प्रस्तुति : प्रतिभा सिंह

शोध छात्रा, विकास अध्ययन केंद्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज।

 

पिछले अंक में हमने एक बहस शुरू की थी कि तेज़ी से बदलती इस दुनिया में क्या है बच्चों की दुनिया का हाल? ज्ञान, मूल्य, संवेदना, शक्ति की अपेक्षा करते बचपन की ‘पोलिटीकल हैंडलिंग’ कितनी सही है? माता-पिता के समयाभाव पर कई सवाल समय-समय पर उठते रहे हैं, लेकिन बात समय से अधिक उस सोच की है जो हम अपनी आने वाली पीढ़ में ट्रांसप्लांट कर रहे हैं या जो वह हमसे ग्रहण कर रही है। यह बात संदेवना के स्तर की है और मूल्यों की…

बहस खंड के अंतर्गत ‘बच्चों की दुनिया का हाल’ में आपने पिछले अंक में आरती स्मित, अर्चना सिंह और देवेन्द्र मेवाड़ी के विचार पढ़े। इस अंक में हमारे साथ हैं, मो. आरिफ़, दीना नाथ मौर्य, मृत्युंजय, पंकज चतुर्वेदी… आइए चर्चा को आगे बढ़ाएं, ताकि एक सार्थक समाधान तक पहुँचा जा सके।

सवाल :

  1. बच्चों की समकालीन दुनिया में किस तरह का संकट है?
  2. बच्चों के लिए दुनिया कैसी होनी चाहिए?
  3. बच्चों की दुनिया में साहित्य किस तरह शामिल है?
  4. बच्चों की दुनिया में शिक्षा और परिवार की भूमिका कैसी है और होनी चाहिए?
  5. बच्चों की दुनिया में लड़का या लड़की होने का क्या अर्थ है और उससे क्या फ़र्क पड़ता है?
  6. बालश्रम और शोषण से मुक्ति के संभावित उपाय क्या हो सकते हैं?

बच्चों की समस्याओं पर घर घर में चर्चा शुरू हो.

मो. आरिफ़

वरिष्ठ लेखक, अद्यतन कहानी संग्रह ‘चोर सिपाही’

 

(1) बच्चे आज के आधुनिक परिवेश में, मेरी समझ से सामाजिक-आर्थिक कारणों से ममता और वात्सल्य से दूर होते जा रहें हैं, जिनकी उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है। स्कूल के बस्ते का बोझ ढोते-ढोते, गृह कार्य को पूरा करते हुए वे मैदान और आँगन के खेलों से वंचित होकर तनावपूर्णं जीवन जी रहे हैं। उनका बचपन छीन लिए जाने का संकट उत्पन्न हो गया है, जिससे उनका बौद्धिक एवं शारीरिक विकास अवरुद्ध होकर अवसाद के रूप में अभिव्यक्त होने लगा है। एकल परिवार एवं कामकाजी युगल इसके लिए जिम्मेदार हैं।

 

(2) बच्चे अपनी बातों को परिवार और समाज के सामने खुलकर रख सकेंगे तभी वे व्यावहारिक पहलुओं को समझ सकेंगे। समाज में हर उम्र के लोगों से मिलकर वे अनुशासन के साथ-साथ अपनी अहमियत भी पहचान सकेंगे। आज उनका बचपन चहारदीवारी के अंदर सिमटकर सिसक रहा है, जो कई बार आक्रोश आदि रूपों में प्रकट होता है। अतः उनके समग्र विकास के लिए उनकी अभिव्यक्ति को दबाकर नहीं, बल्कि उसका सम्मान और समाधान करके उचित मार्गदर्शन द्वारा किया जाना चाहिए। यदि उन्हें अपने अस्तित्व का सुखद अनुभव होगा तो उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगा।

 

(3) साहित्य जीवन की रचनात्मक व्याख्या है, जिससे बच्चे अपने को पारिभाषित कर सकते हैं। साहित्य के कारण उनका जीवन जनहित की धारणा से जुड़कर उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित हो सकता है। साहित्य में ‘मै’ शब्द की कोई जगह नहीं होती, क्योंकि साहित्य मे यह विस्तारित होकर आमजन से जुड़ जाता है। साहित्य की प्रेरणा से सामाजिक कुरीतियों के बंधन को तोड़कर जब बच्चा अपने व्यापक जीवन में प्रवेश करता है तो वह दया-धर्म आदि मानवीय भावों के साथ सबका प्रिय बन जाता है। एक अच्छा साहित्य बच्चों को संवेदनशील तथा मानवीय गुणों से भरकर श्रेष्ठ नागरिक बनाता है। हिंदी में अच्छा बाल साहित्य कमोबेश न के बराबर रचा जा रहा है। बाल पत्रिकाएँ भी बंद हो रही हैं, यह चिंता का विषय है।

 

(4) बच्चों के समग्र विकास में शिक्षा और परिवार दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। शिक्षा में उनकी अभिरुचि को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए। बच्चा अपनी माँ से बहुत कुछ सीखता है। उसके विकास में परिवार तथा वातावरण का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। आज बच्चे पाठ्यक्रम के बोझ को ढो नहीं पाते है। केवल स्कूली ज्ञान को शिक्षा का आधार मान लिया गया है। बच्चे भी अपने माता-पिता के साथ छोटे-छोटे फ्लैट में रहने लगे हैं, जिससे वे दादा-दादी एवं नाना-नानी की कहानियां सुनने से वंचित रह जाते हैं। बुजुर्गों का सामीप्य बच्चों में नैतिक एवं चारित्रिक विकास के साथ उनके अंदर मानवीय मूल्यों की नींव डालता है। उनकी व्यक्तिगत पहचान बनती है और परिवार के लोग जीवन की दिशा तय करने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाते है। परिवार के लोग निकटता का अनुभव दिलाते है तो बच्चा परिवार एवं समाज में तरह-तरह की भूमिका निभाना सीखता है।

 

(5) बच्चे जैसे-जैसे बडे़ होने लगते हैं, उनके अंदर स्वाभाविक रूप से लड़का-लड़की में अंतर की समझ विकसित होने लगती है। सामाजिक व्यवहार के साथ-साथ उनके लिए निर्धारित कार्यों और अलग-अलग भूमिका में लड़का एवं लड़की के बीच का भेद उन्हें अपने अस्तित्व का अहसास करा देता है। उनके अंदर यह भावना भर जाती है कि लड़कियों को पढ़ लिखकर घर के कामों तक ही सीमित रहना है, जबकि लड़कों को बाहर की जिम्मेवारियाँ सँभालनी है। लड़कियों की गतिविधियों का केंद्र सीमित है जिस दायरे से बाहर निकलना उनका अतिक्रमण माना जाता है। परंतु लड़कों की सीमाएँ तय नहीं होतीं। उनकी परवरिश में फर्क उनके अंदर असमानता के भाव को जन्म देती है। इससे लड़कियाँ कभी-कभी असुरक्षित महसूस करती हैं। उनके अंदर की प्रतिभा कुंठित हो जाती है। अतः उचित शिक्षा के द्वारा समान अवसर प्रदान करके ही हम लैंगिक दृष्टि से बेहतर समाज की कल्पना कर सकते हैं।

