तमाल बंद्योपाध्याय, बांग्ला के प्रसिद्ध कथाकार। चर्चित उपन्यास – ‘उत्तरपुरुष’ और ‘कम्पासवाला’।

अनुवाद : संजय राय

 

 

पिता कभी नहीं मरते। वे अपनी संतानों में बचे रहते हैं। बचे रहते हैं उनकी बुरी आदतों में। विशेष भाव-भंगिमाओं में भी बचे रहते हैं। मैं बिलकुल अभी जिस तरह बेदम, उदास पैर मोड़कर पड़ा हुआ हूँ, डरी-डरी आंखों से इधर-उधर देख रहा हूँ और दाहिने हाथ वाले अंगूठे के नाखून के दोनों किनारों से निकल आए सूखे-निर्जीव मांस को जिस तरह दांत से काट रहा हूँ इन सब में बचे हुए हैं मेरे पिता। मैं जैसे डकार लेता हूँ, जैसे पाँव मोड़कर सोता हूँ, जैसे बैठकर पेशाब करता हूँ, जैसे चपर-चपर खाता हूँ, जैसे चेहरे पर एक स्थायी शरारती मुस्कान लिए फिरता हूँ इन सब में वे बचे हुए हैं। मेरी माँ को यह सब बिलकुल नापसंद था। वह मेरा व्यक्तित्व एक बिलकुल अलग सांचे में गढ़ना चाहती थी। वह बिलकुल नहीं चाहती थी कि अपने पिता की कोई आदत मुझमें आए।

वह मुझे अपने पिता की सभी गंवारू आदतों के उलट पक्के जेंटलमैन के रूप में देखना चाहती थी। वह मुझे धीर, गंभीर, संतुलित, बौद्धिक, कम बोलनेवाला जेंटलमैन बनाना चाहती थी। कुछ ऐसा कि बात करूँ तो कांच के टुकड़े की तरह चमकता हुआ एक आकर्षक व्यक्तित्व उभर आए। वह जब भी मेरा अव्यवस्थित आचरण देखती, आतंकित हो उठती ‘लगता है वह आदमी रह ही गया है इस लड़के में। बेतरतीब बैठता है। बेढंगी बातें करता है। गलत संगति में रहता है। चपर-चपर आवाज करता हुआ खाता है। बांग्ला और हिंदी सिनेमा देखता है। किताब या संस्कृति के पास तो फटकता भी नहीं।’

बचपन से ही माँ ने मुझे इस परिवार के दूसरे सदस्यों से भरसक दूर रखा। मैं अपने परिवार से लगभग विच्छिन्न रूप से बड़ा हुआ। एक बंधा-बंधाया जीवन रहा। इस बंधे-बंधाए जीवन से थककर जब भी मैं स्खलित होता, माँ चिल्ला उठती ‘इस खानदान का लड़का अब और कैसा होगा! खून तो वही है न!’ इतना समझता ही था कि कोई न कोई कारण जरूर है। पर ये ठीक-ठीक समझ पाना मेरे लिए मुश्किल था कि समस्या आखिर है कहाँ।

वैसे यह समझने के लिए सब कुछ माँ की आंखों से देखना होता। लेकिन एक पक्ष पिता का भी तो है। पिता की आंखों से भी तो देखा जाना चाहिए कुछ।

आम स्वभाव वाला व्यक्तित्वहीन वह आदमी हमेशा सकुचाया डरा-सहमा-सा फिरता। छोटी कद लिए वह पूरे घर में चुपचाप बहुत सावधानी से घूमता रहता। जैसे पैर जमीन पर न हों और हल्का शरीर हल्के व्यक्तित्व की तरह हवा में तैर रहा हो, निराधार! वह आदमी हमेशा इस बात के लिए चिंतित रहता कि उसके कारण किसी को कोई परेशानी न हो। हर आंगिक हरकत में दुविधा झलकती और चेहरे पर संकोच स्थायी रूप से ठहरा रहता। सिर से लेकर पैर तक अपराधबोध से ग्रस्त और झुक आए उस आदमी को देखकर लगता कि अभी ठेस लगेगी। बात करने पर तुतलाता। उलझे हुए वाक्य-विन्यास अभिव्यक्ति की जटिल प्रक्रिया में  अपने कहे जाने का उद्देश्य भूल जाते।

पिता खुद ही चाय बनाकर पीते। घर आए मेरे दोस्तों का प्रणाम स्वीकार करने में उनके गाल शर्म से लाल हो जाते। उम्र में छोटे रिश्तेदार जब उनका पैर छूने के लिए झुकते तो पिता क्रमशः नीचे की ओर जाती उनकी बांहें थाम कर दो-एक कदम पीछे हट जाते। घर के किसी भी आंतरिक मामले की चर्चा में पिता अपनी राय प्रायः नहीं रखते। डाइनिंग टेबुल पर सबके साथ खाते हुए अपनी पसंद के किसी भी व्यंजन के दुबारा मिलने के अप्रत्याशित सौभाग्य पर उनका चेहरा कृतज्ञता के भाव से चमक उठता।

परिवार के सदस्यों के बीच भले ही वे लाचार और दयनीय लगते, लेकिन बगीचे में उनका एक अलग ही रूप दिखता। घर से लगा प्रायः आठ कट्ठे में फैला पूरा बगीचा पिता की नर्सरी हुआ करता था। एक बड़े-से टीन के प्लेट की होर्डिंग, जिस पर ‘गुप्ता नर्सरी’ लिखा था, रास्ते से ही दिखता। सुबह नींद से उठ कर हल्के फुल्के नाश्ते के बाद पिता खुरपी लिए बगीचे में चले जाते। सुपारी, आम, लीची, अमरूद, शाल, सागौन के ताज़े-हरे चारे जिस मिट्टी में लगे होते वे अक्सर उसे एक अभ्यस्त मग्नता से खोदते हुए मिलते। दाईं ओर मौसमी फूलों का रंगीन प्रस्फुटन होता।

