वरिष्ठ लेखक, भाषाविद और अनुवादक। संपादन –‘हिंदी का भविष्य’।
ऐंबुलेंस की आवाज से ही लग गया कि रवि जी नहीं रहे। गांव में घुसते ही तीसरा घर था रवि जी का। घर से लगभग आधे किलोमीटर दूर बड़ी सड़क से निकलकर एक छोटी सड़क जहां गांव की ओर मुड़ती थी, उसी कोने पर उनकी चाय-नाश्ते की दुकान थी। दुकान का नाम रखा था चटपटा।
दरअसल रवि जी खुद भी एक चटपटे व्यक्ति थे। हमेशा मुस्कराते रहते। अधिकांश बातें वे तुकबंदी में करते। यही नहीं, कोई भी बात करते तो सुनने वालों की आंखों में आंखें डालकर, बल्कि अगल-बगल खड़े या बैठे अनजान लोगों की ओर भी ऐसे देखते मानो पुराना परिचय हो। जिसकी ओर देखकर बोलते वह अचकचा जाता। थोड़ी अचकचाहट के बाद वह सहज हो जाता और खिल उठता। अनायास परिचय हो जाता।
आज वही रवि जी नहीं रहे। 22 दिन अस्पताल में भरती रहने के बाद आज उन्होंने अंतिम सांस ली। गांव में हलचल हुई, क्योंकि रवि जी सबके प्रिय थे। उनका किसी से बिगाड़ नहीं था। उनके नहीं रहने का गम सबको हुआ। हालांकि लोगों को पहले से मालूम था कि वे बच नहीं पाएंगे। कैंसर से कौन बचता है भला! रवि जी को छह महीने पहले ही इस बीमारी का पता चला था। कोलन कैंसर। दवा हो रही थी। बीच-बीच में अस्पताल में भरती होते, फिर घर आ जाते। थोड़ा भी ठीक रहते तो दुकान जरूर जाते। लोगों के बीच मन बहल जाता।
घर में पत्नी के अलावा कोई नहीं था। मां की काफी पहले मृत्यु हो चुकी थी। पत्नी भी कई असाध्य बीमारियों को लंबे समय से भोग रही थी। बिछावन पर पड़ी रहती। किसी तरह नित्यक्रिया कर पाती। रवि जी खुद ही खाना बनाते, यथासंभव पत्नी की सेवा करते। माली हालत ऐसी नहीं थी कि पत्नी को लगातार अस्पताल में भरती रखते या घर में पूरे समय के लिए आया रख लेते। गांव में आया मिलती कहां है! एक मददगार के रूप में कजरी की माई मिली थी, जो रोज घर में झाड़-बुहार और बरतन-बासन कर जाती। रवि जी के प्रति उसके मन में सहज स्नेह था। पिछले कई वर्षों से वह एक ही वेतन पर काम करती आ रही थी। कभी वेतन बढ़ाने के लिए आग्रह नहीं किया। रवि जी को खाना बनाते देखती तो कभी-कभी बिना कहे कुछ ऊपर का काम कर देती। रवि जी को थोड़ी सुविधा हो जाती।
शव को ऐंबुलेंस से उतार कर खटिया पर सुला दिया गया। गांव से ननकू, भोला, बच्चू, मंगल आदि जुट गए। कुछ लोग बांस और लकड़ी काटने चल पड़े। गांव के अन्य लोग रवि जी के शवदाह से लेकर तेरही तक श्राद्ध के बारे में सलाह-मशविरा देने में व्यस्त हो गए। आपसी खींचतान, स्वार्थ, ईर्ष्या-द्वेष, बड़े-छोटे के भेदभाव जैसी तमाम बुराइयों के बावजूद गांव में इतना लोकाचार बचा था कि मरनी-हरनी में लोग बिना कहे आगे बढ़ आते थे, भले थोड़ी कांट-छांट रहती। घंटे-डेढ़ घंटे में ही बांस कटकर आ गए, अरथी बन गई। आम और जामुन की सूखी लकड़ियाँ भी जलाने के लिए आ गईं। थोड़ा पुआल भी किसी ने दे दिया। रवि जी को कफन में लपेट कर अरथी पर सुला दिया गया। टैंपू पर अरथी और लकड़ी के साथ दस-पंद्रह आदमी मंजिल के लिए सवार हो गए।
