सी.एम.पी. कॉलेज, इलाहाबाद में हिंदी विभागाध्यक्ष

8 मार्च 1975 से अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष शुरू हुआ था। उस समय से 45 साल बीत गए। कहना मुश्किल है कि समाज में स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा कितनी हो पा रही है और अवहेलित स्त्रियां कितनी मुखर हो पा रही हैं। हमारे कथा साहित्य में व्यापक रूप से अवहेलित स्त्रियों का संसार उपस्थित है। लोकतंत्र के विस्तार ने अन्याय और उत्पीड़नों के कई रूपों की पहचान को कहानियों और उपन्यासों में संभव बनाया है। ये रचनाएं वंचित-उपेक्षित समुदायों पर ढाए गए अनसुने अत्याचारों और आवाजों को लेकर है। स्त्री-विषयक व्यथाओं एवं समस्याओं पर लिख रहे रचनाकार जब व्यापक द़ृष्टि से समाज को देखते हैं तो उन्हें लगता है कि स्त्रियों की समस्याएँ केवल परिवार के अंदर मौजूद पुरुषतंत्र से नहीं जुड़ी हैं, बल्कि उस बड़ी दुनिया से जुड़ी हैं, जहां पूरी व्यवस्था ही पितृसत्तात्मक शक्तियों से लैस है। पिछले सौ साल में पितृसत्ता की जो अवधारणा विकसित हुई है उसने स्त्रियों से जुड़े प्रश्नों पर बहस के राजनीतिक तथा सैद्धांतिक आधार दिए हैं। विवाह, इतरलिंगी संबंधों तथा परिवार द्वारा पितृसत्ता के लगातार पुनरुत्पादन का विश्लेषण करने में इससे मदद मिली है।

कहानी आज के वक्त की सर्वाधिक बेचैन विधा है, क्योंकि उसमें बेचैन मनुष्य की कथा है। हमारे समाज में जो भी समस्याएं हैं, वे प्राय: स्त्री से जुड़ी होती हैं। वह मध्यवर्ग या निम्न वर्ग की स्त्री हो, दलित हो, वेश्या हो, विधवा हो या थर्ड जेंडर से जुड़ी हो। समाज में स्त्री की दयनीय स्थिति का एक कारण उसका स्त्री होना है, दूसरे, उस पर संकीर्णता लादना भी है। पुरुष-वर्चस्व के चलते सदियों से स्त्रियां मानसिक और शारीरिक रूप से पीड़ित रही हैं, आज भी हैं। देश, समाज, समय और परिस्थितियों की भिन्नता के बावजूद हर जगह स्त्री वही है और सुख-दुख को महसूस करता उसका मन भी एक-सा ही है। आधी आबादी के लिए नियत इस दिन के प्रकाश में स्त्री और लेखन जुड़े महत्वपूर्ण बिंदुओं की सार्थक समीक्षा संवाद लेकर प्रस्तुत है. 

आज रचनाकार की मानसिकता बदल रही है, उसके पास अनेक विचार हैं। इसलिए अपने लेखन में वे एक तरह की ऑइडियोलॉजी से बंधे हुए नहीं दिखते। आकांक्षा पारे काशिव की कहानियों में अवहेलित स्त्रियों का संसार पाठकों की उत्सुकता को बढ़ाता है। ‘सखी साजन’ कहानी में वे लेस्बियन लड़की की बात करती हैं। लेकिन पूरी कहानी में ‘लेस्बियन’ या ‘होमोसेक्सुअल’ शब्द नहीं आता। बिना इस शब्द के वह अपनी बात पाठकों तक पूरी तरह पहुंचा देती हैं। उनकी कहानियों के सूत्रधार न कभी बयानबाजी करते हैं, न भाषण देते हैं। लेखिका द्वारा प्रस्तुत रिश्तों की महीन बुनावट सामाजिक विसंगतियों पर चोट करती है।

