प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।
गुजरात के आदिवासी कवि हैं चामूकाल राठवा।उनकी एक कविता ‘आदिवासी’ का एक अंश है, ‘इस शब्द को वे/इस तरह बोलते हैं/जैसे यह किसी/ महामारी का नाम हो/…इस शब्द को सुनकर/वे ऐसे देखते हैं/जैसे उन्होंने/आकाश में उड़ती/रकाबी देख ली हो।’ ‘वे’ कौन हैं? निर्मला पुतुल ने पहचान की है, ‘ये वे लोग हैं जो मेरी कविताओं में भी/तलाशते हैं मेरी देह/…ये वे लोग हैं जो/हमारे ही नाम पर/गटक जाते हैं हमारे हिस्से का समुद्र/…ये वे लोग हैं/जो हमारी ही जमीन पर/खड़े होकर हमसे पूछते हैं हमसे हमारी औकात।’
आदिवासियों को कोई ‘बनवासी’ कोई ‘गिरिजन’ कहता है।सरकार उन्हें ‘जनजातियां’ कहती हैं।अंग्रेजों ने भी उन्हें कई नाम दिए।आदिवासी एक -नाम अनेक।असल में किसी को उसके सही नाम से न पुकारना या बारबार उसे अलग-अलग नाम से पुकारना उसके अस्तित्व को डावांडोल बनाए रखना है या फिर धीरे-धीरे उसे अस्तित्व – विलुप्ति के करीब पहुंचा देना है।आदिवासियों में यह अहसास जख्म का रूप ले चुका है।इस वजह से संदेह में रहना और संदेह करना उनका स्थायीभाव बन सकता है।आदिवासी देवी-देवताओं के नाम तक बदलने की कोशिश होती है।
एक मराठी आदिवासी लेखक-कवि हैं वाहरू सोनवणे।उन्हें उनकी कविताओं का ‘काव्यात्मक आत्मचरित्र’ कहा जाता है।उनका दर्द उनके एक भाषण में फूट पड़ा।उनका कहना था वागदेव, डोंगया देव, राणी काजल जैसे देवी-देवता आदिवासियों के हैं।लेकिन आदिवासियों के घर में राम, कृष्ण, मुसलमानों के पीर या ईसाइयों के ईसा मसीह मिलते हैं।वे इसे एक साजिश बताते हैं।आदिवासी देवी याहाभोगी का नाम बदल कर जगदंबा करने का प्रस्ताव एक हिंदू संगठन ने किया था।
सोनवणे की मांग है, ‘आदिवासी समाज में कोई जाति नहीं है।फिर भी हमें जाति का सर्टिफिकेट देना पड़ता है और जबरन हमें हिंदू भील या हिंदू पावरा लिखने के लिए मजबूर होना पड़ता है।हम किसी जाति से नहीं आदिवासी नाम से पहचाना जाना पसंद करते हैं।हमारी यह मांग अभी तक पूरी नहीं हुई है।भारतीय संविधान में भी आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति नाम से दर्ज किया गया है।वस्तुतः ऐसी घटना से हमारी अस्मिता और स्वाभिमान को ठेस पहुंचती है।’ बहुत कोशिशों के बाद भी जयपाल सिंह मुंडा संविधान में आदिवासी शब्द शामिल नहीं करवा सके थे।
आदिवासियों का यह एक दूसरा जख्म है।कोरोना के आने के पहले देश भर के आदिवासियों ने दिल्ली के जंतरमंतर पर अपना दर्द रोया था और मांग की थी कि जनगणना के दौरान उनके लिए धर्म का अलग कॉलम बनाया जाए।प्रदर्शनकारी आदिवासियों का कहना था कि वे हिंदू नहीं हैं।शिक्षाविद, कवि और गायक रामदयाल मुंडा ने सबसे पहले यह मांग की थी।उन्हें हिंदुओं की संख्या में शामिल होने पर एतराज था।रमणिका गुप्ता ने भी लिखा है, ‘आदिवासी पहले आदिवासी हैं, ईसाई या हिंदू बाद में।ऐसे वे हिंदू तो कभी रहे ही नहीं हैं।’