 

(6) बाल श्रम और शोषण 20 वीं सदी की भयानक समस्या है। इसका हल 21वीं शताब्दी में भी ढूंढने की कोशिश की जा रही है। विश्व के विभिन्न मंचों पर इसकी चर्चा करके और कानून बनाकर समाधान की कोशिश जारी है। मेरी दृष्टि में गंभीरतापूर्वक प्रयास करने होंगे, जिससे बाल श्रम को रोका जा सके। इस समस्या की जड़ें बच्चों की समस्याओं के साथ जुड़ी हैं।

बच्चों की समस्याओं पर कुछ बड़ी सभा-समितियों के अलावा घर-घर में चर्चा शुरू करके उनके लिए उचित अवसर प्रदान करके ही उनको शोषण से मुक्त किया जा सकता है। यह सुनिश्चित करना होगा कि वे अपने अधिकारों से वंचित तो नहीं हो रहे हैं। उनके बचपन की आवश्यकताओं की पूर्ति समाज और शासन के द्वारा अपेक्षित है। शिक्षा, मनोरंजन, खेलकूद तथा अन्य गतिविधियों में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित हो तथा राष्ट्र के निर्माण के अपने योगदान को बच्चे समझ सकें। समाज को जागरूक होना पड़ेगा। बच्चों के लिए विभिन्न योजनाओं को लेकर समाज के संपन्न लोगों को आगे आना होगा। शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ उनके कार्यस्थलों की पहचान करके यौन शोषण के दोषी लोगों को दंडित करना होगा, तभी हम बच्चों के बचपन को छीने जाने से रोक सकते हैं।

 

सेंट्रल पब्लिक स्कूल, ताजपुर रोड, समस्तीपुर- 848101 (बिहार)

91-6274-222970 mdariftraveller@gmail.com

बच्चे हैं बाजार का सबसे बड़ा निशाना

मृत्युंजय

प्रबुद्ध संस्कृतिकर्मी और लेखक

 

बच्चा पैदा होता है। शुरू हो जाती है कवायद उसे श्रम शक्ति में ढालने की। बच्चे करने लगते हैं मशक्कत। अभिभावक सावधान रहते हैं कि उनका बच्चा ऐसा बने कि बाजार में मिले उसे  लेनेवाला। अच्छी कीमत देने वाला। इसे ही हमारी भाषा में कहते हैं आदमी बनना और आदमी बनाना। बच्चे भी हो जाते हैं सजग, बनना है ऐसा ही आदमी। एकमेव कामना, कोई भटकाव नहीं। कोई टंटा नहीं।

वित्तवान बच्चे और वंचित बुतरू, दो अलग प्रजातियाँ हैं। दो अलग सच हैं। दोनों की दुनिया अलग-अलग है। एक बनेगा पच्चीस साल बाद श्रम शक्ति यानी मानव संसाधन, हार्सपावर। दूसरा बनेगा अभी या फिर जब कभी मौका मिले- बैल। दोनों का एक ही गंतव्य बाजार!

बच्चा  हो या बुतरू। पैदा होता है बाजार में। एक बाजार से काफी नजदीक और दूसरा बाजार से काफी दूर। गर्भ में आते ही उनका साबका पड़ता है बाजार से। बाजार ही उसकी हिफाजत करता है और देखभाल भी। बच्चा बाजार का भविष्य है, वर्तमान भी।

टीवी पर एक विज्ञापन आता है। पूछता है, माँ से अच्छा कौन जानता है बच्चों को? जवाब भी देता है। कहता है,  हगीज! सबको खबर है, सबको मालूम है कि हगीज कौन है? हगीज बाजार है। बच्चा पैदा हुआ और बाजार उसके साथ हो लिया। अमिताभ बच्चन जी  एक विज्ञापन से ज्ञान बढ़ाते हैं कि बच्चों की किसी भी जरूरत के लिए भटकने की जरूरत नहीं है, एक ठिकाना है जो केवल बच्चों की जरूरत का ख्याल रखता है। बताइए, बच्चों का इतना ख्याल कौन रखता है? वही बाजार। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है,  पढ़ाई शुरू होती है। शाहरुख खान आ जाते हैं एक संदेश लेकर। बाजार ने उनके साथ भेजा होता है एक टैबलेट। आसान करता है यह बच्चों की पढा़ई । बच्चों का रचनात्मक विकास भी होना चाहिए। गाय के दूध से बनी मिठाई और चाकलेट बॉल आ जाते हैं। साथ में मानसिक व्यायाम के लिए खिलौने। केवल मानसिक विकास से काम नहीं चलता, अंदर से भी मजबूत होना पड़ता है। बाजार बोर्नविटा की याद दिलाता रहता है। यहां तक पहुंचते-पंहुचते बच्चे किशोर होने लगते है। आलिया आ जाती हैं पिंपल का ख्याल रखने के लिए। इतनी परवाह! इतना ख्याल बच्चों का पहले कभी नहीं रखा गया। लड़के-लड़कियों में भी कोई भेद नहीं करता। बाजार लड़कियों की चिंता लड़कों से ज्यादा करता है।

बच्चों की दुनिया बाजार है। आज के बच्चे विकल्पहीन दुनिया में पैदा हो रहे हैं, उनके पास किसी दूसरी दुनिया का विकल्प नहीं है। वे इस मायने में अभागे हैं। वे इसे महसूस भी नहीं कर सकते। क्योंकि कोई दूसरी दुनिया अस्तित्व में नहीं है। बच्चों के अभिभावक दुखी हो सकते हैं, हो भी रहे हैं, लेकिन उनके दुख में दर्द नहीं है। इसलिए बेमानी है। दूसरी दुनिया उन्हें ही बनानी थी, नहीं बनाई, बल्कि गंवाई।