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की दैहिक शुचिता के ऐसे मानदंड गढ़े गए हैं, जहां देह प्रमुख है। स्त्री का मन और व्यक्तित्व गौण है। चित्रा मुद्गल की कहानी ‘प्रेतयोनि’ में अवहेलित लड़की के एक खास रूप को व्यक्त किया गया है। एक दुर्घटना के कारण एक लड़की की जिंदगी उसके लिए बोझ बन जाती है। अपने आत्मीय जनों की अवहेलना से उसके मन में आत्महत्या जैसे विचार भी आने लगते हैं। उसके बाबू जी कुशल अहेरी की भांति शुचिता-नैतिकता का ताना-बाना बुनते थे। इसलिए बेटी की शारीरिक चोटों को सहलाने के बावजूद उसे मानसिक आघात पहुंचा रहे थे। अनीता कहती है, ‘मैं किसी को फोन नहीं कर सकती।’ उसने अपने भीतर प्रतिवाद किया, ‘हिलने-डुलने, सांस लेने के लिए मुझे तुम्हारी अनुमति चाहिए।’ मूक आक्रोश से उसकी पूरी देह थर्रा उठती है, किंतु उसके होठों पर सिवाय दयनीय फड़कन के कुछ और नहीं होता ‘क्या हो गया है उसे? क्या हो रहा है? वह कुछ बोलती क्यों नहीं?’

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जीवनयापन करनेवाली स्त्री सामाजिक उत्पीड़न के दंश को हमेशा सहन करती आई है। वह शोषित ही नहीं, अवहेलित और उपेक्षित भी रहती है। देखा गया है कि स्त्री मुक्ति के साथ यौन हिंसा भी बढ़ी है। जब स्त्रियां अपने ही घर में अपने ही संबंधियों के बीच भयभीत, आतंकित और असुरक्षित हो जाएं तो उसे न सम्मान से जीने का रास्ता सूझता है, और न गुमनाम मरने का। बलात्कार की संस्कृति के सहारे पितृसत्ता अजर-अमर नजर आती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ की ‘फाँस’ कहानी की नायिका का बलात्कार उसके पिता द्वारा ही किया जाता है। कहानीकार ने कहानी की मुख्य पात्र अंतिमा का कई स्तरों पर शोषण दिखाया है। जब वह पैदा हुई, दादी पछाड़ मारकर रोई थीं। पिता घर छोड़कर चले गए थे। वैद्य की पांच सौ की दवा खाने के बावजूद मां ने चौथी लड़की को जन्म दिया था। मां की मृत्यु के बाद उसका जनक अपनी हार, हताशा और अकेलेपन के गर्त को शराब से पाटते हुए रिश्तों को शर्मसार करता हुआ, उसे अंदर और बाहर से खाली कर रहा था। अंतिमा का दबंग लापरवाह विद्रोही व्यक्तित्व का बाहरी आवरण कांच की गुड़िया की तरह टूट रहा था। वह अपने को दांतों के बीच जीभ की तरह बचाकर रखती थी। जरा-सी असावधानी से वह कभी कट जाती तो कभी बच भी जाती। उसके भीतर एक फाँस-सी चुभी थी। एक ऐसी फाँस जिसे लगातार कुरेदकर भी उससे निजात पाना संभव नहीं था। लेखिका ने अंतिमा के त्रासद जीवन का मार्मिक अंकन किया है। कथा के दो सूत्र वाक्य उसे उद्वेलित करते रहते हैं, ‘यू चिनी जाती हैं गालियों में लड़कियां/कोई रिश्ता उनके अख़्तियार में नहीं रहता।’

मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों स्त्री-जीवन के तमाम धूसर-बदरंग हिस्सों, परंपरा की जड़ हदबंदियों, वर्जनाओं, अंधेरे में धकेल दिए गए स्वप्नों, अनचाहे रिश्तों का संसार है। उनकी ‘कठपुतलियाँ’ की सुगना, ‘कुरजां’ की डाकण, ‘ठगिनी’ की गूंगी बना दी गई कंचन, ‘कालिंदी’ की जमुना, ‘ओ मरियम’ की अरूसा, ‘रक्त की घाटी’ की गज़ाला, लुबना और गुलवाशा, ‘लापता तितली’ की मनाली, ‘केयर ऑफ स्वात घाटी’ की सुगंधा आदि की जिंदगियां ऐसी ही हैं।