आदिवासी चिंतकों की व्याख्या यह है कि हिंदू धर्म के मुख्य कारक वर्ण, वर्ग और ब्राह्मण हैं।आदिवासी समाज वर्ण, वर्ग और ब्राह्मणविहीन है।हिंदुओं से अलग होने के पीछे उनकी मंशा अल्पसंख्यक की श्रेणी में आना हो सकता है।उनका यह भी कहना है कि विश्व का हर धर्म और उसका समाज शास्त्रों से परिचालित है, जबकि आदिवासी समाज का कोई शास्त्र नहीं है और न ही उनका जीवन किसी शास्त्र से परिचालित है।वे अपने बारे में यह भी बताते हैं कि उनके पर्व-त्योहार, विवाह के रस्मों-रिवाज भी अलग हैं।यहां तक कि मृत्यु के पश्चात दहन और दफन दोनों ही मान्य हैं।दहन या दफन इस बात पर निर्भर करता है कि मृत्यु किस मौसम में हुई है।
आज भी आदिवासी अगर आदिवासी नाम से जाने जाते हैं, साफ है कि वे अपनी जमीन से गहरे जुड़े हैं और उन्हें मिटाना सहज नहीं है।यह भी सच है कि भारत सरकार के खाते में अब कोई आदिवासी नहीं है।
लोक और साहित्य में आदिवासी संज्ञा चलन में है।भारत में वे कुल आबादी के 10 प्रतिशत के करीब है।ये देश के सभी हिस्सों में हैं।देश के कई हिस्सों में उनकी आबादी बहुसंख्यक की हैसियत से है, खासकर पूर्वोत्तर राज्यों और झारखंड में।कई राज्यों में संख्या बल कम है, पर उपस्थिति अच्छी-खासी है।गुजरात में 90 लाख आदिवासी मतदाता हैं और 27 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं।लेकिन आदिवासियों का कोई राजनीतिक दबाव वहां नहीं है।कहीं भी नहीं है भारत में।एक समय में जयपाल सिंह मुंडा ने राजनीतिक दबाव बनाया था, मगर वह जो बिखरा तो बिखरा ही रह गया, अलग राज्य बनने के बावजूद।
आदिवासी साहित्य और संस्कृति से हमारा परिचय अपरिचय की हद तक है।किसी भी भाषा का साहित्य और संस्कृति स्वयं अपने बलबूते पर अपनी यात्रा आरंभ नहीं करते।आमतौर पर साहित्य और संस्कृति वाणिज्य के पीछे-पीछे चलकर दूसरे समाज तक पहुंचते हैं, लेकिन आदिवासी समाज वाणिज्य शून्य और क्रय शक्ति शून्य समाज रहा है।लंबे समय तक उनकी संस्कृति उनके अपने दायरे से बाहर नहीं निकली, न दूसरी संस्कृति की झलक उन तक पहुंची।कई बार साहित्य और संस्कृति श्रमशक्ति के साथ भी एक जगह से दूसरी जगह पहुंचते हैं, मगर आदिवासी साहित्य और संस्कृति के संदर्भ में यह भी संभव नहीं हो सका।पर्यटन के माध्यम से संस्कृति फैलती है, आदिवासी घुमंतू थे, मगर पर्यटक नहीं थे।वे जहां भी गए अपनी न्यूनतम जरूरतों का बोझ लिए गए।भूख के साथ साहित्य और संस्कृति यात्रा तो करते हैं, मगर पेट की गहरी खाई में वे दम तोड़ देते हैं।
आजादी के बाद जो आदिवासी सरकारी नौकरी पाकर अपने क्षेत्र से बाहर निकले, उन्होंने अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विस्तार में दिलचस्पी नहीं ली।वे ऐसे भी नहीं रहे कि अपनी संस्कृति में लौट सकें।
फ्रांसिस्का कुजूर अपनी एक कविता में आदिवासियों से ‘घर लौटो’ का निहोरा करती हैं।वे कहती हैं, ‘जाते समय कह गए थे/शीघ्र वापस आने की बात/खेत खलिहान नदी पहाड़ सूनी गलियां/देख रही हैं तुम्हारी राह…।’
एक आदिवासी जनगीत का संदेश है, ‘दिन भर रोना/भूखे–प्यासे रात भर सोना/लाज भर कपड़े की खातिर/कौर भर खाने की खातिर/मांगने किस–किस के द्वार जाओगे/लौट आओ लौट आओ मेरे भाई/ऐ रे नागपुरियो!’