बाजार की दुनिया जितनी बड़ी है, बच्चे की दुनिया भी उतनी बड़ी होती जाती है। बाजार बच्चों को देता है पंख उड़ने के लिए, बच्चे उड़ रहे हैं। वे धरती को आसमान से देखते हैं। उन्हें धरती छोटी दिखती है। ये ही बच्चे जब बड़े होते हैं, बाजार अभिमुखी आर्थिक व्यवस्था के चाबुक के डर से उनकी गर्दन कांपती रहती है। ‘बाजारं शरणं गच्छामि’ की भयावह गूंज उनके कानों को गरम करती रहती है। यही वजह हो कि आज के बच्चे हमेशा कान में ठूंसे मिलते हैं इयर फोन। हम समझ रहे हैं कि बच्चे मजा मार रहे हैं, जबकि बच्चे ‘बाजारं शरणं गच्छामि’ की दहशत में हैं। स्कूली जीवन समाप्त होते ही पीठ से बैग का बोझ जरूर उतर जाता है मगर दिमाग से स्ट्रेस का दबाव कभी नहीं उतरता। सौंदर्य के किसी उपासक ने अगर यह लिखा है कि जिनका बचपन खूबसूरत होता है उनका बुढ़ापा आकर्षक होता है तो अब उन्हें इस दर्दनाक वाक्य का सामना करना पड़ेगा कि जिनका बचपन बोझ से दबा होता है, स्ट्रेस उनका बुढ़ापे तक पीछा करता रहता है!

होता ही क्या था पहले बच्चों की दुनिया में? कादो-माटी। बाप की झिड़कियाँ। अगर कुछ कसर बाकी रह गई तो बड़े भाई साहब। बाबू जी ऐसे कि जीवन भर बात न हो। कुछ-कुछ होता है के बाबू जी! कह दिया तो कह दिया। सुनने का सवाल ही नहीं। यह थी लड़कों की हालत। अगर लड़की हुई तो सांस भी जोर से नहीं ले सकती थी। बचपन में भी और बचपन के बाद भी। उफ! कैसे जीते थे बच्चे – बच्चियाँ। खेल और खेलने के नाम पर भी क्या था? लड़कियों के लिए गुड्डा- गुड्डी। लड़कों के लिए कबड्डी। ऊपर से यह सीख कि खेलोगे – कूदोगे बनोगे खराब। हर तरफ हंटर। बात-बात पर हंटर। बच्चों की हवा टाइट रहती थी। रखी जाती थी हवा टाइट। बच्चे ऐसे जीते थे जैसे हवालात में है। यह सब होता था नैतिक और पवित्र हिंसा की आड़ में, करुणा से उपजी हिंसा। यह सभ्यता की हिंसा थी। अब अभिभावकों और अध्यापकों को संयम रखना सिखाया है कानून की किताबों की आयतों ने! बच्चों को अब मार नहीं सकते, कठोर सजा नहीं दे सकते। आज के बच्चे ऐसी हिंसा से क्या मुक्त हैं?

क्या बच्चे अब बेखौफ हैं? राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने 2009 -10 में एक सर्वेक्षण किया था। सर्वेक्षण से पता चला कि अस्सी प्रतिशत बच्चों का अपमान किया जाता है। कहते हैं कि वे पढ़ाई के काबिल नहीं हैं। आयोग ने स्कूलों में शारीरिक सजा पर सर्वे किया था। रिपोर्ट में स्कूलों में करंट लगाने जैसी क्रूर सजा देने का भी उल्लेख है।

2009-10 में देश के सात राज्यों में 6,632 छात्रों का सर्वे किया गया। इनमें से मात्र सात ने कहा कि उन्हें स्कूल में किसी भी प्रकार की सजा नहीं दी गई। सर्वे के अनुसार 99.86 फीसद छात्रों ने किसी न किसी प्रकार की सजा मिलने की बात स्वीकार की। 81.2 फीसदी छात्रों ने माना कि उन्हें स्कूलों में कहा जाता है कि वे पढ़ने के काबिल नहीं हैं, ऐसा कहकर उनका बहिष्कार किया जाता है।

सर्वे के अनुसार गाल पर तमाचा मारना, बेंत से पिटाई, पीठ पर मारना और कान उमेठना जैसी चार प्रमुख सजाएँ बच्चों को दी जाती हैं। 75 फीसद बच्चों ने स्कूल में बेंत से पिटाई और 69 प्रतिशत बच्चों ने गाल पर तमाचा खाने की बात स्वीकार की।  आखिर शिक्षकों को कुछ सिखाना आसान है क्या?  इस सर्वेक्षण से यह भी पता चला था कि निजी स्कूलों में बच्चों के साथ सरकारी स्कूलों के मुकाबले ज्यादा क्रूर व्यवहार होता है। दस साल में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। इसी वर्ष 23 फरवरी को कुरुक्षेत्र के एक स्कूल से यह खबर आई कि एक शिक्षक ने एक विद्यार्थी को बुरी तरह से पीट दिया। कितने वहशी रहे हैं हमारे शिक्षक! ऐसे निर्दयी शिक्षक बनाते-संवारते रहे हैं बच्चों का भविष्य। अभी हाल में स्कूल में छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म की खबरें भी आई थीं।

बच्चों के लिए शिक्षा केवल नि:शुल्क नहीं, अनिवार्य भी है। यह भारत सरकार की संवैधानिक घोषणा है। लेकिन सरकार इसके लिए पर्याप्त राशि नहीं दे रही है। सरकार की प्राथमिकता अन्यत्र है। अभी दसियों करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने स्कूल का चेहरा नहीं देखा है। कह सकते हैं चंपा (त्रिलोचन) क्या चंदू (नागार्जुन) भी स्कूल नहीं चीन्हता। जो बच्चे स्कूल पहुंच गए हैं  उन्हें  जैसा भी, मिल जाता है मिड डे मील। देर-सबेर सरकारी किताबें मिल जाती हैं। बच्चे पास भी कर दिए जाते हैं। मगर बच्चे अक्षर नहीं चीन्हते। सर्वेक्षण ऐसा बताता है।  एक रिपोर्ट के अनुसार, कक्षा 3 के करीब 78% और कक्षा 5 के लगभग 50% बच्चे कक्षा 2 की पाठ्य-पुस्तक नहीं पढ़ सकते हैं। अंकगणित भी चिंता का विषय है, क्योंकि कक्षा 5 के मात्र 26% छात्र विभाजन (भाग) संबंधी सवालों को हल करने का प्रयास कर सकते हैं।  इस हालात में अभी तब्दीली नहीं आई है। शिक्षक महोदय कहीं और उत्पादक कार्य में लगे रहते हैं ! शिक्षा के अभाव में बाल विवाह जैसा जघन्य गुनाह भी सर उठा कर होता रहता है। बच्चों की यह दोहरी सजा है। बाल विवाह  बलात्कार से कम नहीं है। इसी वर्ष की आठ फरवरी को यह खबर आई कि तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में हो रहे बाल विवाह को पुलिस के सिपाही ने रोका। नाइजीरिया की तीन स्कूली बच्चियों ने बाल विवाह समाप्त करने के लिए कमर कस लिया। सूसन उबोगी, तेमितियो असुनी और कुदरित अबियोला नाम है इनका।