रवि जी की उम्र साठ के आसपास होगी। लगभग तीस-पैंतीस साल से वे यह दुकान चला रहे थे। इसी की कमाई से उन्होंने अपने इकलौते बेटे को इंजीनियर बनाया है। वे खुद बीए पास थे। जब तक पिता जी जीवित थे नौकरी ढूँढ़ने की लगातार कोशिश करते रहे। अपने निकटवर्ती शहर, राज्य की राजधानी से लेकर दूसरे राज्यों में हाथ-पैर मारे पर कहीं ठौर नहीं लगा। एक जान-पहचान के आदमी के पास रहकर मुंबई में जब नौकरी के लिए भटक रहे थे, तभी घर से खबर आई कि पिता जी नहीं रहे। भागे-भागे घर आए। श्राद्ध आदि से उबरने के बाद फिर से चिंता सवार हुई कि जीविका कैसे चले। पिता जी की जोर-जबरदस्ती से बीए पास करते ही शादी हो गई थी। घर में मां और पत्नी। रहने को घर था, पर तीन व्यक्तियों का भोजन-कपड़ा आदि कहां से चलता! थोड़ी बहुत जमीन-जायदाद थी, लेकिन उससे परिवार का सारा खर्च चलना मुश्किल था। तय हुआ कि एक बार फिर बाहर जाकर किस्मत आजमाई जाए। इस बार एक होटल में कैश-काउंटर पर बैठने की नौकरी मिल गई। होटल में खाने-पीने से लेकर चाय-नाश्ते की चीजें मिलती थीं। शुरू-शुरू में अच्छा चला।
एक दिन अचानक उनकी नजर होटल में चलने वाले गोरखधंधे पर पड़ी। एक ग्राहक के प्लेट से बचे हुए जूठे सामान को फिर से साथ–सुथड़ा करके दूसरे ग्राहक को परोसते देखकर उनका मन घिना गया। छिः आदमी पैसे के लिए कितना गिर सकता है! किसी का जूठा खाना दूसरे को देना, और फिर उसे कोई बीमारी भी तो हो सकती है! न, इस पाप की कमाई के वे हिस्सेदार नहीं बनेंगे। आदमियम मरी नहीं थी। भागे–भागे गांव वापस आ गए।
अब ज्यादा माथा-पच्ची किए बिना उन्होंने मां और पत्नी के मशविरे से एक दुकान लगा ली। एक महीने की नौकरी में चाय-नाश्ता बनाने का तौर-तरीका सीख लिया था। दुकान ठीक-ठाक चल निकली। दुकान से थोड़ा हटकर एक प्राइमरी और मिडिल स्कूल था, जिसके शिक्षक चाय-पान-सिगरेट के लिए आते तो बच्चे समोसा, जिलेबी, कचौड़ी के लिए। गांव भी पास था। इसलिए गांव के ग्राहक भी प्रायः चाय-नाश्ते के लिए आते रहते।
रवि जी जो भी कमाते उससे किसी तरह बचा-खुचा कर बेटे की पढ़ाई में लगाते। फल भी मिला। बेटा सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया और सिकंदराबाद में एक अच्छी नौकरी पर भी लग गया। नौकरी लग गई तो उसने वहीं साथ काम करने वाली एक लड़की से शादी कर माता-पिता को सूचना दे दी, अनुमति लेने की जरूरत नहीं समझी। एक बार भी पत्नी को लेकर गांव नहीं आया, क्योंकि गांव के इस घर और माहौल को दिखाकर पत्नी की नजर में स्वयं को गिराना नहीं चाहता था। वर्षों बीत गए हैं उसे गांव आए। साल-दो साल में कभी-कभार खबर ले ली इतना ही उसकी दृष्टि में काफी था। अफरात कमाने के बावजूद अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाती थीं, फिर माता-पिता को आर्थिक मदद करने का प्रश्न कहां था। दुकान से चल ही जाता होगा, अब पढ़ाई पर तो खर्च नहीं है, यही सोचता।
रवि जी ने अपने मान की रक्षा की और बेटे के सामने कभी हाथ नहीं पसारा। कैंसर होने पर भी नहीं। भले ही मृत्यु आ जाए। और वह आ गई। मुरदा दरवाजे पर पड़ा है।
सामान्यतः गांव में किसी के मरने पर लोग शव को गांव में ही या गंगा किनारे ले जाते हैं, क्योंकि विकास के तमाम दावों के बावजूद गांवों में अभी भी शवदाह के लिए कोई इलेक्ट्रिक या लकड़ी शवदाह-गृह नहीं बना है। गंगा किनारे ले जाना खर्चीला मामला होता है, इसलिए आर्थिक तंगी झेलने वाले परिवार गंगा किनारे जाने से बचना चाहते हैं। परंतु धार्मिक कुसंस्कारों से बंधे गांव के लोग घर वालों के आनाकानी करने पर भी जोर डालते हैं, कथा-पुराण सुनाने लगते हैं। ‘अरे, ऐसी भी क्या कंजूसी! कौन काशी-बनारस ले जाने को कह रहे हैं, कम से कम गंगा किनारे तो ले चलो! जीवन में जो किया-धिया, अंत समय गंगा मइया के पास जाकर आत्मा का उद्धार हो जाएगा!’ ऐसे उपदेश सुनकर और गंवई मान-प्रतिष्ठा से पराभूत घर वाले तैयार हो जाते।