उज्ज्वल, साहसी और खिलने को आतुर छलके हुए रंग सुबह की हवा में सिर हिलाते हुए मिलते। गुलाब के पौधों की कतार पर पानी छिड़कते हुए पिता किसी पुराने बांग्ला गीत का अस्पष्टसा कोई टुकड़ा गुनगुनाते हुए नीम के पौधे की ओर बढ़ जाते।

यह कहना बिलकुल गलत होगा कि उनका नर्सरी का व्यवसाय एकदम नहीं चला करता था। ठंड के दिनों में अच्छी-खासी बिक्री हुआ करती। कुछ बंधे-बंधाए खरीददार तो थे ही उनके। कुछ लोग उनके काले गुलाब, पीली जवा, कमल, कलावती आदि फूलों की प्रसिद्धि सुनकर आया करते। ये जिस समय की बात है उसके पिछले साल बोनसाई के कुछ टब एक्ज़िबिशन में गए थे। जिला स्तर के कृषि विज्ञान मेले में उस बौने वट वृक्ष को द्वितीय पुरस्कार मिला था। लेकिन पिता का नए फैशन वाला विदेशी फूलों का कलेक्शन कुछ ख़ास नहीं था। असल में वे मिलनसार नहीं थे। उनका सामाजिक संपर्क बहुत ही खराब था। मार्केट में बने रहने के लिए दूसरे नर्सरी वालों से किसी तरह का प्रतियोगी भाव उनके मन में था ही नहीं। बगीचे को आधुनिक ढंग से सजाने-संवारने में उन दिनों करीब-करीब दस हजार का खर्चा आता जो उस प्रतियोगिता में बने रहने के लिए जरूरी था। सारा खर्च उठाने को माँ तैयार थी। उसने उन्हें पैसे की चिंता किए बग़ैर होलसेल मार्केट से नया से नया बीज, चारा और खाद ले आने तथा कोई सहायक रख लेने को भी कह रखा था, लेकिन पिता में एक स्वाभाविक जड़ता थी जिसे वे कभी तोड़ नहीं पाए, जबकि ऐसा कोई भी निर्णय लेने के लिए उस जड़ता को तोड़ना जरूरी था।

असल में वे आलसी थे। कोई लक्ष्य नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं। जीवन में कुछ भी करने के लिए उत्साही-उद्यमी-लड़ाकू होना पड़ता है, जो वे बिलकुल नहीं थे। उनके बारे में ये माँ के विचार थे। माँ सरकारी जिला अस्पताल में नर्स हुआ करती थी। हाल ही में प्रमोशन मिला था। माँ को परिवार चलाने के लिए पिता से किसी आर्थिक सहयोग की न अपेक्षा थी न ही जरूरत। फिर भी वे महीने के शुरू में माँ को कुछ न कुछ देना अपना फर्ज समझते। माँ का कहना था कि उतना-सा देना और नहीं देना बराबर ही है। वह उस रकम को बैंक या पोस्ट ऑफिस में जमा करने की सलाह दिया करती, ताकि साल लगते-लगते एक अच्छी-खासी रकम बन जाए। लेकिन ऐसा होता नहीं था। वह ऐसे हर मौके पर ‘मना करने पर मेरी बात सुनता कौन है!’ वाली बात दोहरा दिया करती।

असल में पिता बहुत संतोषी व्यक्ति थे। यही उनका सबसे बड़ा दुश्मन था। इतने कम में कोई खुश होता है भला! इसके अलावा पिता शायद अपने प्रिय पौधों को बेचना नहीं चाहते थे। जो पौधे माकूल बढ़े होते, जिनके फूलों में अपनी समस्त संभावनाओं का निरंकुश उपयोग दिखता, जिनके फलों का विकास अपनी पूर्णता में अलग से ध्यान खींचता, चंद पैसों के लिए उन्हें बेच देना पिता को नागवार गुज़रता। ‘रहें न वे वैसे ही रहें वहीं रहें रिश्तेदारों में बांट देंगे, परिचितों को दे देंगे न हो तो वहीं सूखें, झड़ें पड़े रहें। बेच देने पर तो गया।’ पिता ऐसा ही कुछ बकते हुए बगीचे में घूमा करते। मैं भी कान खड़ा किए उनके पीछे-पीछे यह सोचता हुआ घूमा करता कि ये आदमी कहीं पागल तो नहीं!

बगीचे में जाते ही पिता अचरज और उत्सुकता से भरे हुए दिखते। कल रात की कलियाँ आज कैसे फूल बन चुकी हैं- दिनों दिन नए सिरे से दिखती सुबह की इस विस्मयकारी सचाई में कभी भाटा नहीं पड़ा। सुबह की मुलायम धूप में लटके हुए फूलों में एक अलौकिक आभा हुआ करती। उनकी कोमल चिकनी त्वचा पर सूर्य फिसल-फिसल जाता, अनगिनत रंगों की बिखरी किरणों का मायालोक रचता हुआ। किशोरियों के बढ़ते स्तन की तरह क्रमशः सुडौल होते कच्चे फूलों की त्वचा पर मोम के लेप की तरह का जो आवरण हुआ करता, पिता उस पर हाथ फेरने के लिए बढ़ते अपने उत्सुक हाथ को भी रोक लिया करते। कहते, ‘नहीं, बढ़ें और। अभी हाथ लगाने पर सड़ जाएंगे। मनुष्य के नमकीन हाथों की छुअन से वहाँ एक काला धब्बा पड़ जाएगा।’

‘कुसंस्कार है यह। अतार्किक बातें हैं।’ मैं बोल उठता।

पिता दबी आवाज में कहते, ‘जानता हूँ लेकिन ये कच्चे फूल इतने स्वच्छ, निश्छल और पवित्र हैं कि डर लगता है। देर तक उनकी ओर ताकते रहने पर कहीं उन्हें नजर न लग जाए!’