जो अभागे बच्चे स्कूल नहीं पहुंचते, उनके बाल जीवन की सार्थकता क्या है? क्या करें वे, खेलते-कूदते रहें? गरीबी गाते रहें? भुखमरी भोगते रहें? यह हमारा उन्नत समाज और संवेदनशील सरकार है जो गरीबी नहीं मिटाने के लिए संकल्पबद्ध है। भुखमरी में भजन गाने का उपदेश देना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। लेकिन पता है, भूखे भजन नहीं होता । वे उतर पड़ते हैं बाजार में श्रम शक्ति बन कर। मजूरी करते हैं। बाल मजदूरी करते हैं। सस्ते में बिकते हैं । सस्ते श्रम की जरूरत किसे नहीं है ? सीबीआई के एक आकलन के अनुसार नौ से तेरह वर्ष आयु वर्ग की 14 लाख लड़कियाँ वेश्यावृत्ति में लगी हुई हैं। आधुनिक भाषा में इसे आतिथ्य कार्य कहा जाता है। सस्ते श्रम और आतिथ्य कार्य से व्यवसाय का लाभ बढ़ता है। व्यावसायिक लाभ से देश – दुनिया की उन्नति होती है। अनपढ़ और वंचित बुतरुओं  का यह योगदान है अर्थव्यवस्था में। ये बच्चे सौभाग्यशाली हैं, जो शिक्षा और शिक्षक के गुलाम बने बगैर श्रम शक्ति  बन जाते हैं!

बच्चों को सुना जाए, यह बच्चों का मौलिक अधिकार है। सुनना अगर मौलिक अधिकार है तो अभिव्यक्ति भी उनका मौलिक अधिकार है। आज के बच्चे इस अधिकार का उपयोग कर रहे हैं। अभिव्यक्त हो रहे हैं, उन्हें आज सुना भी जाता है। अभिभावकों के एक वर्ग का मानना है कि अब बच्चों की इतनी सुनी जा रही है कि अभिभावक अब नहीं सुने जा रहे हैं। कुछ अभिभावकों की राय यह है कि बच्चे अब उनकी छाया की सीमा से बाहर हैं। बच्चों के हाथ में अब विंडोज हैं। ये मामूली विंडोज नहीं हैं। इस विंडोज से उन्हें वह सब दिखता है जो उन्हें दिखना ही चाहिए। जो उनके लिए जरूरी नहीं, वह भी उन्हें दिखता है। वर्जित तक उनकी पहुंच है। विंडोज से जो परवरिश होती है वहां लड़के – लड़कियों में कोई भेद नहीं किया जाता। ये समान रूप से दोनों को उपलब्ध हैं। आनंद और ज्ञान दोनों ही उपलब्ध हैं।

पढ़ाई और ज्ञान के पहले कितने अवसर थे बच्चों के लिए? मां – बाप सचेत न हुआ करते थे। करा दिया दाखिला, हो गया। पहला और आखिरी सरोकार इतना ही था। कुछ परिवारों में माँ थोड़ी सजग होती थीं तो पिता बेखबर-बेमिसाल। आम घरों में पढ़ाई – लिखाई से माँ का कुछ लेना देना नहीं था। उनकी जवाबदेही जनने तक ही हुआ करती थी। बच्चियों की पढ़ाई – लिखाई का ख्याल भी न आता था। ऐसा ही होता था तब बच्चे-बच्चियों का वर्तमान। ऐसे वर्तमान से ही बनता था उनका भविष्य। क्या बनता था भविष्य?  अच्छे स्कूल तक न थे। जहां स्कूल थे, वहां मास्साब नहीं थे। मास्साब की नियुक्ति होती थी, तो वे स्कूल नहीं आते थे। ठकुरसुहाती करते थे। भैंस चराते थे। अक्ल से बड़ी भैंस। बच्चा घोंघा। बच्चे सुथनी-सा चेहरा लिए अपने सुथनी-सा भविष्य टापते थे।

आज के बच्चे बिगड़ गए हैं। किसी की सुनते नहीं हैं। यह आज के अभिभावकों की आम शिकायत है। यह भी शिकायत है कि दिन-रात गैजेट में लगे रहते हैं । इन्हें यह अफसोस भी है कि उनके जमाने में यह सब नहीं था। अगर होता तो क्या करते? यही न कि वे भी मजा लेते। ले ही रहे हैं। क्या आज के अभिभावक गैजेट के मामले में रोल मॉडल हैं?  क्या यह जानना संभव है कि भारत में गैजेट का सालाना व्यवसाय कितनी राशि का है और गैजेट का कितना प्रतिशत बच्चों के हाथ में है? यह भी जानना मजेदार रहेगा कि गैजेट के माध्यम से जो कुसंस्कार फैल रहे हैं, उनसे बच्चे अधिक प्रभावित हैं या वयस्क? कुसंस्कार भी बच्चे नहीं फैला रहे हैं, इस कार्य में भी वयस्क ही लगे हैं। अफवाहें कौन फैला रहा है? फेक न्यूज कौन दे रहा है? यहां बच्चों की समझदारी की दाद देनी पड़ेगी कि फेक न्यूज की परख बच्चों को ज्यादा है, वे इनसे प्रभावित नहीं होते। वे घोड़ा या बैल बनने के लिए मैटेरियल घांटते रहते हैं या छानते रहते हैं। जो घोड़ा बन पाएंगे वे किसी भी दिशा में एक कदम में अढ़ाई घर चल पाएंगे। घोड़ों को विशेष अधिकार होंगे जो बैलों को नहीं होंगे। कितनी कठोर चुनौतियां हैं आज के बच्चों के सामने। कौन समझ रहा है बच्चों की यह पीड़ा?