थोड़ी भी सामर्थ्य वाले लोग गंगा किनारे शवदाह करने में गौरव बोध करते। गांव में जहां-तहां चचा होती। घर वाले का सीना तनता रहता। उधर गांव के कुछ लोगों का इसमें स्वार्थ भी होता। शव के साथ जाने वाले मंजलिया लोग शवदाह के बाद गंगा में नहाते और बाजार में छक कर खाते। मिठाइयां विशेषकर इस अवसर पर परोसी जातीं। गांव के कुछ लोग तो मंजिल जाने के नाम से ही चहक उठते और ऐसा कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते।
परंतु इस समय स्थिति दूसरी है। रवि जी को गांव के अंतिम सिरे पर एक तालाब के किनारे बने श्मशान घाट ले जाया गया। कई गांवों के बीच आपसी परामर्श से मुरदों को जलाने के लिए एक जगह तय कर दी गई है। वहां एक वटवृक्ष है। पेड़ से जरा हटकर श्मशानकाली की एक मूर्ति बैठा दी गई है। एक पिंड भी बना दिया गया है, जिसपर कुछ अक्षत, रोरी और कनेर आदि के फूल बिखरे रहते हैं। पहले यहां कोई रहता नहीं था। लोग मुरदे को ले जाते, जलाकर घर वापस आ जाते। पर अब वहां एक झोपड़ी बन गई है, जहां श्मशान का स्वैच्छिक मालिक रहता है। नाम है दिनेश। दरअसल गांव के कुछ निठल्लों ने दिनेश को श्मशान से होने वाली आमदनी की कुछ झूठी-सच्ची कहानियां सुनाईं, प्रलोभन दिया और श्मशान में रहने को तैयार कर लिया। इसमें गांव और आसपास के दो-चार छुटभैये और एकाध बड़भैये भी स्टेक-होल्डर बन गए। सबकी मिली-भगत से यह एक धंधा बन गया है। दिनेश और उसके कुछ निठल्ले साथियों के अभावग्रस्त जीवन ने आमदनी के इस जरिए को धूमधाम से अपना लिया है। दरअसल इन लोगों ने देखा है कि गंगा किनारे जब लोग शवदाह के लिए जाते हैं तो वहाँ के ठेकेदार परिवार वालों से पैसे लेकर मुरदा जलाने की अनुमति देते हैं, और एक रिवाज के अनुसार शव जलाने के लिए आग देते हैं, जिससे मुरदे को जलाया जाता है। इस पूरी कार्रवाई में खूब दर-भाव होता है। कभी-कभी जोर-जबरदस्ती भी।
निठल्लों को लगा कि यह धंधा गांव में भी चल सकता है। गंगा किनारे तो पांच हजार से शुरू कर पांच सौ तक की रस्साकशी होती है, पर गांव में सैंकड़ों में तो कमाई हो ही सकती है। शुरू–शुरू में जब दिनेश ने यह कारबार चालू किया था तो सुनी हुई कहानी के आधार पर उसने बड़े मनसूबे बांधे थे। लेकिन बाद में उसे यह सब अच्छा नहीं लगा। फिर भी वह लाचारीवश इस काम में लगा रहा।
हालांकि साधनहीन लोग ही गांव के श्मशान में जाते हैं, पर उनकी संख्या भी कम नहीं होती और रोजगार चल निकला है। एक और लाभ है। एकांत होने के कारण वहां शाम को वटवृक्ष के नीचे श्मशानकाली के थान में चिलम का प्रसाद भी चढ़ता है और प्रसादभोगी की संख्या लगातार बढ़ रही है।
श्मशान में रवि जी की अरथी को टैंपू से उतार कर जमीन पर रखा गया। ननकू ने बिना किसी के कुछ कहे रवि जी के पूरे शरीर पर घी लगाना शुरू किया। दो नंबर शव को जलाने के लिए दिनेश ने आग देने की कार्रवाई पूरी कर दी है। शव जलने लगा है। रवि जी का तीसरा नंबर है।
भोला ने एक बार रवि जी के मुंह की तरफ देखा। माथे पर नाममात्र का केश था। शरीर सिकुड़ गया था। भोला ने सुना है, कैंसर की बीमारी में केश गिर जाते हैं। उसकी आंखों में पानी भर आया। यह शरीर अब थोड़ी ही देर में आग के धकधकते गोले में समा जाएगा।
