वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

ऐ सरला, ओ चाची जी, ऐ मामी जी, गायत्री, सावित्रीऽऽऽ सब आ जाओ, जल्दी, जल्दी, दुलीचंद जी की सवारी आने वाली है। अरे भई! जल्दी करो… यह नज़ारा तुलापट्टी की भरथिया बाड़ी का था और ऐसे ही नज़ारे का पूरा प्रतिबिंब बना हुआ है गली की दूसरी ओर का सेठ सेढ़मल जी डालमिया के पाँचतलिया मकान, जिसके सारे छज्जों पर भी जिधर नज़र घुमाओ औरतों के चेहरे और सिर दिखाई दे रहे थे। अचरज की बात यह है कि ये अभिजात्य वर्ग की महिलाएँ, अपने सलीके और ‘कान कायदे’ का बेहद ख्याल रखती हैं, लेकिन दुलीचंद जी का यह आकर्षण कैसा है जो नवयौवना से लेकर जीर्ण शीर्ण वृद्धा भी उनको आँखों में भर लेना चाहती है। क्या दुलीचंद जी कामदेव की तरह सुन्दर हैं? क्या वे अनोखी देहयष्टि के स्वामी हैं? क्या उनकी शोभा तारों की माला पहने सम्पूर्ण चंद्र सी है? क्या वे राजा-महाराजाओं की तरह अमूल्य ज़ेवरातों से सजे-धजे रहते हैं? यदि इन सारे प्रश्नों का जवाब ना में है तो संधान करने पर जो तथ्य हाथ लगेंगे वे निहायत ही चौंकानेवाले हैं।

हालांकि दुलीचंद जी को छज्जों के इन सारे नज़ारों का अहसास था, पर न तो कभी उन्होंने बग्घी में खड़े होकर नेताओं की तरह सबका अभिवादन किया, न ही किसी की अनदेखी की।

आमतौर पर किसी भी व्यक्ति के जाने के बाद उसके बारे में किंवदंतियाँ, मुहावरे और तरह-तरह की बातें होती हैं, लेकिन दुलीचंद जी के तो जीवनकाल में ही ये सब अत्यधिक प्रसिद्ध हो गई थीं। यहाँ तक कि मुहावरों में उनके नाम का प्रयोग भी होने लगा था, मसलन् “ओहो! लाटसाब निज नै दुलीचंद सेठ समझ है के, जो इत्ती रईसी छाँट रह्यो है?” (वाह! खुद को गवर्नर जनरल समझता है क्या जो इतनी रईसी झाड़ रहा है।)

एक कहावत है“ठगायाँ ठाकरो बाजै” तो सेठ दुलीचंद अत्यधिक धनाढ्य न होने पर भी इसी श्रेणी में आते थे। बकौल प्रख्यात समाज सुधारक गांधीवादी श्री सीताराम जी सेकसरिया के “सेठ दुलीचंद जी एक ऐसे अद्भुत इंसान थे, जैसा मैंने अनुभव संसार में नहीं देखा।” इसी संदर्भ में उन्होंने आगे कहा, “एक दिन मैं जुगलकिशोर जी बिड़ला की गद्दी में किसी स्कूल के चंदे के लिए एक पतले से गद्दे पर बैठा था जो सामान्यत: अतिथियों के लिए बिछा रहता है। कुछ देर बाद वहाँ हवा में एक सनसनाहट-सी हुई कि दुलीचंद जी आए हैं। अपनी स़फेद बुरार्क़ धोती और कुर्ते में दुलीचंद जी मेरे पास ही बैठ गए। उन्हें बैठे मिनट भर भी नहीं हुआ था कि वे कुछ बेचैन से दिखे। वे कभी दाईं तो कभी बाईं ओर मुँह कर के बैठ रहे थे पर उन्हें ‘जक’ (चैन) नहीं पड़ रही थी। उनकी बेचैनी वहाँ उपस्थित महानुभावों से छिपी न रही, और अंत में बिड़ला जी ने भी पूछ ही लिया, “के बात है दुलीचंद जी?” इस पर दुलीचंद जी ने संकोच भरे स्वर में उत्तर दिया “बाबू, लागै है अबकी बार नौकर गद्दे के नीचे दरी बिछानी भूल गयो।” आज के समय के व्यक्ति शायद नहीं जानते होंगे कि पहले के ज़माने में गद्दों के नीचे मोटी दरी बिछाई जाती थी ताकि ज़मीन की ठंड ऊपर न आए। इस पर जुगलकिशोर जी बिड़ला ने तुरंत ही प्रतिवर्ती क्रिया की तरह कहा- “के बात करो हो दुलीचंद जी, यो तो हो ही कोनी सकै” (क्या कह रहे हैं दुलीचंद जी, यह तो हो ही नहीं सकता है)।