हिंदी लेखकलेखिकाओं को बच्चों का दर्द और उनकी पीड़ा नहीं छूती। बच्चों को केंद्र में रख कर सृजनात्मक साहित्य अब न के बराबर लिखे जाते हैं। हिंदी कविता के परिदृश्य में बच्चे कहाँ हैं? बड़े पैमाने पर अस्पताल या मदरसे में बच्चों का जब संहार होता है, झटपटिया स्तर पर कुछ कविताएं आ जाती हैं। उपन्यास और कहानियों के केंद्र में भी बच्चे जगह नहीं पाते हैं। ‘ईदगाह’, ‘आपका बंटी’ के युग गए। हिंदी लेखक-लेखिकाओं की चिंताएं बड़ी-बड़ी हैं । वे गंभीर विषय पर लिखना अपनी पहली जिम्मेदारी समझते हैं। बच्चे उनकी प्राथमिकता सूची में शामिल नहीं हैं। वे ऐसा साहित्य भी नहीं लिखते जिसे पढ़कर बच्चों की पीड़ा और संत्रास कम हो सके। बच्चों से संवेदनशील होने की कामना अवश्य की जाती है, मगर ऐसा लिखना मुनासिब नहीं समझा जाता जिन्हें अट्ठारह के नीचे के बच्चे पढ़ कर संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बन सकें। मगर बच्चों से यह शिकायत है कि वे साहित्य से दूर-दूर रहते हैं। सच यह है कि हिंदी लेखक ही बच्चों से कटे-कटे रहते हैं।

एक जमाना वह  था जब बच्चों के लिए हिंदी की कई पत्रिकाएँ थीं। वे खूब पढ़ी जाती थीं। बच्चे ही पढ़ते थे। चंदामामा, चंपक, पराग,  नंदन, बालभारती और बालहंस। आज ऐसी कोई पत्रिका नहीं है। लेखक भी कहां हैं? पहले भी ज्यादा नहीं थे। लेकिन दर्जनों तो थे ही!

फिल्में भी कहां बच्चों को अपना विषय बनाती हैं। मुश्किल से दो फिल्में याद आ रहीं है- ‘तारे जमीन पर’ और ‘सलाम बांबे’। सौ साल का हिंदी सिनेमा! यह दारिद्र्य!!

निस्संग होने का आरोप है आज के बच्चों पर। कहा जाता है, वे सामाजिक नहीं हैं। वे अपने मतलब से मतलब रखते हैं। जब बच्चों को लंबे रेस का घोड़ा बनाने के लिए उनके पांव में नाल ठोक दिया गया हो, उनसे खड़ेखड़े सोने का अभ्यास कराया जा रहा हो, उनसे आदमी जैसे सामाजिक प्राणी होने की मांग, घोड़े से अंडे की मांग है। जो पिछड़ कर बैल ही बनेंगे, वे भी लंबे रेस का घोड़ा बनने की चूहा दौड़ में शामिल हैं। बच्चे अपने को घोड़ा सिद्ध करें या बैल, उन्हें पता है कि उन्हें हर मौके पर इसी पैमाने से नापा जाएगा कि वे कितने हार्सपावर के हैं। पढा़ई-लिखाई के दौरान भी उन्हें ऐसे ही मापा जाता है।

अबके बच्चे गधे नहीं होते। समझदारी का न्यूनतम स्तर पहले से काफी ऊंचा है। ऐसा हुआ है, इसमें माता-पिता या परिवार के दूसरे लोगों का योगदान कम है। दादी-नानी का तो बिल्कुल ही नहीं। दादी-नानी का साथ बच्चों को तभी मिल पाता था, जब उनकी श्रम शक्ति इतनी क्षीण हो जाती थी कि वे उत्पादन के काम की नहीं रह जाती थीं। या और किसी काम की भी नहीं रह जाती थीं, तो बच्चों को उलझाए रखने का काम उनके हिस्से आता था। वे विकल्पहीन अवस्था में होती थीं।  यह भी एक मिथ है कि दादियाँ – नानियाँ कहानियाँ सुनाती थीं। अगर कहानियाँ सुनाती थीं तो वे कहानियाँ कहाँ गईं? दुलारे और दुष्ट बच्चे के लिए निद्रा आमंत्रण का सहारा होती थीं वे कहानियाँ।

डिफिकल्ट बच्चे दिन में भी कहानियां सुनने की मांग कर बैठते होंगे। तब दादी-नानी यह कह कर बहला देती थीं कि दिन में कहानी सुनने से मामा के घर का रास्ता भूल जाओगे। डिफिकल्ट बच्चे भी इस युक्ति के सामने सहम जाते थे। उस पीढ़ी की स्मृति अभी बुलंद है, जिसे दादियों-नानियों से कहानियाँ सुनने वाली आखिरी पीढ़ी कहा जा सकता है। लगभग बीस करोड़ कहानियाँ इकठ्ठी हो जाएंगी, अगर अपनी दादी-नानी से सुनी मात्र एक कहानी को रिकॉर्ड करवा दें सभी। धार्मिक और चरित्र निर्माण की ग्रंथ-संपदा के समानांतर यह एक बड़ी संपदा होगी। मूल्यवान भी। चरित्र निर्माण और संवेदनशील बनाने में कहानी की भूमिका अप्रतिम है। कहानी से संस्कृति खड़ी होती है।

बच्चों पर आरोप है कि वे अपनी संस्कृति से कोई लगाव महसूस नहीं करते। वे पश्चिमी तौर-तरीके से ही पेश आते हैं। बात-बात पर उन्हें केक काटना होता है। बच्चों के आग्रह ने केक को भारतीय रीति रिवाज का हिस्सा बना दिया है। कैंडल केक से उछल कर सड़क पर आ गई है। अब जुलूसों में मोमबत्ती हमारे गुस्से का इजहार करती है।  अब वह हमारी  संस्कृति का अंग है।

शहरी बच्चों पर यह आरोप भी है कि वे मातृभाषा से दूर हैं। अंगरेजी में ही अपनी दिनचर्या करते हैं। यही हमारी संस्कृति है। हम अपना संसद अंगरेजी में चलाते हैं, लेकिन यूएनओ में भाषण हिंदी में देते हैं। रही बात वंचित बुतरुओं की, उनके पास किसी भी भाषा का संस्कार पहुंचाने में आलस्य बरता जाता है। आलस्य नहीं, लापरवाही। लापरवाही नहीं, हम छल करते हैं। यही फाइनल सच है। वंचित बुतरुओं को महतारी भाषा तक से महरूम रखा जाता है। इनका बचपन गूंगा होता है। इनकी जीभ कटी होती है। केक इनके हिस्से में केवल सपने में आते हैं। गुलगुले तक के लिए तरसती है इनकी बुझी जीभ।

कटी जीभ, बुझी जीभ इन बुतरुओं का यथार्थ है। मगर इनकी आंखें खुली हुई हैं । खुली आंखों में ये देख रहे हैं- भेद बरताव और असमानता। झेल रहे हैं अपनी नरम गर्दन झुकाए। एक दिन वे अपनी गर्दन सीधी करेंगे, आंखें तरेरेंगे। तब वे कैंडल मार्च नहीं करेंगे,  हथौड़ा मार्च करेंगे! दस वर्ष की उम्र से कम के बच्चों में हर तीसरा बच्चा गरीब है, पूरी दुनिया में। बच्चों की गरीबी का अर्थ होता है शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर से वंचित होना। याद है, 2019 को बच्चों को सबल बनाने का साल घोषित किया गया था?

