नर्मदेश्वर
1975 के बाद उभरे, गांव से जुड़े महत्वपूर्ण कथाकार| कहानी संग्रह : ‘जलदेवता’, ‘बांस का किला’, ‘नील का दाग’ और ‘चौपाल’| कविता संग्रह ‘आग की नदी’|
जब बुढ़ापा सर पर सवार हुआ, संगीत विद्यालय में शागिर्दों की संख्या घट कर चौथाई से भी कम हो गई| सारे उस्ताद एक-एक कर कम होते गए| खान साहब की आवाज में भी पहले जैसी बुलंदी और मिठास नहीं रही| वे पुरखों की मजारों के बीच दो गज जमीन हासिल करने का हक मांगने अपने शहर आ गए|
बारादरी मुहल्ले में उनकी पुश्तैनी हवेली थी| वह खस्ता-हाल हो चुकी थी| सिर्फ तीन कमरे साबुत बचे थे| उनमें से दो कमरों में नीचे से ऊपर तक तेंदु पत्तों के बंडल भरे थे| छुन्नू मियां ने उन्हें अपना गोदाम बना दिया था| बीड़ी का करोबार करने के अलावे वह तेंदु पत्तों का ठेकेदार भी था| देख-रेख करते रहने की हिदायत के साथ उसे हवेली की चाभी देकर खान साहब ने गलती की थी| कमरों को खाली करने की बात पर छुन्नू मियां ने हँस कर कहा, ‘ये तेंदु पत्ते हैं खान साहब, तानपूरा या तबला नहीं कि उठाए और जहां मन किया वहां चल दिए| आपके और आपकी बेगम के लिए एक कमरा काफी है| बाल-बच्चे होते तो तंगी होती| रसोई के लिए बरामदा है ही|’
‘अरे नहीं छुन्नू मियां! बैठकखाना खाली रहता तो मुलाकाती लोगों के लिए सुविधा होती| बैठकखाने से जुड़ी पुरानी यादों को मैं फिर से ताजा करना चाहता हूँ| चचा जान के जमाने में बैठकखाने की रौनक देखते बनती थी| जमीरा के जमींदार और प्रसिद्ध मृदंग वादक बाबू ललन सिंह, धनगाई के धु्रपद गायक पंडित जी महाराज, डुमरांव के शहनाई वादक और बनारस के तबलावादक चचा जान के पास आते-जाते रहते थे| चचा जान की याद में मैं इस बैठकखाने को संगीत-साधना का केंद्र बनाना चाहता हूँ| दो-चार सगीत-प्रेमी शागिर्दों को जुटा लेना कोई मुश्किल काम नहीं| बैठकखाना खाली कर देते तो इसमें संगीत-विद्यालय खोलने की ख्वाहिश थी|’
‘अपनी उम्र का कुछ तो ख्याल करो खान साहब! पांव कब्र में लटके हैं और चले हैं संगीत-विद्यालय खोलने| चुपचाप पड़े रहिए और अल्लाह का नाम लीजिए|’ छुन्नू मियां की बात खान साहब को नश्तर की तरह चुभ गई|
‘खान साहब?’ कुछ लोगों ने दरवाजे पर दस्तक दी|
‘कौन?’ अपनी लुंगी संभालते हुए खान साहब बाहर निकल आए|
‘हमलोग रंगकर्मी हैं| अपनी नाट्य–संस्था की तरफ से आपको सम्मानित करना चाहते हैं| परसों शाम को हममें से कोई एक आपको लेने आएगा| हमारे मुख्य अतिथि आपको और इस जिले के नामी ढोलकिया फुदुर बाबा को पत्र–पुष्प भेंट करके सम्मानित करेंगे| उम्मीद है आप हमें निराश नहीं करेंगे|’
‘अरे यह तो हमारी खुशनसीबी होगी| लेकिन आप लोगों ने मेरा पता कैसे पाया?’ खान साहब के चेहरे पर खुशी और अचरज की लकीरें एक साथ उभर आईं|
‘धनगाई के नंदलाल बाबा ने हमें आपके पास भेजा है| वे आपको अच्छी तरह जानते हैं| वे हमारी नाट्य-संस्था के संगीत-निर्देशक हैं|’
