प्राथमिक विद्यालय में शिक्षण कार्य एवं लेखन।
पहले गांव में ऊंची जाति वालों के घरों में विवाहोत्सव के समय अन्य जातियों के लोगों के लिए कोई न कोई काम जरूर हुआ करता था। जैसे कहार जाति उनके घरों में पानी भरते थे। कहारिन घर के कामों में मदद करती थी। लोहार घर से विदा हो रही बेटी के ससुराल के लिए लोहे की कड़ाही, तावा, कलछी, चिमटा आदि बनाकर तैयार करते थे। बढ़ई बेलन, चकला, पलंग, कुर्सी आदि जतन से तैयार करते थे। ये सभी साजो-सामान पाकर लड़की के ससुरालवाले फुले नहीं समाते थे। वे अपने गांव में शान से इन सामानों को दिखाते थे।
ननकू सिंह के बड़े भाई की बेटी की शादी हो रही थी। वैसे ननकू सिंह पांच भाई थे। लेकिन तीन भाई ही एकसाथ रहते थे। तीन में सिर्फ दो भाइयों की शादी हुई थी। शादी बड़े भाई की बेटी की हो रही थी। उनकी एकमात्र बेटी ही थी। ननकू सिंह की शादी नहीं हुई थी, इसलिए वे घर के मालिक थे। जब उनकी भतीजी की शादी हो रही थी तो मंगरूआ, जो दलित जाति का था, बाजार से मोटरी भर-भर कर किराने का सामान, जैसे चीनी, डालडा, तेल, बेसन, मैदा, मसाले, पत्तलें तथा खाने-पीने के अन्य सामान ढो रहा था। ननकू सिंह की बड़ी भाभी यानी ठकुराइन यह कहते नहीं थकती थी, ‘मंगरूआ, यह मेरी ही बेटी नहीं है, बल्कि तुम्हारी भी बेटी है।’
उस समय मंगरूआ की छाती गर्व से फुल जाती थी। उसे उनकी बेटी के लिए अपनत्व का एहसास होने लगा था। वह ठकुराइन के सूखी रोटी देने पर भी खाकर काम बड़ी खुशी से कर रहा था। एक दिन उसे ठकुराइन ने अपने घर की मजबूरी बताई, ‘शादी ब्याह का घर है। इसलिए खाना कभी घट जाता है, कभी बढ़ जाता है। इसलिए तुम बुरा मत मानना रे मंगरूआ। जो मिले, उसे खा लेना।’
मंगरूआ ने उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाया था।
गांव में ननकू सिंह की भतीजी का मतलब पूरे गांव की बेटी की शादी हो रही थी। सभी लोग अपने–अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे। गांव में मंगरूआ की घरवाली मंगरी दौड़–दौड़ कर कुम्हार के घर से अपने सिर पर टोकरी भर–भर कर मिट्टी के कुल्हड़ (गिलास), घड़ा, बर्तन सप्ताह भर ढोती रही थी। जब वह एक दिन थक कर पसीने से लथपथ हो गई, तो ठकुराइन ने अपनी छोटी गोतनी से कहा, ‘छोटकी, मंगरी को भी मीठा और पानी पिलाओ।’
मंगरी तभी आंगन में बैठकर सांस ले पाई थी। ठकुराइन की गोतनी ने मुंह बिचकाते हुए गुड़ की ढेली मंगरी के फैले आंचल में गिरा दी। मंगरी ने गुड़ के एक टुकड़े को मुंह में लेकर बड़े स्वाद लेकर खा लिया था और आंगन में नल के पास जाकर गटागट एक लोटा पानी पी गई थी। बाकी बचे गुड़ को उसने आंचल के कोर में अपने बच्चों के लिए बांधकर रख लिया था। …और दुगने उत्साह से काम में लग गई थी।
उसने आशा लगा रखी थी कि बड़ी ठकुराइन अपनी बेटी के ससुराल से आनेवाली साड़ियों में से पाढ वाली साड़ी और उसके पति के लिए धोती खुश होकर जरूर देंगी। मंगरी के दो छोटे-छोटे बच्चे थे। पहली बेटी छह साल की थी, दूसरा बेटा पांच साल का था।
