वरिष्ठ लेखक, भाषाविद और अनुवादक।

पीपल की फुनगी से उतरता सूरज अपना पीला चेहरा ईख के सूखे पत्तों में छिपाने की जुगत में था।दिन भर खेत-पथार में खटने के बाद गांव के किसान-मजदूर अब फरागत पाकर हाथ-पैर धो रहे थे।कुछ लोग अपने मवेशियों की नाद में चारे की आखिरी टोकरी डाल चुके थे।सूखे पत्तों एवं खर-पतवारों से भरे दरवाजे पर खरहरा किया जा रहा था।जिनको काम से लौटने में देरी हो रही थी, उनके मवेशी रंभा रहे थे।दुधारू गायों को दुहने की तैयारी चल रही थी।महिलाएं रात के खाने के जुगाड़ में लगी थीं।सयानी हो चुकी लड़कियां मां का हाथ बंटा रही थीं।छोटी और किशोर लड़कियां हर चीज से बेफिक्र घर से लेकर दरवाजे तक धमाचौकड़ी मचा रही थीं।जवान और किशोर लड़के अपने-अपने काम से निपटकर जल्दी से जल्दी चौक पर जाने के लिए उतावले हो रहे थे।

चौक आसपास के कई गांवों के लोगों के लिए आकर्षण का बड़ा केंद्र था।दिन भर हाड़तोड़ मेहनत के बाद दीया-बत्ती होते ही लोगों का चौक पर पहुंचना एक शगल था।जवान लड़के वहां मौज-मस्ती करने पहुंचने के लिए हड़बड़ी मचा रहे थे, तो बड़े-बजुर्ग और कुछ निठल्ले गांव से लेकर राज्य और देश तक के बड़े-बड़े मसलों को चाय की चुस्कियों के साथ गलगलाने के लिए धोती-कुरता झाड़ रहे थे।कुछ लोग घरेलू जरूरत की चीजों और पान-बीड़ी-सिगरेट के लिए भी चौक पर जाने की तैयारी में थे।तभी अचानक हल्ला हुआ कि तीजी ने रोहना का खून कर दिया है! छोटा-सा गांव।आग की तरह खबर फैली।लोग जहां थे, वहीं ठहर गए।सभी अपने काम, चौक-चट्टी सब भूल गए।पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियां और बच्चे-बूढ़े भी जिधर से रास्ता मिला तीजी के घर की ओर दौड़ने लगे।सबकी छाती धड़क रही थी।तेरह साल की तीजी ने पच्चीस साल के हट्टे-कट्टे जवान लड़के का खून कर दिया है!

तीजी के घर पर मजमा लगा था।थाना-पुलिस।मुखिया-सरपंच-चौकीदार।फूस का घर।दरवाजे पर बैठने-बिठाने के लिए कुछ नहीं।रस्सी की बुनी हुई एक खटिया थी, जिसपर एक केथा बिछा था।अधिकांश लोग खड़े थे।कुछ लोग जमीन पर चौके-मुक्के या पुआल की आंटी पर बैठ गए थे।कुछ लोगों ने ईंट के टुकड़ों को जुगाड़ लिया था।

दारोगा के लिए किसी ने बगल के दरवाजे से प्लास्टिक की एक कुर्सी ला दी थी।वे कुरसी के बायें हत्थे पर हिलान दिए पूरे मामले को मन ही मन तौल रहे थे।दमे से खांसता तीजी का बाप जमीन पर बैठा थरथरा रहा था।उसने दारोगा के सामने खड़े रहने की भरसक कोशिश की, पर जब नहीं रहा गया तो वहीं भरभरा कर बैठ गया।दारोगा रह-रह कर उसकी ओर देख रहे थे और उसकी औकात थाह रहे थे… ‘कितना दूहा सकता है?’

दारोगा ने साथ आए पुरुष सिपाही को इशारा किया।वह पूरी मुस्तैदी से अपने काम में लग गया।दरवाजे से लेकर पिछवारे तक उसने एकएक चीज पर नजर डाली।पर उसे कुछ दिख नहीं रहा था।कोई मालमवेशी नहीं।एक बकरी थी।गाभिन।छानबीन के बाद उसने उनके कान में कहा, ‘सर, कुछ भी नहीं है।कंगला है।

दारोगा ने बिना कोई जवाब दिए चारों ओर नजर दौड़ाई और फिर तीजी के बाप की ओर देखा।नजर ऊपर उठी तो सिपाही फिर बुदबुदाया, ‘सर, बुढ़ऊ को तो देखिए रहे हैं।जान नहीं है।ऊपर से दमा का रोगी।थाने ले जाने में भी डर है।लॉकअप में ही मर-मरा गया तो?’ सुनकर दारोगा का मन तीता गया।उन्होंने गहरी सांस छोड़ी।उनको बहुत गुस्सा आ रहा था।उन्होंने खिसियाते हुए महिला सिपाही को आदेश दिया, ‘बाहर निकालो छोकड़ी को।’

तीजी मड़ई में भनसा-घर के कोने में दादी से चिपककर बैठी थी।महिला पुलिस ने उसका हाथ पकड़ा और खींचकर बाहर ले चली।दादी ने थोड़ा प्रतिरोध किया, फिर उनके कमजोर हाथ ढीले पड़ गए।सैकड़ों लोगों के बीच तीजी को दरवाजे पर लाया गया।दारोगा ने आश्चर्य से तीजी को देखा।एक मरी हुई जीवित काया।शरीर पर सरकारी स्कूल से मिला हुआ पुराना, मटियाया ड्रेस।सूखी आंखों में चिंता की गभुआई डोरी।

दारोगा ने दपटकर पूछा, ‘नाम क्या है तुम्हारा?’