वंदना टेटे की एक कविता है- ‘हमारे बच्चे नहीं जानते’।इस कविता में उनका दुख है कि आदिवासी बच्चों का आदिवासी जीवन, रहन-सहन और ज्ञान से संबंध-विच्छेद हो चुका है।वंदना टेटे चिंतित और उदास जरूर हैं, मगर इसका जवाब आज किसी आदिवासी मां के पास क्या, किसी भारतीय मां के पास भी नहीं है।
एक आदिवासी कवि हैं उज्ज्वला ज्योति तिग्गा।इनका जन्म दिल्ली में हुआ था।फरवरी 1960 में।1959 में इनके पिता को दिल्ली में सरकारी नौकरी मिली थी।उज्ज्वला की पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई।वे जेएनयू में पढ़ीं।दिल्ली में ही नौकरी कर रही हैं।कभी ललित कार्तिकेय की विवाहिता थीं।यद्यपि इनकी पहचान आदिवासी कवि की है, मगर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इनके जीवन में आदिवासीयत कितनी बची रह पाई होगी, कुछ खोने की टीस अवश्य बची होगी।वह उनकी रचनात्मक शक्ति बनती होगी।लेकिन यह भी सच है कि ऐसी उज्ज्वला अकेली नहीं हैं, जो लौट नहीं सकी।वे और उनकी संतान वह सब भी नहीं जान पाई होंगी, जिसका दर्द वंदना टेटे को है।
कई लौटते हैं, फिर से लौटने के लिए।वे जो लौटते हैं लौटने के लिए, वे कभी भी अकेले नहीं लौटते।लौटते हैं अपने हिस्से का शहर और विकास लेकर।
भीमू लौटा था।
‘अरे बंका, तुम्हारा भीमू शहर में पला-बढ़ा और पढ़ा भी है, उसे क्यों पुराने रीति-रिवाजों की जरूरत, पुराने दिन गए दादा अब।’
बंका बाबा वह है जो ढोल बजाता है।वह इंतजार करता रहा कि भीमू अपनी बेटी की शादी में ढोल बजाने के लिए जरूर कहेगा।लेकिन बुलाए नहीं गए बंकाबाबा।
‘क्यों बंकाबाबा, नातिन का ब्याह और तू अभी यहीं?… अरे दादा, हम क्या साहू हैं? अरे हम आदिवासी के ब्याह में क्या बुलावा लगता है? और फिर तू तो ढोलवाला, तुम्हें काहे चाहिए बुलावा? जहां ब्याह है वहां मंडप में जाना।पर इस भीमू का भी वैसे कुछ ठीक नहीं।इतना पैसा बेटी के ब्याह में लगाया, फिर रीति-रिवाज क्यों छोड़ दिया?’
बंकाबाबा पहुंच गए ढोल लेकर शादी में और बजाने लगे।डूब कर बजाने लगे।जब आंखें खोलीं तो जो देखा वह ऐसा था, ‘झांझ वाला, बांसुरी वाला, नाचने वाले लड़के-लड़कियां कोई नहीं था।आसपास लोगों की भीड़ भी नहीं थी।दो-चार छोटे बच्चे कौतूहल से उनकी ओर देख रहे थे।जवान लड़कों के जमाव ने उनकी ओर पीठ फेर दी थी और सारा गांव लाउडस्पीकर की आवाज तथा बैंड की आवाज से भर गया था।’
ये बंकाबाबा और भीमू मराठी आदिवासी कथाकार दीनानाथ मनोहर की कहानी में हैं।इस कहानी का नाम है- ‘और जंगल शांत हुआ’।यह कहानी भील आदिवासी के किसी एक गांव की नहीं, कमोवेश हर आदिवासी गांव की है।
वे जो मजदूरी करने निकले, वे अपनी भूख और अपने समुदाय के बीच शटल करते रहे।फ्रांसिस्का कुजूर की चिंता है कि लड़कियां भी अब जंगल में लकड़ियां चुनने नहीं जाती हैं, वे जाती हैं महानगर की ओर।महानगर उन्हें अपनी संस्कृति बरतने का अवसर नहीं देता।धीरे-धीरे आदिवासियों के जीवन से वह आदिवासीयत भी चली गई, जिसे बचाने के लिए पहली बार जयपाल सिंह मुंडा ने जरूरत बताई थी।आज के आदिवासी लेखक उसी आदिवासीयत को बचाने के लिए अपने लेखन में संघर्ष कर रहे हैं।संस्कृत और हिंदी की परंपरा से अलग वे अपनी स्थापना दे रहे हैं।आदिवासियों का संघर्ष कई स्तरों पर और कई मुहानों पर है।एक स्तर पर इनका संघर्ष हिंदू संस्कृति से है और एक मुहाने पर हिंदी मानसिकता से, लेकिन सबसे ज्यादा हिंदू राजनीति से है, जो इनकी पहचान मिटाने पर आमादा है।
