प्रस्तुति : मनोज मोहन

हिंदी के साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया में निरंतर सक्रिय। वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान : समय समाज संस्कृति’  के संपादकीय विभाग से संबद्ध।

भारतीय शिक्षा की बात करें तो उसके तीन स्तर उभर कर आते है–स्कूली शिक्षा, उच्चशिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा। दुर्भाग्य की बात यह है कि इन तीनों स्तर पर शिक्षा-जगत में पहले से चली आ रही समस्याओं को लेकर कोई निदान नहीं सुझाया जा रहा है। नई शिक्षा व्यवस्था को मूलत: तीन बिंदुओं को देखने की ज़रूरत है। पहला यह कि इससे शिक्षा में कॉरपोरेटाइजेशन को बढ़ावा मिलेगा, दूसरा इससे उच्च शिक्षा के संस्थानों में अलग-अलग ‘जातियाँ’ बन जाएँगी, और तीसरा ख़तरा है अति-केंद्रीकरण का, जिस कारण अच्छी शिक्षा आम नागरिक क़े लिए अनुपलब्ध ही रहेगी। आजकल शिक्षा के अबाध निजीकरण पर जिस तरह ज़ोर दिया गया है, उससे समाज का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा, जबकि शिक्षा का उद्देश्य नागरिकता विकसित करना होना चाहिए। साथ ही ऐसे वातावरण तैयार करने की भी ज़रूरत है जिसमें पढ़ाई संभव हो, देश की चिंताओं से भी शिक्षा का जुड़ाव बनता हो। यह तय है कि निजी क्षेत्र हर समय लाभ कमाने पर अपने को केंद्रित रखेगा और इसका प्रतिफल होता कि व्यावसायिक और उच्च शिक्षा समाज के एक ख़ास वर्ग तक सुरक्षित रहेगी, जबकि देश के सभी बच्चों को एक समान अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा जैसे जरूरी मुद्दे पर यहाँ पढ़ें शिक्षाविदों और लेखकों के विचार। वे हैं पूनम बत्रा, अंबरीष राय, मृत्युंजय और शुभनीत कौशिक।
सवाल
  1. नई शिक्षा नीति में सकारात्मक और नुकसानदेह मुद्दे क्या हैं?
  2. गांधी के शिक्षा- संबंधी विचारों में अर्थपूर्ण क्या है? क्या प्रस्तावित शिक्षा नीति से उसक कोई संबंध है?
  3. स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक के शिक्षा के बुनियादी ढाँचे में फेरबदल का उद्देश्य क्या है?
  4. वर्तमान शिक्षा नीति उच्च शिक्षा पर क्या प्रभाव डालेगी ?
  5. वर्तमान शिक्षा नीति के उद्देश्य और लागू करने की पद्धति पर अपने विचार दें।

गैरबराबरी पर आधारित समाज में शिक्षा के लिए जमीनी हकीकत क्या है?

पूनम बत्रा

दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन में प्रोफेसर।

गांधी जी का शिक्षा-संबंधी विमर्श शिक्षा की आधुनिक और साम्राज्यवादी दृष्टि के पीछे निहित बुनियादी मान्यताओं पर एक प्रश्नचिन्ह था। गांधी जी ने ‘नई तालीम’ के नाम से एक समग्र शिक्षा व्यवस्था पेश की थी जो भारत के लोगों के सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश से कटी औपनिवेशिक शिक्षा की आभिजात्यवादी व्यवस्था का एक सकारात्मक उत्तर थी। गांधी जी की नजर में पाठ्यचर्या ‘चिंतन-मनन’ (गांधी जी का शिक्षा-संबंधी विमर्श शिक्षा की आधुनिक और साम्राज्यवादी दृष्टि के पीछे निहित बुनियादी डेलीबरेशन) की एक क्रिया थी। एक ऐसी क्रिया जिसमें औपनिवेशिक दासता की बेड़ियों में जकड़े समाज की तात्कालिक जरूरतों और चिंताओं को संबोधित करने की संभावनाएं छिपी थीं। उनके लिए पाठ्यचर्या ‘ज्ञान की किसी निश्चित, स्थिर दृष्टि’ पर आधारित चीज नहीं थी जबकि औपनिवेशिक चिंतन में शिक्षा की आधुनिकतावादी-सार्वभौमिक रूपरेखा ज्ञान की इसी पाषाण दृष्टि पर आधारित थी। लिहाजा, गांधीजी एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था के लिए चेष्टा कर रहे थे जो जन के बीच पुल का काम करे, उन्हें परस्पर निकट लाए और बच्चों तथा नौजवानों को न केवल अपनी बुद्धि से बल्कि अपने हाथों से भी काम करने के लिए सक्षम और प्रेरित करे।

नई शिक्षा नीति (एनईपी, 2020) समानता और बंधुत्व के गांधीवादी और संवैधानिक सिद्धांतों के विपरीत जाकर संपन्न और विपन्न वर्गों के लिए अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था की रूपरेखा पेश करती है। (चौथे प्रश्न का उत्तर देखें) यह नीति केवल कौशल और मूल्यों की शिक्षा पर जोर देती है (ताकि बाजार की जरूरतों को पूरा किया जा सके) और उस आलोचनात्मक ज्ञान तथा चिंतनशीलता की पूरी तरह अवहेलना करती है जिससे प्रश्न पूछने और सोचने वाला दिमाग पैदा होता है, एक ऐसा दिमाग जो अपनी और अपने सहोदरों की मुक्ति का स्वप्न देखता है और उसके लिए चेष्टा करता है। गांधीजी की स्वराज की अवधारणा और, ‘मुक्ति के स्वतंत्र प्रयोग में अन्य व्यक्तियों तथा मानव जाति की मुक्ति की संभावना’ का स्वप्न देखने वाले टैगोर व श्री अरबिंद की अपेक्षाओं को साकार करने के लिए ऐसा मस्तिष्क और ऐसा मनुष्य अनिवार्य है।

समाज के सबसे हाशियाई और वंचित तबकों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के उद्देश्य से भारत के संविधान में अनुसूचित जाति (एससी), अनसूचित जनजाति (एसटी) और बाद के दशकों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) – इन तीन श्रेणियों को संवैधानिक मान्यता दी गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 इन श्रेणियों को सभी वंचित और हाशियाई समूहों के साथ मिला कर एक विशाल ‘सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूह’ (सोशियो-इकोनॉमिकली डिसएडवांटेज्ड ग्रुप्स – एसईडीजी) की बात करती है। गौर करें कि इस प्रकार समूहबद्ध ‘एसईडीजी’ श्रेणी में आने वाले समूह का हिस्सा भारत की आबादी में लगभग 80 प्रतिशत है।

ऐसा करके राष्ट्रीय शिक्षा नीति वास्तव में इस सचाई पर पर्दा डाल देती है कि ये तीनों श्रेणियां किसी एक श्रेणी की उपश्रेणी नहीं हैं बल्कि ये संवैधानिक मान्यताप्राप्त अलग-अलग श्रेणियां हैं और इनकी स्थिति व जरूरतों का अलग-अलग ढंग से संबोधित किया जाना चाहिए। इसी प्रकार दूसरी पिछड़ी व वंचित श्रेणियों की भी अपनी खास जरूरतें और हालात हैं और उनको विशेष रूप से संबोधित किया जाना चाहिए। सभी वंचित व कमजोर श्रेणियों की विशिष्टता को नजरअंदाज करके और उन्हें वंचितों की विशाल श्रेणी में समाहित करके और इस बात को संस्थागत मान्यता देकर भारतीय राज्य अपने समाज के सबसे संवेदनशील और कमजोर तबकों की उन्नति की अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से भागने की कोशिश कर रहा है। इससे सामाजिक न्याय के उन मौलिक सिद्धांतों की भी अवहेलना होगी जिनकी बुनियाद पर 1950 में भारतीय गणराज्य की आधारशिला रखी गई थी।

एसईडीजी समूहों के लिए स्पेशल एजुकेशन ज़ोन (एसईज़ेड) की स्थापना का प्रस्ताव रख कर एनईपी वास्तव में देश की विशाल आबादी के लिए एक पृथक और दोयम दर्जे की राष्ट्रीय स्कूल एवं शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की स्थापना का प्रस्ताव रख रही है। इसका परिणाम यह होगा कि समाज की 20 प्रतिशत, तुलनात्मक रूप से संपन्न जनरलआबादी के लिए अलग शिक्षा व्यवस्था होगी और देश के बहुलांश एसईडीजी समूहों (80 प्रतिशत) – के लिए अलग व्यवस्था होगी।

