वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

धुर बचपन से ही हमें शास्त्रीय संगीत सुनना सिखाया गया था। यहां तक कि ठंड के दिनों में अल्ल-सुबह यदि पंडित ओंकारनाथ ठाकुर भैरवी में ‘जोगी मत जा’ गाने के लिए मंच पर आने वाले होते तो क्या मजाल है जो हम रजाइयों में घुसे कुड़मुड़ाते रहें। माँ-बाबूजी, दीदी-भैया चारों तरफ से शोर मचाने लगते- अरे! जल्दी करो, पंडित जी मंच पर आने वाले हैं और हम कुड़मुड़-कुड़मुड़ करते हुए ऊनी कपड़ों में लँदे-फँदे घर के क़रीब होने वाले सदारंग म्यूज़िक कान्फ्रेन्स में जाकर प्रथम पंक्ति में जम जाते।

आज जब मुड़कर देखती हूँ तो मन माँ-बाबूजी के प्रति धन्यता बोध से भर जाता है और मैं स्वयं को भाग्यशाली मानने को बाध्य हो जाती हूँ।

वैसे तो एक लंबी चौड़ी फेहरिश्त मेरे पसंदीदा गायकों और वादकों की थी, पर उनमें से कुछेक नाम ऐसे थे जिनका नाम सुनते ही रोमांच होने लगता था। मसलन किशोरी अमोनकर का गायन और विलायत खाँ साहब का सितारवादन- ये दोनों मेरे लिए स्वर्ग के सुख के समान ही थे। इनको आंखों से पीकर कानों से सुनना मुझे अपूर्व आनंद देता था। जहां तक होता था इनके कार्यक्रम में भागीदारी ज़रूर करती थी। इन्हीं के साथ घटी निर्मल आनंद की एक घटना का आपसे साझा करती हूँ।

1980 के जाड़े के दिनों की बात है। कलकत्ते में म्यूज़िक कांफ्रेंसों की बाढ़ आई हुई थी। मैं उस समय प्रथम ‘सचित्र हिंदी बालकोश’ के निर्माण में तन-मन से जुटी थी। उस समय इस मोटे कोश के गुरु डॉ. हरदेव बाहरी भयंकर कड़े टास्क मास्टर थे। उन्होंने अपने जीवन काल में 126 कोश बनवाए थे। वे 82 वर्ष की उम्र में भी चौदह घंटे हमारे सामने बैठकर पढ़ते-पढ़ाते रहते और साथ में होमवर्क दे जाते। अब यह जानते हुए भी कि उन्होंने हमारे भले के लिए जान लगा रखी है, हम कई बार मन ही मन उन पर झुंझला भी जाते।

एक बार एक विशेष म्यूजिक कांफ्रेंस के शुरू होते ही मैंने यह राग अलापना शुरू कर दिया, “सर, ठीक है, मैं इस सीट से टस-से-मस नहीं होऊंगी, पर आपको मुझे श्रीमती किशोरी अमोनकर के कार्यक्रम में जाने की अनुमति तो देनी ही पड़ेगी। ख़ैर साहब, मेरे घिघियाने को देखकर घड़ी के कांटे के अनुसार उन्होंने मुझे सुबह 11 बजे से 2 बजे तक की छुट्टी दे दी।

पर खुदा की मार आज ही पड़नी थी, क्योंकि हॉल में पहुँचते ही जब यह घोषणा हुई कि किशोरी जी से पहले एक प्रख्यात सरोद वादक का कार्यक्रम होगा, यह सुनकर मेरी तो जान ही निकल गई। यह कार्यक्रम सुबह के रागों के हिसाब से किया गया था। इसलिए गायक और वादक कठिन से कठिन रागों को बहुत ही बारीकी और नफ़ासत से पेश करते थे।

ख़ैर साहब, घड़ी तो दौड़े जा रही थी और खाँ साहब अपने मंद्रसप्तक के आलापों में ही खोए थे। हमलोगों ने मंच के कई चक्कर लगा लिए, पर उन्होंने डेढ़ बजे तक मुश्किल से मंच छोड़ा। इतने में क्या देखते हैं कि किशोरी जी ने मंच पर आ कर छोटा सा लेक्चर दे दिया कि ‘मेरे प्रिय श्रोताओ, आप सब मुझसे सुबह का राग सुनने आए थे और अब तो दोपहर बीत चली। आप सबों को भी भूख लगी होगी। इसलिए मैं एक भजन गाकर ही आज का अपना कार्यक्रम समाप्त कर दूंगी’। इतना सुनना था कि मुझे तो जैसे ज़ोरों का बिजली का करंट लग गया। अपनी उम्र भूलकर मैंने नीचे से ही एक छलांग लगाई और सीधी किशोरी जी के सामने जा पहुंची। मैंने आव देखा न ताव और किशोरी जी के हाथ से माइक हल्के से छीन-सा लिया और कहना शुरू किया- “आदरणीया किशोरी जी को प्रणाम कर मैं उनसे करबद्ध अनुरोध करना चाहती हूँ कि हम सब उनके भक्त हैं और हमारे कान सुबह से उनके गायन का अमृतरस पीना चाह रहे हैं। मुझे इस बात का अनुमान है कि कलाकार का हृदय करुणा रस से भरा रहता है। अत: उन्हें अपने सहृदयों की चिंता हो रही है, पर मैं उन्हें आश्वस्त करना चाहती हूँ कि मनुष्य की भूख दो तरह की होती है- मानसिक और शारीरिक। हम यहाँ अपनी मानसिक भूख को तृप्त करने आए हैं, शारीरिक नहीं। मैं उनसे बारंबार अनुरोध करती हूँ कि वे हमारी इस मानसिक भूख का शमन करें, शारीरिक भूख तो हम सारा दिन मिटाते ही रहते हैं!’