हिंदी में जब भी आदिवासियों की चर्चा की जाती है, मुख्यतः उसका अभिप्राय झारखंड के आदिवासियों से होता है।राजस्थान और मध्यप्रदेश के आदिवासी भी शामिल होते हैं।जबकि कई राज्यों के आदिवासी अपनी साहित्य रचना के माध्यम से अपने अस्तित्व की उपस्थिति को प्रमाणित करते हैं।हिंदी की शब्दावली में कहें तो समकालीन आदिवासी लेखन प्रतिरोध की रचना है, जबकि आदिवासी लेखक अपने लेखन को रचाव–बसाव का साहित्य कहते हैं।यह ज्यादा अर्थपूर्ण है।
हिंदी साहित्य में आदिवासियों की उपस्थिति न के बराबर है।हालांकि हिंदी समाज और हिंदी लेखकों का ध्यान आजादी के तुरंत बाद ही आदिवासी समाज की ओर गया।देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी के पहले लेखक माने जाएंगे, जिन्होंने पांच वर्ष के अंतराल में दो ऐसे उपन्यास दिए जिनकी विषयवस्तु आदिवासी समाज है। ‘रथ के पहिए’ 1951 में और ‘ब्रह्मपुत्र’ 1956 में। ‘रथ के पहिए’ और ‘मैला आंचल’ लगभग एक ही समय की रचनाएं हैं।मैला आंचल में भी संथाल आदिवासी की उपस्थिति है।
देवेंद्र सत्यार्थी की परंपरा में कुछ और हिंदी लेखकों ने आदिवासी समाज को अपने लेखन का विषय बनाया।लेकिन कहा तो यही जाएगा कि हिंदी के मुट्ठी भर लेखकों ने आदिवासी जीवन को अपना विषय बनाया है और लिखा भी मुट्ठी भर ही।यह नजर की तंगी है।एक युग आया लघु पत्रिकाओं का, लेकिन वहां भी आदिवासी समाज और उसके लेखन की चिंता नहीं की गई।
आठवें दशक के बाद हिंदी के और कई लेखक आए, जिन्होंने आदिवासी जीवन को अपना विषय बनाया।उन्होंने अपने को आदिवासी का खैरख्वाह भी घोषित किया, लेकिन बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने जिस तरह से अपनी आदिवासी ब्रांडिग से पहचानी गईं, वैसी पहचान किसी हिंदी लेखक ने नहीं बनाई।आदिवासी विचारकों में इसका रंज है कि महाश्वेता देवी समेत हिंदी के लेखकों के लिखे में आदिवासियों के चित्रण का मुख्य स्वर यह है कि आदिवासी पिछड़ा है, पियक्कड़ है, अंधविश्वासी है और यहां तक कि सभ्यता-संस्कृति से रहित है।आदिवासियों का यह रंज उनका दर्द है।
आठवें दशक के बाद आए आदिवासियों के खैरख्वाह लेखकों ने आदिवासियों के बहाने भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की हवा निकालने की कोशिश की।ऐसे खैरख्वाह लेखक आदिवासी और लोकतंत्र दोनों से अपना हिसाब एक साथ बराबर करते हैं।ऐसे लेखक अपने लेखन के माध्यम से अपने बड़े राजनीतिक वैचारिक आग्रह को अंजाम देते हैं, और आदिवासियों के मन पर लोकतंत्र के लिए ऋणात्मक प्रभाव डालते हैं।कई आदिवासी कवियों ने अपनी कविताओं में लोकतंत्र को कोसा है।लोकतंत्र आदिवासीयत और आदिवासी रहन-सहन का अभिन्न हिस्सा है।आदिवासी को लोकतंत्र से विरत करना उन्हें जीने से मना करने जैसा है।
यहां यह कहना बनता है कि हिंदी में ऐसी कोई प्रामाणिक कृति नहीं है जो आदिवासी जीवन और समाज से हिंदी समाज का गहन परिचय करा सके।जो है वह अपर्याप्त है।यह अभाव दर्दनाक है और शर्मसार करने वाला।ऐसी हालत देखकर ही वंदना टेटे अपने आदिवासी साथियों से सवाल करती हैं, ‘कब तक जोहते रहोगे/अपनी पहचान जानने/के लिए दूसरों का मुंह/और कब तक आसरे में/रहोगे कि कोई आए/और तुम्हारे लिए लड़े।/कब तक खुश होते रहोगे/कि उनकी कहानी में तुम्हारा जिक्र है/कि तुम्हारा इतिहास/तुमने नहीं उसने लिखा है।बदलो, कि समय बदल चुका है/नहीं देता अब कोई अपना निवाला।’ सच यह है कि आदिवासियों को हर किसी ने अपना निवाला बनाया है।अब लड़ाई आत्मसम्मान की छिड़ी हुई है।आदिवासियों ने खुद अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए भाषा को माध्यम बना लिया है।वे अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं।उनकी भाषा ही अब उनका तीर है।