यह उस समय की बात है जब मैं सतासी प्रतिशत अंकों के साथ माध्यमिक परीक्षा पास कर एक प्रसिद्ध सरकारी स्कूल में 11वीं-12वीं की पढ़ाई विज्ञान विषय से कर रहा था। अल्प शिक्षित, छोटे कद वाले, प्रायः बेकार, बेवकूफी भरे संस्कारों वाले उस आदमी के प्रति मेरे मन में अपार करुणा थी। थोड़ी ग़ुस्ताखी के साथ जोर से सांस भरते हुए एक भरपूर गदराया हुआ डाँशा अमरूद तोड़कर चभर-चभर खाने लगा। मेरे पशुत्वपूर्ण आचरण से बगीचे की नीरवता भंग हो गई। इस बात पर मैं खुद ही शर्मिंदा हुआ। पिता हँस पड़े। मैंने चबाकर जो कुछ उगल दिया था, उसे उठाकर एक कोने में फेंक आए और कहा ‘एक अनार बड़ा हो गया है। और दो दिन में खाने लायक हो जाएगा। परसो शाम को स्कूल से लौटकर उसे तोड़कर खा लेना।’

नाइट ड्यूटी से फारिग होकर माँ घर लौटी। बाकी दिनों की तरह उसने मुझे स्टडी रूम में नहीं पाया। खोजते हुए बगीचे में आई तो पिता के साथ बातचीत में मशगूल देख कर दबी आवाज़ में धमकाते हुए उसने कहा, ‘सुबहसुबह गप्पबाजी करने से होगा? या थोड़ीबहुत पढ़ाई भी करनी है? इसी तरह समय बर्बाद करना है तो बारहवीं में साइंस लेने की जरूरत क्या थी?’

ऐसे में पिता किसी अपराधबोध से आक्रांत हो जाते। आंखों में एक डर समा जाता। सिर झुक जाता और पौधों के चारों तरफ उग आए घास और खर-पतवार नोचने लगते। मैं न चाहते हुए भी जबर्दस्ती अपने को खींचकर स्टडी रूम की ओर ले जाता।

बगीचे में नींबू, अमरूद, पपीता, चीकू आदि के छोटे पौधों से पके फलों को तोड़कर वे एक बड़े बैग में भरते। घर के लिए कुछ फल आंगन के एक कोने में रख देते और उस अधभरे झोले को ऊंची साइकिल के हैंडिल में टांगकर मित्रों, परिचितों और रिश्तेदारों के घर की ओर रवाना हो जाते। संजीव चाचा, बड़ी मौसी, छोटी बुआ यहाँ तक कि अपने नियमित होमियोपैथी डॉक्टर शक्ति ताऊ और बचपन के दोस्त रतन देवनाथ के घर हफ्ते में दो-तीन बार बगीचे से कुछ फल-फूल पहुंचा आना पिता के लिए जरूरी कामों में था। उनलोगों को भले इसकी जरूरत न हो फिर भी वे चुपके से ऐसा करते। इसमें किसी भी तरह के व्यवधान की आशंका उन्हें बेचैन कर दिया करती।

हमारे डाइनिंग टेबुल पर रखे टेराकोटा के पात्र में, फ्रिज पर रखी फूलदानी में, दादा-दादी की तस्वीर के नीचे और रवींद्रनाथ की बड़ी तस्वीर तले रखे बेंत के उस अद्भुत आधार पर वे रोज कुछ फूल रख दिया करते। डहेलिया, चंद्रमल्लिका, जीनिया, सफेद कनेर, ऑर्किड, रजनीगंधा के डंठल को उन सभी जगहों पर थोड़ी-थोड़ी रख आने की जिम्मेदारी में पिता ने साल दर साल कभी कोताही नहीं की। कभी-कभी सबसे छुपाकर अपने सबसे प्रिय गुलाब को माँ की ड्रेसिंग टेबुल पर रख आते।

माँ थोड़ी गुस्सैल स्वभाव की है। वह तीखा और कर्कश बोलती है। उसके स्वभाव का यह रूखापन शायद उसके पेशागत प्रभाव का नतीजा हो। अस्पताल के कर्मचारी उसके इशारों पर नाचते हैं। यहाँ तक कि डॉक्टर भी उसकी बातें मानते हैं। उसका कहना है, ‘अस्पताल में नौकरी करनी हो तो संवेदना, आवेग, अनुभूति, करुणा, दया आदि को परे रखना पड़ता है। मन की कमजोरियों को त्यागना पड़ता है।’ मृत्यु, खून, गहरे घाव, मवाद, उल्टी, चीख़, दुर्गंध, कैंची, चाकू, सुई की नोक हमेशा अपनी आंखों के सामने देखते-देखते आदमी उसका इतना आदी होता जाता है कि उसके अंदर तक एक उदासीनता और निरपेक्षता अपना घर करने लगती है। इसलिए घुमाफिराकर बात करना उसे नहीं आता। वह कहती, ‘मैं सीधी बात करती हूँ। फूल-वूल से मुझे बहलाया नहीं जा सकता। अपनी इज्जत अपने हाथों में है। उसे बनाए रखने के लिए जो करना चाहिए वही करो तो मेरे पास टोकने को कुछ नहीं रहेगा।’