‘हां, हां| बड़े भले आदमी हैं| धनगाई घराने से हमारा पुराना ताल्लुक है| पिछले दिनों स्टेशन पर मिले थे| वे नहीं होते तो मेरे लिए साजो-सामान लेकर रेलगाड़ी से उतरना मुश्किल होता| मुझे देखते ही उन्होंने हाथ बढ़ाकर तानपूरा थाम लिया था| उनके बिना ट्रंक उतारना तो और मुश्किल था| खुदा उन्हें सलामत रखे, अपने शहर के नौजवानों का कला-प्रेम देखकर वे कलकत्ता छोड़ने का सारा गम भूल गए|
नाटक मंचन की वह यादगार शाम खान साहब आज तक नहीं भूल पाए हैं| कितने आदर-सत्कार के साथ उन्हें मंच पर ले जाया गया था| जिलाधिकारी साहब ने उन्हें शाल समर्पित करके एक लिफाफा भी भेंट किया था|
आयोजकों के आग्रह पर उन्होंने धु्रपद का एक पद सुनाया था| चूंकि नाटक का मंचन गांधी जयंती के अवसर पर हो रहा था, इसलिए उन्होंने विष्टुपुर के मशहूर संगीतकार सुरेंद्र जी बंद्योपाध्याय की ब्रजभाषा में लिखी हुई रचना ‘गांधी-राग’ का गायन किया था| गांधी जी के उपवास की स्मृति सजीव हो उठी थी| फुदुर उपाध्याय ढोलक पर संगत कर रहे थे| उनका ढोलक जैसे ललन बाबू का मृदंग बन गया था| ऐसे ढोलकिया बिरले होते होंगे| गायन समाप्त करके उन्होंने फुदुर जी को गले लगा लिया था|
कलात्मक गाने में लोग अब उतनी दिलचस्पी नहीं लेते, पर उनके शहर के लोगों ने उन्हें ध्यान से सुना था| इससे उन्हें तसल्ली मिली ही, यह उम्मीद भी जगी कि यहां शास्त्रीय संगीत सीखने वाले कुछ शागिर्द जरूर मिल जाएंगे| नाटक देखने के दौरान वे अपने संगीत विद्यालय के सपने को साकार होने की कल्पना में डूबे रहे| ऐसे गुनी समाज में उनकी कला की कद्र जरूर होगी, घर पहुंचने तक वे यही सोचते रहे|
लेकिन मंचन के इतने दिनों बाद भी किसी ने उनके दरवाजे पर दस्तक नहीं दी और न किसी दूसरे समारोह में उन्हें आमंत्रित किया गया| कलकत्ता से आए महीना भर से ऊपर हो गया था| राशन और जरूरी सामान जुटाने में मुश्किल पेश आने लगी| सिर्फ जिलाधिकारी द्वारा मिले लिफाफे की रकम शेष बची थी| खान साहब दिन-दिन भर घर से बाहर रहने लगे| उन्होंने प्राइवेट विद्यालयों के चक्कर लगाए| किसी ने उन्हें संगीत-शिक्षक के रूप में बहाल नहीं किया| कई विद्यालयों में पहले से शिक्षक नियुक्त थे| बहुत सारे विद्यालय संगीत और कला-शिक्षकों को गैर-जरूरी समझते थे| खान साहब ने दुकानों में मुनीम बनने की भी कोशिश की थी| इसमें भी कामयाब नहीं हुए| एक वकील साहब ने अपनी लड़की को संगीत शिक्षा देने के लिए बुलाया भी तो गोरक्षिणी मुहल्ला इतना दूर था कि रोज-रोज वहां जाना मुश्किल था| रिक्शे से जाते तो महीना इतना कम था कि पंद्रह दिन में ही सारी राशि समाप्त हो जाती| ऐसी नौकरी से उन्होंने तौबा कर लिया|
खान साहब उदास रहने लगे| उनकी बेगम चिड़चिड़ी होती गईं| हवेली के पीछे की दीवार ढह गई थी| वहाँ नीम का दरख्त उग आया था| वह इतना बड़ा हो गया था कि काटा भी नहीं जा सकता था|