हमारा समाज कठपुतलियों के निर्माण की प्रयोगशाला है, जहां स्त्रियां पैदा तो कन्या के रूप में होती हैं, पर अधिकांश बाद में कठपुतली बना दी जाती हैं। हमारे देश में काठ की कठपुतलियां कम, जीवित कठपुतलियां अधिक हैं। ‘ठगिनी’ कहानी में ऐसी कौन सी विवशता थी कि बिटिया के जनम लेते ही उसे फिंकवाते हुए सरमण एक बार भी नहीं सोचता? इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ‘रानी सती की सौगंध’ खानेवाला और ‘कुलदेवी की पूजा करनेवाला’ समाज नवजात कन्या के कंठ में नमक ठूंस कर थूर के जंगलों में फिंकवाता है।

स्त्री की अवहेलना और उसका शोषण आज कई सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं, संस्थाओं और साहित्यिक-कलात्मक मामलों में मौजूद हैं। उनकी पहचान करने मेें सक्षम होने के बावजूद स्त्री अपने को शोषित होने से नहीं बचा पा रही है। अनिता गोपेश एक सशक्त कहानीकार हैं। उनकी ‘एक स्त्री : कई कहानियां’ में मधूलिका का चरित्र  कई पहलुओं के साथ व्यक्त हुआ है। पुरुष-सत्तात्मक समाज किस प्रकार चरित्र हनन से स्त्री के हौसलों को पस्त करता है, यहां देखा जा सकता है। इस तरह भी स्त्री समाज द्वारा अवहेलना का शिकार बनती है। औरत को कई बार सेक्सी कहा जाता है। इसके लिए औरत कई बार रिश्तों का भी ख्याल नहीं रखती। मधूलिका कहती है, ‘इट्स आल ए गेम ऑफ यू सेकेण्ड्स।’ यह कहने का साहस उसमें है।

स्त्री और पुरुष लेखन में अंतर है। जो मधूलिका मर्दों को हाथ नहीं लगाने देती, वही हिप्पोक्रेट, लेस्बियन, निम्फोमैनिज्म और न जाने कितने विशेषणों की मार सहती है। आधुनिक परिवेश में एक महत्वाकांक्षी स्त्री, अपने अस्तित्व को बयां करने वाली स्त्री घोर नैराश्य में डूब जाती है। उसे सामाजिक अवहेलना झेलनी पड़ती है। इस कहानी की नायिका न ‘मैं’ को बचा पाती है और न परिवार को। एक अनुत्तरित प्रश्न छूट जाता है, ‘आखिर प्रेम को गंवाकर कलंकिनी और विरहिणी होने का दर्द स्त्री ही क्यों भोगती है, जबकि प्रेम की जरूरत तो स्त्री-पुरुष दोनों को है। धर्म, कर्मकांड परंपरा और भारतीय संस्कृति वह हथियार है जो सक्षम स्त्री को बांधने का कार्य करता है। डायन और बॉयन जैसी रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर आधारित मान्यताएं भी स्त्री को सामाजिक अवहेलना का शिकार बनाती हैं। आखिर पुरुष क्यों अवहेलना का शिकार नहीं बनता?

महाश्वेता देवी सामाजिक विसंगतियों को व्यक्त करने वाली जागरूक कहानीकार है। ‘बॉयेन’ कहानी की प्रमुख पात्र चंडी सभी मानवीय अधिकारों से वंचित कर दी जाती है। चंडी को गांव से बाहर कर दिया जाता है। कथाकार ने अंधविश्वासों से घिरे पिछड़े, अछूत और दलित समाज की मान्यताओं को निर्मम ढंग से अनावृत किया है। जिस अंधविश्वासी समाज ने स्त्री से मनुष्य होने का हक छीनकर घर, समाज से बहिष्कृत कर दिया, उसी उसी समाज के लिए वह अपने प्राणों को न्यौछावर कर देती है!