जिस दिन बारात आने वाली थी, मंगरी का बेटा और बेटी ठाकुर के घर के पास बन रहे विभिन्न प्रकार के पकवानों की सुगंध दूर से ही ले रहे थे। दोनों बड़े खुश थे कि आज उन्हें खाने के लिए स्वादिष्ट पकवान मिलेंगे, क्योंकि ठाकुर के घर उसके मां और बापू कई दिनों से लगातार काम कर रहे थे।
बारात समय पर आ गई थी। धूम-धड़ाका के साथ काफी देर तक दरवाजे पर जमजमाहट थी। घोड़नाच खूब उछल-उछल कर चल रहा था। जोर-जोर से ढोल-सिंघा बज रहे थे। गांव के ठाकुरों ने बंदूक से ठांय-ठांय गोलियां भी छोड़ीं। मंगरी के दोनों बच्चे गोलियों से डर गए थे। उसके बाद वे घर आ गए थे। मां द्वार पूजा के समय दरवाजे के बाहर थी। फिर थोड़ी देर बाद घर आकर वह बच्चों से कह गई, ‘तुम लोग यहां रहना। मैं दोनों के लिए खाना लाने ठाकुर के घर जा रही हूं।’
दालान में खाना-पीना शुरू हो चुका था। अभी ब्राह्मण खिलाए जा रहे थे। इसलिए मंगरी एक तरफ दरवाजे से दूर परात लिए खड़ी रही। वह जानती थी बिना ब्राह्मण खिलाए दूसरी जाति के लोग नहीं खाते हैं। मंगरी दलित थी। दलितों की बारी तो सबसे पीछे आती है। ब्राह्मणों के बाद बारातियों को खिलाया जाएगा। फिर गांव के ठाकुरों को खिलाया जाएगा। तब पिछड़ी जातियों के लोगों को खिलाया जाएगा और सबसे अंत में दलितों की बारी आएगी। तब तक काफी रात हो जाएगी। दो ढाई तो जरूर बज जाएंगे। उसे उम्मीद थी 11 बजे तक ब्राह्मण जरूर खा लेंगे। अगर उसके बच्चे सो जाएंगे तो जगा कर खिलाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि ठाकुर के घर दिन भर काम कर रही थी, इसलिए थक जाने के कारण अपने घर खाना नहीं बना पाई थी। वह दरवाजे के पास खड़ी रही। घर के अंदर भंडार घर था। वहीं से लोग बर्तन में भर-भर कर व्यंजनों को दालान में खिलाने के लिए ले जा रहे थे। भोजन दालान में ही खिलाया जा रहा था।
एक बार ननकू सिंह घर से बाहर निकले थे। मंगरी ने उनसे मजबूरी बताई, ‘मालिक, दोनों बच्चे भूखे सो जाएंगे। घर में खाना नहीं पका है। थोड़ा-सा बच्चों के लिए खाना दिलवा दीजिए। मैं अपने लिए नहीं मांग रही हूं।’
ननकू सिंह ने धौंस दिखाते हुए डपट दिया, ‘देवता ना पित्तर चमार हुआ पवित्तर। ब्राह्मण खाए नहीं हैं, भोजन तुम्हें कैसे मिल जाए? थोड़ा इंतजार कर।’ यह कहकर वे तेजी से दालान की तरफ निरीक्षण करने चल दिए।
उसे लगा था, जिस अपनत्व से वह घर में जी-तोड़ काम कर रही थी, उसी अधिकार से मांगकर खाने में क्या लाज-शर्म है। यही सोचकर वह आई थी। लेकिन वह ननकू सिंह का जवाब सुनकर और अपनी दीनता के कारण लजा गई थी। अपनी स्थिति से उसे खुद पर शर्म आ रही थी। फिर भी उसे ठाकुर से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी। उसे काफी गुस्सा आ रहा था।
काम लेते समय पूरा परिवार बड़ी मीठी-मीठी बातें कर रहा था। सोचने लगी, जरा बरामदे में भीड़ कम हो तो ठकुराइन से अपनी बात कहती हॅूं। वे हमारे बच्चों की खातिर जरूर दिलवा देंगी। इसी आशा में काफी देर तक खड़ी रही। जब खड़े-खड़े पैर दर्द करने लगा तो बरामदे में घुस गई। जोर-जोर से मालकिन-मालकिन की आवाज लगाई। उस गहमागहमी में भी किसी ने मालकिन को ध्यान दिलाया। बड़ी ठकुराइन की मंगरी पर नजर पड़ी और वह गुस्से से उबल उठी। आंखें तरेरते और कुछ बुदबुदाते हुए वह महिलाओं की भीड़ में लौट गई।