माँ का इशारा चाचा लोगों की ओर था, पिता के चचेरे भाइयों की ओर। मौका मिलते ही वे पिता को परेशान करते। उन्हें तंग करने के लिए बेकार के प्रसंग छेड़ते। उन्हें हर जगह ओछा साबित कर उनका मजा लेते। जानबूझकर इस तरह की बातें करते कि सरकारी दफ्तरों में काम का बहुत दबाव रहता है, बहुत मेहनत पड़ती है। तुम्हें देखकर ईर्ष्या होती है। तुम्हारा ही ठीक है। इस तरह के हर लफड़े से मुक्त शांति और सुकून का जीवन है तुम्हारा।

पिता उनका मजा लेते और होंठ चबाकर हँसते। कोई उनके सामने ऑफिस, सेविंग्स, इनकम टैक्स, फ्लैट, गाड़ी आदि की बातें करता तो कोई वी.आई.पी. कनेक्शन और पावर आदि की बातें करता। यह सब जानबूझकर की जाने वाली करतूत थी। उनके सामने किसी जोकर की तरह हँसते हुए पिता अपने अस्तित्व की वैधानिकता साबित करने की कोशिश करते। गोजर की तरह खुद ही में सिमट-सिकुड़ कर भी पागलों-सा व्यवहार करते, ताकि उन्हें खुश रख सकें। उनके बच्चों की खुशी के लिए कभी घोड़ा, कभी हाथी बनकर उन्हें पीठ पर चढ़ाते, कभी बाघ की तरह बड़ी-बड़ी आँखें बनाकर उनका मनोरंजन करते।

माँ की आपत्ति यहीं थी। पहले हम एक संयुक्त परिवार का हिस्सा थे। कुछ समस्याओं के चलते हमें अलग होना पड़ा। उससे हमें कोई दिक्कत हुई हो, ऐसा नहीं है। माँ के ड्यूटी चले जाने के बाद भोजन पकाने वाली यमुना आया ही सब संभालती थी। पिता के पास कोई नौकरी नहीं थी। इसी आधार पर मेरी बुआओं को रोकने पर मेरे चाचा पिता की नर्सरी वाली जमीन का बंटवारा करने के लिए कभी आगे नहीं आए। पिता इसके लिए ताउम्र उनके एहसानमंद रहे और उनलोगों ने भी कभी उस जमीन पर कोई अधिकार जताया हो, ऐसा नहीं है।

माँ ने पिता को बदलने की बहुत कोशिश की। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अकर्मण्मयता एक ऐसी स्थायी समस्या है जिसका समाधान ढूंढ पाना किसी तृप्त और परिपक्व आदमी के लिए संभव नहीं। मेरी माँ और मेरे पिता की शादी हुई, इसके कई कारण थे। एक तो दोनों परिवारों के बीच एक घनिष्ठ संबंध पहले से था। दूसरे, दादा जी के साथ नाना जी की बचपन की गाढ़ी दोस्ती थी। और तीसरे, पिता तब नर्सरी खोलने की बात सोच रहे थे और सभी को उनमें काफी संभावना दिखी थी। शादी के एक साल के अंदर ही माँ समझ गई थी कि उसे ही कुछ करना होगा। लेकिन उसके पास न वैसी प्रतिभा थी, न शिक्षा; न ही वह उतनी मेहनती थी।

माँ कभी नहीं चाहती थी कि मैं अपने पिता के आस-पास भी फटकूँ। शायद उसे यह डर सताता कि वास्तविकता से कोसों दूर सपनों की दुनिया में रहने वाले उस असफल आदमी के साँचे में कहीं मैं भी न ढल जाऊँ। इस संसार में सफलता हासिल करने के लिए काफी कठोर, स्वार्थी, निष्ठुर और लड़ाकू होना पड़ता है। इसलिए भले लोग सार्वजनिक अर्थों में कभी भी सफल नहीं हो पाते। एल्मंड के नए पत्तों पर रोशनी का खेल पिता को सम्मोहित करता। सफेद गुलाब पर कीटाणुओं का आक्रमण देखकर वे दुखी होते। फूलों की छाती पर बैठकर मधुपान करते काले भौंरों का गुँजन सुनने को वे उतावले हो उठते। एक ही शाख पर जोड़ा फल देखकर मन ही मन खुशी से फूले न समाते। बेमौसम बरसात में फूल के बिखरे पौधों को देखकर रो पड़ते। इस तरह के किसी व्यक्ति के प्रति किसी भी किशोर मन का आकृष्ट होना सहज स्वाभाविक था। रोमांटिक भाव से लबालब भरा मेरा किशोर मन पिता के समर्थन में कई बार जिहाद घोषित कर चुका था। उनकी अवहेलना देखकर मेरा दिल समान रूप से पीड़ित और मानसिक रूप से लहूलुहान हो चुका था।

बचपन में घुटने के बल चलता हुआ अक्सर उनके पास पहुँच जाया करता। वे अक्सर खर-पतवारों के बीच उग आए किसी न किसी फूल पर परम आश्चर्य से झुके हुए मिलते। सूखे पत्तों की चरमराहट सुनकर पिता पीछे मुड़कर मेरी तरफ देखते हुए पूछते, ‘इतना छोटा फूल कैसे इतना सुंदर हो सकता है? कभी-कभी इच्छा होती है साला सिर्फ खर-पतवार ही लगाऊँ। उस खर-पतवार के फल को विषफल कहा जाता है। उस पर कांटे ही कांटे होते हैं। फिर भी इतना सुंदर फूल, कैसे हो सकता है!’