बच्चू पास में ही बैठा था। उसने अपनी सूखी खड़खड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरा। लुंगी में खोंसी हुई अधजली बीड़ी निकालकर जलाई। भर मुंह धुआं छोड़ते हुए बोला, ‘ननकू भाई, रवि जी के कफन पर भी थोड़ा-थोड़ा घी छिड़क देना। घी रहेगा तो बडी जल्दी जल जाएगी। रवि जी का भाग्य अच्छा है। लगता है यहां का काम जल्दी ही निपट जाएगा तो घर जाकर खेत में पानी पटा आऊंगा।’
ननकू अभी भी रवि जी के शरीर पर घी लगाने में व्यस्त था। सौ-सौ ग्राम के दो डब्बे खरीदे गए थे। एक के खतम होने पर उसने दांत से दूसरे का ढक्कन खोला। रवि जी की छाती, पेट, पैर की उंगलियों में घी पहले ही लगा चुका था। फिर से थोड़ा लगा दिया और कफन पर भी छींटा दे दिया। बच्चू की बात सुनकर झनक उठा, ‘क्या कहा, रवि जी का भाग्य अच्छा है! जल्दी जल जाएंगे इसलिए! अरे, जिसका एकमात्र बेटा दूसरे शहर में जाकर बैठा हो, बाप के मरने पर भी कंधा देने नहीं आया हो, उसका भाग्य अच्छा है!’
बच्चू चुपा गया। उसका वह मतलब नहीं था। मन दुखा गया। उसने जोर-जोर से तीन बार बीड़ी का कश खींचा, फिर नीचे फेंक कर दाहिने पैर की हवाई चट्टी से रगड़ दिया। ननकू भी उसके मन के भाव को ताड़ गया था। मुंह फेर कर रवि जी के चेहरे को देर तक देखता रहा फिर धीमी आवाज में बोला, ‘बेटा होते हुए भी निपुत्र की तरह मर गए। ऐसे औलाद से बेऔलाद अच्छा! कितना मनसूबा बांधा था उन्होंने। बाप नहीं रहने पर क्या इतनी पढ़ाई कर पाता, नमकहराम! कितना कष्ट झेलकर उसको पढ़ाया-लिखाया। बाप-मां को सुख देने का समय आया तो अपने सुख के लिए परदेश के गू-मूत में नाम डुबाए वहां बैठा हुआ है। कुपुत्र! छह महीने से रवि जी दुख भोग रहे थे। देखने-सुनने वाला कोई नहीं। एक बार भी उसकी छाती नहीं फटी! कम से कम इस समय तो आता!’
थोड़ा हटकर महेंद्र खड़ा था। रवि जी का लड़का अमरेश उसका क्लासमेट था। उच्च माध्यमिक तक साथ पढ़ा था। ननकू की तरफ देखकर बोला, ‘चाहने भर से ही तो कोई नहीं आ सकता न। कंपनी का नौकर है। कंपनी की इच्छा पर ही उठना–बैठना पड़ता है।’
महेंद्र की बात सुनकर फुंफकार उठा ननकू, ‘छोड़ो–छोड़ो, कंपनी–फंपनी। ऐसी कंपनी जाए चूल्हे में। जिस कंपनी में नौकरी करके बाप के कैंसर होने पर भी देखने नहीं आ सकता, उस कंपनी के मुंह पर लात मारो।’
उनलोगों की बातचीत के बीच ही श्मशान में एक और मुरदा आया। ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज से सबका ध्यान उधर गया। महेंद्र ने अवाक होकर देखा। वह जानता है मृतक को। उसकी ही उम्र का युवक था। शहर में नौकरी करता था। तीन भाइयों में सबसे बड़ा था। घर का एकमात्र कमाऊ। कोरोना की बीमारी लेकर शहर से आया था। जैसे ही उसे लगा कि देह तप रही है और गला खुसखुसा रहा है, वह शहर से गांव भाग आया था। आने में कितने पापड़ बेलने पड़े। सामान लदे ट्रक के ड्राइवर को मुंहमांगा पैसा देकर ट्रक के पीछे सामान पर सोकर घर पहुंचा था। गांव वालों को खबर मिलती और वे गांव में रहने का विरोध करते उसके पहले ही उसके बाप ने गांव से हटकर एक बथान पर रहने का इंतजाम कर दिया। वे कोरंटाइन नहीं जानते थे, पर छूत की बीमारी में अलग रखने से दूसरों का बचाव होगा, यह अच्छी तरह जानते थे। चौक-चौराहे की दवा की दुकान से जैसी-तैसी दवा खिलाते रहे। लोगों द्वारा बताए गए तरह-तरह के उपचार और चेतावनी का पालन करते रहे। बिगड़ती हालत को देखकर गांव से बीस किलोमीटर दूर शहर ले गए। सारा दिन हलकान हुए, कहीं भरती नहीं हुई। घर वापस आ गए थे। आज देखो मुरदा बनकर यहां आया है। जवान बेटा…!
