कई सालों तक मैंने चैन की नींद ली। मैं हमेशा कहती कि यह मेरे तकिये की वजह से है। जैसे ही मैं उस तकिये पर सिर रखती, मुझे नींद आ जाती – इतनी गहरी नींद कि मुझे घड़ी में केवल रात के 10 बजे और सुबह 6 बजे का ही पता होता, उसके बीच के अंधेरे का मुझे कुछ भी नहीं मालूम। मुझे सुबह अपना तकिया छोड़ने और ऑफिस के लिए तैयार होने में बड़ी मुश्किल होती। जब भी कोई शिकायत करता कि उन्हें रात में नींद नहीं आती तो मैं उनसे कहती, ‘हो सकता है आपका तकिया आरामदेह न हो – उसे बदलें। मैं तो बरसों से अपना वही एक तकिया इस्तेमाल करती हूँ।’
मेरे पति ही यह कहते, ‘जैसे ही तुम्हारा सिर तकिये पर पड़ता है, वैसे ही तुम्हें नींद आ जाती है – काश ऐसी तरकीब मेरे पास भी होती!’
मुझे नहीं पता कि मेरी मां ने सालों पहले यह तकिया कहां से खरीदा या कि उसने खुद ही इसे तैयार किया। यह न तो बहुत नरम था, न ही बहुत सख्त। इसकी साइज बिलकुल सही थी और यह बहुत भारी भी नहीं था- एकदम सही तकिया था यह। मुझे लगता है कि मेरी मां ही मेरे लिए ऐसा संतुलित तकिया बना सकती थी।
मेरे देश के हालात अन्य देशों की तरह सुविधाजनक और शांतिपूर्ण नहीं थे। हर दिन कई घंटों के लिए पेयजल आपूर्ति में कटौती रहती, पावर ग्रिड पर लगातार लोडशेडिंग होती और इंटरनेट कवरेज भरोसेमंद नहीं था, जिनसे हमारे कामों में देरी हो जाती। लेकिन हमारी प्रिय मातृभूमि में हमारी जिंदगी खूबसूरत थी। मेरे पति और मेरे पास बढ़िया जॉब थे और हमारी आमदनी अच्छी थी। मुझे अपने काम से खुशी मिलती थी। मैं एक विदेशी संगठन में बचाव पक्ष की वकील थी। यह संगठन गरीब मुवक्किलों के लिए काम करता था, जिसमें ज्यादातर घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाएं थीं। अपने लोगों और देश की सेवा करते हुए मैं कभी न थकती। किंतु मेरे पति बढ़ती हुई असुरक्षा से चिंतित थे। मेरा परिवार मेरे लिए विशेष रूप से चिंतित रहता, क्योंकि मैं अदालतों, वकीलों के ऑफिसों तथा न्यायिक भवनों में काम करती थी। अचानक होने वाली घटनाओं और विस्फोटों के कारण हर कोई अपने प्रियजनों की सलामती जानने उन्हें दिन में कई बार फोन करते।
आखिरकार, युद्ध और असुरक्षा ने हमें अन्य लोगों की तरह देश छोड़ने को मजबूर किया। मेरे पति का निर्णय था कि अब हमें अप्रवासी हो जाना चाहिए। मैं बिलकुल भी खुश नहीं थी। मैं उन्हें परिवार के उन लोगों के बारे में बताती रही जो इस तरह विस्थापित होने में असमर्थ थे और जिनके लिए हमारे जाने के बाद मुसीबत में रहने के अलावा और कोई दूसरा उपाय न था। मैं उन्हें छोड़कर नहीं जाना चाहती थी, किंतु मैं अपने पति को नहीं मना पाई। उनका मानना था कि यहां से जाने के लिए ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलेगा। मैं कुछ भी न कर सकी और बिना इच्छा के मुझे उनका निर्णय मानना पड़ा। मैंने यात्रा के लिए खुद को तैयार करना शुरू कर दिया।यहां से जाने के लिए मुझे बहुत कुछ करना था। सबसे पहले मैंने अपना जॉब छोड़ा, फिर अपने साथ ले जाने के लिए जरूरी सामान खरीदना शुरू किया : गर्मियों के लिए हलके कपड़े, सर्दियों के लिए मोजे और जैकेट, घरेलू बर्तन, चावल के लिए मसाले, पिसी अदरक, सुमैक पावडर…।
