युवा आलोचक एवं प्रबुद्ध टिप्पणीकार
महाराष्ट्र में दो बहिनाबाई हुईं। एक बहिनाबाई को आप उत्तर-मध्यकाल के महान संत-भक्त की तरह जानते हैं। दूसरी बहिनाबाई खानदेश में आधुनिक काल(1880 ई.) में पैदा हुईं, जिनका नाम है- बहिनाबाई चौधरी।
बहिनाबाई चौधरी एक सामान्य परिवार में पैदा हुईं और अतिसामान्य किसान परिवार में ब्याही गईं। जब उनकी उम्र तीस साल थी, उनके दुधमुँहे छोटे-छोटे बच्चे थे तभी वे विधवा हो गईं।
पति के न रहने के बाद बच्चों के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी बहिनाबाई के कंधों पर आ पड़ी। उन्होंने खेती करना शुरू किया। खेती करके बच्चों को पाला। बहिनाबाई निरक्षर थीं, लेकिन उन्होंने बच्चों को ख़ूब पढ़ाया-लिखाया।
तीस की उम्र में वैधव्य और तदुपरांत आर्थिक-सामाजिक प्रताणना से लड़ते हुए खेती करने लगीं। इस सबके साथ उन्हें सामाजिक अस्तित्त्व व सामाजिक चेतना के बीच का द्वंद्व, तीक्ष्ण भावनात्मक संघर्ष और प्रकृति से संसर्ग की जो मौलिक सौन्दर्यत्मक अनुभूति हुई होगी वह मराठी के पारंपरिक ओवी छंद में बहने लगी। वे जिन छंदों में मराठी के सामान्य जीवन में गाए जाने वाले गीतों को गाती थीं उसी में उनकी अनुभूतियां ढलने लगीं। उन्हें न इसका आभास रहा न इसके मूल्य का कोई ज्ञान। लेकिन उनकी इस काव्यात्मक अनुभूति ने उन्हें जीने में मदद की। उसने भौतिक रिक्तता को भर लिया। उसने उनकी अधूरी दुनिया को पूर्ण कर दिया। वे खेतों में काम करती रहीं और मन में जो-जो भाव उठते उसे गाती रहीं।
एक दिन बहिनाबाई के बेटे ने उन्हें अपनी किताब में से पढ़कर सावित्री और सत्यदेव की कथा सुनाई। अगले दिन बहिनाबाई उसे अपने गीतों में ढालकर गाती हुईं अपना काम कर रही थीं। जिसे उनके बेटे ने सुना और अपनी कॉपी में नोट कर लिया। फिर वे जो भी गाती थीं वे उसे नोट करते रहे। उनके इस बेटे का नाम था- सोपानदास(आगे चलकर सोपनदास मराठी के परिचित कवि हुए)। किंतु सोपानदास ने भी इन गीतों के बारे में बहुत नहीं सोचा, वे बस नोट करते गए।
बहिनाबाई की मृत्यु सन् 1951 में हुई। बहिनाबाई की मृत्यु के महीनों बाद सोपानदास ने जब एक दिन मराठी के आलोचक- साहित्यकार केशव अत्रे को वह कॉपी दिखाई तो वे उन गीतों को पढ़कर चौंक पड़े। उनके चौंकने के बाद अब मराठी साहित्य-जगत के चौंकने का नंबर था।
एक साल बाद सन् 1952 में जब ‘बहिनाबाई के गीत’ नाम से उन गीतों का प्रकाशन हुआ तो वे मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकारों में प्रतिष्ठित हो गईं।
मैं महीने भर पहले तक एक ही बहिनाबाई को जानता था, जिन्हें मध्यकाल के संदर्भ में अकादमिक ज़रूरतों के चलते हर कोई पढ़ लेता है। दूसरी बहीनबाई चौधरी तक उनकी एक कविता के सहारे पहुँचा। इसका शीर्षक है- ‘बया का घोंसला’।