एसईजेड नामक व्यवस्था के तहत कैसे-कैसे अनौपचारिक प्रावधान सुझाए जा रहे हैं, आप खुद देखें: अध्यापकों के लिए अल्पकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रम, साथी-शिक्षा यानी सहपाठियों द्वारा पढ़ाया जाना, विद्यार्थियों की मदद के लिए समुदाय की ओर से स्वैच्छिक प्रयास आदि। यदि खराब अध्यापन-अधिगम व्यवस्था से निकले अधकचरी तैयारी से लैस अध्यापकों वाली यह प्रथक शिक्षा व्यवस्था लागू होती है और इसे संस्थागत रूप दिया जाता है तो भारतीय शिक्षा के प्रसार और स्तर में बहुत तेजी से गिरावट आएगी।

संविधान में शिक्षा प्रदान करने का प्राथमिक दायित्व राज्य सरकारों को दिया गया है। इस सिद्धांत को चुनौती देते हुए नई शिक्षा व्यवस्था में उच्च शिक्षा संस्थानों के नियमन, फंडिंग, एक्रेडिटीशन (प्रमाणन), पाठ्यचर्या एवं कोर्स डिजाइन की बेहद केंद्रीकृत व्यवस्था सुझाई गई है। इस सघन केंद्रीयकरण के माध्यम से एनईपी सत्ता का संतुलन राज्य सरकारों से केंद्र सरकार की तरफ झुका देती है।

भाषाई-सांस्कृतिक धरातल पर भारत गहरी विविधताओं वाला समाज है। एक उचित शिक्षा नीति निर्धारित और क्रियान्वित करने के नाम पर जब आप भाषाई आधार पर बनाए गए राज्यों से राजनीतिक शक्ति छीन लेते हैं तो वास्तव में आप उनकी शैक्षिक स्वयत्तता और अधिकार को भी क्षीण कर देते हैं। आप ऐसी राज्य सरकारों की अपने लोगों की भाषाई एवं सांस्कृतिक पहचान को सींचने के लिए कदम उठाने की क्षमता को कुंद कर देते हैं। इससे हमारे राष्ट्रीय ताने-बाने में नई कड़वाहटें पैदा हो सकती हैं।

पूरे देश के लिए एक जैसी पाठ्यचर्या का सुझाव देते हुए नई शिक्षा नीति (एनईपी) पाठ्यचर्या और ज्ञान को विद्यार्थियों के विविध सांस्कृतिक व भाषाई संदर्भ के साथ जोड़कर देखने की जरूरत को खारिज कर देती है। यह शिक्षाशास्त्र की दृष्टि से भी संदेहास्पद सोच है और संविधान में दिए गए लोकतंत्र व बहुलवाद के सिद्धांतों के लिए भी चुनौती है। एनईपी भारत के संविधान की कितने गहरे तौर पर उपेक्षा कर रहा है, यह आप इस तथ्य में देख सकते हैं कि इस दस्तावेज में मौलिक अधिकारों का कहीं जिक्र तक नहीं किया गया है। इसमें केवल नागरिकों के मौलिक दायित्वों पर जोर दिया गया है और उनमें ‘भारतीय’ मूल्यों को सींचने, पोसने की जरूरत पर जोर दिया गया है; उनके अधिकारों की बात नहीं की गई है। और हां, भारतीय मूल्यों को भी एक समरूप ढंग से देखते हुए यह नीति विविधता को खत्म करके एक समरूप पहचान रचने की तरफ उठाया गया कदम दिखाई पड़ती है।

आज भारत के स्कूलों में अध्यापकों के दस लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं और बहुत सारे अध्यापकों के पास पर्याप्त शिक्षा और योग्यता ही नहीं है। ऐसे में एनईपी, 2020 से उम्मीद की जा रही थी कि वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित न्यायमूर्ति वर्मा आयोग (जस्टिस वर्मा कमीशन – जेवीसी, 2012) की सिफारिशों को लागू करने के लिए ठोस सुझाव देगी। न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने सुझाव दिया था कि शिक्षक-शिक्षा में सरकारी निवेश बढ़ाया जाए, राज्य सरकारों की सांस्थानिक क्षमता को और मजबूत किया जाए तथा विविधता व समावेशन की शिक्षा प्रदान करने के लिए पाठ्यचर्याओं को नए सांचे में ढाला जाए।

इसके विपरीत, एनईपी में शिक्षक-शिक्षा के लिए पूरे देश के वास्ते एक ही मॉडल पेश किया गया है जिससे साफ पता चलता है कि यह नीति विभिन्न राज्यों तथा शिक्षा के अलग-अलग स्तरों की आवश्यकताओं व चिंताओं के प्रति संवेदनशील नहीं है। यह नीति अध्यापकों को तैयार करने की एक समरूप और मानक व्यवस्था और एक अतिकेंद्रीकृत नियमन व्यवस्था लागू करना चाहती है जो केंद्र-राज्य टकरावों को निश्चित रूप से हवा देगी।राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को एक भविष्योन्मुखी विजन की तरह पेश किया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि यह नीति सभी को एक ‘समतापरक और स्तरीय शिक्षा’ मुहैया कराने में सफल होगी। एनईपी में प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा तथा प्रारंभिक साक्षरता व अंकज्ञान के क्षेत्र में हस्तक्षेप पर जोर दिया गया है जिसकी लंबे समय से आवश्यकता थी। साथ ही इसमें स्कूली पाठ्यचर्यात्मक एवं शिक्षाशास्त्रीय संरचना को पुनर्व्यवस्थित करने का सुझाव दिया गया है; शिक्षक-शिक्षा को व्यवस्थित करने का सुझाव दिया गया है; उच्च शिक्षा के लिए एक नई संस्थागत संरचना विकसित करने पर जोर दिया गया है; और स्कूलों व उच्च शिक्षा के नियमन व निगरानी की ‘सीमित मगर सख़्त’ (‘लाइट बट टाइट’) व्यवस्था विकसित करने पर भी जोर दिया गया है।

अगर उन सारे प्रस्तावों के ब्यौरों और बारीकियों में जाएं तो यह नीति भारत की शिक्षा व्यवस्था में फैली मौजूदा समस्याओं को संबोधित करने का प्रयास नहीं करती। पहली नजर में इसके ज्यादातर सुझाव नेकनीयत से पेश किए गए लगते हैं मगर चिंता की बात यह है कि वे गैरबराबरी आधारित समाज में शिक्षा की जमीनी हकीकत की बहुत ही उथली समझदारी से पैदा हो रहे हैं।

लिहाजा, इस नीति में जो मान्यताएं निहित हैं वे एनईपी 2020 में प्रस्तावित कई ‘इनोवेशंस’ यानी अभिनव प्रयासों को एक अवांछित दिशा में ले जाएंगी, जिससे शिक्षा के क्षेत्र में फैली मौजूदा चुनौतियों को हल करने की राह और मुश्किल हो जाएगी तथा गैर-बराबरी और बढ़ेगी।

शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून, 2009 में एक केंद्रीय कानून के माध्यम से ‘राज्य’ को देश के सभी बच्चों को समतापरक और स्तरीय शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इसके परिणामस्वरूप स्कूल न जाने वाले बच्चों (6-14 साल) की संख्या 2006 से 2014 के बीच 3 करोड़ से घटकर 60 लाख रह गई थी (एसआरआई-आईएमआरबी; युनिसेफ, 2014 में उद्धृत)। प्रारंभिक शिक्षा में ग्रॉस ऐनरोलमेंट रेट (जीईआर) 2000-2001 में 82 प्रतिशत था जो 2015-16 तक आते-आते 97 प्रतिशत हो चुका था (भारत सरकार 2018)। इन सराहनीय उपलब्धियों को देखते हुए यह उम्मीद की जा रही थी कि एनईपी 2020 में शिक्षा के अधिकार को विस्तार दिया जाएगा तथा प्री-स्कूल से लेकर 18 साल तक उम्र के सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिलेगा। एनईपी के 2019 के ड्राफ्ट में यह बात कही भी गई थी।