जयश्री रॉय मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करनेवाली सशक्त कथाकार हैं। उनका कहानी संग्रह ‘मोहे रंग दो लाल’ में गहन संवेदना को दर्शानेवाली कहानियां हैं। विधवाएं समाज में सबसे अधिक अवहेलित और दयनीय स्थिति में होती हैं। विधवा स्त्री समाज का ऐसा वर्ग है, जिसकी जिंदगी में कोई राग-रंग नहीं होता। वह अपने जीवन के अँधेरे कोने में सिसकती रहती है।

जयश्री रॉय की कहानी ‘मोहे रंग दो लाल’ में विधवा जीवन का नैराश्य, जिंदगी का फीकापन, शून्यता और रिक्तता को सूक्ष्म द़ृष्टि से उकेरा गया है। वे लिखती है, ‘हर तरह से असहाय, निराश्रित औरतें किसी के लिए भी सहज शिकार होती हैं। कल भी और आज भी। सब कहते हैं समय बदला है। स्थिति बेहतर हुई है, मगर कहां! कहीं भी जाओ, किस्मत तो जाएंगी ही।’ उमा ब्राह्मणी है। उसके माध्यम से कहानीकार ने आश्रम वालों द्वारा वेश्यावृत्ति करवाने को भी दिखाया है। उमा के जरिए उच्च जाति के गुरूर तथा जातिगत श्रेष्ठता के झूठे गुमान को भी दिखाया गया है- ‘उमा उसे एक जमींदार की मदद से आश्रम के कमरे में उठा लाई है। चारों तरफ बैठी-लेटी हुई विधवाएँ उसे उदासीन भाव से देख रही थीं। यहां सबकी आंखें एक-सी थीं, -भावहीन निर्लिप्त। यहाँ रोग-शोक कोई अनहोनी नहीं, वरन दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा है। कोई न कोई हर समय किसी कोने में पड़ी कराह रही है। मृत्यु की प्रतीक्षा में जी रही है।’

स्त्री जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी यह है कि पुरुष उसके अस्तित्व को नकारता है। अगर वह स्वीकार करता है, तो जबतब अपमान और तिरस्कार भी करता है। यह पीड़ा और टीस उस वक्त और बढ़ जाती है जब अपमान घरपरिवार के पुरुष या आत्मीय जनों द्वारा किया जाता है। भारतीय समाज के अधिकांश परिवारों की स्त्रियां ऐसे उत्पीड़न और अवहेलना की शिकार हैं एवं अस्तित्वहीनता के बोध के साथ ही जीती हैं। जयश्री रॉय की कहानी ‘जब पंछी उड़ना भूल जाते हैं’ में नायिका अपने पति और पुत्र द्वारा ही अवहेलित की जाती है।

जयश्री राय की सभी कहानियां कथ्य एवं संवेदना की द़ृष्टि से बहुत प्रभावित करती हैं। देश-विदेश की संस्कृति, परंपराएं, वेश्याओं का जीवन, विधवाएं, मल्टीपल पर्सनालिटी, मोबाइल के बढ़ते प्रयोग से दरकते-सुलगते रिश्ते, प्रेमिका के रूप में पुरुष वेश्या से प्रेम जैसे विविध यथार्थों से जुड़ी उनकी कहानियां पाठकों को आकर्षित करती हैं। केवल पितृसत्तात्मक समाज ही स्त्री के अस्तित्व को नहीं नकारता, बल्कि परिवार, समाज और सेवामूलक विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की बहुत सी चीजें मिलकर स्त्रियों के पूरे व्यक्तित्व को नष्ट कर देती हैं, उसमें बांध बना देती हैं। ‘निर्वाण’ में जयश्री रॉय ने थाईलैंड की चकाचौंध और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से प्रारंभ कर बोध गया तक पहुँची एक वेश्या से प्रेम को बयां किया है। यात्रावृत्तांत और संस्मरण विधाओं को जोड़कर लेखिका ने इस कहानी में थाईलैंड की संस्कृति, देह-व्यापार से जुड़ी छोटी-बड़ी बातों को उद्घाटित किया है। प्रेमी अनेक प्रयास करने पर भी अपनी प्रेमिका को देह व्यापार से बाहर नहीं निकाल पा रहा है, क्योंकि वह उसके बड़े परिवार का आर्थिक पोषण करने में असमर्थ है।

आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता खोई अस्मिता की तलाश है। अनिल यादव का कहानी संग्रह ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ अनेक संभावनाओं को व्यक्त करता है। इस कहानी संग्रह में अवहेलित स्त्रियों का संसार सीमित नहीं है। उसके कई आयाम हैं। ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ में बनारस के मड़ुआडीह मुहल्ले की वेश्याओं को आधार बनाया गया है। इस कहानी में वेश्याओं के उपेक्षित संसार, उनकी जमीनों पर नजर गड़ाए भू-माफिया के षडयंत्र और मीडिया के स्वरूप का यथार्थ अंकन है। इस कहानी में सभ्यता की विकृति  ढो रहे वेश्याओं की यातना भरी जिंदगी अंकित की गई है। इसमें विस्थापन की भी समस्या है। रिपोर्टर से अखबार का मैनेजर कहता है- ‘कुल साढ़े तीन सौ रंडियों, जिनमें से कुल मिलाकर शायद साढ़े तीन होंगी जो अखबार पढ़ती हों, ऐसे में यह सब छापने का क्या तुक हे?’ यह कहानी मार्मिक विकल्पहीनता को सामने लाती है। इसमें बनारस की धार्मिक संस्कृति में मौजूद नगरवधुओं के नैरेटिव को प्रस्तुत किया गया है। वे पूरे नगर की वधुएं थीं। अब माफिया द्वारा अपने मुनाफे के लिए उन्हें नगर से निकाला जा रहा है। यह कहानी हमारे समाज के सर्वाधिक विडंबनामूलक तबके के विस्थापन की है। इसी समाज में ईमान का धंधा करनेवाले देह के ग्राहक और ठेकेदार भी हैं। जनसंचार माध्यमों के लिए मनुष्यों के जीवन से ज्यादा मूल्यवान टी.आर.पी. और सर्कुलेशन है, विज्ञापन है, शेयर है। इस मनुष्य-विरोधी समय में सब कुछ आर्थिक अस्तित्व से जुड़ गया है।

कहानी रोज के देखे-भाले समाज को एक नई आंख से देखने का हुनर है। यह आकुलता के साथ समाज व्यवस्था से मुठभेड़ करती है। यह जड़ता समाज के उर्वर तत्वों को बचाए रखने की जद्दोजहद भी है। अल्पना मिश्र की कहानी ‘स्याही में सुर्खाब के पंख’ पढ़ते हुए स्त्री की तड़प कहीं न कहीं बेचैन कर देती है। कथाकार ने कहानी को दो खूंटों से बांधा है। एक ओर सोनपति बहन जी और दूसरी ओर वैशाली सारस्वत उर्फ चड्ढा। सोनपती बहन जी अपनी मासूमियत और अंधनिष्ठा के साथ जिस तरह हिंसा को एक आवश्यक मूल्य की तरह अपने जीवन में शामिल करती है, वह संवेदना के चुकने का प्रतीक है। इसमें बेटियों को लक्ष्मण रेखाओं में घेरने का प्रशिक्षण दिया जाता है। लड़कियां जीवन के इस बड़े खेल में कहीं भी जीवित नहीं है। वे संख्या (आंकड़े) हैं या देह। इसलिए झुलसते रहना उनकी नियति है, पैर से लेकर हृदय तक। जब चारों बेटियां एक साथ अग्नि-स्नान का निर्णय लेती है, तब उनकी मृत्यु महज एक खबर या हादसा नहीं होती। यह व्यवस्था को जांचने-परखने की जरूरत बन जाती है। सोनपती बहन जी अपनी बेटियों का मन पढ़ नहीं पाई। खुद को जीवन से बेदखल करती ऐसी लड़कियां शंख-घड़ियाल-धूप-पुष्पहार से सजे सांस्कृतिक समारोह में ‘तेजोमय सती’ कहकर महिमामंडित की जाती हैं।