तीजी जमीन पर देखती चुप खड़ी रही।

उन्होंने हाथ का डंडा घुमाते हुए फिर पूछा,  ‘अपना नाम बताओ।’

तीजी इस बार भी नहीं बोली तो पास खड़ा एक व्यक्ति खैरखाही के स्वर में बोला, ‘हुजूर, इसका नाम तीजी है।’

दारोगा ने उसे कसकर दपट दिया, ‘चुप! उसे बोलने दो।’ फिर अपने रुतवे को काबिज करते हुए उन्होंने इकट्ठे हुए सारे लोगों को घुड़की लगाई, ‘थाने की कार्रवाई में हुँ-हाँ नहीं।’

कई बार पूछने पर भी जब तीजी ने कोई जवाब नहीं दिया तो दारोगा का पारा चढ़ गया।वे महिला सिपाही पर गरजे, ‘इसे डंडे लगाओ और पूछो, क्यों किया इसने खून?’

दरअसल दारोगा को सहज विश्वास नहीं हो रहा था कि यह पिद्दी-सी लड़की किसी का खून कर सकती है।पर पूरे गांव में हल्ला है।आखिर माजरा क्या है? कैसे हुआ खून?

महिला सिपाही बांह पकड़कर तीजी को मड़ई के भीतर ले गई।पुआल की एक आंटी पर खुद बैठी और तीजी को जमीन पर बिठाकर बोली,  ‘क्या सचमुच तुमने उसका खून किया है? क्यों, कैसे?’

तीजी ने इस बार भी कोई जवाब नहीं दिया।

उसकी चुप्पी से परेशान महिला सिपाही का मन हुआ कि उसे जोर का एक थप्पड़ लगाए, पर पता नहीं क्यों उसका उठा हुआ हाथ हवा में अंटका रह गया।आवाज सुनकर दादी भीतर से दौड़ी आई। ‘मत मारो बेचारी को।टुअर है, नन्ही जान है।मर जाएगी।’ महिला सिपाही ने दादी को झिड़का, ‘मरने दो।ऐसे भी तो मरेगी ही।खून किया है इसने।’

दादी फफक पड़ी।उन्होंने अपने आंचल से तीजी का मुंह पोंछते हुए कहा, ‘बता दे बेटी।कैसे मरा वह लफंगा?’ फिर उन्होंने महिला सिपाही की ओर घूमकर कहा, ‘मुखिया-पति का छोटा भाई था कलमुंहा।मुखिया का देवर।थाना-पुलिस सब हाथ में।किसी का डर नहीं।घर-घर ताक-झांक करता रहता था।जहां-तहां मुंह मारता फिरता था।उसे यह नन्ही-सी लड़की कैसे मार सकती है, सिपाही जी?’ उन्होंने तीजी से फिर पूछा, ‘कैसे मरा अभगला।बता दे तीजी।सब लोग तुमपर दोष क्यों लगा रहे हैं?’

तीजी ने नजर उठाकर दादी को देखा।उसके होंठ फड़फड़ाए।उसने सबकुछ कहना चाहा, पर कहा नहीं गया।आंखों में पूरी घटना का अंबार लिए उसने महिला सिपाही की ओर देखा।महिला सिपाही थोड़ी मुलायम हुई।पूछा, ‘मुझे सचसच सारी बातें बताओ।क्या हुआ था? वह कैसे मरा।देखो, मैं भी एक मां हूँ।मेरी भी तुम्हारी उमर की एक बेटी है।मुझे विश्वास है, तुम अपने से दुगुने उमर के आदमी को नहीं मार सकती? पर वह मरा कैसे?’

तीजी का गला सूख रहा था।मानो मुंह में धुरा भर गया हो।उसने सूखे गले को थूक से तर करने की कोशिश की।उसकी हालत देखकर दादी दौड़कर पानी लाने गई।सिपाही ने फिर पुचकारा। ‘नहीं बताओगी तो थाने में बड़ी गत होगी।थाना नरक है।वहां आदमी नहीं, पिशाच रहते हैं।गिद्ध की तरह नोच खाएंगे तुम्हें।नहीं सोचेंगे कि तुम्हारी देह में जान नहीं है और न तुम्हारी उमर है।वहां तुम्हारी देह का गिंजन हो जाएगा।तुम्हें मार डालेंगे दरिंदे!’