मंगरी सोच रही थी। जब काम था तो मालकिन उसकी प्रशंसा करते नहीं थकती थी। आज देखते ही गुस्से में बुदबुदाने लगी। फिर भी मंगरी ढीठ की तरह खड़ी थी। एक बार उसे लगा कि वह लौट जाए।
तभी ननकू सिंह के छोटे भाई पर नजर पड़ी। उसे आशा की किरण नजर आई। आज वह न चाहते हुए भी मुस्कराते हुए उनसे अपनी बात दुहराई, ‘छोटे मालिक, दोनों बच्चों के खातिर थोड़ा-सा भोजन दिलवा दीजिए।’
छोटे मालिक शादी-ब्याह के घर में दौड़ते-भागते काफी तनाव में थे। मंगरी पर गुस्सा निकालने के लिए मौका मिल गया। गुस्से में आंखें तरेरते हुए बोले, ‘बिना सोचे-समझे मुंह उठाकर आ जाती हो। बिना ब्राह्मण, राजपूत के खाए तुम्हें भोजन मिलेगा? जाओ, बाद में आना!’ वे भी गुस्से में भीड़ की ओर चले गए।
मंगरी को तकलीफ हुई। वह मुंह लटकाए अपने घर की ओर मुड़ने लगी। मन तो कर रहा था कि परात से छोटे ठाकुर के भाई के मुंह पर मारे और चल दे। इन लोगों को जब काम लेना होता है तो पुचकारने लगते हैं। जरूरत पड़ने पर बाबू, भैया, दीदी करने लगते हैं। लेकिन जब हक देने की बारी आती है तो जाति-पाति आड़े आ जाती है। वह मन ही मन उनकी कई पीढ़ियों को कोसती और गालियां देती रही। वह सोच रही थी कि मैं यहां इतने सालों से इनके घर में काम करती रही हूँ। मुझे मांग कर खाने का हक है।
उसका मन कर रहा था जाकर अपने पति को मना कर दे कि अभी घर चलो। छोड़ दे इधर-उधर कुर्सियां लगाना। लेकिन एक औरत होकर इतनी बड़ी भीड़ में नहीं जा सकती थी। फिर बेटी की शादी थी। इसलिए घर जाना ही ठीक समझा।
घर पहुंच कर इधर-उधर नजरें घुमाई। दोनों बच्चे उसकी राह देख रहे थे। वे खाली परात देखकर निराश हुए। बेटा बोलने लगा, ‘मां, खाना नहीं मिला? क्यों नहीं मिला?’ मंगरी के पास कोई जवाब नहीं था। वह अपने बच्चों के नन्हे मन में कुछ गलत नहीं डालना चाह रही थी। इसलिए बोली, ‘अभी बराती खा रहे हैं। अभी गांववाले नहीं खा रहे हैं। जब गांववाले खाने लगेंगे तो खाना ला दूंगी।’
मंगरी बच्चों को गोद में लेकर खाट पर लेट गई। इधर-उधर की बातें करने लगी। मां की बातें सुनकर दोनों बच्चे कब सो गए, मंगरी को पता नहीं चला।
लेकिन मंगरी को नींद नहीं आ रही थी। वह मन ही मन खुद को कोस रही थी। वह जाति व्यवस्था को कोस रही थी। वह ठाकुर के परिवार को गालियां दे रही थी। उसे पता था कि उसकी गालियां सुननेवाला कोई नहीं है। उसे भी गाली देते-देते कब नींद आ गई, पता नहीं चला।
सुबह जब दिन चढ़ गया तो ठाकुर का चरवाहा भोजन ले आने के लिए कहने आया। एकबार मंगरी का मन किया कि साफ मना कर दे। लेकिन बच्चों को सोया देखकर एक बार फिर परात लेकर ठाकुर के घर चल दी। भंडारे से ठकुराइन पूरी और बुंदिया लाकर ढोलवाले की घरवाली को दे रही थीं।
देखते ही ठकुराइन कहने लगी, ‘अरे मंगरी, कई बार तुम्हें बुलाने को भेज चुकी हूँ। रात में बहुत भीड़-भाड़ थी, इसीलिए मैं तुमको भोजन नहीं दे पाई।’ ठकुराइन कुछ पूरियां और बुंदिया उसके परात में डाल रही थी। मंगरी अलग से एक दो बड़ी कटोरा भी ले गई थी। उसमें ठकुराइन ने आलू-परवल की सब्जी दी, जो अधिक गर्मी के कारण खराब होकर खट्टा महक रही थी। दूसरी कटोरी में रायता उड़ेल दिया था।
