था
दिखा था एक पिता का
पीड़ा से विगलित बहाना

लड़की की लंबी और दुबली काया
रबड़ की तरह ठंडी थी
उसने कीड़ों से भरी अपनी टांगें चौड़ी कर दीं
मेरी भूख जग गई थी
दूसरी ओर एक मछली फिसलती हुई
जाल के भीतर घुस रही थी।

मंदिर की मुख्य गली

धरती की तरह भूरे बच्चे हँसते रहते हैं
अपंगों और संभोगरत मोंगरेलों पर
कोई उनकी परवाह नहीं करता

मंदिर अनंत लय की ओर संकेत करता है
धूल भरी सड़क पर कटी हुई खोपड़ी का रंग

और ऐसी ही चीजें हमेशा चलती रहती हैं
पर कुछ भी किसी की नजर से ओझल नहीं होता
चोट लगने पर गर्मी से नींद आने लगती है
और वह आकाश
जिसका स्वामी होने का दावा परमपावन करते हैं
मौन की बैसाखियों पर उलटा लटका है।

मिथक

वर्ष बहते जाते हैं सुस्ती से हवाओं के साथ
लंबे समय से एक जप
एक अगरबत्ती खुंसी होती है
कोहरे से ढंके मंदिर के कांटेदार क्षितिज पर
लटका है चेहरे पर चेहरा
गतिहीन सीढ़ियों पर पड़ा है
एक मसला हुआ पत्ता
लाल रंग का सड़ा हुआ फूल
अपने पहचानहीन अतीत के बाहर

अंधेरी अधूरी यादों से ढली हुईं
पुरानी पीतल की घंटियां
बजती हैं कि वर्ष फिर से लौटकर आए
लगातार होती रहती है प्रार्थना
सीढ़ियां अंतहीन लगती हैं
आजीवन
और वे अन्नपूर्णा धौलागिरि की चोटियां
दिखती हैं
अनिश्चित प्रभावशाली देवताओं की तरह

मेरी जाने की हिम्मत नहीं हुई
उस अंधेरे सीलनभरे गर्भगृह में
जहां मिथक बदल जाता है
तेजी के साथ हाथ दर हाथ, आंख दर आंख
सूख चुके चढ़ाए हुए फूल मुझपर हँसते हैं
मैं अपनी आंखों में हीरा बन चुका हूँ

धुंधले शोकसंतप्त वर्ष
मर रही तितली की तरह
दूरस्थ चोटियों के पास खड़े हैं
एक दाढ़ीवाला धार्मिक वस्त्रधारी आदमी
मुझसे जोर से पूछता है
क्या तुम हिंदू हो?

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