दादी पानी लेकर आ गई।तीजी ने एक सांस में पूरा गटक लिया।दादी की छाती फट रही थी।उनकी आंखों में लाचारी, गुस्सा, पीड़ा न जाने कितने भाव एक साथ उभ-चुभ रहे थे।बड़बड़ाने लगीं। ‘करमजली है लड़की।जन्म के पहले से ही तरह-तरह के जुल्म सह रही है।जब पेट में थी, तभी इसे मारने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ा गया।पर थेथर लड़की जात।नहीं मरी।

दो बेटियां पहले ही पैदा हो चुकी थीं।बेटे की चाह में तीसरी बार जब इसकी माँ को गर्भ रहा तो सब खुश थे।दमे का मरीज बाप चाहता था, एक बेटा होता तो जीवन का सहारा बनता, वंश चलता।पर तीसरे-चौथे महीने ही लक्षण समझ में आ गए।पहले दोनों बेटियों के समय भी ये ही सारे लक्षण थे।फिर तो गर्भ गिराने के लिए धतूरा से लेकर तरह-तरह की खरकूच दवाइयां इसकी मां को खिलाई गईं।दइया ने पेट पर खड़े होकर ऐड़ी रगड़ी।पर कुछ नहीं हुआ।अस्पताल ले जाकर गर्भ गिराने की औकात नहीं थी।बेटा का लक्षण होता तो अस्पताल में दूसरा बच्चा है, कहकर भरती कराने से जच्चा-बच्चा के भोजन और दर-दवाई के लिए रुपये मिलते।लेकिन लड़की के लिए यह सब झूठ कहने का मन ही नहीं हुआ।कोई जुगत काम नहीं आया और यह पैदा हो गई।लक-लक देह पर रूप ऐसा कि देखो तो देखते रहो।तेतर बेटी लछमिनिया होती है, कहकर लोगों ने अच्छे दिन आने के सपने दिखाए।मतारी को दूध बहुत कम होता था।बकरी का दूध पीकर बड़ी हो गई।बड़ी दोनों बहनों से बिलकुल अलग।सब काम में आगे।बेटा बनकर बाप के साथ खेत खलिहान में काम करने लगी।स्कूल भी जाती।मास्टर खूब बड़ाई करते – ‘तीजी बहुत तेज है।बड़ी होकर कुछ बनेगी।’

स्कूल से खिचड़ी मिलती तो खुद खाती और बचाकर घर ले आती।

महिला सिपाही ने बीच में टोका। ‘क्या, अब स्कूल नहीं जाती?’

‘नहीं, सिपाही जी।इसने छोड़ दिया स्कूल।इसको पढ़ने में बड़ा मन लगता था।घर के काम से समय निकाल कर पढ़ लेती।लेकिन एक साल हो गया इसने स्कूल जाना छोड़ दिया।’

‘क्यों?’

‘कहते भी शरम आती है, सिपाही जी’, दादी ने उसांसें भरीं, ‘स्कूल में अधेड़ उम्र का एक मास्टर है।तीजी को बेटी-बेटी कहकर बुलाता था।तीजी उसकी खूब बड़ाई करती थी … ‘मास्टर जी बहुत मानते हैं।सब के जाने के बाद अलग से पढ़ाते हैं।कॉपी चेक करते हैं।टॉफी देते हैं।अंग्रेजी सिखाने के लिए एक किताब खरीदकर दिए हैं।थाली में दोबारा खिचड़ी डलवाते हैं…’

‘तब बारह साल की थी तीजी।देखने में तो सुंदर है ही, भरपेट भोजन पाकर और भी सुथरा गई।सुंदर लगने लगी।एक दिन मास्टर जी हमारे घर आए।तीजी के लिए एक सलवार-कुरती ले आए।तीजी पहनकर इतराने लगी।हम सब भी बहुत खुश हुए – ‘दयालु मास्टर है।बच्ची को बेटी की तरह प्यार करता है।’

पर एक महीना भी नहीं बीता होगा कि एक दिन तीजी स्कूल से रोती हुई भागती घर आई।माँ के बहुत फुसलाने पर इसने जो कहा उससे हम दोनों सासपुतोह का मन घिना गया।मास्टर होकर ऐसा काम।उसकी बेटी की तरह है।नकली प्यार दिखाता था।तीजी ने रोतेरोते बताया