नीम के नीचे बैठे खान साहब किसी राग का रियाज कर रहे थे| बेगम गुसलखाने में थीं| एक कुत्ता आया और चूल्हे पर रखा भात का तसला उठाकर खंडहर की ओट में चला गया| अलगनी पर कपड़े पसारते वक्त बेगम की नजर कुत्ते पर पड़ी| वे चिल्ला उठीं ‘आंखें बंद करके अस-आ करते रहो| आज खाना भी नसीब में नहीं| भात का तसला कुत्ता ले गया और तुम्हें कुछ पता ही नहीं| राजा हरिचंद पर विपद परी, पाकल मछरी जल में गिरी|’
खान साहब उठे और चुपचाप हवेली से बाहर निकल गए| कल उन्होंने जानी बाजार में मजदूरों की भीड़ देखी थी| पूछने पर पता चला कि रोज आठ-नौ बजे वे लोग वहीं जुट जाते हैं| जिन्हें मिस्त्री या मजदूरों की जरूरत होती है, वे जानी बाजार जरूर जाते हैं| खान साहब ने एक मिस्त्री और एक मजदूर से मोल-भाव किया और उन्हें लेकर घर लौट आए| पास की दुकान से उन्होंने एक बोरी सीमेंट खरीदी| हवेली के पास केदार साह का बालू गिरा था| साह जी से कुदाल, तगाड़ी और दो बोरी बालू मांग कर वे टूटी हुई दीवार की मरम्मत करवाने लगे| शाम तक दीवार इतनी ऊंची हो गई कि कुत्ते या दूसरे जानवर अब भीतर नहीं आ सकते थे| लिफाफा के ग्यारह सौ रुपये खत्म हो गए| ऊपर से साह जी का कर्ज चढ़ गया| न जाने बालू के कितने रुपये देने पड़ेंगे| मिस्त्री-मजदूर को बिदा करने के बहाने खान साहब बाहर सड़क पर आ गए| उन्हें कल की फिक्र सताने लगी| मगरिब की अजान सुनकर उन्हें अपने दोस्त मुल्ला की याद आई| नमाज के बाद वे उनसे जरूर मिलेंगे| शायद कोई रास्ता निकल आए| बिना रोजी-रेाजगार के कैसे चलेगा?
‘कहो खान, कैसे हो?’ मस्जिद की सीढ़ियां उतरते हुए मुल्ला ने पूछा|
‘हालत पतली है यार| मुझे कलकत्ता नहीं छोड़ना चाहिए था| दो वक्त की रोटी जुटानी भी मुश्किल हो गई है| कोई काम दिला देते तो बड़ा एहसान होता|’
‘अपने आपको खुदा के हवाले कर दो| इस्लाम का मतलब ही होता है, आज्ञापालन और समर्पण| संगीत को मारो लात और खुदा की खिदमत में लग जाओ| खुदा ने तुम्हें बुलंद आवाज दी है| खुदा को आवाज दो| वह तुम्हारी सारी तकलीफें दूर कर देगा| मेरी बात मानो और मस्जिद में अजान देने का काम शुरू कर दो| वैसे तो मुअज्जिम के जिम्मे मस्जिद की साफ-सफाई का काम भी रहता है, लेकिन इसके लिए मैंने एक लड़के को बहाल कर रखा है| दोस्त हो, इसलिए हर महीने चार हजार मिल जाएंगे| मस्जिद तुम्हारे घर के पास है, आने-जाने में दिक्कत नहीं होगी| मेरी समझ में तो तुम्हारे लिए इससे अच्छा कोई काम नहीं होगा|’
‘बिला नागा पांच वक्त आना होगा| आज तक मैंने न कभी नमाज पढ़ी है और न कभी रोजा रखा है| इबादत वो क्या जिसमें पाबंदियां हों| यह काम मुझसे नहीं होगा|’
‘सोच लेना… अच्छा लगे तो आ जाना| मस्जिद के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले हैं|’ मुल्ला ने खान साहब की आंखों में झांकते हुए कहा|
रास्ते में छुन्नू मियां मिल गए| अपनी दुकान बंद करके वे घर लौट रहे थे| दोनों साथ-साथ चलने लगे| चुप्पी तोड़ते हुए खान साहब ने कहा, ‘अच्छा किया कि तुमने मेरे दोनों कमरों को गोदाम में तब्दील कर दिया| मेरी हालत ऐसी नहीं कि मैं तीनों कमरों को सजा-संवार सकूं| बुरा न मानो तो एक बात कहूँ?’