मित्रों ने हमें बताया था कि ये चीजें विदेशों में आसानी से नहीं मिल पाती हैं और यदि मिल भी गईं तो बहुत महंगी होती हैं। क्योंकि मेरे सामान का वजन बहुत ज्यादा हो रहा था, जरूरी चीजें भी ले जानी थी और सफर भी बहुत लंबा था, इसलिए मैं अपना तकिया साथ में नहीं रख सकी। जो भी मैं ले जा रही थी उस पर ध्यान देना जरूरी था ताकि सामान ले जाने में अतिरिक्त खर्च न हो।
आखिर वह दिन आ ही गया। मन में उदासी लिए मैं संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए अपनी मातृभूमि छोड़ रही थी- अमेरिका, जहां जाने का बहुत से लोगों का सपना होता है, वहां उतरने के बाद जब हम एयरपोर्ट से बाहर जाने के रास्ते में थे, तभी उन लोगों के लिए एक घोषणा हुई जो अपने सामान के साथ खाद्य सामग्री ले जा रहे थे। आवाज आई कि जो भी अपने साथ बिना पिसे मसाले ले जा रहे हैं, वे एक विशेष डेस्क पर पहुंचकर अधिकारियों को सूचित करें। हमारे पास तो पिसे हुए मसाले थे। मन में एक अच्छी उम्मीद लिए हमने अपना सामान लिया और बाहर चले आए।
दो दिन की यात्रा के बाद, विमान से उतरकर, ताजी हवा में सांस लेते हुए, जमीन पर चलते हुए मुझे एक नए व्यक्ति की तरह महसूस हुआ। नदी किनारे साफ-सुथरी सड़कें, गगनचुंबी इमारतें और कॉटेज जैसे घर थे। हरी-भरी पहाड़ियों और छोटी-छोटी नदियों के दृश्य बहुत सुंदर थे, लेकिन चारों ओर एक सन्नाटा था। एयरपोर्ट से आते हुए मुझे केवल कारें दिखाई दे रही थीं। मुझे यह कारों का शहर लगा। कहीं भी कोई आदमी नहीं दिखाई देता था।
वहां बस जाने के बाद मैं हर सुबह अपना नाश्ता लेती, घर की साफ-सफाई करती, फिर बाहर बैठ सामने बगीचे को देखती। चाय का प्याला अपने हाथ में लिए मैं जॉब की तलाश में इंटरनेट ब्राउज करती। मैं अपने घर के कामों, जॉब की खोज और इंटरव्यू की तैयारी में व्यस्त रहती। लेकिन मैं अपना तकिया नहीं भूल पाई, क्योंकि यहां आने के बाद मैं ठीक से सो नहीं सकी।
थोड़ा समय बीता। पड़ोसियों से मेरी जान-पहचान हुई। हर दिन हम आमने-सामने होते और हैलो कहते। मैंने उनसे पूछा कि मैं एक आरामदेह तकिया कहां से खरीद सकती हूँ। उनकी सलाह से मैं उस स्टोर में गई जहां विशेष रूप से बिस्तर, कुर्सियां, गद्दे और तकिये मिलते थे और वहां से मैंने अपने लिए एक नया तकिया खरीदा। यह मेरे पुराने तकिये जैसा था, अत: मुझे यकीन था इससे मुझे अच्छी नींद आ सकेगी।
उस रात जब मैंने नए तकिये पर अपना सिर रखा तो यह तकलीफदेह और परेशान करने वाला था और मैं बिलकुल ही सो नहीं पाई। अगली सुबह मैं इसे बदलने गई पर दूसरे तकिये पर भी मुझे नींद नहीं आई। सप्ताह भर मैं कोशिश करती रही कि मुझे पुराने तकिये जैसा कोई तकिया मिले, पर हर रात मेरी नींद खराब होती रही। मैं कोशिश करते-करते थक गई। मैंने मन ही मन कहा: ओ, मेरे प्रिय पुराने तकिये तुम पर सिर रखकर मैं कैसे बड़े आराम से सो जाती थी। अब तो मेरी आंखों की नींद उड़ गई है। काश, मैं वह तकिया साथ लाई होती।