श्मशानकाली की मूर्ति से थोड़ा हटकर पेड़ की छांव में बैठे लोग मुरदा जलने का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी दूर पर दो चिताएं धू-धू कर जल रही थीं। उनकी ओर देखते हुए महेंद्र अनमना हो उठा। ‘यही है जीवन का सच। अभी तक जो सबका प्रिय था, आज जलकर राख बन रहा है। कुछ दिनों तक इनकी यादें बनी रहेंगी, फिर सब सामान्य हो जाएगा। … यादें धीरे-धीरे धूमिल हो जाएंगी। यही क्यों, आत्मीय की मृत्यु पर होने वाला कष्ट भी प्रचलित कुप्रथाओं, रीति-रिवाजों की बलि चढ़ जाएगा।’
कुछ ही दिन पहले की बात है, उसकी आंखों के सामने एक अद्भुत मंजर गुजरा था। जिनके बिना कुछ क्षण पहले तक जीवन की कल्पना भी कठिन थी, उनके चले जाने पर कुप्रथाओं ने सारे दुखों-अवसादों को पीछे धकेल दिया था। उसके मित्र रोहन के पिता मास्टर थे। दिल के दौरे से मृत्यु हुई तो महेंद्र भी अस्पताल में था। पत्नी, दोनों बेटे पछाड़ खा-खाकर गिर रहे थे। उनके रोने से अस्पताल का पूरा माहौल गमगीन था। महेंद्र के लिए असह्य था वह दृश्य। पर दूसरा दृश्य और भी असहनीय था। शव जलाने के बाद जब सभी लोग घर लौटे तो क्रियाकर्म के नाम पर शाम को जो कुछ हुआ उसने महेंद्र को भीतर से झकझोर दिया। सुबह अस्पताल में दहाड़ें मारकर रोने वाले बेटे शाम को भोज में दौड़-दौड़कर लोगों को खाना पड़ोस रहे थे। पत्नी भीतर से सामान निकाल-निकाल कर दे रही थी। घृणा और क्षोभ से महेंद्र का मन कराह उठा। एक पल भी उससे वहां रुका नहीं गया।
पास से आती हुई आवाज से महेंद्र का ध्यान बंटा। दीपकबाबू कह रहे थे, ‘श्मशान में ही जीवन का सच्चा ज्ञान मिलता है। यहां सब समान हैं – धनी–गरीब, ताकतवर–कमजोर, विद्वान–मूर्ख। रूप, गुण, क्षमता, योग्यता सब यहां जलकर खाक हो जाती है। फिर भी कुछेक वर्षों तक जीवन नाटक में अभिनय करता हुआ व्यक्ति कितनी हिंसा, द्वेष, स्नेह–घृणा, अहंकार में जकड़ा रहता है!’