कोई फतिंगा किसी लतर के शीर्ष पर आकर बैठ जाता तो पिता उस तरफ देखकर भुनभुनाते हुए कहने लगते, ‘यहाँ कितना कुछ घटित होता है। बहुत तुच्छ, अर्थहीन, फालतू घटनाएँ होती हैं यहाँ। इस तरफ मुड़कर देखने का मुझ जैसे फालतू और बेकार आदमी के अलावा किसके पास समय है! तुमलोग इस तरफ मत आया करो। यह अच्छी जगह नहीं है। इसमें एक अजीब तरह का आकर्षण है। यह धीरे-धीरे अपनी ओर खींचता है। लील जाता है। खुद में मिला लेता है। उसके बाद बचता ही क्या है!’ इतना कहने के बाद पिता थोड़ा रुकते।

मैं समझ नहीं पाता, क्या कहूँ। वह काँपती आवाज़ में फिर बोल पड़ते, ‘मैं कर ही क्या सकता हूँ तुम्हारे लिए बताओ? कुछ कर पाने की क्षमता ही कहाँ है मुझमें? एक दूरी बनाए रहता हूँ। दूर से देखता हूँ। करीब आकर तुम्हारा कोई भला नहीं कर सकता, उल्टे नुकसान जरूर हो सकता है। स्कूल या ट्यूशन ले जाने-ले आने की जरूरत भी नहीं रही अब। अब तुम साइकिल चलाना सीख गए हो। इसके अलावा, तुम्हारे दोस्तों के अभिभावकों के बीच मैं अपने को काफी असहज पाता हूँ, एक धुकधुकी बनी रहती है।’

‘आप कुछ ज्यादा ही सोचते हैं।’ मेरा अभिमान सिर उठाता।

असल में मुझे डर लगता है। बचपन से ही मैंने सबकुछ उलझा रखा है। ढंग से सहेज कर कभी कुछ नहीं कर पाया। लेकिन तुम्हारी किताबों पर जिल्द चढ़ा सकता हूँ। मुझे दे देना, मैं बाँस के कागज ले आऊंगा। पेंसिल छील दूंगा। प्रैक्टिकल बुक पर नामवाम लिख दूँगा। तस्वीर बना दूँगा। ये सब मैं ठीक से कर दूँगा। मैं पहले अच्छी तस्वीरें बना लिया करता था। मेरी लिखावट भी अच्छी रही है।’

‘चुप रहिए, आपको कुछ नहीं करना होगा।’

ऐसे किसी भी मौके पर मेरा गला भर आया करता। पैर पटकते हुए वहाँ से तेज कदमों से चल देता। कई बार तो बगीचा और घर के बीचोंबीच स्थित आँगन को भी पार जाता उसी चाल में। अंदर एक गुस्सा भर जाया करता। सोचने लगता- यह आदमी कभी नहीं सुधरेगा। पता नहीं क्या चाहता है! अपने को कमतर, तुच्छ और बेकार साबित करने में पता नहीं उन्हें कौन-सी खुशी मिलती है! ऐसी सस्ती सहानुभूति जुगाड़ने का क्या फायदा! अपने को इस तरह छोटा करना तो मुझे और माँ को भी छोटा करना हुआ। माँ क्या इसीलिए उन्हें कोई महत्व नहीं देती? या मैं ही उनको समझने में कोई भूल करता हूँ!

उनसे एक खास दूरी बनाए रखता। माँ की तरह उनसे ऊंची आवाज में बात किया करता। इस तरह की चुभने वाली तीखी बातें मुंह से निकलते समय मेरे वाक् यंत्रों को अंदर से जैसे झुलसा दिया करतीं। फिर भी निष्ठुरता बनाए रखता। पिता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे यही उनकी नियति हो। यह मेरे लिए बहुत तकलीफदेह और विचलित करने वाला हुआ करता। इसलिए मैं उनको बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पाता। सामने पड़ते भी तो नजरें फेर लिया करता।

मैं चोरी-छुपे उन पर नज़र रखता। नजरें मिल भी जातीं तो गंभीर बने रहने की कोशिश करता और वे बेवकूफों की तरह हँस दिया करते। माँ ने बचपन से मेरी परवरिश इस तरह की कि अपने सारे काम मैं खुद ही निपटाता। यह आदत आज भी बनी हुई है। मेरे न चाहते हुए भी चोरी-छुपे पिता मेरी साइकिल धो-पोंछ देते। मेरे भींगे कपड़े धूप में डाल दिया करते। मेरे स्टडी टेबुल पर पके फल रख आते। मेरे शरीर में खून की कमी न हो, इसलिए तालमखाना और हरकुच का रस बनाकर पिलाने के लिए हमेशा यमुना आया की चिरौरी किया करते। मैं भी उनके लिए कुछ करने की भरसक कोशिश किया करता। खरीददार आते तो मग्न पिता को पुकार दिया करता। आसन्न अपमान की संभावनाओं से उन्हें बचाने की कोशिश करता। आंखें दिखाते हुए मैले कपड़े खुलवाकर साफ कपड़े पहना दिया करता।