समाज की मुख्यधारा से विलग ‘किन्नर समाज’ पर विचार करना भी आवश्यक है, क्योंकि यह वर्ग सामाजिक अवहेलना कम नहीं झेलता। जन सामान्य इनसे सामाजिक संपर्क नहीं रखना चाहता। यह वह वर्ग है, जो शारीरिक रूप या यौनिक अंगों के विशेष संदर्भ में अपूर्ण होता है। उसकी देह का उसके अंत:करण के भावों के साथ तालमेल नहीं होता, अर्थात पुरुष की देह में स्त्रीयोजित गुण होते हैं या स्त्री की देह में पुरुष देह जैसी मांसलता होती है।

आज ‘तीसरे जेंडर’ के अस्तित्व की समस्या पूरे विश्व की समस्या बन गई है। किन्नरों का तिरस्कार सर्वप्रथम परिवार से प्रारंभ होता है, जिसके कारण ये अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर होते हैं। किन्नर होने का अर्थ है- समस्त रिश्तों का समापन। हमारे समाज में किन्नरों के साथ धार्मिक एवं व्यावहारिक द़ृष्टि में बड़ा अंतर है। एक ओर उन्हें धार्मिक द़ृष्टि से पवित्र स्थान दिया जाता है, दूसरी ओर व्यावहारिक द़ृष्टि से इनके साथ अत्यंत हेय व्यवहार किया जाता है। इधर अनेक कहानियों और उपन्यासों में किन्नर जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।

फिल्मों में किन्नरों का प्रसंग संजीदा चरित्र से ज्यादा हास्य-व्यंग्य के रूप में दिखाई देता है। किन्नरों के जीवन से संबंधित ‘वेल्कम टू सजानपुर’ (श्याम बेनेगल) ‘सड़क’ (महेश भट्ट), ‘संघर्ष’ (तनुजा चंद्रा), ‘तमन्ना’ (महेश भट्ट), मस्त कलंदर (राहुल खेल), ‘फायर’ (दीपा मेहता) जैसी फिल्में महत्वपूर्ण हैं।

कहानियों एवं उपन्यासों में किन्नरों के जिस  अवहेलित संसार की बात उठाई गई है, वह उनकी दयनीय स्थिति के रेखांकन के साथ मुख्यधारा से जोड़ने का भी प्रयास है। चित्रा मुद्गल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203, नाला सोपारा’, महेंद्र भीष्म का उपन्यास ‘किन्नर कथा’ एवं ‘मैं पायल’, प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’,  निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’, सुभाष निखिल का उपन्यास ‘दरमियाना’, तथा भगवंत अनमोल का ‘जिंदगी 50-50’ का उल्लेख किया जा सकता है। उपन्यासकार महेन्द्र भीष्म ने ‘किन्नर कथा’ में हिजड़ों की मनोदशा और व्यथा का चित्र खींचा है। निर्मला भुराड़िया ने ‘गुलाममंडी’ में समाज में दीर्घकाल से हाशियाकृत हिजड़ा समुदाय की गाथा के साथ-साथ ह्यूमन ट्रैफिकिंग जैसी अंतरराष्ट्रीय समस्या पर भी विचार किया है। यह मूलत: मनुष्यों की खरीद-फरोख्त से भी जुड़ा है। यह वेश्यावृत्ति, फिल्म उद्योग, एड्स रोगियों, मनोचिकित्सक का काम करते बाबा मिलारेपा, लक्ष्मी, जानकी, मोहन और इन सबके साथ किन्नर रानी और अंगूरी की कथा है। भगवंत अनमोल का उपन्यास ‘जिंदगी 50-50’ में किन्नरों की अधूरी जिंदगी की पूरी दास्तान है। इसमें उनके मन की तहों को उजागर करते हुए कई सवाल खड़े किए गए हैं। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद हमारी संवेदना किन्नरों के साथ जुड़कर मानवीय सोच को प्रगाढ़ करती है। यह उपन्यास सिर्फ किन्नरों के दुख-दर्द, संघर्ष और समस्या को ही नहीं उकेरता बल्कि शारीरिक कमी से जूझते अनाया जैसे लोगों के दर्द को भी बया करता है।