महेंद्र को ज्ञान और दर्शन की ये बातें अच्छी नहीं लगीं। इसलिए नहीं कि ये बातें गलत थीं, इसलिए कि क्या ये सब सिर्फ कहने और सुनने के लिए हैं! केवल दूसरों पर लागू होते हैं? फिर क्यों दुनिया में इतने अहंकार, अमानवीय और अकरणीय कार्य होते हैं? उसने रवि जी के शव की ओर देखा। एक हूक सी उठी। अब उनके नहीं रहने पर पत्नी का क्या होगा? कौन देखेगा उनको? थोड़ी-बहुत जमीन-जायदाद है, पर उसकी सार-संभाल भी कौन करेगा? गांव में हर आदमी दूसरे को लूटने-हड़पने में लगा हुआ है। जिसपर विश्वास करो, वही धोखा देता है।
महेंद्र को कई वर्ष पहले की घटना याद आई। वह पोल्ट्री फार्म खोलने की तैयारी कर रहा था। एक दिन रवि जी की दुकान पर गया। कहा, ‘काका, घर की हालत ठीक नहीं है। पढ़ाई जारी रखना कठिन है। सोच रहा हूँ आटा-चक्की बिठाऊं।’ रवि जी ने स्नेह के साथ कहा था, ‘कोई भी काम करो, ईमानदारी और निष्ठा से करो। अपने कार्य को यदि पूरे आत्मविश्वास और दूसरों के हित का भी ध्यान रखते हुए करोगे तो जीवन में कभी पछताना नहीं पड़ेगा।’ महेंद्र को आज भी उनकी बात याद है।
ननकू अब तक रवि जी के पास ही बैठा था। विचारों के धुंध को झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ। घी से सने हाथ को अपनी लूंगी में पोंछते हुए बोला, ‘रवि जी को भूलना कठिन है। मुझे याद है पिछली बार जब सुखाड़ हुआ तो मेरे घर में एक दाना नहीं था। बहुत जगह दौड़ा, कोई काम नहीं मिला। भीख मांगने की नौबत आ गई। एक दिन रास्ते में रवि जी मिले। हालचाल जानकर एक महीने भर के राशन के लिए पैसा देते हुए कहा कि कोई रोजगार ढूंढ़ो। हिम्मत मत हारो। मैं पैसा लेने में संकोच कर रहा था तो बोले- ‘एक बाप अपने बेटे को दे रहा है। संकोच कैसा!’
महेंद्र जानता है, रवि जी एक दूसरी दुनिया के आदमी थे। दूसरों की समस्याओं का समाधान करते-करते ही उन्होंने सारा जीवन काट दिया। बेटा दगाबाज निकला परंतु कभी अपने मुंह से उसकी शिकायत नहीं की। एक अजब बात बोलते, ‘मेरा लड़का व्यस्तता के कारण घर नहीं लौट पा रहा है, पर तुम सभी लोग तो हो मेरे पास। तुम क्या मेरी संतान नहीं हो!’ सुनकर कलेजा मुंह को आ जाता। कैसे अपना दर्द भीतर ही भीतर सह रहे थे।
भोला रुंधे गले से बोला, ‘अंतिम बार अस्पताल में भरती होने जा रहे थे तो मैं साथ था। कजरी की मां को घर से बुलाकर कहा, ‘तुमने बेटी की तरह मेरी सेवा की है। अब मैं जा रहा हूँ। शायद लौटना न हो। इस बीमार बूढ़ी को देखना। जमीन जायदाद जो थोड़ा-बहुत है, अब तुम्हारे जिम्मे है। मेरा वारिस अब तुम्हीं हो।’
बच्चू पास आ गया। बोला, ‘एक महीने पहले की बात है। एक दिन दवा लेकर लौट रहे थे। रास्ते में मैंने चिंतातुर होकर पूछा तो बोले, ‘अरे चिंता की कोई बात नहीं। जीवन को जिस तरह सहज रूप से लेते हो वैसे ही मृत्यु को भी लेना चाहिए, कहकर मुस्कराए। उस मुस्कराहट के दर्द ने मुझे भीतर से छलनी कर दिया।’
महेंद्र का मन रवि जी के बेटे अमरेश के व्यवहार से दुखी था। सोच रहा था, मृत्यु सबको आनी है। फिर यह सरल बात अमरेश को क्यों नहीं समझ में आती। आदमी क्यों करता है इतना हाय-हाय? सारे रिश्ते-नाते छोड़कर क्यों भागता है पैसे के पीछे!
उसने सुबह अमरेश से हुई बात की जानकारी देते हुए कहा, ‘आज रवि जी का बडी आने के बाद मैंने अमरेश को फोन किया था। पिता की मृत्यु की बात सुनकर बोला कि तुम सब उनकी क्रिया कर दो भाई! मेरे लिए इस समय आना संभव नहीं है। हां, तुम अपना बैंक एकाउंट भेज दो। जो भी खर्च होगा मैं भेज देता हूँ और सुनो …। बात खत्म होने के पहले ही मैंने फोन काट दिया। क्या सुनूं…!’