उस दिन जब सभी बच्चे बाहर खेल रहे थे तो मास्टर ने तीजी की कॉपी चेक करने के लिए बुलाया।एकांत पाकर वह इसका देह जहां-तहां छूने लगा।पहले उसे कुछ समझ में नहीं आया।पर, क्या कहूँ।आप तो औरत हैं।समझ सकती हैं।दुलार में सड़ांध की बदबू जब तीजी को असह्य हो गई तो उसने पेंसिल की नोक मास्टर की नाक में घुसेड़ दी।वह दर्द से तिलमिला उठा।हाथ छूटते ही तीजी घर भागी।शर्म के मारे हमने इसके बाप को कुछ नहीं बताया।हम दोनों सास-पुतोह मुखिया के पास गए।यह सोचकर कि मुखिया औरत है और वह इस बच्ची का दर्द समझेगी।लेकिन नहीं।उसने हमें झूठा आश्वासन दिया।जब कुछ दिनों तक कुछ नहीं हुआ तो हम फिर गए।पर उसने हम दोनों को ही डांटना शुरू कर दिया, ‘इसने मास्टर के नाक में पेंसिल घुसेड़ दी है।इसे खूब पिटाई होनी चाहिए थी।पंचायत बैठती।वो तो मैंने किसी तरह तुमलोगों पर दया करके सब संभाल लिया, नहीं तो …।’ फिर उसने खैरखाह बनते हुए फुसलाने की कोशिश की।रुपयों का लालच दिया।बात को खतम करने के लिए कहा।हम मन मसोस कर रह गए।तीजी का स्कूल छूट गया।इसकी माँ बात को पेट में दबाए-दबाए ही मर गई।’

महिला सिपाही ने पूछा, ‘इसकी बड़ी दोनों बहनें कहां हैं?’

दादी के जितार घाव पर मानो महिला सिपाही ने उंगली रख दी हो।दोनों बच्चियों का चेहरा उनकी आंखों में उभरा और बुक्का फाड़कर रो उठीं।उनके चेहरे पर स्याह छाया गहरा गई। ‘मझली को पेट में दर्द हुआ तो उसी अस्पताल में भर्ती हुई जहां नौकरी करती थी।दो दिन बाद ठीक हो गई, पर तीसरे दिन अचानक फिर दर्द हुआ और उसी दर्द से मर गई।बाप बीमार था तो बड़की ही उसकी लाश लाने गई, सो आज तक वापस नहीं आई।हमलोग रोज उसका बाट जोहते हैं।दो दिनों के बाद बाप किसी तरह जाकर मझली की सड़ी हुई लाश लाकर जला दिया।’

महिला सिपाही को कुछ समझ में नहीं आया।उसने पूछा, ‘आखिर हुआ क्या था? ’

दादी सुबकते हुए बोली, ‘हमें आजतक कुछ पता नहीं चला कि क्या हुआ।वह तो गई थी नौकरी करने, पर वही काल हो गया।’

दादी बिसूरने लगीं, ‘बड़की जब उन्नीस-बीस की हुई तो घर की माली हालत देखकर उसके माई-बाप ने एक दिन गांव की महिला सरपंच से हाथ-पैर जोड़कर निहोरा किया कि गांव में चल रहे आंगन-बाड़ी वाले काम में उसे नौकरी दे दे।पर सरपंच ने कहा कि उसके हाथ में कुछ नहीं है।मुखिया चाहे तो हो सकता है।मुखिया का नाम सुनते ही मतारी का मन खटा गया।इसके बाप को खींचती हुई घर वापस आ गई।

पर थोड़े ही दिन बाद सरपंच और मुखिया-पति उसके घर आए और कहा कि बड़ी लड़की को शहर के अस्पताल में आया का काम दिलवा सकते हैं।राजी हो तो बताओ।बड़की खुशी-खुशी राजी हो गई।गांव से बाहर भेजने पर मां-बाप कुनमुनाए, पर मैंने बड़की की आंखों की चमक देखकर मां-बाप से कहा ‘जाने दे बच्ची को।इसका जीवन सुधर जाएगा।’

बड़की की आंखों में सपनों के सौ रंग लहलहा रहे थे।चेहरे से लेकर अंदर तक ओड़हुल के रंग घुलने लगे थे।अब भरपेट भोजन, मनमाफिक कपड़े, पक्का घर ही नहीं, और भी बहुत कुछ।घर में भी पैसे देगी।एक नया जीवन।बात तय होते ही अगले महीने से वह नौकरी पर जाने लगी।प्राइवेट अस्पताल था।पहला वेतन मिला तो सबके लिए कपड़े खरीदी।जलेबी और गुलाबजामुन लेकर घऱ आई।

बड़की की खुशी देखकर सतरह साल की मझली भी नौकरी के लिए छटपटाने लगी।आठ-नौ कक्षा तक गांव के स्कूल में ही पढ़ी थी।कह-सुनकर उसी अस्पताल में बड़की ने मझली को भी दइया का काम दिला दिया।घर में खुशहाली के पंख फड़फड़ाने लगे।पैसे आए तो बाप का इलाज शुरू हुआ।घर के सूखे जीवन की पथरीली जमीन पर जहां-तहां दूब के अंखुए फूटने लगे।पर वे हरियाते और चतर कर फैलते, उसके पहले ही निर्दयी पांवों ने उन्हें कुचल दिया।राक्षसों के एक दल ने सपनों से लबरेज दोनों बेटियों को निर्ममता से निगल लिया।मैं आज भी नहीं समझ पाई कि आखिर दोनों बेटियां तीसरे महीने ही कैसे बिला गईं।जहां-तहां फुसफुसाहट हुई कि मुखिया-पति और डॉक्टर ने मिलकर छोटकी की किडनी बेच दी।उसी से वह मर गई।बड़की को मालूम हो गया तो उसे भी गायब कर दिया।मैं रोज बाट जोहती हूँ कि बड़की कभी लौटेगी।मतारी बाट जोहते-जोहते मर गई।’