उस बार उनका बुखार काफी लंबा चला। ठीक होने का नाम नहीं ले रहा था। उस पर उनकी जिद कि ऐलोपैथी डॉक्टर को किसी भी कीमत पर नहीं दिखाएंगे। शक्ति ताऊ की होमियोपैथी डिस्पेंसरी से बार-बार पुड़िया वाली दवा लाकर खिलाता रहा। अंततः बुखार उतरा, लेकिन उसके तुरंत बाद जीभ की दाहिनी ओर घाव जैसा कुछ निकल आया। तीखा या नमकीन खाने पर काफी जलन होती। यहाँ तक कि गरम चाय भी नहीं पी पा रहे थे। शक्ति ताऊ ने बहुत सारी किताबें देखने के बाद दवा दी, लेकिन उससे भी घाव कम नहीं हुआ। दो बार दवा बदली गई। हफ्ते भर बाद उन्होंने बताया, ‘दवा का थोड़ा असर हुआ है। पहले की तरह भीषण जलन अब नहीं रही।’ लेकिन उन्होंने कुछ भी तीखा, नमकीन या गरम खाना-पीना लगभग बंद कर दिया था। माँ ने उनको ऐलोपैथी डॉक्टर के यहाँ ले जाने की बहुत कोशिश की। लेकिन उसकी सभी कोशिशें बेकार गईं। पिता अपना वही पुराना राग अलापते, ‘ऐलोपैथी दवा खाकर शरीर को कष्ट देना फालतू और बेकार है। और ऐसी कोई खास दिक्कत भी नहीं है, वरना तुमलोगों को बताता नहीं? शक्ति दा की दवा से काफी आराम है।’

अगले तीन महीने उन्होंने कोई चर्चा तक नहीं की। एक दिन देखा, चावल भी नहीं चबा पा रहे। डाइनिंग टेबुल पर गाल पर हाथ रख के बैठ गए थे। मुंह टेढ़ा हो रखा था। बहुत तकलीफ हो रही थी। किसी तरह से उन्होंने चावल खत्म किया। मैंने टॉर्च जलाकर मुंह के अंदर देखा, घाव थोड़ा और फैल गया था। जीभ की लाली पर फीके पीले रंग के फफोले की तरह का घाव बहुत बीभत्स हो गया था। इतना कि घाव की ओर देखना भी मुश्किल हो रहा था।

शक्ति ताऊ ने हमेशा की तरह ही उस बार भी अति आत्मविश्वास दिखाया। उनके बोलने में एक बेफिक्री थी, ‘डरने की कोई बात नहीं है। कई बार इस तरह का घाव ठीक होने में समय लगता है। हमलोग सिर्फ बीमारी ठीक नहीं करते, बीमार को ठीक करते हैं। थोड़ा इंतजार करो, सब ठीक हो जाएगा।’

उन्होंने एक होमियोपैथी मलहम और एक शीशी में काले-लाल रंग का एक तरल पदार्थ दिया जिसे रूई से घाव पर लगाना था। मेरे चेहरे पर घिर आई उदासी देखकर पिता ने मुस्कराते हुए कहा था, ‘असल में रोग जड़ से मिटाने के लिए थोड़ा बढ़ाना पड़ता है। ठीक हो जाएगा। चिंता की कोई बात नहीं!’

महीने भर के अंदर घाव जीभ के आधे हिस्से तक फैल गया। बेफिक्री के तमाम अभिनय के बावजूद पिता की आवाज में कष्ट साफ झलकने लगा। माँ की जिद के सामने अंततः उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा, क्योंकि ऐलोपैथी डॉक्टर को दिखाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। लिहाजा डॉक्टर पी. मजुमदार को दिखाया गया। वह चिढ़कर कुछ कहने को हुए पर रुक गए। आश्चर्य और विस्मय में डूबी आवाज़ में थोड़ी विरक्ति घोलते हुए उन्होंने माँ से कहा, ‘अजीब हाल है! इतने दिन हो गए। हर हफ्ते ही आपसे भेंट होती है, पहले क्यों नहीं बताया?’

जिसका डर था वही हुआ। डॉक्टर ने इमिडिएट बायोप्सी प्रेस्क्राइब किया और कोलकाता के एक मशहूर डॉक्टर को दिखाने को कहा। घर पहुंच कर हम तीनों देर तक आमने-सामने बैठे रहे। शरीर का भार जैसे कई गुना बढ़ गया हो। नसों और शिराओं का रक्त प्रवाह जैसे रुक-सा गया हो। अस्थि-मज्जा में जैसे कोई गहरा अवसाद भर गया हो। इसी पेशे से जुड़े होने के कारण माँ ने चंद फोन कर जल्दी ही कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल से संपर्क किया। किराए की गाड़ी लेकर उसी दिन शाम को हमारा रवाना होना तय हुआ। कोलकाता में ही मेरी छोटी मौसी की रहनवारी थी। सो इलाज के दौरान उन्हीं के यहाँ ठहरना था।

गाड़ी में चढ़कर भी पिता सहज बने रहे। किसी तरह का कोई डर नहीं था उनके अंदर। खिड़की वाली सीट पर बैठे। काँच उतार दिया और घायल जीभ के बावजूद अनर्गल प्रलाप करते रहे। उनका वह अनर्गल प्रलाप क्या हमें सहज रखने के लिए चलता रहा? गाड़ी चल रही थी और वह कहे जा रहे थे, ‘टैक्सी में चढ़ने पर बड़े लोगों वाली फीलिंग आती है। नौकरी लगे तो एक गाड़ी खरीदना। गाड़ी में हवा खाने का मजा ही कुछ और है। इस्स, ऐसे दूर-दराज के इलाकों में भी कैसे सुंदर मकान बन गए हैं! देखते-देखते कितना बदल गया सब कुछ!’