तभी मंगल ने इशारा किया- दूसरी लाश जल चुकी है। अब हमलोग रवि जी को ले चलें। चिता पर ले जाने के पहले साथ आए एक बुजुर्ग ने कहा, ‘अरे पहले रवि जी को नहलाओ, नया कफन पहनाओ, तब चिता पर डालना।’ सुनकर सभी चौंके। उस समय से उनके शरीर पर घी पोता जा रहा है। इस कफन पर भी घी लगाया गया है। नहला देंगे तो घी धुल जाएगा। अब फिर घी कहां से आएगा? तर्क-वितर्क होने लगा। कुछ लोग नहलाने और कफन बदलने के पक्ष में थे तो कुछ विपक्ष में। तभी मंगल बोला, ‘अभी दस मिनट समय है, तुमलोग रवि जी को नहलाओ मैं दौड़ता हुआ जाता हूँ, कहीं से घी का जोगाड़ करके लाता हूँ।’
दस मिनट के पहले ही घी आ गया। फिर से देह और कफन पर लगाने के बाद सभी ने मिलकर रवि जी को चिता पर सुला दिया।
तभी एक दूसरा विकट प्रश्न उठा – मुखाग्नि कौन देगा? जितने लोग साथ आए थे सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। सभी के मन में अलग-अलग भाव थे। ननकू सहज भाव से बोला, ‘मुखाग्नि मैं दे दूंगा।’ भोला, बच्चू, मंगल सभी एक-एक कर मुखाग्नि देने को तैयार हो गए। महेंद्र चुप रहा। गांव की प्रथा के अनुसार निःसंतान को मुखाग्नि देने वाले को मृत व्यक्ति की जमीन-जायदाद में से कुछ हिस्सा मिलता है। हालांकि वह जानता है कि ननकू, भोला, बच्चू, मंगल इनमें कोई भी इस लोभ से मुखाग्नि देने को तैयार नहीं है। ये तो बस सहज प्रेमवश ऐसा कह रहे हैं। लोग भले इसका गलत अर्थ निकालेंगे। मैं भी यदि मुखाग्नि देते की बात कहता हूँ तो लोग यही कहेंगे कि यह धन के लोभवश ऐसा कर रहा है।
इसी बीच दिनेश लगभग चिल्लाता हुआ आया, ‘भाई जल्दी करो। दूसरा मुरदा जलाने के लिए पड़ा है।’ अपनी बात कहकर वह मुड़ा ही था कि अचानक थमक गया। मुरदे का चेहरा देखकर बोला, ‘अरे ये तो रवि बाबू हैं।’ उसके भीतर अचानक स्मृतियों की आग लहक उठी। वह छह-सात वर्ष का रहा होगा। छोटी उम्र के बावजूद उसे आज भी वह दिन याद है। उसके पिता स्लेट पेंसिल देकर मारते और घसीटते हुए उसे स्कूल ले जा रहे थे। वह दोस्तों के साथ खेल छोड़कर जाना नहीं चाहता था। लगातार रोए जा रहा था। पिता जी उसके रोने की परवाह किए बिना उसे घसीटे जा रहे थे। तभी रवि जी सामने पड़ गए। उन्होंने दिनेश के पिता को टोका, ‘क्यों मार रहे हो बच्चे को।’ पिता जी कुछ कहते इसके पहले ही रवि जी ने उसको गोद में उठा लिया। ‘मत रो, बेटे। स्कूल नहीं जाना है, कोई बात नहीं। चलो आज मैं तुमको एक गेंद दूंगा। तुम वहीं खेलना या घर ले आना।’ उसका रोना बंद हो गया। स्कूल जाने का भय भी निकल गया। रवि जी ने सचमुच उसे एक छोटा-सा गेंद दिया था और कहा था कि स्कूल के मैदान में खेलो। वह कुछ देर अकेले खेलता रहा। पर अकेले मन नहीं लगा। वह रवि जी के पास गया। रवि जी स्कूल में मास्टर जी के पास जाकर बोले कि इसे बच्चों के साथ बैठाएं। पढ़ने के प्रति रुचि पैदा हो जाएगी। मास्टर जी ने दिनेश को थोड़ी देर वहां बेंच पर बिठाया। वह बैठा रहा। बच्चे पढ़ते रहे। बच्चों के बीच दिनेश को मजा आने लगा। अगले दिन वह खुद से स्कूल जाने के लिए तैयार हो गया। हालांकि वह चार साल ही पढ़ पाया, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद मां ने उसे काम पर लगा दिया। बड़ा होने पर उसे श्मशान का यह धंधा मिल गया।
अपनी स्मृतियों से उबरते ही उसने रवि जी को पैर छूकर प्रणाम किया और खड़े हुए लोगों से कहा कि रवि जी के लड़के को बुलाओ मुखाग्नि देने के लिए। महेंद्र ने उसे सारी बातें संक्षेप में बताई तो उसकी आंखों में अनायास एक किरण कौंधी। हठात बोला, ‘तो ठीक है, मैं दे दूंगा रवि जी को मुखाग्नि। तुमलोगों को कोई आपत्ति तो नहीं है।’
सभी भौचक्के रह गए। यह क्या बोल रहा है! एक तो डोम, ऊपर से इतने लोगों के रहते यह आग देगा!