दरवाजे पर बैठे दारोगा उकता रहे थे। ‘क्या कर रही है सिपाही इतनी देर से?’ उन्होंने पास खड़े एक व्यक्ति को भीतर भेजा।महिला सिपाही दादी की बातों में इतना खो गई थी कि समय का होश ही नहीं रहा।दोनों बहनों का इस तरह गायब हो जाना, तीजी पर खून का इलजाम लगना…।वह उलझती जा रही थी।तीजी से सच उगलवाना था, यह याद ही नहीं रहा।दारोगा का बुलावा सुनकर चौंकी।बाहर आई।कहा, ‘सर, वह कुछ बता नहीं रही है।’

दारोगा ने आदेश दिया।लड़की को गाड़ी में बिठाओ।थाने ले चलो।वहीं सब बताएगी।

तीजी को थाने की जीप पर बिठा लिया गया।महिला पुलिस उसके पास बैठी।थाने में जिस लॉकअप में तीजी को डाला गया, वहां पैखाना-पेशाब की बदबू का ऐसा भभका उठा कि तीजी की आंतें उलटने लगीं।पूरी ताकत भर अपनी हथेलियों को नाक पर दबाकर रखा, पर उस बदबू से निजात नहीं मिली।

चूंकि थाने में महिला पुलिस थी, इसलिए नियमतः उसे चौबीस घंटे तक लॉकअप में रखा जा सकता था।

थाने में चार ही स्टाफ थे।एक दारोगा, एक पुरुष सिपाही, एक महिला सिपाही और एक ड्राइवर।दारोगा की हाल में ही पदोन्नति हुई थी।रिटायरमेंट में अभी पांच साल बाकी था।ऊपर वाले की दया से अब कमाने का समय आया था।पांच साल में जो भी बटोर सकेंगे, बटोर लेंगे।अब उनका सारा समय यही धुरधंध रचने में बीत रहा था।थाने की जद में आने वाले गांवों के मुखिया-सरपंचों और छोटे-बड़े बाहुबलियों पर उनकी कृपादृष्टि थी और वे सभी अपने-अपने मतलब के लिए दारोगा के पार्षद बन गए थे।इस थाने में आने के बाद से दारोगा बहुत खुश थे।यह छोटा-सा कस्बा था, जहां नकदी फसल की मंडी लगती थी।एक छोटा हाट भी रोज लगता था।मंडी और हाट से थाने को नियमित हिस्सा भेज दिया जाता।किराने और साग-सब्जी सिपाहियों में बांटा जाता और नकदी चढ़ौना दारोगा जी संभालते।

थाने के पीछे एक पीपल का पेड़ था।किसी ने मिट्टी की एक पीड़ी बनाकर उसपर सिंदूर का एक टीका लगा दिया था।पेड़ में लाल डोरे लपेट दिए गए थे।लाल रंग का एक कपड़ा भी पेड़ की जड़ में बंधा हुआ था।छोटेसे चबूतरे के पास एक चौकी रखी हुई थी, जिसपर रोज शाम को सफेद खद्दर में लकदक कुछ लोगों का अड्डा जमता।

ब्रह्मबाबा को गांजे का भोग लगता और रोज इकट्ठा होने वाले भक्तों को प्रसाद मिलता।यह सारा काम शाम सात बजे तक निपट जाता, क्योंकि उसके बाद दारोगा गाड़ी लेकर आसपास के गाँवों में कुछ खासमखास लोगों के घरों पर अड्डा जमाते।आधी रात तक व्यस्त रहते।नई नई देहगंधों से तन-मन को सराबोर करते।

सूबे में शराबबंदी थी, पर दारोगा और बड़भइए-छुटभइए के लिए नहीं।उनके लिए भी नहीं, जिनकी गाँठ में निठल्ली कमाई से उपजे कड़े-कड़े नोट होते।सूबे के लगभग हर गांव में शराब का धंधा पहले की तुलना में दस गुना बढ़ गया था।शराब की बिक्री बंद हो जाने का सबसे बड़ा फायदा सरकारी महकमों एवं थाने-पुलिस को मिल रहा था।उनकी झोली बेइंतहा भरने लगी थी।