दुखद यह है कि आज के बच्चे उस संसार में सांस लेने के लिए अभिशप्त हैं जिस संसार के बारे में निराला ने बताया है, ‘भर गया है जहर से संसार जैसे हार खाकर’।  हवा में जहर है। विचार में भी जहर है। दोनों तरह के जहर से भरा है बच्चों का समकाल। दिल्ली की हवा में ये जहर ज्यादा है। पर्यावरण का जहर इतना सघन है कि वयस्क का स्वास्थ्य भी खतरे के दायरे में आता है। पर्यावरणीय आपातकाल की स्थिति है। इस आपातकाल में बच्चों का दम घुट रहा है। बच्चे सांस नहीं ले पा रहे हैं।

2019 में देश के उन्नीस अस्पतालों में लगभग दस हजार बच्चे मर गए। यह कितना दर्दनाक है । इससे भी बड़ा दर्द यह है कि इन दस हजार बच्चों की मौत को अस्पताल प्रशासन की ओर से नार्मल बताया जाता  है। कितनी एबनॉर्मल परिस्थिति है। गुजरात सरकार ने विधान सभा में तीन मार्च  को बताया कि राज्य में विभिन्न बीमारियों के कारण नवजात शिशु देखभाल इकाइयों में 2018 और 2019 में 15,000 से अधिक शिशुओं की मृत्यु हो गई।

पर्यावरणीय आपातकाल के विरुद्ध बिल्ली के गले में एक बच्ची ने घंटी बांधी है। स्वीडन वाली लड़की ने। नाम है उसका ग्रैता तुन्बैर। देखिए उसका अनुभव, ‘बहुत से लोग, अनेक राजनीतिज्ञ, व्यावसायिक नेता, पत्रकार कहते हैं कि वे हमारी बातों से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि हम बच्चे हैं और बातों को  बढ़ा-चढ़ा कर कहते हैं  और भय पैदा कर रहे हैं। …हम बुरे बच्चे बन गए हैं। हमलोग उन स्थितियों को बता रहे हैं जिनके बारे में आप सुनना नहीं चाहते। हमें डराया जाता है। पदाधिकारियों, सांसदों, अग्रणी व्यवसायियों, पत्रकारों द्वारा हमारा मजाक उड़ाया जाता है और हमें झूठा सिद्ध किया जाता है।‘ बच्चे टांय-टांय बोल रहे हैं, फिर भी उनके दर्द को महसूस तो कीजिए। हम जानते हैं पर्यावरण संकट प्राकृतिक नहीं है, मनुष्य के लोभ-लालसा से जन्मा संकट है। बच्चे आगाह कर रहे हैं। हमें चेता रहे हैं। भारत की एक आठ साल की लड़की ने भी आंख मे उंगली डाल कर बताया है, लिसिप्रिया कंगुजम को हैट्स ऑफ!

एक तरफ बच्चों का सांस लेना मुश्किल, दूसरी तरफ दिमाग और बुद्धि बंद करने के सभी करतब जारी हैं।  जहर दिमाग में उड़ेला जा रहा है। मिल बांट कर रहना – खाना हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया था। माँ-बाबू ने भी सिखाया था। संतों ने, महात्माओं ने हमें ऐसा ही सिखाया था। झा सर और मौलवी साहब ने भी ऐसा ही बताया – निभाया था। और तो और फिल्मों ने भी गा – गा कर बताया- हम इंसान हैं इंसान बनेंगे। मगर हम? हम आज के बच्चों को इन मूल्यों के साथ जीना नहीं सिखा पा रहे हैं। आज हम सिखा रहे हैं बांटना। कुछ सिखा रहे हैं काटना। ये नए जालिम – जुल्मी हमारी साझी संस्कृति का बैंड बजाने से बाज नहीं आ रहे हैं। हम हैं कि उनका सामना  नहीं कर रहे हैं। हम पतंग उड़ा रहे हैं। भेड़ों का देश बना दिया है हमने। हमारे बच्चे भी भेड़िया धसान में शामिल हो जाएंगे!

 

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शिक्षा में मूल्यांकन की जगह उनकी खूबियाँ आंकी जाएं .

पंकज चतुर्वेदी

बाल रचनाकार। संपादक : पुस्तक संस्कृति

 

बच्चों के सामने सबसे बड़ा संकट उन्हें जल्दी ही बड़ा बना देने का है। क्या बनोगे जैसे सवाल उन्हें छोटी उम्र से ही स्वाभाविक विकास से वंचित रखते हैं — बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक, नैतिक – हर तरह के विकास से। पहले ही दिन बता दिया जाता है कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बहुत-सा पैसा कमाने वाला बनाना है, फिर बच्चे श्रम के महत्व को समझ नहीं रहे हैं। निर्धन और खाते-खेलते बच्चों के बीच बढ़ती खाई भी एक बड़ा संकट है। कहीं वातानुकूलित बस और कमरे में पढ़ते बच्चे हैं तो दूसरी तरफ पेट पालने के लिए मजदूरी करते, सामाजिक सुरक्षा के अभाव में शोषण  के शिकार बच्चे और कुपोषित बच्चे हैं। समाज के विभिन्न स्तरों पर संकट अलग -अलग है, बस एक समानता है कि उनके बचपन पर संकट है।

 

बच्चों की दुनिया सहज होनी चाहिए, जहाँ वे अपनी मर्जी से सीखेँ, खेलें। विद्यालयों में एकरूपता हो– अमीर-गरीब सभी एक किस्म के स्कूल में साथ पढ़ें। उनके पास बेहतर स्वास्थ्य सुविधा हो, जीवकोपार्जन के लिए उसका बचपन कहीं गिरवी न रखा हो। शिक्षा में उनके मूल्यांकन के बनिस्पत उनकी खूबियाँ आंकी जाएं।

 

विडंबना है कि हिंदी में बाल साहित्य का बड़ा हिस्सा बहुत ही नैतिकतावादी है। रचना में महज पात्र ही बच्चा होता है। कहानी का प्रवाह, घटना, संवाद, अनुकूलन सभी कुछ वयस्क मानसिकता का होता हैं। बाल साहित्य में अधिकांश अभी भी राजतंत्र या पौराणिक आख्यान से घिरा है। किसी कहानी में सरपंच, कलेक्टर, विधायक तो होता ही नहीं है। रहस्य-रोमांच के नाम पर अंधविश्वास और अविश्वसनीय कथानक ज्यादा होते हैं। लेखक मान लेता है कि वह सब कुछ जानता है और साहित्य के माध्यम से उसका काम बस ज्ञान  देना मात्र है।