पीछे से किसी ने कहा, ‘अरे यह मौके का लाभ उठाना चाहता है।’
दिनेश उसकी बात सुनते ही तड़प उठा। ‘अभागो! तुम अपनी तरह सबको नीच समझता है। मैं डोम हूँ। नीच हूँ, पर जाति से। तुम्हारी तरह विचार से नहीं। लाओ सादा कागज, अंगूठा का निशान लगा देता हूँ। कसम ऊपर वाले की, मुझे नहीं चाहिए कुछ भी। एक धेला भी नहीं। अरे मैं तो सिर्फ इनकी इंसानियत का कायल हूँ। उन्होंने मुझे नीच, अछूत नहीं माना था तब जब मैं छोटा बच्चा था। इन्होंने मुझे गोद में उठाया था। पर तमाम दावों के बावजूद तुमलोग आज भी छुआछूत मानते हो। दो गांवों के लोग यहां इकट्ठे हैं। इनके सामने वचन देता हूँ। मुझे नहीं चाहिए कुछ भी। और मुखाग्नि मैं ही दूंगा। देखता हूँ मुझे कौन रोकता है!’
वह रोज ही देखता था कि शव को मुखाग्नि कैसे दी जाती है। किसी के कुछ कहने के पहले ही उसने भोला के हाथ से पानी का घड़ा ले लिया और अरथी के चारों ओर घूमने लगा। सभी स्तब्ध। कोई कुछ बोल नहीं पा रहा है। फिर उसने बच्चू के हाथ में सन की काठी पकड़ा कर दियासलाई निकाल उसे जला लिया। नियमानुसार परिक्रमा करने के बाद उसने रवि जी को मुखाग्नि दी और चारों तरफ से चिता में आग लगा दी। चिता धू-धू कर जलने लगी।
अचानक हुए इस कांड से सभी भौंचक्के थे। सभी का शरीर गतिहीन, मन-मस्तिष्क विचार शून्य। एक डोम ने गांव की एक ऊंची जाति के आदमी को मुखाग्नि दी है। बात जब गांव में पहुंचेगी तब …। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था।
दिनेश लोगों के चेहरों को पढ़ रहा था। आंखों की कोर में भर आए पानी को पोंछकर उसने स्तब्धता को तोड़ते हुए कहा, ‘जानता हूँ, मैंने एक गलत काम किया है। डोम होकर एक ऊंची जाति को मुखाग्नि दी है। पर परिणाम की मुझे परवाह नहीं। प्रेम सबसे बड़ा रिश्ता होता है। मुझे इन्होंने अपना सहज प्रेम दिया था। बेटा कहा था। तो मैंने अपने बाप को ही तो आग दी है। और एक बात। जब बचपन में उन्होंने मुझे गोद में उठाया था तो मैं अछूत कैसे हुआ? मैं जानता हूँ आपलोगों को बुरा लगा है, पर मैंने अपना कर्तव्य निभाया है।’
सभी निःशब्द उसकी बातें सुनते रहे। चिता जल कर राख हो गई थी।
भोला ने मौन तोड़ा। ‘चलो भाई, रवि जी के अस्थि-फूल को चुन लें। कल सुबह-सुबह जाकर नदी में अर्पण कर आएंगे।’ कई लोग एक साथ अस्थियां चुनने लगे। पर साथ आए कई सवर्णों की आंखों में खून उतर आया था। वे पल भर रुके बिना गांव की ओर चल पड़े। ननकू, भोला, बच्चू, महेंद्र के मस्तिष्क में कुछ कौंधा कहीं…!
…
अगले दिन दिनेश की सर कटी लाश श्मशान में पड़ी थी।
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