मगर, एनईपी 2020 तो शिक्षा अधिकार कानून पर पूरी तरह खामोश है! यह नीति संविधान के अनुच्छेद 21ए के प्रसंग में भी शिक्षा अधिकार कानून पर रोशनी नहीं डालती, जबकि उसमें ‘निशुल्क’ और ‘अनिवार्य’ शिक्षा के माध्यम से प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को एक संवैधानिक मान्यता दी गई थी। इसकी बजाय, एनईपी 2020 शिक्षा के अधिकार को गुज़रे ज़माने की योजना कह कर हाशिए पर ढकेल देती है। नीति में ये तो कहा गया है कि शिक्षा अधिकार कानून ने ‘सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने के लिए कानूनी आधार मुहैया कराया था’ और ‘प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में लगभग सार्वभौमिक दाखिलों का लक्ष्य हासिल करने’ में योगदान दिया था (पृष्ठ 4) मगर कहने का अंदाज ऐसा है, मानो यह कार्यभार अब पूरा हो चुका हो और अब इसकी कोई खास जरूरत नहीं बची है। फलस्वरूप, आने वाले समय में इस कानून का क्या महत्व व भूमिका होगी, इस पर यह नीति कुछ नहीं कहती। इसी का नतीजा है कि एनईपी ‘प्रारंभिक अवस्था से लेकर कक्षा 12 तक और 18 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को समतापरक और स्तरीय शिक्षा प्रदान करने’ पर तो जोर देती है मगर इस बात पर चुप्पी साध लेती है कि इसके लिए कौन-से कदम उठाए जाएंगे।’

स्कूली शिक्षा की पाठ्यचर्यात्मक एवं शिक्षाशास्त्रीय संरचना को 10+2 के स्थान पर 5+3+3+4 के नए ढांचे में ढाल कर यह नीति इस वास्तविकता को नजरअंदाज करने का प्रयास करती है कि इससे शिक्षा के अधिकार को विस्तार मिलनेवाला नहीं है। गौर करें कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार आरटीई कानून के क्रियान्वयन के मामले में बहुत कमजोर साबित हुई है। 2016-17 में देश भर के केवल 13 प्रतिशत स्कूल ही आरटीई के सारे नियमों का पालन करते पाए गए थे (रॉय एवं मजूमदार, 2019)। 2018-19 में तो ऐसे स्कूलों की संख्या घटकर महज 8 प्रतिशत रह गई थी। हालत यह थी कि ज्यादातर स्कूलों में लड़कियों और लड़कों के लिए पृथक शौचालय नहीं थे, पीने के पानी के लिए नल नहीं थे और असंख्य स्कूलों में अध्यापक-विद्यार्थी अनुपात निर्धारित मानकों के बहुत ऊपर चला गया था। आरटीई पर एक सावधानी भरी चुप्पी की आड़ में एनईपी इस वास्तविकता को भी नजरअंदाज कर देती है कि आरटीई के क्रियान्वयन के बाद देश में सरकारी स्कूलों का हिस्सा घटकर 65 प्रतिशत रह गया है।

सरकारी स्कूलों की संख्या में गिरावट के पीछे बीते सालों के दौरान शिक्षा के क्षेत्र में हुए खर्चों में कटौती का हाथ तो है ही, एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि संसाधनों को ‘समेकित’ करने के नाम पर बहुत सारे ऐसे स्कूलों का आसपास के दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया है जिनमें बच्चे कम थे। नीति आयोग की सस्टनेबल ऐक्शन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग ह्यूमन कैपिटल (साथ-ई)1 परियोजना के तहत अकेले 2018 में मध्य प्रदेश, झारखंड और उड़ीसा में 40 हजार स्कूलों का विलय किया था। गरीब और सुविधाहीन इलाकों में स्कूलों को बंद करने से लड़कियों के लिए शिक्षा की संभावना बहुत क्षीण रह जाती है जो कि लैंगिक न्याय के मोर्चे पर एक बहुत बड़ा झटका है, जबकि कई राज्यों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण सफलता हासिल कर ली थी। इसके बावजूद, एनईपी, 2020 में स्कूलों के विलय को जायज़ ठहराते हुए फिर सुझाव दिया गया है कि ऐसे छोटे स्कूलों को व्यावहारिक बनाया जाए जो ‘आर्थिक रूप से बहुत खर्चीले और संचालन की दृष्टि से जटिल’ दिखाई पड़ रहे हैं (पृष्ठ 28)।

‘लर्निंग आउटकम’ यानी शैक्षिक परिणामों को केंद्रीय मान्यता प्रदान करते हुए यह नीति शिक्षा के अधिकार को केवल सीखने के अधिकार में संकुचित कर देती है। जो भी, आरटीई पर एनईपी- 2020 की चुप्पी यह बताती है कि अब भारतीय राज्य इस अधिकार के क्रियान्वयन के प्रति संकल्पबद्ध नहीं रह गया है।

‘गैर सरकारी परोपकारी संगठनों’ को बढ़ावा देने तथा ‘शिक्षा के वैकल्पिक मॉडलों को छूट देने’ के लिए ‘स्कूलों को कम बंधनशाली बनाने की जरूरत’ पर जोर देते हुए एनईपी-2020 प्रारंभिक शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देती है।

इस प्रकार, यह नीति खराब बुनियादी ढांचे और अप्रशिक्षित अध्यापकों के सहारे चल रहे सस्ते निजी स्कूलों और केवल एक अध्यापक वाले स्कूलों को मान्यता देने का रास्ता भी खोल देती है। याद रखें कि ये दोनों स्थितियां शिक्षा अधिकार कानून का उल्लंघन हैं। इससे देश भर में फैले एक शिक्षक वाले एक लाख से अधिक एकल विद्यालयोंको भी मुख्यधारा में शामिल करने का रास्ता खुल जाएगा। इसका नतीजा यह होगा कि जिन राज्यों ने शिक्षा अधिकार कानून के प्रावधानों को लागू करने और ऐसे एक शिक्षका वाले विद्यालयों को खत्म करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली थी, वे भी पुराने ढर्रे पर लौटने लगेंगे।

मिसाल के तौर पर, हिमालच प्रदेश में इस दिशा में बहुत उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल हुई थीं, मगर अब इस तरह के राज्य भी शैक्षिक असमानता को एक बार फिर संस्थागत मान्यता देने के भागीदार बन जाएंगे।

सबको समतापरक और स्तरीय प्रारंभिक शिक्षा मुहैया कराने में भारतीय राज्य की विफलता ने देश भर में सस्ते निजी स्कूलों की बाढ़ ला दी है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कियान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई, 2019) के आकड़ों से पता चलता है कि निजी स्कूलों में जाने वाले लगभग 50 प्रतिशत विद्यार्थी 500 रुपये महावार से भी कम फीस देते हैं। इनमें से बहुत सारे स्कूल आरटीई के नियमों का पालन नहीं करते और इस प्रावधान की भी अवहेलना करते हैं कि ‘किसी भी बच्चे को ऐसी फीस या शुल्क या खर्चा अदा करने के लिए बाध्य न किया जाए जो उसे प्रारंभिक शिक्षा जारी रखने और पूरी करने से रोकती है’ (भारत सरकार, 2009ए पेज 3)।

कोरोना वायरस महामारी के दौर में बहुत सारे सस्ते निजी स्कूल बंद होते जा रहे हैं क्योंकि उनमें पढ़ने वाले लाखों बच्चों के मां-बाप ने आजीविका छिनने के बाद अपने बच्चों को स्कूल से निकाल लिया है। और एनईपी इसी अस्थाई और दुर्बल स्कूली संरचना को उत्साहपूर्वक बढ़ावा देना चाहती है। स्कूलों के निजीकरण के हिमायती (सीएसएफ, 2020) ऐसे स्कूलों के वास्ते सरकारी सहायता के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। वे यहां तक मांग कर रहे हैं कि ‘इस क्षेत्र को घाटे से उबारने के लिए उन पर लगाई गई नियमन व संचालन शर्तों और शुल्कों में ढील दी जाए, और ऐसे ‘निजी स्कूलों को सूक्ष्म लघु एवं मझौले उद्योगों (एसएसएमई) की श्रेणी में शामिल करके उन्हें बैंकों से सस्ती दर पर कर्जे दिए जाएं ताकि वे ऋण गारंटी व्यवस्था का लाभ उठा सकें।’

निष्कर्ष

एनईपी में जो उपाय सुझाए गए हैं उनको देखकर इस नीति में भारत के गैरबराबरी आधारित समाज में शिक्षा की जमीनी वास्तविकता की एक मुकम्मल समझ का अभाव साफ दिखाई देता है। यह नीति स्तरीय और समतापरक सरकारी शिक्षा मुहैया कराने के लिए एक व्यवस्थित रूपरेखा पेश नहीं कर पाती। न ही यह व्यवस्था ज्ञान के प्रसार और सृजन की दृष्टि से व्यावहारिक दिखाई देती है। यह नीति समानता, बंधुत्व और न्याय जैसे केंद्रीय संवैधानिक मूल्यों की सीमाओं को भी धुंधला करती है जो कि लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नागरिक तैयार करने वाली शिक्षा के लिए अपरिहार्य होती हैं।