 

हर बच्चे का पहला अध्यापक उसका परिवार होता हैं। परिवार में वहाँ सीखी भाषा, संस्कार उसके साथ सदा चलते हैं। विद्यालय उसके गुणों को निखारने और अवगुणों को गौण करने का स्थान है। दोनों ही जगहों पर यह एकालाप है- एक तरफा ज्ञान देना और बच्चे से उसकी मर्जी, सोच, कल्पना के बारे में कभी कुछ पूछना ही नहीं।

जेंडर भेद भारत के समाज की नसों में है। शहरी समाज अब बच्चियों के प्रति संवेदनशील बन रहा है, लेकिन खेल, शिक्षा, भोजन, बोलने के तरीके, कपड़े पहनने आदि सभी जगहों पर बचपन से ही बच्चियों को बराबरी का दर्जा नहीं मिलता। स्त्री को कमजोर या अबला मान  लेने की शिक्षा ही किसी न किसी तरह से दी जाती है। मर्द किसी महिला की टीम में काम करने में अपनी हेठी समझते हैं। सड़क पर यदि कोई महिला अपने वाहन से तेज निकल जाए तो पुरुष चालक इसे अपनी बेइज्जती मान  लेते हैं!

जब तक शिक्षा , स्वास्थ्य  और खेलने के सामान अवसर नहीं मिलेंगे तब तक बाल शोषण से उबरने की संभावना कम है।

मो॰ 9716043446, 9891928376

बच्चों की अस्मिता और व्यक्तित्व को स्वीकार करना हमारा दायित्व है

दीना नाथ मौर्य

बाल साहित्य और सीखने की प्रक्रिया पर बुनियादी अध्ययन, इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर।

 

आज के समय में जो संकट हमारे लिए हैं बच्चों की दुनिया के संकट उससे अलग नहीं हैं। बल्कि हमारे समय के संकट गहरे रूप में बच्चों की दुनिया को प्रभावित करते हैं। हमें बच्चों के बारे में कोई राय बनाने से पहले समझ लेना चाहिए कि बच्चे मिट्टी का लोंदा नहीं होते हैं। हम जैसा चाहें वैसा उनको बना सकें। कई बार बच्चे अपनी उमर के लिहाज से उतने ही समझदार होते हैं जितने अपनी उमर के हिसाब से बड़े लोग होते हैं। इसलिए बच्चे भी उतने ही सम्मान के हकदार हैं जितना बड़े किसी से अपेक्षा करते हैं।

जिन्हें हम बच्चों के खेल कहते हैं दरअसल उनकी श्रम जनित क्रियाएँ हैं। इनके जरिए वे शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में मशक्कत कर रहे होते हैं। वे खेल में गीत-संगीत, सुर, लय सब निर्मित करते हैं। कलाओं के रूप में ये संयुक्त क्रियाएं उनकी गतिविधियों के अनिवार्य हिस्से हैं। बच्चों की कल्पनाएँ हमसे कई गुना ज्यादा होती हैं। यह बात दूसरी है कि हम अक्सर उनकी कल्पना जनित गतिविधियों को बदमाशियों का नाम दे देते हैं। दुनिया को जानकर जीना बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए उनकी हर गतिविधि में सवाल होते हैं। हम या तो जीना चाहते हैं या जानना। इसलिए कभी-कभी बच्चों के सरल से सवाल हमारे लिए परेशानी पैदा करते हैं।

आज हमारे पास बच्चों के लिए समय नहीं होता। हम उन्हें मोबाइल और रिमोट के खिलौनों में बाँधकर रखना चाहते हैं, जबकि दुनियावी चीजों के साथ बच्चों का रिश्ता हमेशा संवाद के क्रम में आगे बढ़ना चाहता है। बच्चा खूब बोलना चाहता है, पर अक्सर हम उन्हें चुप रहने की सलाह देते हैं। बाद के जीवन में व्याप्त होने वाली सामूहिक सामाजिक चुप्पी का आरंभ यहीं से होता है।

बच्चे स्वाभाविक रूप से बहुत कल्पनाशील होते हैं और वे अपनी कल्पना के साथ जीवन को जानना और समझना चाहते हैं। बड़ों की एक दिक्कत यह है कि वे अपने हिसाब से उनकी कल्पनाओं को फ्रीज करना चाहते हैं। बच्चे बहुत जल्दी बड़ों के मनोविज्ञान को पकड़ लेते हैं, जबकि बड़े इस मामले में उनसे बहुत पीछे होते हैं। बच्चे अपने परिवेश में अपनी दुनिया तलाशते हैं और विडंबना यह है कि हम उनका ऐसा परिवेश रचते हैं जिसमें उनकी अपनी दुनिया ही नहीं होती। समाज हमेशा बच्चों के सामने एक आदर्श रखता है। उसी आदर्श के इर्द-गिर्द नैतिक शिक्षाओं का ताना-बाना बुनता है। बात जब बच्चों की अस्मिता की हो तो हम केवल उनका दाखिला तथाकथित अच्छे स्कूलों में कराकर अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते। यह दायित्व बच्चे को एक संपूर्ण नागरिक बनाता है।

हम बच्चों से यह कहते रहते हैं कि कपड़े इधर-उधर न फैलाओ, पर घर में हैंगर की ऊँचाई 5 फीट पर रखेंगे। हम कहेंगे कि पानी इधर-उधर न गिराओ, पर बेसिन अपनी लंबाई के अनुसार लगाएंगे। ये ही बातें टायलेट के कमोड के साइज से लेकर आलमारी के ताखों की ऊँचाई तक है। इतना ही नहीं, हम नजरिये को एक मानकता का रूप देते हुए हर चीज को एक तथाकथित स्टैंडर्ड से जोड़कर रख देते हैं; फिर सबसे उम्मीद करते हैं कि उस स्टैंडर्ड में फिट हो जाए। जाहिर है, बच्चा हमारे इस निर्मित स्टैंडर्ड से बाहर होता है और हमारी कोशिश हमेशा उसे अपने दायरे में लाने की होती है। बच्चा दिन प्रतिदिन इस तरह के स्टैंडर्ड के लिए अपने को तैयार करने के क्रम में खुद को भूल जाता है। लब्बोलुआब यह है कि बच्चा घर में तो रहता है, पर बचपन गायब हो जाता है। यही कारण है कि अपने जीवन के शुरुआती कुछ ही वर्षों में ज्यादातर बच्चे ‘मोनो एक्ट’ की ओर बढ़ जाते हैं। बच्चे की अस्मिता और उसके व्यक्तित्व को स्वीकार करना हम वयस्कों की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए।