महाबली नेताओं, बाहुबलियों एवं दलालों के लिए शराब के कारोबार ने कमाई का खोखा खोल दिया था।उन सब के साथ-साथ गाँवों के अब तक उबारू कहे जाने वाले लोग भी रातोंरात मालामाल हो रहे थे।पैसे के बल पर देखते-देखते समाज में उनकी इज्जत बढ़ रही थी।कइयों ने तो पुस्तों के लिए धन जमा लिया था।कमाई बढ़ी तो नेतागिरी भी बढ़ी।मुखिया सरपंच के चुनाव में खड़े हुए और डंके की चोट पर जीते।ये लोग दारोगा के नजदीकी हो गए थे।रोज किसी न किसी के घर दारोगा की पार्टी जमती।पीते-खाते, मजा करते और हाथ गरम करके थाने आकर खर्राटे भरते।सिपाहीगीरी के समय उन्होंने किराए पर घर लेकर परिवार को साथ रखा था।तब जवानी थी।फिर बाल-बच्चे हो गए तो उन्होंने परिवार रखना बंद कर दिया।छुट्टा रहने में जो मजा था, वह परिवार के साथ कहां।शारीरिक जरूरत तो पूरी हो ही रही थी।आसान था।लोग उनसे लाभ उठाते थे, वे उनसे लाभ उठाते थे।कमाई भी बढ़ जाती थी।दारोगा हो जाने पर ऊपरी कमाई वाला सरकारी काम बहुत था, और उनकी मुस्तैदी में कमी नहीं थी।अवसर का लाभ उठाने में वे माहिर थे।पैसा बरस रहा था।ऊपर के अमलों में काफी सरुख वाले भी बन गए थे।हर बड़ा ऑफिसर उनसे खुश रहता था।वे इनसानियत को ताक पर रखने वाले विभागीय उसूलों पर खरे उतर रहे थे।गांव-जवार के ताकतवर और मुंहजोर लोगों को उनके प्रति कोई शिकायत नहीं थी और उनका आमजन के प्रति न कोई दायित्व था, न परवाह।लोग दुश्चरित्र दारोगा को पीठ-पीछे गालियां बकते, पर कर कुछ नहीं सकते थे।दारोगा इन सारी चीजों से वाकिफ थे।

तीजी को थाने के लॉकअप में बंद कर देने के बाद सभी दूसरे कामों में लग गए।शाम सात बजे महिला सिपाही को बुलाकर दारोगा ने कहा कि आज तुमको यहीं रुकना पड़ेगा।थाने में एक लड़की को रखा गया है और कोर्ट में हाजिर करने तक एक महिला सिपाही का यहां रहना जरूरी है।

महिला सिपाही जानती थी कि बेशरम दारोगा सरासर झूठ बोल रहा है।पहले भी जनानी आसामी थाने में आई है।दारोगा इसी तरह बोलता है और खुद ही उसे घर जाने की इजाजत दे देता है।आज भी यही होगा।हालांकि उसके मन में एक बात आई कि आज शायद दारोगा सच बोल रहा हो।आज की आसामी कोई जवान और सुंदर औरत नहीं है।यह छोटी-सी मरियल बच्ची है।इसके प्रति दारोगा के मन में कोई सांप नहीं रेंग रहा होगा।फिर भी उसने दारोगा से पूछ लिया, ‘सर, क्या रुकना पड़ेगा?’ दारोगा ने पहले की तरह ही दांत निपोरा, ‘रजिस्टर में दस्तखत कर दो ताकि प्रमाण रहे कि तुम रात में रुकी हो।’

महिला सिपाही का मन घिना गया।उसने दारोगा की ओर एक बार देखा और मुंह में भर आए खखार को जोर से जमीन पर थूक दिया।तीजी पर नजर गई।मन में एक हूक उठी।उसका मन हुआ आज घर न जाए।पर वह जानती थी, दारोगा उसे आज थाने में रहने भी नहीं देगा।वह बड़े भारी मन से रजिस्टर में दस्तख्त कर घर चली गई।

रात को आठ बजे तीजी को सामान्य आसामी के विपरीत दो रोटियां, भर कटोरी चावल, दो अंडे और एक ग्लास दूध दिया गया।तीजी की आंखें चमक उठीं।वह सुबह भरपेट खाई नहीं थी।दूसरी लड़कियों के साथ वह भी बकरी चराने गई थी।बेर डूबने के पहले ही वह घर लौट पाई थी।वह खाना खाने जा रही थी कि दादी ने कहा, ‘तीजी, सांझ होने वाली है, गाछी से थोड़े सूखे पत्ते बटोर लाओ।कल सुबह के लिए जलावन नहीं है।’ तीजी को भूख लगी थी, पर अंधेरा हो जाएगा तो पत्ता बटोरना मुश्किल होगा, यह सोचकर गाछी की ओर चल पड़ी। …और फिर वे सारी घटनाएं घटीं और रोहना मरा।उसकी भूख भी मर गई।और शाम से उसकी फजीहत हो रही है।अब जाकर थाने में जब इतना अच्छा खाना मिला तो वह सबकुछ भूलकर खाने पर टूट पड़ी।पेट भर खाया।यह सोचकर कि जो होना होगा वह तो होगा ही।मार डालेंगे।ठीक है, मार डालें।ऐसी जिंदगी जी कर भी क्या होगा?