पूरे एक साल तक पराए देश में मैंने उस तकिये के बिना रातें बिताईं। वास्तव में उस तकिये के बिना एक साल तक मैं जागती रही। रातों में अपने देश में बिताए सुखद दिनों को मैं याद करती और सोचती कि क्या वैसा एहसास यहां कभी भी संभव हो सकेगा। कभी-कभी मैं अपने देश में रह रहे अपने परिवार जनों की सुरक्षा के बारे में सोचते हुए जगे पड़ी रहती। मैंने निश्चय किया कि अगली बार जब अपने देश जाना हुआ तो मैं वह तकिया जरूर वापस लेती आऊंगी, चाहे जो भी अतिरिक्त खर्च देना पड़े।
अंतत: मैं और मेरे पति ने थोड़े समय के लिए अपने परिवार से मिलने देश लौटने का फैसला किया। ओह, मॉय गॉड! मुझे बहुत सी तैयारियां करनी थीं और अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए गिफ्ट खरीदने थे। अपनी मां के लिए मैंने उसके पसंदीदा छोटे रंगीन हैंडबैग्स, भाई के लिए घड़ी, बहनों के लिए सुंदर कपड़े, बच्चों के लिए खिलौने और सभी के लिए स्वादिष्ट चॉकलेट्स खरीदे। आखिर मैं पहली बार लौट रही थी। ‘और इस बार तो मैं अपना तकिया लेकर ही वापस आऊंगी।’ मेरा उत्साह देखकर, यहां बने मेरे नए मित्रों ने कहा, ‘इस बार तुम्हें अपने देश में मजा नहीं आएगा, क्योंकि तुम्हें अब यहां की सुख-सुविधाओं की आदत हो गई है। यहां की जीवन-शैली के अभाव में तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा।’
आखिरकार, मैं अपने प्रिय वतन लौट आई। एयरपोर्ट पर हमारा अभिवादन करने आए सभी लोगों को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। लंबी यात्रा के बाद भी मुझे थकान महसूस नहीं हुई। घर पर मेरे प्रिय परिवार ने खाने में अशक, कबूली और बोलनी तैयार की थी। इन व्यंजनों को एक साथ खाने का अपना अलग मजा है। काफी दिनों बाद मैंने इतने सारे लोगों के साथ भोजन किया था। आपस में हँसी-ठिठोली और बच्चों के शोर का एक अलग ही आनंद था। यहां मुझे अमेरिका की लंबी खामोशी से मुक्ति मिली।
मेरा देश वैसा ही था, जैसा मैं छोड़कर गई थी। तहस–नहस किंतु सुंदर, असहाय और गरीब लोग यहां पर, लेकिन मेरे अपने। सबसे सुंदर चीज तो मेरा तकिया था। उस पहली रात मैंने उस पर अपना सिर रखा और एक साल बाद बड़े आराम से सो पाई। मैंने अपने पति से कहा, ‘मैंने तुम्हें बताया था न कि मेरे नहीं सो सकने का कारण मेरा तकिया था। देखो, कितने मजे से मैं सो सकती हूँ। मुझे किसी दवा की जरूरत नहीं।’
मैं अपने प्रिय जनों के आतिथ्य के बीच खुश थी। अपनी मां, भाई-बहनों के साथ पुराने बाजार में जाना, दुकानदारों के साथ भाव-मोल करना, सड़क किनारे छोले-चटनी (शोर-नखोद) खाना और अपने लोगों से बातचीत करना मेरे लिए अन्य किसी भी चीज की तुलना में अधिक आनंदमयी था। मेरे लिए दो महीने दो दिन की तरह बीत गए। अब फिर से समय आ गया था गुडबॉय कहने का।
एक बार फिर मैं अपना सामान इकट्ठा करने में व्यस्त हो गई। हमारे रिश्तेदार हमारे लिए कई तोहफे लेकर आए, लेकिन इस बार मैं अपना तकिया छोड़कर नहीं जाने वाली थी। मैंने इसे अपने सबसे बड़े सूटकेस में रख लिया।