इस संदर्भ में आदिवासी कवि वाहरू सोनवणे की मराठी कविता ‘स्टेज’ अपना बयान देती है, ‘हम स्टेज पर गए ही नहीं/और हमें बुलाया भी नहीं/उंगली के इशारे से/हमारी जगह/हमें दिखाई गई।वे स्टेज पर खड़े हो/हमारा दुख/हमें ही बताते रहे/हमारा दुख/कभी उनका हुआ ही नहीं।’
पूर्वोत्तर राज्यों और दक्षिण राज्यों में जो आदिवासी लेखन है, हिंदी में उनकी पहुंच न के बराबर है।जबकि सभी राज्यों मेंआदिवासी लेखक साहित्य में सक्रिय हैं।गारो, बोडो, मिजो और खासी की साहित्यिक रचनाएं कई विधाओं मे हो रही हैं।पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों का लेखन उनकी अपनी भाषा और लिपि के अलावा देवनागरी तथा अंग्रेजी में हो रहा है।
पूर्वोत्तर राज्य के आदिवासियों का जीवन दोतरफा हिंसा की चपेट में बीता है।राजकीय हिंसा भी और स्थानीय हिंसा भी।स्थानीय हिंसा हमेशा विद्रोह की नहीं थी।हिंसा चाहे जैसी भी हो, उसकी छाया में जीना जीवन को निर्वाक बना देता है।हिंदी फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में पूर्वोत्तर की उन दो लड़कियों को याद कीजिए, जो पूरी फिल्म में हैं, मगर वे मूक हैं।एक लड़की नगालैंड से और दूसरी मिजोरम की है।फिल्म ‘पिंक’ में तीन लड़की किरदारों में एक लड़की पूर्वोत्तर की है।उस पूर्वोतर की लड़की के ऐसे संवाद हैं जिनमें पुलिस के व्यवहार का चित्र है।उस लड़की का अनुभव केवल उसका नहीं, पूरे पूर्वोत्तर के संशय का इजहार है।
पूर्वोत्तर का एक आदिवासी समूह है : मिशिंग।इस आदिवासी समूह से एक कवि हैं : ज्योतिष मिचिड्. पाई।उनकी एक कविता का एक अंश देखिए, ‘मैं उस प्रांत का हूँ/जहां हवा,/चाय की खुशबू से महकती है,/पर आज चाय की नहीं/गोली और बारूद की महक आती है यहां/जहां विश्व में सबसे ज्यादा बारिश होती है/वहां आज पीने का पानी नहीं है/जहां आज भोजन नहीं है/और सूख गया है जीवन/माजुली में सरसों के फूल नहीं खिल रहे।’
आबादी के मामले में पूर्वोतर का मतलब ही है आदिवासी।लेकिन पूरे पूर्वोत्तर की संस्कृति एक जैसी नहीं है।अलग-अलग आदिवासियों की अलग-अलग संस्कृति है।लेकिन यह सच है कि आधुनिकता की कोई भी पहल संपूर्ण आदिवासी संस्कृति और आदिवासी-अस्तित्व को समाप्त करने की मुनादी होती है।विकास यह बड़ी कीमत लेती है।
केरल के आदिवासी लेखक नारायण ने अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराई है।उनके पहले उपन्यास ने ही आदिवासी साहित्य संसार में एक धमक पैदा की।मलयालम में लिखा उनके उपन्यास कोचारेथी को पहला आदिवासी उपन्यास का मान दिया जाता है।इसका पहला प्रकाशन 1998 में हुआ था, जबकि लेखक ने 1988 में ही अपना उपन्यास पूरा कर लिया था।इसके प्रकाशन में दस साल लग गए।2011 में इसका अंग्रेजी अनुवाद ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छप कर आया।इस उपन्यास को इकोनॉमिस्ट क्रासवर्ड बुक अवार्ड मिला, इससे पहले 1998 में इस उपन्यास को केरल साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था।
2019 में तमिल में एक फिल्म बनी : असुरण।इस फिल्म का विषय आदिवासियों का शोषण और उनका संघर्ष है।अब यह फिल्म तेलुगु और हिंदी में भी है।
यहां यह याद करना मुनासिब होगा कि 1952 में नई दिल्ली में आदिवासियों की चिंता करते हुए एक सम्मेलन हुआ था।विषय था : अनुसूचित आदिम जाति और अनुसूचित क्षेत्र सम्मेलन।तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस सम्मेलन में शिरकत की थी।वहां उन्होंने वक्तव्य भी दिया था और आदिवासियों के संदर्भ में जो कहा था वह ध्यान खींचता है।