बेशक, एनईपी-2020 एक क्रियान्वयन योजना या कार्यक्रम नहीं है और इस नीति के हिमायती यह तर्क देने से कभी नहीं चूकेंगे। मगर, सभी को समतापरक और स्तरीय शिक्षा प्रदान करने के लिए आवश्यक व्यवस्थागत एवं संरचनात्मक साधनों का बंदोबस्त करने के सवाल पर इसकी चुप्पी से इसकी कलई खुल जाती है। एनईपी में जो बहुत सारे नीतिगत सुझाव दिए गए हैं, वे लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष नागरिक और एक समतापरक समाज विकसित करने के केंद्रीय संवैधानिक मूल्यों को सींचने के राज्य के दायित्व की अवहेलना करते हैं। कुल मिलाकर यह नीति देश के सभी बच्चों को समतापरक, स्तरीय शिक्षा मुहैया कराने के संवैधानिक शैक्षिक एजेंडा को धराशायी करने की चेष्टा दिखाई पड़ रही है।

(अंग्रेजी में दिए गए जवाब का अनुवाद : योगेंद्र दत्त)

प्रोफेसर ऑफ एजूकेशन, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007 ईमेल – batra.poonam@gmail.com

शिक्षा की उन्नति के लिए अकादमिक स्वायत्तता जरूरी

शुभनीत कौशिक

इतिहास के युवा शोधार्थी, गांधी के जीवन और दर्शन में रुचि। संप्रति : सतीश चंद्र कॉलेज (बलिया) में अध्यापन।

बुनियादी तालीम की धारणा को स्पष्ट करते हुए महात्मा गांधी ने लिखा था कि ‘बुनियादी तालीम हिंदुस्तान के तमाम बच्चों को हिंदुस्तान के सभी श्रेष्ठ और स्थायी तत्त्वों के साथ जोड़ देती है। यह तालीम बालक के मन और शरीर दोनों का विकास करती है; बालक को अपने वतन के साथ जोड़े रखती है।’ यहाँ मैं महात्मा गांधी के उस लेख की भी याद दिलाना चाहता हूँ जो उन्होंने 2 नवंबर, 1947 को ‘हरिजन’ में लिखा था। लेख का शीर्षक ही था : ‘नए विश्वविद्यालय’। इस लेख में विश्वविद्यालयों के साथ स्कूलों और कॉलेजों के महत्व पर समान ज़ोर देते हुए गांधी ने लिखा था कि ‘नए विश्वविद्यालयों के लिए उचित पृष्ठभूमि होनी चाहिए। विश्वविद्यालय हों उसके पहले उनका पोषण करने वाले स्कूल और कॉलेज होने चाहिए, जहाँ अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाए। तभी विश्वविद्यालयों का आवश्यक वातावरण खड़ा हुआ माना जा सकता है। विश्वविद्यालय चोटी पर होता है। शानदार चोटी तभी कायम रह सकती है जब बुनियाद अच्छी हो।’

गांधी ने इसी लेख में भाषा और विचार के प्रभुत्व की ओर इशारा करते हुए लिखा कि हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि ‘चूँकि हमें विदेशी प्रभुता से राजनीतिक मुक्ति मिल गई मालूम होती है, सिर्फ इसीलिए हम विदेशी भाषा और विचारों के प्रभाव से भी मुक्त हो गए हैं।’  

नई तालीम के अंतर्गत शिक्षा में हाथ के काम और परिश्रम के गौरव को स्थापित करने पर महात्मा गांधी ने विशेष ज़ोर दिया। गांधी का मानना था कि मनुष्य न तो कोरी बुद्धि है, न स्थूल शरीर है और न केवल हृदय या आत्मा ही है। संपूर्ण मनुष्य के निर्माण के लिए तीनों के उचित और एकरस मेल की ज़रूरत होती है और यही शिक्षा की सच्ची व्यवस्था है।

अब अगर गांधी के इन विचारों की तुलना हम नई शिक्षा नीति से करते हैं तो हम पाएंगे कि नई शिक्षा नीति व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण की बात ज़रूर करती है, लेकिन उसका उद्देश्य वह नहीं है जो गांधी का था। गांधी की बुनियादी तालीम का उद्देश्य देश और समाज को समृद्ध बनाना और गांवों की समृद्धि सुनिश्चित करना था। जबकि नई शिक्षा नीति द्वारा व्यावसायिक शिक्षा पर दिया जा रहा ज़ोर कॉरपोरेट दुनिया की बढ़ती माँग को पूरा करने की दिशा में बढ़ाया गया एक क़दम भर है।

उच्च शिक्षा में विश्वविद्यालयों व कॉलेजों के मौजूदा वर्गीकरण की जगह नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षण संस्थाओं को तीन प्रमुख वर्गों के अंतर्गत रखने की बात कही गई है। मसलन शोध विश्वविद्यालय, शिक्षण विश्वविद्यालय और कॉलेज। सबसे पहले तो यह बंटवारा संस्थागत स्तर पर विषमता की नई दीवारें खड़ी करेगा। दूसरा यह कि यह बंटवारा किए जाने के बावजूद शोध विश्वविद्यालयों से यह अपेक्षा की गई है कि वे स्नातक के विद्यार्थियों को भी दाख़िला दें। फिर इस वर्गीकरण का क्या तुक बनता है, यह समझ के परे है!

उच्च शिक्षण संस्थानों के नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय उच्च शिक्षा नियामक प्राधिकरण की स्थापना के साथ ही उसे नियामक की भूमिका अदा करने हेतु अर्ध-न्यायिक हैसियत देने का सुझाव भी दिया गया है। उच्च शिक्षण संस्थानों को वित्तीय अनुदान देने और इसके वितरण में क्षेत्रीय समानता सुनिश्चित करने हेतु इस रिपोर्ट में ‘उच्च शिक्षा अनुदान परिषद’ बनाने का सुझाव दिया गया है।

जहाँ एक ओर रिपोर्ट में पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन और शिक्षण पद्धति के संदर्भ में स्वायत्तता देने की बात कही गई है, वहीं उच्च शिक्षा संबंधी पाठ्यक्रमों, पाठ्यचर्या का एक आदर्श प्रारूप तैयार करने हेतु ‘नेशनल हायर एजुकेशन क्वालिफ़िकेशंस फ़्रेमवर्क’ बनाने की बात भी रिपोर्ट में है। साथ ही, वर्तमान नियंत्रक निकायों, जैसे नेशनल काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया आदि को व्यावसायिक शिक्षा के मानकों को तय करने का दायित्व दिया गया है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में नियंत्रण के ऐसे उपायों को हल्के पर कसे हुए नियंत्रण के रूप में देखा है।

समिति का यह सुझाव कहीं न कहीं एक अंतर्विरोध भी पैदा करता है, यानी एक ओर तो अकादमिक स्वायत्तता की बात हो रही है, वहीं दूसरी ओर बाकायदे फ़्रेमवर्क बनाकर विश्वविद्यालय और कॉलेजों की पाठ्यचर्या, उनके पाठ्यक्रम तक को भी नियंत्रित करने का रास्ता भी तैयार कर दिया गया है।

स्पष्ट है कि स्वायत्तता की बात महज एक दिखावा है। असल में, विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण अब पहले से भी कहीं अधिक होगा।     

यह रिपोर्ट निजी शिक्षण संस्थानों को भी समान रूप से प्रोत्साहन देने की बात करती है। जहाँ अभी तक उपाधियाँ (डिग्री) देने का अधिकार सिर्फ़ विश्वविद्यालयों के पास था, वहीं रिपोर्ट अब स्वायत्त कॉलेजों को भी डिग्री देने का अधिकार देती है। इससे नई समस्याएँ पैदा होने की भी आशंका है, क्योंकि वर्तमान में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग फर्जी विश्वविद्यालयों व कॉलेजों पर नियंत्रण करने की असफल कोशिश कर रहा है। लेकिन जब स्वायत्त कॉलेजों को भी डिग्री बांटने का अधिकार मिल जाएगा, तब फर्जी डिग्रियों के गोरखधंधे पर लगाम कैसे लगेगा, यह भी विचारणीय है। इसी तरह, उच्च शिक्षा के अंतर्गत पंजीकरण के लक्ष्य को हासिल करने हेतु मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा पर भी ज़ोर दिया गया है। मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा से से उच्च शिक्षित लोगों की संख्या कहने को भले ही बढ़े, पर ज़रूरी है कि इनकी गुणवत्ता भी सुनिश्चित की जाए।  