जीभ की तकलीफ के कारण थोड़ा रुक कर उन्होंने बोलना जारी रखा, ‘कोलकाता जाते ही मेरे पीछे काफी खर्च होने वाला है। पैसा क्या इतना सस्ता है? सुनो, मैं कह रहा हूँ कि मेरे लिए इतना खर्च करने की कोई जरूरत नहीं है। लड़के का भविष्य सामने पड़ा है। कह रहा हूँ कि कोलकता में होमियोपैथ के बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, वे भी ठीक कर सकते हैं।’

माँ ने उनकी ओर गुस्से से देखा। पिता उस दिन कुछ ज्यादा ही बोले जा रहे थे, ‘मेरे लिए पैसा बर्बाद करने का कोई मतलब नहीं है। अगर वहाँ महँगा इंजेक्शन लिखेंगे, तो नहीं लूँगा। वैसे भी कोई ज्यादा समस्या तो है नहीं। ऐसे ही बहुत दिन बचूंगा।’

बायोप्सी की रिपोर्ट स्वाभाविक ही ‘पॉजिटिव टू मैलिग्नेंसी’ थी और वह भी काफी मैच्योर स्टेज में। वरिष्ठ डॉक्टर ने नाउम्मीदी से कहा, ‘अब आपके पास काफी कम ऑपशंस हैं। सबसे सुरक्षित उपाय है, जीभ को काट कर निकाल देना। इस स्टेज में सिर्फ केमो से काम नहीं चलेगा। घाव जिस रफ्तार से फैल रहा है, ऐसे में मुझे लगता है लेजर सर्जरी के माध्यम से जीभ को काटकर अलग कर देना ही बेहतर विकल्प है।’

ईश्वर ने क्या इसीलिए आदम को ज्ञानवृक्ष का फल खाने से रोका था? अज्ञान सच में एक वरदान है और जान लेना महा पाप। असीम यंत्रणा और भीषण बेचैनी का सबब। जानने की जरूरत ही क्या थी! नहीं जानने से ही क्या बिगड़ जाता भला! किसी एक अनजाने पल बीभत्स चेहरा लिए मृत्यु उत्सुकता से आकर खड़ी हो जाती। न हो तो उसी वक्त उसे देखता, या आंखें बंद कर लेता। दिमाग जानकारी के बाद की इस भीषण पीड़ा और असंभव बेचैनी से तो मुक्त रहता। हर क्षण की यंत्रणा और रक्तप्रवाह की इस बाधित गति से तो मुक्ति रहती।

जल्दी फैसला करना था। लेकिन उस दिन हम दोनों ने पिता का अकल्पनीय रूप देखा। झुका-झुका, डरा-सहमा और अक्सर शांत रहने वाला वह आदमी जो कभी प्रतिरोध नहीं करता था; तुरंत स्वेच्छाचारी, असभ्य और निरंकुश दानव में बदल गया था। जबड़ा सख़्त कर के पूरी दृढ़ता से उन्होंने कहा था, ‘मैं जीभ नहीं कटवाऊंगा। तुमलोगों को जो करना है कर के देख लो। मेरे साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं चलेगी। अपने शरीर के मामले में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ मेरा है। इस मामले में मैं किसी की नहीं सुनूंगा। तुमलोग कान खोलकर सुन और समझ लो- मुझे इस निर्णय से हिलाया नहीं जा सकता।’

दीमक के ढेर की तरह माँ का पूरा शरीर भरभरा कर जमीन पर गिर पड़ा। सुबकते-सिसकते बेतुके ढंग से बोल पड़ी थी, ‘मैं जानती हूँ तुम बहुत निर्दयी हो। तुमने अपने अलावा कभी किसी के बारे में नहीं सोचा। मैं तुम्हारे कण-कण से वाकिफ हूँ। तुम शैतान हो, कुछ भी कर सकते हो। लेकिन यह तो आत्मघात है…!’

पिता के सख्त चेहरे की सारी रेखाएं धीरे-धीरे और सख़्त होती गईं, जैसे सभी सरल रेखाएं हों। उनका वह सख्त चेहरा देख कर मैं सिहर उठा। उनका वह भयावह चेहरा धीरे-धीरे और कठोर होता जा रहा था। मैं थोड़ा-थोड़ा पीछे सरकता हुआ दीवार से टकरा गया। झूलते बरामदे में आ कर रुका। वह एक भारी और स्तब्ध रात थी। आसमान पर जैसे पृथ्वी की सबसे आदिम वर्णमाला खुदी हो, जिसे न पढ़ा जा सकता था, न ही समझा जा सकता था। बिलकुल अपठनीय और दुर्बोध। लेकिन वहाँ किसी तरह का कोई अवसाद नहीं था।

‘पिता, आप नहीं जानते कि कैंसर से मृत्यु एक असहनीय प्रक्रिया है। बायोलॉजी टीचर ने बताया है। सारे शरीर में जलन होती है। कोशिकाएं भीषण यंत्रणा में झुलसती रहती हैं। आप वह कष्ट नहीं सह पाएंगे। कोई नहीं सह पाया। कभी नहीं सह पाया।’ अचानक कमरे में घुसते हुए मैं एक सांस में कह गया।

पिता के चेहरे पर एक अद्भुत चमकीली हँसी लटक रही थी। छत की ओर देखते हुए उन्होंने कहा था, ‘तुमलोग मुझे कभी समझ ही नहीं पाए। यंत्रणा का कोई बोध ही नहीं है मुझमें, कभी नहीं रहा।’

‘रिश्तेदारों को क्या बताएंगे? आपके बगीचे का क्या होगा?’