नेहरू ने कहा था, ‘इस देश में ही नहीं, बल्कि अन्य बड़े देशों में भी लोग अपनी कल्पना या अपनी इच्छा के अनुसार दूसरों को ढालने या उनके रहने सहने पर अपना विशेष ढंग थोपने को कितने उत्सुक हैं।… यह समान रूप से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों पर लागू होता है।…यदि लोग दूसरे लोगों या देशों पर रहन-सहन का अपना ढंग थोपना छोड़ दें तो संसार में अधिक शांति स्थापित होगी।… उनसे अपनी नकल करवाने में मुझे तो कोई तर्क या दलील नहीं दिखाई पड़ती।… वे (आदिवासी) लोग अत्यंत अनुशासित होते हैं, कभी-कभी तो भारत के अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक लोकतंत्री।यद्यपि उनका कोई संविधान नहीं है, फिर भी वे बहुत अधिक लोकतंत्री ढंग से रहते हैं और अपने बुजुर्गों या प्रतिनिधियों के निर्णयों को व्यवहार में लाते हैं।… वे उन लोगों की तरह नहीं हैं जो स्टाक एक्सचेंजों में बैठ कर शोरगुल करते हैं और अपने को सभ्य मानते हैं।… मुझे विश्वास है कि आदिवासी नाच-गान की अपनी सभ्यता के साथ उस समय तक भी जीवित रहेंगे जब स्टाक एक्सचेंज समाप्त हो चुके होंगे।’
लेकिन हम जानते हैं सारी दुनिया में विकास के पहिए ने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि न आदिवासी अपनी मूल प्रकृति के साथ रह सके और न ही स्टाक एक्सचेंजों का शोरगुल बंद हुआ, बल्कि उनका तांडव मचा हुआ है।केवल भारत में नहीं, सारी दुनिया में शेयर का धंधा आज सबसे बड़ा है।आज करोडों के विज्ञापन से नागरिकों को इस जानलेवा बाजार में कूदने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।इसकी संस्कृति ने दुनिया की बड़ी आबादी को धकिया कर आदिवासी की हालत में ला पटका है।
शांति खलखो एक आदिवासी कवि हैं।उनकी एक कविता है : वैश्वीकरण।अपनी इस कविता में लिखती हैं, ‘पूरी दुनिया में ‘करण’ की भरमार/… हमारे बीच में घुस गया ये ‘करण’/ … औद्योगीकरण, शहरीकरण, संस्कृतिकरण/… बाजारीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण/ये ‘करण’ हमें निगल रहा है।’
1972 में एक फिल्म बनी थी ‘ये गुलिस्तां है हमारा’।इस फिल्म का मुख्य किरदार इंजीनियर एक आदिवासी को पाठ पढ़ाता है कि आधुनिकता ही सारी समस्याओं की कुंजी है।ये सारे ‘करण’ उसी आधुनिकता की देन हैं, जिनसे आदिवासी संघर्ष तब से कर रहे हैं, जब से आधुनिकता भारत में सर चढ़ कर बोल रही है।करण का फैलाव आदिवासी और गैर-आदिवासी का भेद मिटा कर दोनों को समान चुनौतियों का सामना करने का अवसर दे रहा है।
1952 के उस सम्मेलन में आदिवासियों के बहुत सारे पहलुओं को उजागर किया गया था।उनके रहन-सहन से लेकर उनकी कलाओं और संस्कृति पर भी बातचीत हुई।1959 में प्रकाशन विभाग की ओर से एक किताब भी छपी थी।वह दस्तावेजी महत्व की पुस्तक है।उस सम्मेलन में आदिवासी साहित्य पर कोई चर्चा नहीं हुई थी।लंबे समय तक आदिवासी साहित्य की ओर नजर नहीं गई, जबकि 20वीं सदी के तीसरे दशक से आदिवासियों ने कलम थाम ली थी।वे लिखने लगे थे।पत्रिकाएं निकलने लगी थीं।जयपाल सिंह मुंडा ने ‘आदिवासी सकम’ नाम की एक पत्रिका निकाली थी।इसके बावजूद, आदिवासी साहित्य के लिए उदासीनता बनी रही।
आदिवासी साहित्य के प्रति आग्रह पैदा करने में रमणिका गुप्ता की पहल एक लहर पैदा करती है।यह समय २०वीं सदी के आखिरी दशक का था।पहली बार तभी हिंदी साहित्य के पटल पर निर्मला पुतुल उभर कर आती हैं।आज आदिवासी साहित्य बिरादरी के एक हिस्से की राय में वे आदिवासीयत से रहित कवि हैं।