कुछ कहानियों को लें। संस्मरणात्मक शैली में लिखी गई संजय दुबे की ‘पन्ना बा’ कहानी में यह द़ृष्टिगत होता है कि किन्नरों को जीते जी तो अपमान सामना करना पड़ता ही है मृत्यु के बाद भी उनके मृत देह के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है।  कुसुम अंसल की कहानी ‘ई मुर्दन का गांव’ में लैंगिक विकृति से पीड़ित लोगों की व्यथा को उजागर किया गया है। किरण सिंह की ‘संझा’ कहानी में समाज के उस मनोवैज्ञानिक सोच को दिखाने का प्रयास है, जिसमें यदि कोई बच्चा किन्नर है, तो उसे कितनी अवहेलना झेलनी पड़ती है। कृष्णा सोनी ने ‘हिजड़ा’ कहानी में किन्नरों की ममता और मानवीयता की अभिव्यक्ति है। विजेंद्र प्रताप सिंह और रवि कुमार गोंड द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर की कहानियां’ में संकलित 22 कहानियां पितृसत्तात्मक समाज का किन्नरों के संदर्भ में पुनर्मूल्यांकन करती है। कहानीकार-संपादक ने बातचीत के दौरान बताया कि किन्नर समाज को नजदीक से देखने के बाद जो उनके प्रति संवेदना जागृत हुई, उसी से उनके बीच जाकर उनकी स्थिति को जानकर उनके बारे में लिखने का विचार जागृत हुआ। ऐसी कहानियां और संग्रह साहस के द्योतक हैं।

अवहेलित किन्नरों के जीवन को सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में देखा जा सकता है। एम. फिरोज खान द्वारा संपादित ‘थर्ड जेंडर : अनूदित कहानियां’ में पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती एवं बंगला भाषा से हिंदी में अनूदित कहानियां हैं। मुझे रजनी मोरवाल की कहानी ‘पहली बख्शीश’ तथा ललित सिंह राजपुरोहित की कहानी ‘ट्रांसजेंडर’ भी बहुत अच्छी लगी जो ‘सरस्वती’ पत्रिका में छपी है। राजपुरोहित की कहानी में थर्ड जेंडर और ट्रांसजेंडर के महीन अंतर को प्रमुख पात्र कुमुद रेखांकित करती है- ‘ट्रांसजेंडर वे होते हैं जो आमतौर पर यह महसूस करते हैं कि वे गलत भौतिक शरीर में पैदा हो गए हैं। उनमें यह धारणा घर कर जाती है कि वे समाज की उम्मीदों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। दूसरी ओर, जो लोग न तो पुरुष होते हैं और न महिला, उन्हें थर्ड जेंडर के नाम से पुकारा जाता है।’