भारत में उच्च शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था में व्याप्त विखंडन की नीति पर समिति ने चिंता जाहिर की है। आज भारत में लगभग 800 विश्वविद्यालय और 40,000 कॉलेज हैं। चूंकि उच्च शिक्षा में पंजीकृत कुल छात्रों में से 93 फीसदी छात्र राज्य विश्वविद्यालयों में पंजीकृत हैं, इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति में राज्य विश्वविद्यालयों पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। समता और गुणवत्ता दोनों को सुनिश्चित करते हुए यह रिपोर्ट 2035 तक भारत में सकल पंजीकरण अनुपात को पचास फीसदी करने का लक्ष्य रखती है।

भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भावी दृष्टि से युक्त कुशल नेतृत्व के सिरे-से अभाव पर भी रिपोर्ट में चिंता जताई गई है। रिपोर्ट में व्यक्तिगत और संस्थागत स्वायत्तता देने की बात भी कही गई है, जिसमें प्रशासनिक, अकादमिक और वित्तीय स्वायत्तता शामिल है। रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा गया है कि सरकार वित्तीय स्वायत्तता का यह मतलब कतई न निकाले कि वह उच्च शिक्षण संस्थानों को मिलने वाले अनुदान में कटौती करेगी। समिति शिक्षण संस्थानों को पर्याप्त सरकारी अनुदान उपलब्ध कराने का सुझाव देती है। साथ ही, रिपोर्ट में कहा गया है कि संविदा या तदर्थ नियुक्तियों को तत्काल प्रभाव से रोका जाना चाहिए और इसकी जगह शैक्षणिक पदों पर नियुक्ति के कड़े मानक अपनाकर स्थायी नियुक्तियाँ की जानी चाहिए। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2019 के ड्राफ्ट में उल्लिखित शिक्षा संबंधी कुछ ईमानदार स्वीकारोक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं। एक ऐसी ही स्वीकारोक्ति भारत में शोध व नवाचार के क्षेत्र में निवेश के बारे में है। जिसके अनुसार पिछले एक दशक में भारत में दुर्भाग्यपूर्ण रूप से शोध व नवाचार में निवेश बढ़ने के बजाय घटता चला गया है। 2008 में जहाँ शोध क्षेत्र में निवेश जीडीपी का 0.84% था, वहीं 2014 में यह घटकर 0.69% हो गया।

इसकी तुलना जब कुछ अन्य देशों में शोध व नवाचार के क्षेत्र में हो रहे निवेश और जीडीपी के अनुपात से करते हैं, तो स्थिति की भयावहता खुलकर सामने आती है। विवरण देखें :

भारत –  0.69%,  अमेरिका – 2.8%, चीन – 2.1%, इज़राइल – 4.3%, दक्षिण कोरिया – 4.2%।

स्पष्ट है कि जहाँ चीन और अमेरिका द्वारा शोध के क्षेत्र में भारत से क्रमशः तीन और चार गुना अधिक निवेश किया जा रहा है, वहीं इज़राइल और दक्षिण कोरिया में यह निवेश भारत से छह गुना अधिक है।

शोध के क्षेत्र में भारत के सामने मौजूद चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की बात भी नई शिक्षा नीति में कही गई है। यह फाउंडेशन राष्ट्रीय स्तर पर पाँच सौ शोध छात्रवृत्ति और पाँच सौ पोस्टडॉक्टोरल फ़ेलोशिप देगा। लेकिन छात्रवृत्तियों की संख्या को देखने से ही यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि शोध और नवाचार के क्षेत्र में ये छात्रवृत्तियाँ ऊंट के मुँह में जीरा बराबर ही हैं

कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट पर आधारित नई शिक्षा नीति की अपनी सीमाएँ भी हैं। मसलन, इस रिपोर्ट में प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर स्कूलों में ड्रॉप-आउट की समस्या तो उठाई गई है, किन्तु उसका कोई कारगर समाधान नहीं बताया गया है। सतीश देशपांडे सरीखे समाजशास्त्रियों ने ड्रॉप-आउट की समस्या पर गंभीरता से विचार करते हुए इसे शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय राज्य की विफलता का एक ज्वलंत उदाहरण माना है। इस पर ध्यान न देना एक बड़ी कमी है। 

दूसरी ओर, व्यावसायिक शिक्षा, जिसमें विधि, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि की पढ़ाई शामिल है, के शुल्क निर्धारण का पूरा अधिकार व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन को सौंप दिया गया है। उल्लेखनीय है कि आज भारतीय प्रबंधन संस्थान (अहमदाबाद, कोलकाता और बेंगलुरू) में प्रबंधन की पढ़ाई का शुल्क 21-23 लाख है। कहना न होगा कि यह शुल्कसीमा गरीब ही नहीं, मध्यवर्गीय छात्रों की पहुँच से भी एकदम बाहर है।

एक और सुझाव जो समस्याग्रस्त है वह है शोध के विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर की पढ़ाई शुरू करने की नीति। यह क़दम शोध विश्वविद्यालयों के स्वरूप और उनके संगठनात्मक चरित्र के लिए भी घातक साबित होगा।

विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार और उनके प्रशिक्षण हेतु विश्वविद्यालयों में मानव संसाधन विकास केंद्र के समुचित संचालन के साथ-साथ समिति ने विश्वविद्यालयों में बुनियादी सुविधाएँ, जैसे पेयजल, छात्रावास, प्रयोगशालाएँ व पुस्तकालय, कक्षाएँ आदि सभी को मानकों के अनुरूप उपलब्ध कराने का सुझाव दिया है। लेकिन इन सुझावों पर क्रियान्वयन कब तक होगा, इनके लिए आर्थिक संसाधन कैसे जुटेंगे इसका नई शिक्षा नीति में कोई ज़िक्र नहीं। स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में वर्षों से शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं, इस समस्या का भी समाधान नई शिक्षा नीति में नहीं मिलता। दूसरे शब्दों में, नई शिक्षा नीति में शिक्षा संबंधी आदर्श बातें तो बहुतेरी कही गई हैं, लेकिन उन्हें यथार्थ में कैसे तब्दील किया जाएगा इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं मिलती। 

बापू भवन, टाउन हॉल, बलिया-277001  मो. 9868560452

डिजिटल शिक्षा बहुत कुछ बदलकर रख देगी

मृत्युंजय

प्रबुद्ध संस्कृतिकर्मी और लेखक।

 

नई शिक्षा नीति ‘ह्वाट टू थिंक’ पर नहीं, ‘हाउ टू थिंक’ की शिक्षा देगी। चौंतीस साल बाद बनी  नई शिक्षा नीति जब लागू होगी तब यह जिज्ञासा और कल्पना क्षमता पर बल देगी। एक ‘एंपावर्ड सोसाइटी’ का निर्माण करेगी। हम जानते हैं, पिछले कई दशकों से सोसाइटी बाजार का पर्यायवाची शब्द है। जाहिर है कि उपलब्धता और मांग का अध्ययन किया गया है। उसका प्रभाव इस शिक्षा नीति पर है।

सबसे बड़ी बात यह बताई गई कि नई शिक्षा नीति नवोन्मेषशील सोच और आलोचनात्मक सोच की नींव मजबूत करेगी। शिक्षा नीति के 23वें मुद्दे का सातवां हिस्सा है : ‘संपूर्ण शिक्षा नीति को रूपांतरित करने में तेजी से उभरती परिवर्तनशील प्रौद्योगिकी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।’ नई शिक्षा नीति प्रौद्योगिकी के माध्यम से शिक्षा देने पर बल देती है।

दूसरी शिक्षा नीति जब 1986 में बनी थी, भारत में वह डिजिटल प्रौद्योगिकी का पहला चरण था। स्वाभाविक था कि तब शिक्षा का वह रास्ता नहीं अपनाया जा सकता था जो डिजिटल प्रौद्योगिकी पर आधारित हो। पिछले चौंतीस सालों में डिजिटल प्रौद्योगिकी ने काफी लंबा सफर तय किया है। शिक्षा नीति के इसी पैरा में आगे लिखा गया है, ‘जब 1986/92 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई गई थी, तब इंटरनेट के वर्तमान क्रांतिकारी प्रभावों का अनुमान लगाना  कठिन था।’