‘कोई तुमलोगों पर उंगली न उठा पाए, इसकी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ दो। जहाँ तक बगीचे का सवाल है, तो जो बगीचा अपने लिए एक माली भी नहीं जुगाड़ सकता उसका खत्म हो जाना ही बेहतर है।’ कुछ दिनों से मुखद्वार में लार की अधिकता के कारण संक्रमित स्थूल जीभ का स्वाभाविक संचालन बाधित हो रहा था। बातें लड़खड़ाने लगी थीं। आधी खुद ही समझ लेनी पड़ती थीं। फिर भी लक्ष्य तक अचूक पहुंचती थीं।

पिता उसके बाद और छह महीने बचे। कुछ दिन बाद उनका बोलना बंद हो गया। शरीर धीरे-धीरे सूखकर छोटा होता गया। शांत, संयत, मौन, मूक चलता-फिरता एक मानव शरीर आंखों के सामने धीरे-धीरे खत्म हो गया। किसी आतंक, छटपटाहट, कातरता, रिश्तेदारों के सहयोग और ईश्वर की प्रार्थना के बिना ही इस अकाट्य सत्य को आदर के साथ ग्रहण करने का साहस किसी नितांत साधारण मनुष्य में कैसे हो सकता है! अंत समय के उन कातर दिनों में खुद को ही हराने की एक शांत और दृढ़ जिद ने उन्हें जकड़ रखा था।

पिता की मौत पर मुझे रुलाई नहीं आई। क्योंकि उनकी मौत किसी एक मुहूर्त की मौत नहीं थी। एक प्रक्रिया थी। एक यात्रा। क्रमिकता में अग्रसर होती हुई असंख्य छोटीछोटी मौतों की एक शांत, सभ्य और विनम्र परिणति। रो कर मैं इस अर्जित गौरव को कलुषित करने का घृणास्पद अपराध नहीं करना चाहता था।

साल भर के अंदर माँ को एक और प्रमोशन मिला। कोलकाता के एक सरकारी अस्पताल में पोस्टिंग हुई। वहीं विश्वविद्यालय में मेरा दाखिला भी हो गया। माँ के साथ मैं भी दक्षिण कोलकाता के एक किराए के फ्लैट में रहने लगा। घर आना-जाना लगा रहता। वहाँ एकाध दिन के लिए रुक भी जाते हमलोग। हर साल पिता की मृत्यु वार्षिकी के दिन हमलोग एक छोटा-सा पारिवारिक आयोजन करते। परसो उनकी मृत्यु के चार साल पूरे हो जाएंगे। इसलिए आज सुबह ही हमलोग घर पहुंचे।

दिन भर काफी उमस थी। बिजली भी नहीं थी। लंबे समय से बंद पड़ा मकान उमस और सीलन की मिलीजुली गुमसाइन गंध से भर गया था और हवा जैसे ठहरी हुई थी। छोटे-से पलंग पर मैं पैर समेट कर लेटा तो नींद आ गई। थोड़ी देर बाद अचानक नींद खुली तो पैर अपने आप बगीचे की ओर चल पड़े। वहाँ थोड़ी हवा थी। देख-रेख के अभाव में बगीचा धूसर और बेजान पड़ा था। मरे हुए पौधों के सूखे तने नीरस मिट्टी पर खड़े थे।

दिन ढल रहा था। रोशनी धुंधली पड़ती जा रही थी। पूरा दृश्यपट जैसे साँवला हुआ जा रहा था। आवारा हवा का एक झोंका सूखी पत्तियों को हवा में गोल घुमाकर जमीन पर पटक गया था। लग रहा था बारिश होगी। बगीचे में मैं इस छोर से उस छोर तक चहलकदमी करने लगा। इस तरह की चहल कदमी करते वक्त मैं काफी सजग हो जाता हूँ। मेरा शरीर यौवन अवस्था की ओर जितना अग्रसर होता जा रहा है, कुछ परिचित विशिष्टताएँ बाहर आने के लिए छटपटाने लगी हैं। गठन में, लंबाई में यहाँ तक कि चलने-फिरने के तरीके में अब उन विशिष्टताओं को दबाकर रखना मुश्किल होने लगा है। मेरा चेहरा पिछले कुछ महीने में धीरे-धीरे कितना बदल गया है! न पैर के तलवे इतने चौड़े थे, न ही उंगलियाँ इतनी मोटी थीं। इसी उम्र में सिर के सामने के बाल जिस तरह झड़े थे, किसी की याद दिलाते थे। मेरे कान ही आखिर क्यों हैं इतने बड़े-बड़े! ये कौन चल रहा है मेरे भीतर? आख़िर कौन है ये गहराते अंधेरे में भी काफी पहचाना-सा कोई?

‘कौन, कौन है वहाँ?’ किसी महिला की घबराई हुई आवाज ने मेरी मग्नता भंग कर दी। मैंने देखा माँ बगीचे की ओर मुंह किए आंगन में खड़ी थी।

‘कौन है इतने अंधेरे में? क्या चाहिए?’

मेरे शरीर में धीरे-धीरे होनेवाले इन बदलावों से अवगत होने के बावजूद माँ की आंखों में आश्चर्य और अविश्वास का मिलाजुला असर था। उसके हाथ में प्लेट पर रखा चाय का कप कांप रहा था।

‘अच्छा तुम हो!’

‘तुम्हें क्या लगा?’ मैंने पूछा।

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संजय राय, गांव व पोस्ट- चांदुआ, जोड़ा पुकुर के नज़दीक, कांचरापाड़ा, जिला- उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल- 743145 मो.9883468442