अवहेलित स्त्रियों का संसार बहुत विस्तृत है। साहित्य अपने आस-पास की हलचलों, परिवेशीय घटनाओं तथा दबाए स्वरों को वाणी देकर दस्तावेजित करता है। हमारे समाज में स्त्री हो या किन्नर, सभी के लिए धार्मिक, सामाजिक एवं व्यावहारिक द़ृष्टियां भिन्न-भिन्न होती हैं। ये खासकर अवहेलित स्त्रियां समाज के मध्य रहकर भी हाशिए का जीवन जीने को विवश होती हैं। स्त्री चाहे जिस स्थिति में हो- गृहिणी, कामकाजी, कन्या भ्रूण, विधवा, वेश्या, किन्नर या ट्रांसजेंडर वह समाज में कहीं-न-कहीं, अवहेलना और शोषण का शिकार होती है, वास्तविकता यही है।

जिज्ञासा : अवहेलित स्त्रियों के मनोविज्ञान को आप किस रूप में देखती हैं।

जयश्री राय : मैंने हर तरह के समाज को देखा है। हर तबके का अपना सच होता है। कामकाजी महिलाओं और व्यक्तियों को लगता है सब ठीक है, किंतु बहुजन के सच को परखें तो सच्चाई कुछ और है। मुझे लगता है कि गोवा के समाज में स्त्री को सब कुछ हासिल है, किंतु घर में घरेलू काम करनेवाली बाई अपने पति से रोज पिटती है। आजादी कहीं नहीं है। लोग कहते हैं कि मैं निराशा की कहानी क्यों लिखती हूं। मेरा मानना है, यह सचाई  है। स्त्री की डोर किसी और के हाथ में है, पतंग ऊंची उड़ान तो भरती है, किंतु कभी भी गिर सकती है।

जिज्ञासा : मोहे रंग दो लालकहानी में वैधव्य की पीड़ा को आज भी इतने मार्मिक ढंग से व्यक्त करने का क्या कारण है?

जयश्री राय : ‘मोहे रंग दो लाल’ कहानी में मैंने जो वर्णन किया है, वह बचपन का देखा हुआ है। मैं अन्य लेखिकाओं से अलग विषय उठाना चाहती थी। इसलिए विधवाओं की सामाजिक एवं संपत्ति के अधिकार से वंचित करने की राजनीति को समझना और व्यक्त करना जरूरी लगा। धर्म, परंपरा के आश्रय में विधवाओं का दैहिक शोषण होता है। त्योहार, रस्मोरिवाज, उत्सव पर जब सभी हर्षोल्लास में होते हैं, तब उनमें भी बलवती इच्छा होती है, पर उसका दमन करना पड़ता है। समाज की विडंबना है कि सब कुछ नकार कर हम जीते हैं। इसी से पाप और अपराध बढ़ते हैं।

जिज्ञासा : मोबाइल के बढ़ते प्रयोग से भी रिश्ते दरक रहे हैं, इस पर आप क्या कहना चाहेंगी।

जयश्री राय : समय के साथ नई-नई समस्याएं आती हैं, जो सभी के जीवन को दुश्वार कर दती हैं। सोशल मीडिया ने जीवन में उलझन पैदा कर दी है। प्रौढ़ महिलाओं का यह आत्म छलावा है, जो उन्हें लाइक एवं कमेंट्स में खुश रख रहा है। ये कुंठाएं हैं। मेरी ‘फेसबुक’ कहानी में यह समस्या देखी जा सकती है। स्त्री की इच्छाएं जब बलवती होती हैं, तो इन्हें कैद में रख देना पड़ता है। हमेशा स्त्री को ही सतीत्व साबित करने का प्रचलन रहा है।

 

समीक्षित पुस्तकें

(1) मोहे रंग दो लाल : जयश्री राय, वाणी प्रकाशन, 2017 (2) थर्ड जेंडर : अनूदित कहानियां : एम. फिरोज खान, अनुसंधान पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2017 (3) थर्ड जेंडर की कहानियां : विजेंद्र प्रताप सिंह, रवि कुमार गौड ए.बी.एस. पब्लिकेशन, 2020

 

सरोज सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर (हिंदी), सी.एम.पी. कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद मो.9415616083/ ई-मेल : sarojsingh65@gmail.com