वरिष्ठ कवि।कहानी उपन्यास नाटक निबंध ,भाषा साहित्य पर दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।राजस्थानी–राजस्थानी शब्द कोश भी।राजस्थान साहित्य अकादमी के अकादमी पुरस्कार सहित कई पुरस्कार मिलें।
१.
जगपति!
तुम्हें देखना अच्छा लगता है, लेकिन
चित्र में नहीं
एक दिन आओ
घड़ी-दो घड़ी बात करें
फुरसत निकालो!
मेरे पास भी बहुत बातें हैं
जगपति,
आदमी बातों का घर है
मैं आदमी नहीं हूँ जगपति
धरती का पसीना हूँ।
२.
जगपति,
राखी आई है
आओ, रक्षासूत्र बांध दूं!
आज के दिन
हाथ सूने नहीं रखे जाते!
मैं मांगूंगा नहीं, जगपति
मैं रक्षासूत्र का पसीना हूँ।
३.
जगपति
आज यह न्याय करो!
यह विश्व किसकी रचना है?
यह तुम्हारी रचना है कि मेरी?
तराजू तुम्हारे हाथ में है, जगपति
डंडी भी तुम्हारे हाथ में है
बोलो, जगपति!
संसार रचने के लिए
खून का पानी किसने किया?
मैंने जस नहीं लिया, जगपति!
मैं बूंद हूँ, छोटा हूँ
आप बड़े
आज न्याय करो, जगपति
यह जग किसकी माया है?
आपकी तो नहीं है
बताओ!
आज निर्णय कर दो, जगपति
जग में झोड़ है!
मैं निंवण हो बूझ रहा हूँ!
घाटा मत तोलना
डंडी नहीं मारना
मैं साष्टांग बन पूछ रहा हूँ
मैं आदमी नहीं हूँ, जगपति
मैं विश्व का पसीना हूँ।
४.
जगपति!
तुम चतुर नहीं हो, आदमी है
वह भोला नहीं है!
बिना मतलब वह…!
मंदिर जगमग वह करता है
आप कुछ न करो तो सूना भी वही करता है!
जगपति, तुम कुछ करते हो या
आदमी अपने में ही पागल है?… या
अपने पागलपन में अपने आप ही
आपको क्या से क्या मान लेता है
कुछ…विकार है, जगपति!
इसीलिए
आदमी आपके नाम का शिकार है
आपके पर्यायवाची पर तो
वह और वे
आपस में मर रहे मार रहे हैं
जगपति, आप हर सको तो बुद्धि-विकार हरो
सुख-शांति हो जाएगी आदमी के, और
धरती के
मैं आदमी नहीं हूँ जगपति
इस पीड़ा का पसीना हूंँ।
५.
धरती की मां
माटी है, जगपति
इसे बचाओ!
माटी आदमी से डर रही है
मैं आदमी नहीं हूँ, जगपति
मैं माटी का पसीना हूँ!
६.
जगपति, तुम्हें कोई खतरा नहीं है
मुझे जान प्यारी नहीं
मैं खतरों में काम करता हूँ
मुझे रोटी प्यारी है
आपको छप्पन भोग
भोग आपको कमाने नहीं पड़ते, जगपति!
मुझे अपनी मिर्च-रोटी
कमानी पड़ती है
मैं परजीवी नहीं हूँ जगपति!
मैं धरतीजीवी हूँ
मैं घरजीवी नहीं हूँ, जगपति
मंदिरजीवी नहीं
तुम मेरी मदद नहीं करते, क्योंकि
मेरे पास मिर्च-रोटी है
छप्पन भोग नहीं है
मैं आदमी नहीं हूँ, जगपति
मैं आदमी का पसीना हूँ।
७.
जगपति!
स्वर्ग में तुम्हारा जी अमूजने लग जाता है तो
तुम धरती पर आते हो
और बताते हो-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:
क्या आपको भारत की ही चिंता है, जगपति!
दुनिया की चिंता नहीं है?
तुम जगतपति हो, जगपति
भारतपति नहीं!
यह भ्रम तोड़ो जगपति!
मैं धरती का पसीना हूँ।
८.
जगपति
धरती पर श्मशान तुमने बनाए हैं
कब्र मैंने खोदी है
तुम
आदमी को अच्छे लगते हो, लेकिन
आदमी तुम्हें अच्छा नहीं लगता
मैं भी नहीं!
मैं ठड्डे से जीता हूँ, जगपति!
तुम ही नहीं धरती पर
और भी मुझे मारना चाहते हैं!
मैं आदमी नहीं हूँ जगपति
धरती का पसीना हूँ।
९.
युद्ध तुम्हारी रचना है, जगपति
मेरी नहीं
मैं विध्वंस के बाद आता हूँ
धरती पर
मैं आदमी नहीं हूँ, जगपति
आदमी का पसीना हूँ।
१०.
जगपति!
तुम बोलते नहीं, बोलो जगपति!
बताओ!
समुंदर में इतना पानी कहां से आया?
धरती पर माटी कहां से आई?
पहाड़ों पर पत्थर कहां से आए?
कहते हैं, आपको पता है, तो बताओ!
आकाश रीता क्यों है?
अंतरिक्ष शून्य क्यों है?
बोलो जगपति! आदमी बोलता है!
तुम आदमी से कम हो?
लगता है, तुम न बताने के लिए
भगवान बन गए हो!
भगवान बोलता नहीं, उसे कुछ बताना नहीं पड़ता..
भगवान को सबकुछ पता है..भगवान देखता है
भगवान किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है!
क्या भगवान यही है धरती पर?
डरो मत
तुम अपने भेद खोलो, जगपति!
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