2020 की तीसरी शिक्षा नीति में दूसरी शिक्षा नीति का मूल्यांकन करते हुए लिखा गया है, ‘हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली की तीव्र और युगांतरकारी परिवर्तनों का सामना करने की असमर्थता इस तेजी से प्रतिस्पर्धी होती दुनिया में हमें (व्यक्तिगत रूप से और एक राष्ट्र के रूप में) खतरनाक और हानिकारक स्थिति की ओर ले जा रही है। उदाहरण के लिए, आज जब कंप्यूटर ने तथ्यात्मक और प्रक्रियात्मक ज्ञान के मामले में मनुष्य को काफी पीछे छोड़ दिया है, तब भी हमारी शिक्षा व्यवस्था, उच्चतर स्तर की दक्षताओं के विकास  के स्थान पर, अपने विद्यार्थियों पर शिक्षण के सभी स्तरों पर ऐसे ज्ञान का अत्यधिक बोझ डालती रहती है। ‘इस मूल्यांकन में एक मुख्य बात है कि मनुष्य  अब ज्ञान के मामले में पीछे छूट गया है, उसके द्वारा शिक्षित होना  व्यर्थ है। नई शिक्षा नीति की बुनियाद इसी समझ पर खड़ी की गई है। मनुष्य नहीं, तो कौन देगा शिक्षा?

एक और दूसरा फलसफा है, ‘ज्ञान के अत्यधिक बोझ से विद्यार्थियों को मुक्त करना नई शिक्षा नीति की एक नीति है। ज्ञान की जगह उच्चतर स्तर की दक्षताओं का विकास किया जाएगा। यह बुरा नहीं है। सच है कि दक्षता भूख और दाना-पानी की दूरी कम करती है, बशर्ते रोजगार के अवसर हों।

यह शिक्षा नीति महामारी के दौर में आई है। शिक्षा नीति तैयार करते समय कोरोना महामारी को ख्याल में रखा गया है। संभव है, शिक्षा नीति में जो व्यवस्था की गई है, वह कोरोना के न आने पर भी की गई होती। नई शिक्षा नीति का यह महत्वपूर्ण अंश देखें, ‘नई परिस्थितियों और वास्तविकताओं के लिए नई पहल अपेक्षित है। संक्रामक रोगों और वैश्विक महामारियों में हाल ही में वृद्धि को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि जब भी, जहाँ भी शिक्षा के पारंपरिक और विशेष साधन संभव न हों वहां हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वैकल्पिक साधनों के साथ तैयार हों। इस संबंध में नई शिक्षा नीति 2020 में प्रौद्योगिकी की संभावित चुनौतियों को स्वीकार करते हुए उससे मिलने वाले लाभों के महत्व पर ध्यान केंद्रित किया गया है।’ साफ है कि आगे की पढ़ाई का रास्ता डिजिटल या ऑनलाइन है।

नई शिक्षा नीति में कहा गया है, ‘कोर्स वर्क, लर्निंग गेम्स और सिमुलेशन, ऑगमेंटेड रियलिटी और वर्चुअल रियलिटी के निर्माण  सहित कंटेंट की एक डिजिटल रिपोजेटरी विकसित की जाएगी। …छात्रों और शिक्षकों को पहले से लोड की गई सामग्री वाले टेबलेट जैसे उपयुक्त डिजिटल उपकरण पर्याप्त रूप से देने की संभावना पर विचार किया जाएगा और उन्हें विकसित किया जाएगा। शिक्षक स्वयं ऑनलाइन सामग्री तैयार कर सकें, यह भी सिखाया जाएगा।… शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए बहुत से शैक्षिक सॉफ्टवेयर विकसित किए जाएंगे और उन्हें उपलब्ध करवाए जाएंगे। …ये सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होंगे। …सुदूर क्षेत्रों में रहनेवाले छात्रों तथा दिव्यांग विद्यार्थियों समेत सभी प्रकार के उपयोगकर्ताओं के लिए ये उपलब्ध होंगे।’ इतना ही नहीं यह भी बताया गया है कि मौजूदा जनसंचार माध्यम मसलन टेलीविजन – रेडियो पर शैक्षणिक कार्यक्रम 24×7 उपलब्ध रहेगा।’

इस तरह नई शिक्षा नीति पढ़ाई की पारंपरिक पद्धति से आगे बढ़ती है । आगे बढ़ते हुए एक तरह से ऑनलाइन शिक्षा के लिए लक्ष्य तय करती है। यह शिक्षा नीति  ग्लोबल डिजिटल शिक्षा का हिस्सा है। परीक्षा और परिणाम सब ऑनलाइन प्रोजेक्ट हैं। यह डिस्टेंस एजुकेशन के सेकेंड स्टेज की शुरुआत है।

दूसरी शिक्षा नीति में  बच्चों की स्कूली शिक्षा अट्ठारहवें वर्ष में पूरी होती थी। नई शिक्षा नीति में भी वह अट्ठारहवें साल में ही पूरी होती है। पहले  बच्चा अपने छठे साल में पहली कक्षा में दाखिला लेता था। नई शिक्षा नीति के अनुसार भी वह  अपने छठे साल में ही पहली कक्षा में पहुंचेगा। फिर अंतर क्या है? अंतर यह है कि अब बच्चे तीन साल की उम्र में स्कूल पहुंचेंगे। क्या अभी नहीं पहुंचते हैं? शहरों-महानगरों में बच्चे तीन साल की उम्र में स्कूल पहुंच जाते हैं। इसे प्री-स्कूल कहा जाता है।

छोटे शहरों और महानगरों में किसी फ्लैट के एक हिस्से में भी ऐसे प्री-स्कूल खुले हुए है, मशरूम और कुटीर उद्योग की तरह।

एक फर्क जरूर है कि अब राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए एक करीकुलम होगा। दूसरा फर्क यह है कि अब गांव के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी तीन बरस की उमर से शुरू हो जाएगी।

फिलहाल शुरू नहीं भी हो सकती, क्योंकि एक कानून का नाम है अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा जो अभी समाप्त नहीं की गई है।

बताया गया है कि छह साल तक की उम्र में ही बच्चों का मस्तिष्क अस्सी प्रतिशत विकसित हो जाता है। ऐसी स्थिति में संशोधन में विलंब नहीं करना चाहिए। मस्तिष्क के विकास के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत सरकार पूरी करेगी। इसके लिए भी संशोधन पहली जरूरत है। कक्षा पांच तक में सामान्य विषयों की शिक्षा के बाद छह से आठवीं कक्षा में व्यावसायिक और कारीगरी के विषय भी उपलब्ध रहेंगे।

दूसरी शिक्षा नीति में कक्षा नौ से ही विद्यार्थियों की विशेषज्ञता की ओर बढ़ने की यात्रा शुरू हो जाती है। अब कक्षा नौ से ग्रैजुएशन तक के विद्यार्थी अब किसी एक ट्रैक पर चलने को मजबूर नहीं किए जाएंगे। वे बार-बार अपना ट्रैक और डेस्टिनेशन बदल सकते हैं। तरह-तरह के वे ज्ञान नहीं, दक्षता हासिल करेंगे। ऐसे व्यक्ति में ‘सेल्फ एंप्लॉयड’ होने का हुनर और हौसला खूब होता है।

अगर शिक्षा का अधिकार नियम में संशोधन हुआ तो बारहवीं तक की पढ़ाई अनिवार्य होगी। मगर आगे की पढ़ाई के लिए नई शिक्षा नीति जो व्यवस्था दे रही है, उसके तीन बीज शब्द  हैं : जो, जितना और जब। जो विषय पढ़ना चाहे, वह पढ़े। जितना पढ़ना चाहे, उतना पढ़े। यानी एक साल, दो साल या फिर संपूर्ण तीन साल और जब पढ़ना चाहे, पढ़े, यानी विद्यार्थी तीन साल का कोर्स कई साल में पूरा कर सकते हैं ।

इस व्यवस्था से उनका बोझ कम होगा, ग्रैजुएट होने की अनिवार्यता नहीं रहेगी। उच्च शिक्षा पर बोझ कम बनेगा। बोझ कम होगा तो गुणवत्ता भी बढ़ेगी। लेकिन यह भी है कि अगर सड़क पर गाड़ियां और रफ्तार अधिक हो तो बंपर भी ढेर सारे बनाने ही होंगे!