तीजी ने देखा, दारोगा ट्यूबवेल से पानी लेकर नहा रहा है।तीजी का भी मन हुआ, थोड़ा नहा ले।जब से रोहना ने उसे छुआ है, उसका मन घिनघिना रहा है।पर थाने में नहाने कौन देगा? और, नहाकर पहनेगी क्या? उसने देखा कि दारोगा धोती को लूंगी बनाकर पहन रहा है और पूरी देह में पाउडर थोप रहा है।एक हल्की-सी खुशबू का झोंका उसके नथुनों तक पहुंचा।खाने से पहले दारोगा ने उसे लॉकअप के बाहर निकाल दिया था।थाने के भीतर बरामदे में एक चटाई बिछाकर उसने खाना खाया।थाने के सामने के दरवाजे में ताला लगा हुआ था।न कोई बाहर जा सकता था, न भीतर आ सकता था।बरामदे के पीछे भी गेट था, जिसमें बाहर से ताला बंद था।पीछे की ओर से ही दारोग ट्यूबवेल पर नहाने गया था।

अचानक दारोगा उसके पास आकर बोला, ‘तीजी नाम है न तुम्हारा? …क्यों मारा है तुमने रोहना को।और कैसे मारा उतने बड़े लड़के को।’

तीजी चुप रही।पर दारोगा की बात में क्रोध नहीं था।वह घर पर वाला दारोगा नहीं था।वहां उसकी हुंकार सुनते ही वह थरथरा उठी थी, पर यहां तो आवाज ही दूसरी थी।

दारोगा उसके पास आया और पुचकार कर बोला, ‘जो भी हुआ हो वह तुम कल सुबह बताना।चिंता मत करो।सब ठीक हो जाएगा।तुम दिन भर परेशान रही हो।जाओ, जाकर नहा लो।यह धोती लो, इसी को पहन लेना’, कहते हुए उसने एक पुरानी धोती उसे दी।

तीजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।दारोगा इतने प्यार से क्यों बोल रहा है।क्या सचमुच यह भी मानता है कि मैंने रोहना का खून नहीं किया है।तीजी को उसकी बातों में आशा का मद्धिम दीया जलता हुआ दिखाई दिया।उसे लगा भविष्य उतना अंधकारमय नहीं है और इस मद्धिम दीये की रोशनी में ही शायद वह आगे के रास्ते पर दौड़ लगा लेगी।उसने मन ही मन तय किया, वह दारोगा को अभी सबकुछ बता देगी।जो-जो हुआ है सब बताएगी।परंतु वह कुछ बताती उसके पहले ही उसने देखा कि दारोगा अपने कमरे में चला गया है।

बरामदे के अहाते में ही ट्यूबवेल था।वह बाल्टी में पानी भर कर नहाने लगी।वह शरीर पर तब तक पानी पटाती रही जब तक उसे ठंड नहीं लगने लगी।फिर उसने निःसंकोच दारोगा की धोती को साड़ी बनाकर शरीर में लपेट लिया।मन थोड़ा हल्का हुआ।खाना खा चुकी थी।आकर चटाई पर बैठी तो आंखें झपकने लगीं।वह उसी चटाई पर बेहोशसी सो गई।

नींद गहरा रही थी, तभी उसे लगा कि वह किसी भारी बोझ से दबती जा रही है।चारों ओर धुप्प अंधेरा था।आंखों में अंधकार को चीरने की ताकत आते ही उसने देखा कि उसके शरीर पर दारोगा बैठा है।वह कसमसाने लगी।वह कुछ बोलती उसके पहले ही दारोगा ने अपने बाएं हाथ से उसके मुंह को चांप दिया।तीजी के लिए उसका भार असह्य हो उठा।चिल्लाने का उपाय नहीं था।मौत सामने खड़ी थी।वह इतनी भयावह होती है, सोचकर तीजी की रूह कांप उठी।दारोगा उसकी धोती उतारने में लगा था।जकड़ कठोर होती जा रही थी।सांसें उखड़ रही थीं।जीवन का अंत निकट था।तभी तीजी के दाहिने हाथ पर दारोगा की पकड़ ढीली हुई।जीवन को एक मौका मिला।तीजी ने एक झटके से अपने केश में लगे पिन को निकाला और दारोगा के शिश्न में घुसेड़ दिया।दारोगा चीखते हुए जमीन पर गिरा।एक क्षण की देरी किए बिना तीजी ने अपने बिखरे कपड़ों को समेटा और जान की बाजी लगाकर पांचिल फांद गई।

तीजी कब तक दौड़ती रही, उसे पता नहीं।वह कहां जा रही थी, पता नहीं।यह तय था कि उसे अपने घर नहीं जाना है।फिर कहां जाए? वह बस्ती के बाहर-बाहर दौड़ रही थी।डेढ़ दो घंटे तक दौड़ने के बाद जब वह पूरी तरह पस्त हो गई तो एक पेड़ के नीचे अंधेरे में बैठ गई।उसका दम उखड़ रहा था।उसने अपने कपड़े पहने और दारोगा की धोती को भंजाकर पेड़ पर फेंक दिया।वह फिर दौड़ने लगी।पर अब उसके शरीर में आगे दौड़ने की ताकत नहीं थी।गला इतना सूख चुका था कि प्राण निकलने जैसी हालत थी।तभी उसे सुनसान में एक घर दिखा, जहां से दीये की एक धीमी रोशनी छनकर बाहर आ रही थी।अंतिम आश्रय के रूप में उस घर के दरवाजे पर पहुंचते ही वह गिर पड़ी और बेहोश हो गई।

