युवा कवि। संप्रतिः अध्ययन।
जरूरी तारीख
आज का दिन एक जरूरी दिन होता
यदि मैं लिख लेता कोई कविता
लगाता कोई फलदार पेड़
पानी छोड़ जाता मिट्टी के बर्तनों में
चिड़ियों के लिए
या देख लेता कोई पुरानी फिल्म
तारीखों के यादों में बचे रहने के संस्मरण
तो होने ही चाहिए
परंतु उस तरह नहीं कि
दुनिया छोड़ गया था कोई आज हमेशा के लिए
किसी देश ने किया था
परमाणु प्रहार एक दूसरे देश पर
या हिंदुस्तान के किसी शहर में
दंगाइयों ने फूंकी थी
पूरी की पूरी बस्ती
कई दिनों तक जलते रहे थे जिसमें
बूढ़े और मवेशी
मेरे एक युवा साथी ने कहा था
हर चीज़ नहीं लिखी जानी चाहिए
गुनाह है यह एक
प्रेम में रुखसती के क्षणों को रचना
जैसे कविता हो
शब्दों की चाशनी में डूबा कोई मुरब्बा
नहीं परोसी जानी चाहिए
सिहर उठने वाली हादसों की ख़बर
जैसे परोसते हैं अपना ईमान
गिरवी रख चुके मीडियाकर्मी
मेरी यादों में आज की तारीख़
एक मासूम को छोड़कर जाने से पहले
गले लगाकर
उसके गालों पर एक गहरा चुंबन था
जिसे मैंने इस पन्ने पर
दर्ज करने का गुनाह कर दिया।
मैं डरता हूँ
शब्दों की चतुराई से
खुद को बचा लेता हूँ
जाति मुखियाओं के बीच
बच निकलता हूँ छल करके
पुराणों की दलील देकर
कपड़े उलटकर पहन लेता हूँ कभी-कभी
ताकि किसी खास रंग की शर्ट
न बन जाए मेरी मौत की वजह
भीड़ में न करार दिया जाऊं द्रोही
सो खरीद लेता हूँ
खजूर के साथ कुछ बताशे भी
मेरी दिलचस्पी घुड़सवारी में कभी न थी
न ही था खानदानी शौक़
मेरी मां को कभी न भाया
राजकुमारों की तरह
मूंछों को ताव देता मेरा चेहरा
क्योंकि यह कम मासूम दिखाता था
पर मेरे ही पड़ोस के लखन भइया
मार दिए गए बीच चौराहे इन्हीं वजहों से
मेरी भाषा में प्रयोग होने वाले शब्द पहचान हैं
अब मेरे नाम जितना ही
सो मैंने अपने अल्फाज़ जब्त कर लिए
भूल गया नुक्ता और अलिफ़ का प्रयोग
नहीं बनता अब तो कोई मिसरा
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन की धुन में
यदा कदा आने लगे हैं
मेरे शब्दों में हलंत और विसर्ग ज्यादा
बगल की बस्ती में घुसने से पहले ही
अब पोंछ लेता हूँ मस्तक पर लगा तिलक
कि बाबा की उम्र का कोई वृद्ध देख
न समझे मुझे ईश्वर की जाति का
भरी दुपहरी वृक्ष की छांव तले
खेतों में खाना खाती भौजाई
कर लेती है अब पर्दा मुझे देख
जब लौटता हूँ शहर से छुट्टियों में
जिसने बचपन में बाबा की नज़र से छुपाकर
दिया था मुझे थोड़ा सा भात और ज्यादा साग
खुद कम लेकर
न जाने क्यों पांव कांपने लगे हैं
घर के आगे से गुज़रने वाले
‘या हुसैन’ के मातमी जुलूस के आगे खड़ा होने से
डरने लगा हूँ
डरने लगा हूँ इस हत्यारे समय से
सूर्य के डूबने पर होने वाली कालिख रातों से
जो नापाक इरादों को अंजाम देती हैं
कि उस रोज़
याकुब कुरैशी की दुकान में लगी आग
जली होगी मेरे ही जैसे किसी घर की माचिस से
उन्मादी हाथी की तरह कुचल दिए गए होंगे
सड़क किनारे
जुम्मे की रस्म अदा करते नाबालिग भी
मेरे ही जैसे लोगों द्वारा
मैं डरता हूँ
लोगों की निगाहों में गिरने से।
प्रेम
मैं तुम्हारी जिन्दगी में आऊंगा, आ ही जाऊंगा
पर वैसे नहीं जैसे सब आते हैं
मैं आऊंगा वैसे
जैसे किसी बच्चे के मुंह में दांत आते हैं
टूटते हैं, पुनः आते हैं
लंबी अवधि तक ठहरने को
मैं आऊंगा वैसे
जैसे तुम्हारे बाल स़फेद होंगे
तुम उसे बाजारी उपकरणों से छुपाओगी
पुनः छुपाओगी
फिर थक कर मुझे सबके सामने अपनाना ही होगा
मैं वैसे ही आऊंगा
और
उसे जाना होगा
जिसने आज तुम्हारी जिंदगी को
लालिमा से भर दिया है
वैसे ही जैसे तुम्हारे हाथों की मेहंदी
दिन-ब-दिन फीकी होकर मिटेगी
तुम पुनः उसे लगाओगी
पर वह जाएगा ही
फिर कभी न आने के लिए।
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