मित्रो, आश्चर्यजनक तथ्य है कि उस दिन किशोरी अमोनकर द्वारा गुर्जरी तोड़ी का प्रस्तुतीकरण बेमिसाल माना गया। उसे सुनकर अनचाहे ही हमारी आँखें गीली हो रही थीं और उसके बाद तो किशोरी दीदी की मुझ पर ऐसी कृपा बरसी, ऐसी अनुकम्पा रही कि मेरा मनुष्य जीवन धन्य हो गया। हाल यह था कि कलकत्ते में जब भी कहीं उनके गायन का कार्यक्रम होता, उनकी फरमाइश आती कि यदि कुसुम खेमानी हॉल में हों तो उनसे लवंग मांग कर लाओ। उम्र के इस पड़ाव पर बड़ों का यह बड़प्पन याद करके एक सिहरन सी होती है। किशोरी जी का मुझसे लवंग के लिए कहलवाना, उनका मुझ पर अनुग्रह करना था, वरना उन पर तो लोग लौंगों के बाग तक न्यौछावर करने को तैयार थे। अभी भी यह सब लिखते हुए मेरे पूरे शरीर में कैसा स्फुरण हो रहा है कि मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकती।

म्यूज़िक कांफ्रेंस की एक और घटना का जिक्र करना चाहूंगी। संगीतकला मंदिर का कार्यक्रम था। उसमें एकदम युवा सरोद वादक अमजद अली मंच पर बैठे थे। अमजद अली का यहाँ यह पहला कार्यक्रम था और युवा कामदेव से अधिक सुंदर अमजद जी अपनी कला का जादू हम पर बिखेरने को उतावले थे। तबले पर संगत करने की बात पंडित सामता परसाद जी की थी, जो बजाते तो बढ़िया थे, पर उनके अहंकार का कद उनके कद से काफ़ी बड़ा था।

अमजद अली ने पहली गत शुरू की और विनम्रता से झुककर सामता परसाद जी से कहा, “जरा सवारी का ठेका दे दीजिए”। उनकी इस गुज़ारिश पर सामता परसाद जोरों से बमके और लगे औल-फौल बोलने। उन्होंने तबले को एक ओर लुढ़का दिया। तो भी अमजद भाई ने उन्हें जब ठेके के बोल अपनी हथेलियों के साथ बजाकर समझाए तो भी उनका मुँह धाराप्रवाह यही कहता रहा, “अरे! बड़े आए हैं आजकल के ये छोकरे हमें सिखाने। इनके दादा हजूर जब काँधे पर वाद्य रखकर यहाँ आए थे, हम तबके आदमी हैं और ये चले हैं हमें ठेका सिखाने।” यह वाकिया कम से कम पचास-साठ वर्ष पहले का है, जब हम संगीत प्रेमी युवाओं का दल, प्रथम पंक्ति में बैठकर गंभीरता से गायन-वादन सुनने वालों में एक माना जाता था।

साहब, हम सबने छलांग लगाई और सीधे मंच पर पहुँच कर लगे सामता परसाद जी को बरजने। जब हमारी बंदर-मंडली और कलाकारों के बीच बाता-बाती बढ़ी तो बड़े-बुजुर्ग व्यवस्थापकों ने स्टेज पर आकर हमलोगों को समझाने-बुझाने की चेष्टा की। इस पर सबलोग एकमत थे कि सामता परसादजी का तो ख़ास कुछ बिगड़ेगा नहीं, लेकिन बेचारे शरीफजाद अमजद भाई के सिर बदनामी आ जाएगी और यहाँ उपस्थित श्रोता भी हमें ही गालियाँ देंगे।

समाज के कर्णधारों ने हमें बहुत ही चतुराई से सारी बातें समझाईं, तब हम मान गए। साथ ही अमजद भाई भी दूसरे ठेके पर बजाने को राज़ी हो गए। वे बेचारे तो ऐसे भी बहुत दुखी हो रहे थे।

आश्चर्यजनक ढंग से उस दिन अमजद भाई का सरोद वादन बेजोड़ रहा और दोनों की जुगलबंदी भी ऐसी जमी कि वे दोनों दो-अढ़ाई घंटे तक बजाते रहे और श्रोता रस से सराबोर होते हुए सुनते रहे।

दरअसल उस जमाने में लोग मन में खुन्नस नहीं पालते थे- “छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात। कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।” उनके जीवन का यही मूल मंत्र था!

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