उच्च शिक्षा में लॉ और डॉक्टरी की पढ़ाई भी है। इन दोनों क्षेत्रों की पढ़ाई को इस शिक्षा नीति से बाहर रखा गया है। विद्यार्थी अपनी योग्यता साबित कर कानून की पढ़ाई कर सकता है। नई शिक्षा नीति में यह व्यवस्था जारी रह सकती है।

एक सवाल है कि जो विद्यार्थी वैज्ञानिक शोध या चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहेंगे, वे कैसे जाएंगे? इन दोनों क्षेत्रों में जाने के लिए साइंस का बैकग्राउंड होना अनिवार्य रहा है अब तक। नई शिक्षा नीति में विषयों की बुफे व्यवस्था है। इससे इन दोनों क्षेत्रों में जाने का रास्ता कैसे बनेगा, अभी यह अबूझ है।

नई शिक्षा नीति के संदर्भ में मातृभाषा में शिक्षा का काफी प्रचार है। जानकारी यह बताती है कि अभी भी मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है। लेकिन यह जानने की इच्छा होती है कि राजनीतिज्ञों, प्रशासकों, वकीलों, प्रोफेसरों, डॉक्टरों और व्यापारियों के बच्चे भी मातृभाषा में शिक्षा पाएंगे?

लेकिन नई शिक्षा नीति का यह उद्धरण देखिए, ‘संस्कृत को केवल संस्कृत पाठशालाओं एवं विश्वविद्यालयों  तक सीमित न रखते हुए इसे मुख्य धारा में लाया जाएगा – स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूला के तहत एक विकल्प के रूप में, साथ ही साथ उच्चतर शिक्षा में भी।  इसे पृथक रूप से नहीं पढ़ाया  जाएगा, बल्कि रुचिपूर्ण एवं नवाचारी तरीकों से एवं अन्य समकालीन एवं प्रासंगिक  विषयों, जैसे गणित, खगोलशास्त्र, दर्शनशास्त्र, नाटक विधा, योग आदि से जोड़ा जाएगा।’ क्या अमीरों के बच्चे इस रस्ते से चलेंगे?

नई शिक्षा नीति से देश को काफी उम्मीदें हैं। फिलहाल नई शिक्षा नीति आकांक्षाओं का संदूक है। हर नीति ऐसी ही होती है। लेकिन समस्या यह है कि जिन एजेंसियों को इन आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए करीकुलम बनाना है, क्या वे ऐसा कुछ बनाएंगे कि भारत विश्वगुरु बनेगा?

 

डॉक्टर्स एंड डॉक्टर्स, शॉप नं. एफ 20, एनबीसीसी शॉपिंग सेंटर, राजारहाट कोलकाता-700156 मो.9433076174

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लैंगिक भेदभाव और भय के माहौल में लड़कियों की शिक्षा में असमानता है

अंबरीष राय

शिक्षा आदोलन से जुड़े। राइट टू एजुकेशन फोरम के संस्थापकों में से एक।

शिक्षा नीति 2020 की प्रस्तावना में कहा गया है कि अगले दशक तक विश्व के अन्य देशों के मुकाबले भारत की आबादी में युवाओं की बहुसंख्या के मद्देनजर उच्चस्तरीय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की हमारी क्षमता भारत के भविष्य को तय करेगी। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य-4 में ‘सबके लिए समावेशी और समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन-पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिये जाने” का आह्वान किया गया है। इस लक्ष्य को 2030 तक हासिल करने के लिए भारत की शिक्षा व्यवस्था को पुनर्गठित करने पर जोर दिया गया है। सुनने-पढ़ने में और संकल्प के तौर पर यह बात बिलकुल ठीक लगती है। मगर इसके लिए सरकार द्वारा संचालित स्कूली शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करना होगा। आश्चर्य है कि इन पवित्र उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ‘शिक्षा का अधिकार कानून, 2009’  एक दशक से देश में उपलब्ध है, उसके क्रियान्वयन की मौजूदा स्थिति की चर्चा तक इस दस्तावेज़ में नहीं है। शिक्षा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21अ के तहत 6-14 साल के बच्चों को हासिल एक मौलिक अधिकार है। उसे लागू करने के लिए संसद के दोनों सदनों ने शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 पारित किया है। भला कोई भी शिक्षा नीति उसको नजरअंदाज कैसे कर सकती है?

 

गौरतलब है कि पिछले साल मई महीने में कस्तूरीरंगन कमिटी द्वारा मानव संसाधन मंत्री को सौंपे गए दस्तावेज़ में पूर्व-प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक (हायर सेकेंडरी) तक की शिक्षा को क़ानूनी हक बनाने का प्रस्ताव शामिल था। लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अब इस प्रस्ताव की जगह महज यह वायदा किया गया है कि सरकार 3 से 18 साल के बच्चों की शिक्षा का लोकव्यापीकरण किया जाएगा। जाहिर है, बगैर किसी कानूनी ढांचे के यह वायदा न तो केंद्र और न ही राज्य के लिए बाध्यकारी है। इस तरह, 34 सालों बाद आई इस बहुप्रतीक्षित शिक्षा नीति ने पूर्व-प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को कानूनी हक बनाकर एक ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है और स्कूली दायरे से अभी भी बाहर करोड़ों बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने के दायित्व के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के बजाय सबकुछ चमकीले सपनों के भरोसे छोड़ दिया गया है।  

 

दस्तावेज़ में शिक्षा पर होने वाले खर्चों को बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी करने का वायदा सदा की तरह किया गया है। मगर इसके लिए किसी समय-सीमा और ठोस कार्ययोजना का उल्लेख नहीं है। न्यूनतम 6 फीसदी का सुझाव तो शिक्षा सुधार के लिए गठित देश के प्रथम शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) ने 1966 में ही दे दिया था मगर वह कभी भी लागू नहीं हो पाया। शिक्षा हमेशा आर्थिक संकटो से जूझती रही।

कोठारी आयोग के 55 साल बाद भी हम सकल घरेलू उत्पाद का महज 3 से 4 प्रतिशत के बीच शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं। संसाधनों की इस कमी का चौतरफा असर पूरी शिक्षा व्यवस्था पर साफ दिखता है। देश कमजोर आधारभूत संरचना और गुणवत्तापूर्ण रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी से जूझ रहा है। स्कूलों में 10 लाख से ज्यादा अध्यापकों के पद खाली हैं, 8.3 प्रतिशत स्कूल एक अध्यापक के भरोसे चल रहे हैं।

सिर्फ 52 प्रतिशत स्कूलों में हाथ धोने की सुविधा, स्वच्छ पीने का पानी और चालू शौचालयों की व्यवस्था है। संसाधनों के अभाव के चलते ही शिक्षा अधिकार कानून, 2009 के महत्वपूर्ण प्रावधान कानून के लागू होने के 10 वर्षों बाद भी केवल 12.7 प्रतिशत स्कूलों में लागू हो पाए हैं (यूडीआईएसई 2016-17)।

कहना न होगा कि कोरोना महामारी के मौजूदा दौर ने स्कूली व्यवस्था के इस  जर्जर बुनियादी ढांचे और आपदा प्रबंधन के संदर्भ में व्यवस्थागत अक्षमताओं और खोखलेपन को पूरी तरह से उजागर कर दिया है। शिक्षा की इस दशा की चर्चा और उससे निबटने के उपायों की चर्चा अगर शिक्षा नीति जैसा अहम दस्तावेज़ नहीं करता तो उसकी मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचे को 10+2+3 की जगह 5+3+3+4 की डिजाइन में पुनर्गठित करने और 3 साल से 8 साल तक के बच्चों को ‘फाउंडेशनल लर्निंग’ के दायरे में लाने की बात कही गई है। उम्र की इस अवधि को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए बुनियादी जरूरत माना गया है जो काफी महत्वपूर्ण है। परंतु इसे उन आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के भरोसे छोड़ दिया गया है, जिन्हें 6 महीने और एक साल की ट्रेनिंग दी जाएगी और उन्हें अध्यापन के काम में लगाया जाएगा। शिक्षा में गुणवत्ता के मसले पर गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है। मिड-डे मील योजना के तहत नाश्ता देने के एलान का जरूर स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर पर्याप्त पैसों की व्यवस्था और पोषण के विविध जरूरी पहलुओं को ध्यान में रखे बगैर बाल-कुपोषण की भयावह समस्या से जूझते भारत जैसे देश में यह घोषणा भी सिर्फ कागजों में सिमट कर रह जा सकती है।