‘हाँ, हाँ| शौक से कहिए| मैं आपकी खिदमत में हाजिर हूँ|’
‘दोस्त हो, तुमसे न कहूंगा तो किससे कहूंगा| मेरे दोनों कमरों का कुछ किराया तय कर देते तो अच्छा होता| क्या देना चाहते हो, तुम्हीं कह दो|’
‘कैसा किराया? हवेली का आधा हिस्सा तो मैंने अपने नाम लिखवा लिया है| आपके चचा जान के साहबजादे पाकिस्तान से पांच–छह महीने पहले आए थे| अपना हिस्सा उन्होंने मेरे नाम कर दिया है| जिस कमरे में आप रहते हैं, वह भी मेरे हिस्से में आता है| दोस्त हैं, इसलिए किराया नहीं मांगा| यकीन नहीं हो तो कागज देख लें|’ छुन्नू मियां की बात सुनकर खान साहब सन्न रह गए| कागज देखने की हिम्मत नहीं हुई|
‘अरे नहीं छुन्नू मियां| तुम झूठ क्यों बोलोगे? पैसों की तंगी नहीं होती तो तुमसे किराये के लिए नहीं कहता| अनजाने में गलती हो गई| मुझे माफ कर दो| कोई काम दिला देते तो तुम्हारी बड़ी मिहरबानी होती| राशन वाला भी अब उधार नहीं देता|’
‘कहिए तो बीड़ी बनाने के लिए पत्ते और सूखा भिजवा दें| इसके सिवा कोई दूसरा काम मेरे हाथ में नहीं है| बेगम अकेले रह जाएंगी|’ छुन्नू मियां की बातों का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया| मुल्ला साहब अजान देने की नौकरी दे रहे हैं और छुन्नू बीड़ी बनाने के लिए कह रहा है| एक कलावंत गवैये की ऐसी बुरी हालत होगी, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था|
कुछ साल पहले खान साहब गंगा महोत्सव में शामिल होने बनारस गए थे| इत्तेफाक से वे उसी बजरी पर सवार हुए जिसपर भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान मौजूद थे| देश का सबसे बड़ा सम्मान पाकर भी वे बच्चों जैसे साफ और सरल इंसान थे| बातचीत के दौरान बिस्मिल्लाह साहब ने कहा था, ‘राज गया, साज गया| राजे-रजवाड़े और जमींदार गए, शास्त्रीय संगीत भी अपने साथ लेते गए| अब कलाकारों की कोई पूछ नहीं| सम्मान खाना-कपड़ा नहीं देता, ताम्रपत्र से भूख नहीं मिटती|’ बिस्मिल्लाह साहब की बात कितनी सच थी, वह आज समझ में आई| जब उन जैसे कलाकारों के बुरे दिन चल रहे हैं तो खान साहब जैसे अदने गवैये की क्या औकात?
थके-हारे बैल की तरह भारी कदमों से खान साहब हवेली में दाखिल हुए| बेगम रोटी सेंक रही थीं| बिना कुछ बोले-बतियाये खान साहब तख्त पर लेट गए| आधी हवेली के बिकने की खबर सुनकर बेगम का दिल टूट जाएगा| छुन्नू के बीड़ी बनाने का प्रस्ताव भी उनसे नहीं बताया जा सकता था| अजान देने का काम उन्हें शायद पसंद आ जाए! बिना रोटी खाए खान साहब पस्त पड़े रहे|
‘तबीयत ठीक नहीं है क्या मियां?’
‘भूख नहीं है बेगम|’
‘मना करने पर भी नहीं मानते| बाजार की चीजें मत खाया करो|’ बेगम की बातों का वे क्या जवाब देते! कैसे बतलाते कि जेब में चाय पीने के भी पैसे नहीं हैं| देर रात तक खान साहब को नींद नहीं आई| बुरे दिनों में अच्छे दिनों की याद क्यों आती है?