ठकुराइन कहने लगी, ‘जरा मंगरूआ को भेज देना। किस-किस घर से कुर्सियां और चौकी लाया है, पहुंचा देगा। उसके बिना बहुत सारा काम पड़ा हुआ है। हां, मंगरी, मैं एक बात कहना भूल गई। अपनी बेटी का इतने बड़े घर में विवाह किया है। लेकिन समधी बहुत कंजूस निकला। वह सब के लिए साड़ी और धोती नहीं लाया। तुम्हारी साड़ी और धोती बकाया रह गई। मैं बाद में खरीदकर तुम्हें दे दूंगी। तुम रहती तो शायद लड़ सकती थी। नाउन लड़ी तो साड़ी और धोती के बदले उसे नकद पैसा मिल गया।
मंगरी कुछ देर तक कोई जवाब नहीं दे पाई थी। वह जानती थी, बाद में कुछ होने वाला नहीं है। ठकुराइन ऐसे ही भूल जाएंगी। जैसा पहले से होते आया है। वह गुस्से को जब्त करने की कोशिश कर रही थी। फिर कुछ क्षण सोच कर बोली, ‘वे तो रात में घर आए ही नहीं है। कहीं गांव में पुआल के ढेर पर सो गए होंगे।’
वह सुखी पूरी, बुंदिया, सब्जी और रायता लेकर घर आ गई थी। सब्जी को कई बार नाक के पास ले जाकर सूंघी थी। वह खाने लायक थोड़ा भी नहीं बचा था इसलिए गुस्से में कटोरा सहित बकरियों के आगे डाल दी थी। बकरियां खाने के लिए में में करती हुई आपस में झगड़ने लगी थीं। फिर उसने बच्चों को खाने के लिए जगाया। दोनों बच्चे आंखें मलते हुए जग गए थे। वे जल्दी जल्दी आंख मुंह पर पानी का छींटा मारकर पूरी-बुंदिया पर टूट पड़े थे।
मंगरूआ ठाकुर की बेटी की विदाई के बाद घर के अंदर चादर तान कर सोया हुआ था। ठाकुर का चरवाहा बुलाने आया था। मंगरी ने पहले बच्चों को बताने से मना किया। फिर खुद ही निकल कर बाहर कह दिया, ‘यहां क्यों आए हो? जाओ, गांव में किसी पुआल के ढेर के नीचे सोया होगा। वह घर पर थोड़े ही आया है। रात भर जग कर काम किया है तो कहीं सो गया होगा।’
ठाकुर के चरवाहे के जाते ही मंगरी अपने पति मंगरूआ को जगाकर मुंह से आग के गोले बरसाने लगी थी और रात की सारी घटनाओं के बारे में बताया था। फिर उसने अपने पति को आंखें तरेरते हुए हिदायत दी थी, ‘अगर आज तू ठाकुर के घर काम करने गया तो तेरी खैर नहीं। अभी मैं बच्चों के साथ मायके चली जाऊंगी। कल से तुम खुद खाना बना लेना।
वह मंगरी के बदले हुए रूप के कारण भौंचक था। आज उसकी सिट्टी-पीट्टी गुम हो गई थी। इसलिए वह चादर से मुंह ढककर फिर इत्मीनान से सो गया। इधर ठाकुर के चरवाहे ने पूरा गांव छान मारा। लेकिन मंगरूआ का कहीं अता-पता नहीं था। ठाकुर अपने चरवाहे को अकेला आते देख काफी गुस्से में थे।
संपर्क सूत्र : त्रिदेव भवन, न्यूदिल्लियां, लाला कॉलेनी, संबिका पथ, डेहरी ऑन सोन, जिला-रोहतास-821307 (बिहार) मो.8404991573
स्कूल के दिनों में एक कहानी पढी थी ‘कहीं धूप कहीं छाया ‘ शायद श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी की लिखी हुई, ठीक से याद नहीं, कुछ कुछ इस कहानी की व्यथा कथा वही विवशता वयक्त करती है। कहानी के ददॆ को वयक्त करने में लेखक सफल हुए हैं। मेरी वधाई