केवल हिंदी समाज ने ही नहीं, सभी भारतीय समाजों ने आदिवासी समाजों को ‘जैसा है जहां है’ की अवस्था में छोड़ रखा था।प्रशासन और आदिवासी समाज के बीच कोई तार नहीं जुड़ा था।कारण यह था कि आदिवासी आबादी की पहचान श्रमशक्ति के रूप में नहीं की गई।उनकी बोली या भाषा में ऋण या महाजन जैसे शब्द नहीं हैं।वे अपने श्रम और इसके फल के मालिक स्वयं थे।इस तरह वे स्वयंभू थे।सुषमा किस्कु ने लिखा भी है, ‘रहते मस्त आदिवासी अपने ही संसार में’।जल, जमीन और जंगल के वे अघोषित और अलिखित मालिक थे।यह बात तब की है जब उनके जीवन और समाज में पूंजी, पैंचा और पैना का प्रवेश नहीं हुआ था।पूंजी, पइंचा और पैना वैश्विक लूट के तीन हथियार हैं।
पूंजी, पइंचा और पैना ही अब नए अवतार में उदारीकरण या भूमंडलीकरण है।आदिवासी कवि उज्ज्वला ज्योति तिग्गा की, जो डोरोथी नाम से भी जानी जाती हैं, तीक्ष्ण नजर उदारीकरण का भेद पकड़ती है और खोलती है।इसे जानने के लिए उनकी कविता ‘शिकारी दल अब आते हैं’ पढ़ना मुनासिब होगा।उज्ज्वला ज्योति तिग्गा जिस लूटकारी व्यवस्था का भेद अपनी इस कविता में खोलती हैं, अपनी एक दूसरी कविता ‘जंगल चीता बन लौटेगा’ में उससे सामना करते हुए अपना स्वर बुलंद करती हैं।बुलंद स्वर ऐसा है, ‘जंगल आखिर कब तक खामोश रहेगा/…पर जंगल के आंसू इस बार/जंगल का दर्द अब/आग का दरिया बन फूटेगा/… और बरसों के बिलाप के बाद/गूंजेगी जंगल में फिर से/कोई नई मधुर मीठी तान/जो खींच लाएगी फिर से/जंगल के बाशिंदों को उस स्वर्ग से पनाहगाह में।’
अकेले-थकेले रहते हुए आदिवासी अपने में मस्त थे, पर वंचित भी थे।वे वंचित इस हद तक थे कि उन्हें न्यूनतम कपड़े तक नसीब नहीं होते थे।आदिवासी स्त्री बाध्य थी कि वे अपनी लाज रक्षा पत्तों को परिधान बना कर करें और लंबे समय तक वे ऐसा ही करती रहीं।निर्मल कुमार बोस ने ‘आदिवासी अर्थव्यवस्था’ शीर्षक से एक लेख लिखा था।इसके हवाले से यह पता चलता है कि 1928 में भी आदिवासी स्त्रियां गरीबी की वजह से पत्ते पहनने को विवश थीं।
मलयाली आदिवासी लेखक नारायण के उपन्यास में छोटी लड़की के सुपारी के पत्ते पहनने की चर्चा है।जबकि यह भी एक सच है कि भारत का वस्त्र उद्योग इतना विकसित था कि उसे हड़पने और तितर-वितर करने के लिए अंग्रेज हिंदुस्तान आ गए थे।आदिवासी चींटियां महज इसलिए नहीं खाते कि उनका स्वाद उन्हें खींचता है।
देश की आजादी के बाद भी आदिवासियों की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया।कहानीकार स्वयंप्रकाश की एक किताब है : धूप में नंगे पांव।यह उनके आत्म-अनुभव की किताब है।अपने इस कहानी संग्रह में उन्होंने आदिवासियों के शोषण के बारे में बतलाया है।बतलाया है कि आदिवासी इलाके में व्यापारियों द्वारा आदिवासियों का आर्थिक शोषण-दोहन चरम पर था।व्यापारी आदिवासियों से नमक के बदले चिरौंजी खरीदा करते थे।आदिवासी नमक के लिए व्यापारियों पर निर्भर थे।यह हाल था उड़ीसा का, जहां स्वयंप्रकाश ने अपनी नौकरी के छह साल गुजारे थे।
जीवन जैसा भी हो, वह अभिव्यक्त होता है।जो जीता है सबसे पहले वही अभिव्यक्त करता है।पहली अभिव्यक्ति बोल कर होती है।अनिवार्यत: मौखिक ही होती है।प्राचीन काल से आदिवासी समाज की भी अभिव्यक्ति मौखिक हुई और होती रही।आदिवासियों के पास जो है वह मौखिक है, आदिवासी अपनी परंपरा के लिए ‘पुरखौती’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, यानी पुरखों का कहा हुआ! हिंदी में इसके लिए वाचिकता शब्द चलन में है।
आदिवासियों ने कभी इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की और न ही प्राथमिकता दी कि वह सब लिख लिया जाए जो अलिखित है।किसी भी समाज में लिखने की पहली जरूरत हिसाब-किताब रखने के लिए होती है।आदिवासी समाज के पास ऐसा कुछ नहीं था कि वे उसका हिसाब रखने के लिए उत्सुक हों।हिसाब रखने की जरूरत वहीं पड़ती है जहां मालिकाना का संघर्ष और दावा होता है।जब ऋण और महाजन जैसे शब्द नहीं हैं तो हिसाब-किताब की जरूरत ही कहां है!