फिर से अपनी आंखों में आंसू और मन में उदासी लिए मैंने अपनी मातृभूमि को अलविदा कहा। किंतु इस समय मेरा तकिया मेरे साथ था। परिवार और दोस्तों से जुदा होने के दर्द के बावजूद मुझे यकीन था कि रातों में मुझे खुली आंखों नहीं सोना पड़ेगा। चाहे अकेलापन रहे, मुझे रातों में जागना नहीं पड़ेगा।
जैसे ही मैं अमेरिका के हवाई अड्डे पर उतरी, मुझे यहां बिताए उदास दिनों की याद आई। यहां फिर से अकेलापन और खामोशी थी। न तो शहर सुंदर लग रहा था, न ही समुद्र, न ही इमारतें, न ही आसपास के दृश्य, बगीचे और रेस्तरां।
जैसे ही हम घर पहुंचे, मैंने अपना तकिया निकाल लिया। उस रात जब मैंने अपना सिर उस पर रखा तो यह मुझे थोड़ा सख्त और कम आरामदेह लगा। मैंने सोचा कि ऐसा दो दिनों तक सूटकेस में बंद रहने के कारण हुआ होगा और धीरे-धीरे यह पहले जैसा हो जाएगा।
दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में बदल गए, पर मेरा तकिया आरामदेह नहीं हो पाया। यहां लौटे अब एक साल बीत गया है पर मेरी रातें खुली आंखों ही गुजरतीं। हर रात बिस्तर पर जाने से पहले मैं नींद की गोलियां लेती पर नींद नहीं आती थी। जब फोन की घड़ी देखती तो रात के एक बजे होते, फिर सोचने लगती कि सुबह कब होगी? मैं लगातार घड़ी देखती रहती। दो बज जाते, फिर तीन, फिर चार और पांच बजते। सुबह होते तक मैं घंटे गिनती रहती।
मेरी नींद का इरादा तो नहीं लौटने का था। जो तकिया मेरे लिए नींद की गोली का काम करता था, वह पत्थर में बदल चुका था। जब मैं उस पर सिर रखती तो यह मुझे चुभता था। पूरी रात मैं इसे फुलाने-मुलायम बनाने की कोशिश करती और इसे दाएं से बाएं, बाएं से दाएं पलटती रहती। मैं कभी-कभी इसे पूरी तरह हटा देती, उसके बाद फिर उसे कुछ क्षणों के लिए सिर के नीचे रखती। लेकिन यह रेशम का बंडल तो पत्थरों का बैग बन चुका था, जिसके कारण मुझे पूरी रात और सुबह उठने पर सिर में दर्द रहता।
अंतत: मैंने यह स्वीकार किया कि मेरी शांतिपूर्ण नींद मेरे तकिये से नहीं जुड़ी थी। यह जुड़ी थी अपने वतन की उष्ण फिज़ाओं के स्पर्श से, अपनी प्रिय मां से होने वाली मुलाकातों से, अपनी बहनों से होने वाली बकवासों से, अपने भाई की मसखरी और उसके दोस्ताना मिज़ाज़ से, अपने दोस्तों के साथ हँसने-बोलने के मजेदार क्षणों से। मेरी शांतिपूर्ण नींद थी मेरी उन छोटी-मोटी सेवाओं के कारण जो मैं अपने देश के लिए समर्पित करती थी। यह नींद थी अपने देश की सड़कों-गलियों-मुहल्लों के कारण और उस आज़ादी के एहसास के कारण जो एक व्यक्ति केवल अपने वतन में ही महसूस कर सकता है।
फरांगिस एलयासी अमेरिका प्रवासी अफगानी लेखिका। अफगान विमेन एजुकेशन सेंटर, हेवर्ड, यूनाइटेड स्टेट्स से जुड़ी। मानवाधिकारों की वकालत। (दरी भाषा से अंग्रेजी अनुवाद : ज़ुबैर पोपलज़ाई) |
हिंदी प्रस्तुति : बालकृष्ण काबरा ‘एतेश’ कवि और अनुवादक। कविता संग्रह ‘दूसरा चित्र’, ‘मन की स्याही’, ‘गीत अकवि का’ और ‘अपने–अपने ईमान’। अद्यतन कविता संग्रह ‘छिपेगा कुछ नहीं यहां’। विश्व साहित्य के अनुवादों के तीन संग्रह। |
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