बचपन के दिन कितने अच्छे दिन थे| अब्बा कचहरी में पेशकार थे और चाचा नामी–गिरामी गायक| अब्बा बैठकखाने से आती स्वर–लहरियों को सुन कर जल–भून जाते थे और उन्हें स्कूल जाने की हिदायत देकर कचहरी चले जाते थे| खान साहब स्कूल जाने से कतराते थे| उनका सारा वक्त चचा जान के पास आने वाले संगीतकारों की खिदमत करने में गुजर जाता था| बंटवारे से पहले ही अब्बा का इंतकाल हो चुका था| खान साहब चचा जान के नक्शे–कदम पर चल पड़े|
संगीत की शुरुआती शिक्षा उन्हें चचा जान से मिली थी| उनकी ठुमरी से प्रभावित होकर चचा जान ने उन्हें संगीत की विधिवत शिक्षा लेने के लिए कलकत्ता भेज दिया था| उस्ताद करामत अली से गायन सीखने के बाद वे कलकत्ता में ही बस गए| वहां उन्हें गुलाम अली खां, अली अकबर खां और मुल्क के कई दिग्गज संगीतकारों को देखने-सुनने का मौका मिला| बंगाल के छोटे-बड़े कलाकारों की संगत और शोहबत में उनकी गायन कला दिन-पर-दिन निखरती गई| संगीत विद्यालय खोला और वह चल पड़ा| घर लौटने की फुर्सत ही नहीं मिली| चचा जान सपरिवार पाकिस्तान चले गए| जाते वक्त उनको विदा भी नहीं कर सका| दंगे के उस दौर में कलकत्ता छोड़ना संभव नहीं था| देर रात तक अतीत की यादें आती-जाती रहीं| नींद कब आई, पता ही नहीं चला|
आंखें खुलीं तो नीम के दरख्त पर धूप उतर आई थी| बेगम झाड़ू दे रही थीं| वे चटाई लेकर धूप में आ गए| चचा जान होते तो हवेली नहीं बेचने देते| हवेली नहीं बिकी होती तो दो कमरों के किराए से उनका बुढ़ापा आसानी से कट जाता|
‘लो मियां, चाय पी लो|’ चाय की प्याली खान साहब को थमाकर बेगम उनकी बगल में बैठ गईं|
‘तुम्हारी प्याली कहां है?’
‘बिना दूध की चाय मुझे अच्छी नहीं लगती|’
‘सादी चाय सेहत के लिए अच्छी होती है|’
‘कलकत्ता में तो तुम खालिस दूध की चाय पिया करते थे|’
‘समझने की कोशिश करो बेगम| इन दिनों मेरी माली हालत…’
‘सब देख-समझ रही हूँ| साठ सालों से तुम्हारे साथ रह रही हूँ| इतना भी नहीं जानती कि तुम परेशानी में हो? कलावंत गाने के दिन कब के लद गए| संगीत की पूछ पहले जैसी नहीं रही| इसीलिए कहती हूँ, कोई दूसरा काम खोजो|’ बेगम की आंखें नम हो आईं|
‘मुल्ला साहब मुझसे मस्जिद में अजान देने के लिए कह रहे हैं| चार हजार महीना देने के लिए तैयार है| लेकिन इसमें पाबंदियां बहुत हैं| रोज-रोज पांच बार मस्जिद जाना पड़ेगा|’ खान साहब ने छून्नू मियां के प्रस्ताव की चर्चा करना वाजिब नहीं समझा|
‘किस नौकरी में पाबंदियां नहीं हैं? लोग आठ–दस घंटे लगातार काम करते हैं, तब जाकर हाथ में पैसे आते हैं| अजान देने जैसा आसान काम तुम्हारे लिए सबसे अच्छा है| खुदा की खिदमत करके रोजी–रोटी चलाना पुण्य का काम है| जाओ और मुल्ला साहब को हां कह दो| क्या पता वे इस काम के लिए दूसरे को रख लें| अपनी टोपी पहनो और अभी जाओ|’ उनकी टोपी लाकर बेगम ने कहा|
‘मुल्ला साहब फजर की नमाज के बाद घर चले गए होंगे| मस्जिद में उनसे मुलाकात नहीं हो पाएगी|’
‘तो उनके घर चले जाओ|’
‘अजान के बोल मुझे याद नहीं|’ खान साहब ने एक और बहाना खोज लिया|
‘मुल्ला साहब से अजान के बोल लिखवा लेना| याद करने के लिए पूरा दिन पड़ा है| मेरी बात मानो और कल फजर की अजान से अपनी सेवा देना शुरू कर दो|’ बेगम की जिद के आगे खान साहब की एक नहीं चली| अनमने कदमों से वे हवेली के बाहर निकल आए|