शिक्षा के बढ़ते बाजारीकरण और निजीकरण को रोकने में बुरी तरह से विफल होने के बावजूद सरकार की तरफ से इस संदर्भ में किसी नियामक और नियंत्रक ढांचे का जिक्र शिक्षा नीति में नहीं है। हाल ही में निजी संस्थानों के समर्थक संगठनों की तरफ से जारी एक रपट ने बताया गया है कि 50 फीसदी बच्चे अब प्राइवेट स्कूलों में जाने लगे हैं।

कैसी विडंबना है कि देश में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून के बावजूद स्कूल जानेवाले आधे बच्चे उन निजी विद्यालयों में फीस भरकर अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं, जहाँ अभिभावकों से ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कई तरह के मनमाने शुल्क वसूले जाते हैं। कोरोना के रूप में फैली वैश्विक विभीषिका के इस बेहद कठिन दौर में भी तथा स्कूल बंद होने के बावजूद ऑनलाइन शिक्षण के नाम पर निजी विद्यालयों के प्रबंधकों द्वारा मनमानी फीस वसूली की खबरें हैं। इसके खिलाफ जगहजगह अभिभावकों को सड़कों पर भी उतरना पड़ा।

कस्तूरीरंगन कमेटी ने शिक्षा के बढ़ते निजीकरण पर चिंता व्यक्त करते हुए अध्यापक-प्रशिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत निजी संस्थानों को पैसा उगाहने वाले संस्थानों के रूप में चिह्नित किया था और बाजारीकरण की तरफ अग्रसर विद्यालयों को बंद करने की चेतावनी दी थी। लेकिन कैबिनेट द्वारा मंजूर की गई शिक्षा नीति ने अब इस चेतावनी से किनारा करते हुए ‘लाइट बट टाइट’ रेग्युलेटरी अप्रोच के साथ निजी संस्थानों से व्यवहार करने को कहा है तथा इन संस्थानों द्वारा स्वघोषित वित्तीय आंकड़ों को स्वीकार कर लेने की सलाह दी है।

 

स्कूली शिक्षा में कक्षा 6 यानी 12 वर्ष की उम्र से ही बच्चे को ‘कौशल-उन्नयन कार्यक्रम’ से जोड़ने का सुझाव दिया गया है। इसे कुछ विचारक गांधी जी की ‘बुनियादी शिक्षा’ से जोड़कर देखने की बात कह रहे हैं। गाँधी जी ने बुनियादी शिक्षा की अवधारणा रखते हुए बच्चों को मातृभाषा एवं गतिविधि-केंद्रित शिक्षण देने की वकालत की थी, ताकि बच्चे कौशल से युक्त होकर अपना स्वतंत्र विकास कर सकें। वे चाहते थे कि बच्चों में सामूहिकता, आत्मसम्मान, कारोबारी दक्षता तथा सहयोगात्मक भावना विकसित हो। वे काम की दुनिया को ज्ञान की दुनिया से जोड़कर पाठ्यक्रम बनाने पर जोर देते थे। वे शिक्षा की गुणवत्ता को महज ‘लर्निंग आउटकम’ तक सीमित रखने के बजाय संपूर्णता में सामाजिक सरोकारों के साथ जोड़कर देखते थे।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कक्षा 6 से जिस ‘व्यावसायिक शिक्षा और कौशल उन्नयन’ की वकालत की गई है उससे यह आशंका बनी हुई है कि सामाजिक हाशिये पर मौजूद दलितों, आदिवासियों, लड़कियों समेत पहले से ही असमानता का दंश झेलते और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों को आठवीं की पढ़ाई पूरी होते-होते श्रम-बाजार के हवाले कर दिया जाएगा। भाषा के सवाल पर घरेलू भाषा, मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को पाँचवीं और संभव हो तो आठवीं तक लागू करने की बात की गई है। हालांकि, यह व्यवस्था सरकारी और निजी स्कूलों में लागू होने की बात कही जा रही है, मगर इस फार्मूले को निजी स्कूलों में लागू करना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। त्रिभाषा फार्मूले के अमल में आने वाली अड़चनों को कैसे दूर किया जाएगा, यह तो भविष्य में ही पता लगेगा।

 

लड़कियों के लिए ‘जेंडर इंक्लूसिव फ़ंड’ (लैंगिक समावेशिता कोष) बनाने की बात सराहनीय है, लेकिन लड़कियों के ‘ड्रॉप आउट’ को रोकने का कोई उपाय नहीं दिखता। आठवीं के बाद 40 फीसदी लड़कियां स्कूल से बाहर हो जाती हैं। इसकी बड़ी वजह घर के नजदीक उच्चतर माध्यमिक स्कूलों, यातायात-साधनों और सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण का अभाव है। विविध स्तरों पर व्याप्त लैंगिक भेदभाव और पितृसत्तात्मक नजरिए के कारण लड़कियों की शिक्षा लगातार असमानता की खाई से जूझती नजर आती है। ऐसे में आधी आबादी की शिक्षा सुनिश्चित करने का क्या उपाय होगा?

 

उच्च शिक्षा में संरचनात्मक बदलावों के लिए ढेर सारे सुझाव दिए गए हैं, जिनमें कई कमेटियों की जगह एक उच्च स्तरीय-शासी निकाय (गवर्निंग बॉडी) के गठन का सुझाव है। इसे शक्तियों के विकेंद्रीकरण के ख़िलाफ़ उच्च शिक्षा के ढांचे के केंद्रीकरण के रूप में देखा जा रहा है। जहाँ एक तरफ बहु-विषयक पाठ्यक्रम शुरू करने का स्वागत हो रहा है तो दूसरी ओर स्नातक कोर्स को तीन की जगह चार साल का करने के प्रस्ताव पर सवाल उठ रहे हैं। विभिन्न स्तरों पर बाहर जाने तथा पुन: प्रवेश की व्यवस्था के प्रावधान से ज्यादातर बच्चों के स्नातक होने के पहले ही बाहर हो जाने का खतरा बढ़ गया है। उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता देने के नाम पर एक तरफ सरकारी अनुदान बंद किए जाने का खतरा दिखाई दे रहा है तो दूसरी तरफ इन संस्थानों पर अपनी वित्तीय व्यवस्था स्वयं करने के दबाव के भी संकेत हैं। इस तरह उच्च शिक्षा काफी महंगी हो जाएगी तथा गरीबों की पहुँच से बाहर हो जाएगी। विदेशी विश्विद्यालयों को अपना कैंपस खोलने की अनुमति दी जा रही है। यह उच्च शिक्षा के व्यवसायीकरण और निजीकरण को बढ़ावा देने का ही संकेत है। 

सबसे आश्चर्यजनक है राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पूरे दस्तावेज़ से समान स्कूल प्रणाली का जिक्र गायब होना, जबकि 1968 की शिक्षा नीति हो या 1986 की या फिर आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रिपोर्ट सबने भारत में भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार के लिए समान स्कूल प्रणाली की आवश्यकता पर बल दिया था।

कोठारी आयोग द्वारा सभी बच्चों को समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने और शिक्षा को समावेशी बनाने के लिए पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की अनुशंसा को हर शिक्षा नीति ने संकल्प की तरह दुहराया था। ‘निर्धन हो या हो धनवान, सबकी शिक्षा एक समान’ के नारे के साथ कोठारी आयोग के इस प्रावधान को लागू करने की मांग देश के तमाम जागरूक छात्र और नागरिक-सामाजिक संगठन तथा अध्यापकों के संगठन लगातार उठाते रहे हैं।

 

नई शिक्षा नीति के बनने के दौरान सरकार की तरफ से मांगे गए सुझावों के मद्देनजर ‘राइट टू एजुकेशन फोरम’ समेत शिक्षा और बाल अधिकारों के लिए कार्यरत विभिन्न सामाजिक संगठनों ने सरकार को अपने सुझाव दिए थे। परंतु शिक्षा नीति के मौजूदा स्वरूप को देख कर समझना कठिन है कि उन सुझावों का हश्र क्या हुआ ! 

 

बहरहाल देखना यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव का दावा पेश करनेवाली यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति देश की शिक्षा व्यवस्था के समक्ष मौजूद गंभीर चुनौतियों का हल किस तरह निकालती है और बुरी तरह से चरमराती सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में यह कितनी कारगर साबित होती है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि शिक्षा के लोकव्यापीकरण के लिए सरकार कितनी दृढ़ संकल्पित है और शिक्षा में संसाधनों के अभाव को कितनी त्वरित गति से समाप्त करती है।

 

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