‘वियोगी होगा पहला कवि’ और ‘आह से निकला होगा गान’ जैसी सोच आदिवासी अभिव्यक्ति के संदर्भ में सच नहीं है।आदिवासियों के गीत आह से नहीं उपजे।वे आनंद और रंजन के लिए बने।रंजन और आनंद के निमित्त जो रचना होती है, वह शर्तिया दोयम ही हो यह आवश्यक नहीं है।वहां भी जीवन बोलता है।अधिकांश आदिवासी रचनाएं वाचिक हैं।उनमें सामूहिकता, सहजीविता और सहअस्तित्व के स्वर गूंजते हैं।डब्ल्यू जी आर्चर ने भारतीय आदिवासी गीतों का संग्रह किया था।गीतों की संख्या लगभग दस हजार हैं।इसकी सूचना वंदना टेटे के हवाले से मिलती है, मगर प्रतियां उपलब्ध हैं अथवा नहीं, इसकी सटीक जानकारी नहीं है।डब्ल्यू जी आर्चर की कई पुस्तकें भारतीय पेंटिंग्स पर केंद्रित हैं, इसकी जानकारी विकीपीडिया पर है, मगर आदिवासी गीतों के संग्रह का उल्लेख वहां नहीं है।
पूर्वोत्तर की तेमसुला आओ इस मायने में एक विशिष्ट नाम है।उन्होंने मौखिक आदिवासी साहित्य को लिखित में बदला है।इस काम में उन्होंने अपना बारह साल लगाया है।वे पूर्वोत्तर के आओ नगा समुदाय से आती हैं।उनका यह काम नगा समुदाय के मौखिक साहित्य का ही प्रामाणिक दस्तावेज माना जाता है।वे पशे से प्राध्यापक रही हैं।वे अंग्रेजी में लिखती हैं।
भारतीय और दुनिया की भाषाओं में ‘अलिखित’ को लोक साहित्य कहने का चलन है।मगर आदिवासियों को अपने ‘अलिखित’ को लोक साहित्य कहने से परहेज है।क्योंकि उनके ‘अलिखित’ को अगर साहित्य न माना जाए तो उनके लिखित साहित्य की उम्र बहुत कम होगी।वह ‘मान्यता’ के दावों को कमजोर भी कर सकता है।
भारत में आदिवासियों के लिखने का दौर अंग्रेजों से साबका पड़ने के बाद ही आरंभ होता है।अंग्रेजों ने ही भारतीय आदिवासियों के स्थिर जीवन में हायतौबा मचाया।उन्होंने लूट मचा दी।बसा-बसाया घर उजाड़ दिया।कुल मिलाकर अंग्रेजों ने आदिवासियों का काफी दमन-दलन किया।क्योंकि इनके पास जमीन, काठ और खनिज की अकूत संपदा थी।मामला केवल संपदा तक का नहीं था।आदिवासी मेहनती थे और वे सस्ती श्रमशक्ति थे।आदिवासी एक ऐसा समुदाय था जो किसी धर्म के लपेटे में नहीं था।अंग्रेजों के लिए यह सब मिलाकर सोने पर सुहागा था।यही वजह है कि आदिवासी क्षेत्रों में उनकी पूंजी, पइंचा और पैना की व्यवस्था लहराने लगी।वैश्वीकरण युग में आदिवासी स्थितियां उपनिवेशवाद का ही विस्तार हैं।अब तक जो केवल भारतीय व्यवस्था के मारे वंचित थे, वे वैश्विक लूट और वंचना के शिकार हो रहे हैं।
सच कुछ ऐसा है :
रात को
गोरे आदमी ने मेरे बाप की हत्या की
मेरा बाप अभिमानी था
गोरा आदमी मेरी मां को बहका कर ले गया
मेरी मां सुंदर थी
गोरे आदमी ने मेरे भाई को जला दिया
दिन दहाड़े सूरज तले
मेरा भाई बलवान था
काले खून से रंगे हाथों के साथ
गोरा आदमी मेरी तरफ मुड़ा
विजेता के स्वर में बोला
‘खरीदो – एक कुर्सी
एक नैपकिन और शराब का एक पैग!
यह कविता अफ्रीकन कवि डेव्हीट डिओप की है।
संपर्क: एन बी सी सी, विबव्योर टावर्स, फ्लैट नं. सी-11.3, न्यू टाउन मो.9433076174
यह एक अच्छा लेख हैं । अपनी मंशा में साफ़, आदिवासी समाजों के प्रति संवेदनशील, भाषायी वैविध्य के प्रति विवेकपूर्ण सामाजिक संबंधों के मामले में सहिष्णु और दृष्टिकोण में कुल मिला कर प्रगतिशील एक शोधपूर्ण लेख है । इसके लिए मृत्युंजय जी को साधुवाद ।
बहुत ही सारगर्भित आलेख है जो पुरे भारत वर्ष आदिवासियों को समेटने की कोशिश करता है| हार्दिक बधाई सिर