‘आदाब मुल्ला साहब|’
‘आदाम! आदाब! आओ बैठो| तुम्हारी क्या खिदमत करूं?’ बगल की कुर्सी की ओर इशारा करते हुए मुल्ला साहब ने कहा|
‘कल फजर की अजान से ही मैं खुदा की खिदमत शुरू कर देना चाहता हूँ| लेकिन अजान के बोल मुझे याद नहीं…’
‘बस सात-आठ छोटी-छोटी पंक्तियां हैं| चाहो तो अभी याद कर सकते हो|’
‘आप आगे-आगे बोलें, मैं दुहराने की कोशिश करूँगा|’
‘अल्लाहु-अकबर| अल्लाहु अकबर|’
‘अल्ला अकबर| अल्ला-अकबर|’
‘हु क्यों छोड़ देते हो, अल्लाहु बोलो, अल्लाहु|’
‘अल्ला हो अकबर| अल्ला हो अकबर|’
‘यह शास्त्रीय संगीत नहीं, अरबी जुबान है| तुम्हारा तलफ्फुज ठीक नहीं| रियाज करने की जरूरत है|’
‘आप कागज पर लिख दें| याद करके आपको शाम तक सुना दूंगा|’ अपनी जेब से सादे कागज का एक टुकड़ा उनकी ओर बढ़ाते हुए खान साहब ने कहा|
‘याद हो जाए तो सुबह साढ़े-चार बजे मस्जिद में आ जाना|’ कागज पर अजान के बोल लिखते हुए मुल्ला ने कहा ‘तलफ्फुज भी ठीक करके आना|’
मुल्ला द्वारा दी हुई पर्ची जेब में डाले खान साहब घर लौट आए| उनका उतरा चेहरा देख कर बेगम ने पूछा, ‘क्यों मियां, क्या बात हुई?’
‘एक तो मुझे अजान के बोल याद नहीं, दूसरे मेरा तलफ्फुज भी ठीक नहीं| मुल्ला ने रियाज करने को कहा है|’ जेब से पर्ची निकाल कर खान साहब ने बेगम को थमा दी|
‘पहले याद तो कर लो तलफ्फुज मैं ठीक कर दूंगी|’ पर्ची पर नजर दौड़ाते हुए बेगम ने कहा|
दोनों नीम के नीचे बैठ गए| खान साहब पर्ची पढ़ते और याद करते रहे| बेगम उन्हें सुनती और सुधारती रहीं| पूरा दिन अजान के बोल याद करने में बीत गया| तलफ्फुज दुरुस्त करने के लिए बेगम भी शाम तक बैठी रहीं|
‘आखिरी बार सुन लो बेगम| अब और गलती नहीं होगी|’ खान साहब ने अल्लाहु अकबर से लेकर ला इला-ह इल्लाह तक के सारे बोलों को सुर में गाकर सुना दिया|
‘बहुत खूब! आप तो अरबी जुबान के आलिम हो गए| लेकिन फजर की अजान में एक पंक्ति अधिक होती है| उसे आप फिर भूल गए|’
‘आप नमाज नींद से बेहतर है वाली पंक्ति की बात कर रही हैं न बेगम? मुझे वह पंक्ति भी याद है, सिर्फ उसकी जगह याद नहीं है| शायद नीचे की दो पंक्तियों के ऊपर है?’
‘फजर की अजान देते वक्त इसे भूल मत जाना|’
‘सोने से पहले तुम्हें फिर सुना दूंगा| अरबी के भारी भरकम बोलों को रटते-रटते माथा भारी हो गया है| मेहरबानी करके मेरा तानपूरा ला दो बेगम| रवींद्र-संगीत गाकर मुझे तरो-ताजा हो लेने दो|…’ और खान साहब गाने लगे, ‘या खुदा, मेरे बोझ को हल्का मत कर, न मुझे दिलासा दे; उसे ढो सकूं, ऐसी ताकत दे|’
न्यू एरिया, गली नं.-7, सासाराम-821115, मो.7061254085
सुंदर कहानी।
बहुत अच्छी कहानी है। आधुनिक समय में कलाकारों की दयनीय स्थिति का मार्मिक चित्रण करती हुई। परिवेश को भी पूरी तरह जीवन्तता से दर्शाया गया है। महत्वपूर्ण बात यह कि रचनाकार ने कहानी में अज़ान के बोल भी बिलकुल दुरुस्तगी के साथ रखे हैं, इस एक्यूरेसी की उम्मीद कम ही होती है।
यथार्थ को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती कहानी के लिए साधुवाद।
बेहद मार्मिक कहानी।