अब तक भारतीय समाज में बचपन की अवधारणा बन ही नहीं पाई है। बचपन की जगह यहाँ शिशु की अवधारणा है या वयस्क की। बचपन को यहाँ पर वयस्क होने की कल्पना के साथ जोड़कर देखे जाने की परंपरा रही है, जो लगातार अभी भी कमोवेश है। अगर हम लोक में इसकी तलाश करें तो पाते हैं कि वहां गाए जाने वाले गीतों में ज्यादातर विरह के गीत हैं या विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीत हैं। प्रेमचंद की ईदगाह,गुल्ली-डंडा,बड़े भाई साहब, दूध का दाम आदि अनेक कहानियों में बचपन का जो संदर्भ आता है वह हमारी उन अवधारणाओं को तोड़ने वाला है जिनमें हम बच्चे की अस्मिता को स्वीकार नहीं करते। प्रेमचंद के साहित्य की तरह रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य में भी यह प्रवृत्ति दिखती है।     दोनों साहित्यकारों की जिन कृतियों में बचपन की अस्मिता के दर्शन होते हैं वे मूलतः बचपन के सहज स्वभाव को समझने की दृष्टि  पैदा करती है। जब साहित्य को विभिन्न कैटेगरी में बाँट कर देखा जाने लगा है तो यह बात महत्वपूर्ण है कि ये दोनों बड़े रचनाकार किसी एक मात्र कैटेगरी के नहीं हैं कि आप उन्हें बच्चों का लेखक कहें या बड़ों का। उनकी स्वीकार्यता दोनों जगह समान रूप में है।

साहित्य बच्चों की कल्पना को बढ़ाने वाला और उनके व्यक्तित्व की गरिमा को सुरक्षित करने वाला होना चाहिए। बच्चों को आदर्श की बातें हम बड़े होने पर भी सिखा सकते है, पर बचपन की अस्मिता के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। बच्चों का साहित्य उनके अंदर केवल भाषा की तासीर ही नहीं पैदा करता है, बल्कि वह उनके जेहन में तमाम दुनियावी अवधारणाओं को बनाता है। बच्चे साहित्य के जरिये अपने से भिन्न स्थिति में निर्णय लेने, चीजों को बरतने और सामूहिक जीवन में अपने को महसूस करने की कला से परिचित होते हैं। इसलिए बाल साहित्य का लेखन बहुत जिम्मेदारी और संजीदगी का कार्य है।    बच्चों का जिक्र करने से ही कोई साहित्य बाल साहित्य नहीं कहा जा सकता, बल्कि उस साहित्य में बच्चे की अस्मिता और उसकी स्वभावगत चीजों की जगह होना भी जरूरी है।

परिवार ही बच्चे की सामाजिकता का स्रोत होता है। यहीं से उसके समाजीकरण की प्रक्रिया आरंभ होती है। सामूहिकता और रिश्तों के विविध आयामों के व्यावहारिक ज्ञान से बच्चे का परिचय परिवार से ही शुरू होता है। हम जिसे शिक्षा कहते हैं उसे केवल स्कूल में मिलने वाली औपचारिक शिक्षा तक सीमित कर देना दरअसल शिक्षा की परिभाषा को संकुचित करना होगा। सीखने की प्रक्रिया को हमें बच्चे के स्वाभाविक गुण के तौर पर स्वीकार करना चाहिए। इसी रूप में शिक्षा को परिभाषित करने की जरूरत है। बच्चे परिवार में जिन चीजों को देखते हैं, उनसे सीखते हैं। वह उनके व्यवहार का स्थायी भाव बनता जाता है।

संयुक्त परिवार में बच्चे की परवरिश में परिवार के सभी सदस्यों का योगदान हुआ करता था। बच्चा हरेक सदस्य के साथ कुछ न कुछ गतिविधि करता था और सीखता रहता था। भाषा से लेकर व्यवहार तक। आज जब एकल परिवार की संकल्पना है तो जिस घर में केवल एक बच्चा होता है उसकी गतिविधि का दायरा सीमित हो जाता है। शिक्षण शास्त्रीय शब्दावली में जिसे ‘पेयर लर्निंग’ कहते हैं, बच्चे को उसका सुख नहीं मिल पाता है। पूरी दुनिया की तस्वीर बच्चे के जेहन में परिवार के जरिए बनती है। जब वह स्कूल जाता है तो अपनी उम्र के लिहाज से एक समृद्ध अनुभव के साथ जाता है। जरूरत इस बात की है कि स्कूल बच्चे के इस अनुभव की बुनियाद पर बच्चे को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के साथ जोड़ने की कोशिश करे। बच्चे की शिक्षा को बोझिल होने से बचाने की जरूरत है, जिसकी जिम्मेवारी परिवार और समाज की भी है, क्योंकि स्कूल इन्हीं दोनों इकाइयों के साथ निर्मित होता है।

समाज की यह आम धारणा ही नहीं है, बल्कि जाने-अनजाने हम अमल भी करते हैं कि लड़कों को बंदूक और लड़कियों को गुड़िया जैसे खिलौने लाकर देते हैं। बाल मनोविज्ञान इस तरह के किसी भी लैंगिक विभाजन को ख़ारिज करता है। हमें मान लेना चाहिए कि ये बातें मिथ से ज्यादा कुछ नहीं है। मानव विकास का ऐतिहासिक अध्ययन इस बात की गवाही देता है कि रंग और रेखाओं का भी अपना समाजशास्त्र होता है। लड़का और लड़की के बारे में समाज की निर्मिति में मैं सीमोन की इस बात से सहमत हूँ – ‘लड़की पैदा नहीं होती बना दी जाती है।’ बल्कि इसे और आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है, ‘लड़के भी पैदा नहीं होते बल्कि बना दिए जाते हैं।’ जेंडर सेंसिटिविटी’ तथा लड़की और लड़कों के अलग-अलग कार्यों की अघोषित ट्रेनिंग परिवार और समाज के जरिए बचपन में ही दी जानी शुरू हो जाती है। इसका बहुत ही नकारात्मक प्रभाव बच्चों के भावी जीवन पर पड़ता है। शिक्षा और खेल समेत तमाम गतिविधियों में बच्चों को बगैर किसी लैंगिक भेदभाव के समान अवसर देना चाहिए। बचपन को किसी भी तरह के भाषिक-सांस्कृतिक विभेदकारी कार्यों से बचाना चाहिए।

सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश मो.9999108490

 

संपर्क सूत्र प्रस्तुतिकर्ता : महिला छात्रावास परिसर, हाल ऑफ रेजिडेंस, कक्ष सं. 153, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, 211002 मो.7084628596  email : swayampratibha@gmail.com