तीजी की आंख खुली तो उसके सामने दिन वाली महिला सिपाही बैठी थी।नीम-बेहोशी में भी उसे जीवन की अंतिम आस मिटती हुई दिखी।तभी महिला सिपाही ने प्यार भरी हथेली से उसके माथे को सहलाया।तीजी ने बंद आखों को फिर से खोला और सिपाही के चेहरे को देखा।एक ममतामयी मां की नजरों से भरोसे की बूंदें टपक रही थीं।

महिला सिपाही अंदाज लगा रही थी, पर तीजी दारोगा के चंगुल से निकलकर और थाने से भागकर यहां पहुंच सकती है, उसकी सोच के दायरे में नहीं आ रहा था।जब तीजी थोड़ी संयत हुई तो उसने पुचकारते हुए उससे पूछा, ‘कैसे भागी तीजी, उस राक्षस से बचकर?’

तीजी ने सुबकते हुए धीरे-धीरे सारी घटनाएं बता दीं।महिला सिपाही यद्यपि दारोगा के चरित्र को पहले से ही जानती थी, फिर भी उसे तीजी के साथ उसके ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी।उसका मन घृणा और विद्रोह से भर गया।

उसने तीजी से कल वाली घटना के बारे में पूछा।तीजी ने जो कुछ बताया उसका सार यह था कि उसने नहीं किया है खून।वह खुद मरा है।दादी के कहने पर वह टोकरी और रस्सी लेकर गाछी की ओर जा रही थी तो रास्ते में रोहना मिला।वह भी उसी ओर जा रहा था।रोहना ने उससे कहा कि वह उसकी ईख के खेत से पत्ते बटोर ले।पहले तीजी तैयार नहीं हुई, पर पत्ते नहीं होंगे तो खाना कैसे बनेगा, यह सोचकर वह राजी हो गई।

दोनों साथ-साथ ईख के खेत में गए।रोहना ने ईख काटा और तीजी उसके पत्तों को छुड़ाने लगी।तभी रोहना ने उसे पीछे से पकड़ा।पहले उसे फुसलाने की कोशिश की।जब नहीं मानी तो जबरदस्ती करने लगा।वह चीखने-चिल्लाने और छटपटाने लगी।बहुत हाथ-पांव मारे, पर रोहना ताकतवर था और तीजी उससे आधी उम्र की।फिर रोहना ने ईख काटने के लिए लाया हुआ हंसुआ तीजी के गले पर रख दिया।उसकी धार गले में चुभने लगी।बाएं हाथ से हंसुआ दबाए उसने दाहिने हाथ से तीजी की पैंट को सरकाने की कोशिश की।उसी समय तीजी ने पूरी ताकत लगाकर उसके हाथ को झटका दिया।झटका इतना जोरदार था कि रोहना के हाथ का हंसुआ उसी के गले में धंस गया।वह दर्द के मारे चीखा।तीजी की देह से उलट कर नीचे गिरा और छटपटाने लगा।तीजी मौका पाते ही अपनी पैंट ऊपर खींचती हुई बेतहाशा भागी।

उसके बाद क्या हुआ तीजी को कुछ नहीं मालूम।उस समय आसपास के खेतों में काम करने वाले लोगों ने ईख के खेत में जोर से चीखने की आवाज सुनी।वहां जाकर उन्होंने देखा कि रोहना खून में लथपथ है।उसके गले में हंसुआ धंसा हुआ है।वे सब खाट पर लादकर उसे गांव में ले आए।रोहना की देह में कोई सुगबुगी नहीं थी।रोहना मर चुका था।उनलोगों ने तीजी को भागते हुए देखा था।अंदाज लगा लिया कि उसी ने रोहना का खून किया है।यह बात पूरे गांव में आग की तरह फैल गई।

सिपाही को तीजी की बात पर पूरा भरोसा हो रहा था।उसे पहले से ही लग रहा था कि तीजी रोहना का खून नहीं कर सकती।अब सारे घटनाक्रम को जानकर उसे तसल्ली हो गई और तीजी के प्रति ममता भी उमड़ आई।कुछ देर दोनों के बीच मौन छाया रहा।महिला सिपाही अब आगे की योजना के बारे में सोच रही थी।उसके मन में तीजी को बचाने की योजनाओं की कतार बनती और बिगड़ती रही।कुछ समझ में नहीं आ रहा था, पर यह तय था कि वह तीजी को उन राक्षसों के हाथों पड़ने नहीं देगी।चाहे उसके लिए उसे जो भी संकट उठाना पड़े।

महिला सिपाही की आंखों में एक संकल्प सुलग उठा।वह तमक कर उठी और तीजी का हाथ पकड़कर खड़ी हो गई।दोनों ने देखा, सूरज का लाल गोला पूरब से अपना तेज फैलाता हुआ उनकी ओर बढ़ा आ रहा है।