इस कविता की चर्चा बाद में करूँगा। परंतु जिस नाते मैंने बहिनाबाई चौधरी की यह कथा आपको सुनाई, वह यह समझाने के लिए कि कविता जीवन के सार से आवयविक रूप से बंधी हुई है। प्रकारांतर में श्रम से। क्योंकि जिसे हम जीवन का सार कह रहे हैं, उसका अनिवार्य संबंध है श्रम से। संबंध, समाज, साहचर्य, भावना सब श्रम की प्रक्रिया में ही विकसित होते हैं। इसलिए आप देखें तो दुनिया भर में अनगिनत कवि ऐसे मिलेंगे जिनकी कविताएँ उनके श्रम-संसार का सहज विकास लगती हैं। वे सिर्फ़ उसके जीवन-संघर्ष का प्रतिबिम्बन नहीं करतीं, बल्कि आत्मबल, आदर्श, सौंदर्य और भौतिक सीमाओं को पूरने वाली कल्पना के रूप में भी उपस्थित होती हैं। यह बात कई बार इतनी सहज हो सकती है कि इसे दैवी मान लिया जाए। लेकिन एक विवेकशील व्यक्ति के लिए कविता और श्रम का यह संबंध आश्चर्यजनक नहीं है।
अभिजनवादी दृष्टि श्रम और कविता के इस संबंध को झुठलाना चाहती है। वह इस अनिवार्य संबंध को झुठलाकर इसे हुनर और हिकमत बताना चाहती है। लेकिन कविता समय-समय पर हुनर और हिकमत को झुठलाती हुई श्रम से स्वयं के संबंध को परिभाषित करती रहती है।
बहिनाबाई की कविताओं में प्रतीकात्मकता, बिम्बात्मकता, सार्थक अमूर्तन, लय और भावनात्मक आकुलता को वहन करने वाली भाषा आदि सबकुछ है।
मुझे मराठी की समझ नहीं है। लेकिन ‘वाक मैन’ के जमाने से अभंग सुनता रहा हूँ। पिछले डेढ़ साल महाराष्ट्र में रहने का मौका मिला तो समझने की भी थोड़ी-बहुत कोशिश की। अर्थ ठीक ठीक भले समझ में न आए परंतु भाव और लय का आनंद आता है।
इस कविता में बया के एक झूलते हुए घोंसले का बिम्ब है। उसे खोंप्या माझे खोंप्या; घोंसले में घोंसला- कहा जा रहा है। यह ब्रह्मांड भी निस्सीम घोंसले में पड़ा हुआ अंडा ही तो है? भले ही ब्रह्म का सही। उस निस्सीम घोंसले में बया का यह छोटा-सा, झूलता हुआ सुंदर घोंसला।
यह घोंसला बया के बच्चों के लिए पेड़ पर टंगा हिंडोला है। उस घोंसले में बच्चे सो रहे हैं। जैसे वह उनका झूलता हुआ बंगला हो। कवयित्री लिखती है कि उनका पूरा मन मानों पेड़ पर टंगा हो। किसका मन पेड़ पर टंगा हो? झूलते बँगले जैसे घोंसले में बैठे बच्चों के माँ-बाप का – बया का। बया क्षण भर निश्चिंत नहीं रहती। घोंसले में बैठे बच्चों को अकनती रहती है। यह दृश्य कितना मार्मिक है!
फिर बया के घोंसले को बिम्बित करते हुए कहती हैं- यह ऐसा है जैसे तोरई का खूझा। तोरई का खूझा हम सबने देखा है। तोरई जब पककर गर्मी में सूख जाता है तो बारिश में ऊपर की खोल सड़ने के बाद महीन तंतुओं से बुना हुआ सुंदर घोंसला लगता है। पहले गाँवों में लोग इसे नहाते हुए देह रगड़ने के लिए इस्तेमाल करते थे। आजकल ऑनलाइन बाजार में ‘हर्बल लूफ’ के नाम से सैकड़ों में बिकता है।
वे कहती हैं कि पक्षियों की इत्ती सी चोंच है! वैसे ही छोटे-छोटे होंठ और दांत हैं, जिनसे वे ऐसी कारीगरी करते हैं। तुम्हें तो भगवान ने दस अंगुलियाँ और दो हाथ दिए हैं, तुम ऐसा कर सकते हो? प्रकृति, सौंदर्य, करुणा, वात्सल्य और जिजीविषा और न जाने कितने भाव इस गीत में घुल मिल जाते हैं।