क़िस्सा कोताह यह है कि भरी गद्दी को खाली करवा कर जब गद्दे को उलटवाया गया और सबने अचरज भरी आँखों से देखा कि उसके नीचे दरी नहीं थी। इसी गड़बड़झालेके बीच दुलीचंद जी धीमे से कब वहाँ से चले गए, इसकी किसी को भनक तक नहीं पड़ी।

यह होता है बड़ों का बड़प्पन कि उन्हें किसी की हार और अपनी जीत का प्रदर्शन बिलकुल नहीं सुहाता, यह सब उनलोगों के लिए निहायत ही बेमानी बातें होती हैं।

उसी गद्दी का एक और क़िस्सा, कालीगोदाम की बिड़ला गद्दी से एक दिन एक हरकारे ने आकर कहा, “सेठ जी पूछ रहे हैं कि क्या दुलीचंद जी एक बार आ सकते हैं, क्योंकि एक अंग्रेज़ व्यापारी ने उन्हें ख़ास उलझन में डाल रखा है।”

आज यह बात सबकी कल्पना से परे की है कि एक ओर तो ‘बिड़ला अम्पायर’ के कर्ता और दूसरी ओर सत्ताधारी अंग्रेज़ों का प्रतिनिधि- एक गोरा साहब। और इन दो गगनचुम्बी कदों के बीच खड़ा एक औसत कद का सुदर्शन मारवाड़ी, जिसके पास न तो बड़ी डिग्रियाँ थीं, न ही अपार संपदा और न ही अन्यों की तुलना में कोई ख़ास रुतबा! उसे किसी बड़ी उलझन का समाधान करने बुलाया जा रहा है।

इस बात को समझने के लिए उस वक्त की बिड़ला गद्दी के इस नज़ारे पर एक नज़र डालना लाज़िमी है। सेठ जुगलकिशोर बिड़ला गद्दी के बड़े गद्दे पर मसनद का सहारा लिए अधलेटे से बैठे हुए टकटकी बाँधे दरवाज़े की ओर देख रहे हैं। उनकी बाईं ओर कुर्सी पर एक लंबा-चौड़ा हेकड़ अंग्रेज़ बैठा है, और दो एक दिग्गज़ नामचीन व्यापारी, बिड़ला जी की ओर दृष्टि स्थित किए यथास्थान बैठे हैं।

व्यापार का मध्य केंद्र होने के कारण इन गद्दियों में यों तो हमेशा ही गहमागहमी रहती है, पर आज इस गद्दी में विशेष रूप से रौनक छाई हुई है, क्योंकि आज पहली बार यह घट रहा था कि शासक वर्ग का प्रतिनिधि कटघरे में खड़ा है और उसके विपक्ष में कलकत्ता का व्यवसायी वर्ग है।

तभी हवा में एक सनसनाहट-सी हुई और दरवाजे पर सफेद धोती-कुर्ते में एक सुदर्शन व्यक्ति का अक़्स उभरा। उनके कपड़े एकदम सादे थे पर उनका सलीक़ा! माशा अल्लाह, अतुलनीय! कुर्ते की बाहों की चुन्नटें ऐसी जैसी किसी ने न देखी न सुनी, और तो और धोती की ‘घड़ी’ (प्लेट्स) भी ऐसी जमी हुई मानो उन्हें सुई से सिल दिया गया हो। चमड़े की हवा से भी हल्की जूतेनुमा मुँहबंद चप्पलों का तो क्या ही कहना, वे इतनी हल्की और नर्म कि फूंक मारो तो हवा में उड़ जाएं।

दुलीचंद जी ने सरसरी निगाह उपस्थित व्यक्तियों पर डाली और बुज़ुर्ग जुगलकिशोर जी बिड़ला को प्रणाम करके हमेशा की तरह गद्दे के किनारे पर बैठ गए। उनके आसन ग्रहण करते ही बिड़ला जी बोले, “आओ, दुलीचंद जी थानै ई उड़ीक (प्रतीक्षा करना) रह्या था।”

दुलीचंद जी ने बिड़ला जी की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देख कर कहा: “हुकुम बाबू!” बिड़ला जी ने चौड़े-चुकान सबके सामने अपनी दुविधा दुलीचंद को बताते हुए कहा “दुलीचंद जी! ये अंग्रेज साहब बोल रह्या है कि ‘यदि कोई भी हिंदुस्तानी बच्चो या बता देव कि इन्नौके हाथ में जो चीज है, बा के है तो ये जमीन पर लेटकर बी. आदमी नै प्रणाम करैगा।” (ये अंग्रेज़ साहब कह रहे हैं कि यदि कोई भी हिन्दुस्तानी बच्चा यह बता देगा कि उसके हाथ में क्या चीज़ है तो यह उन्हें साष्टांग प्रणाम करेगा) दुलीचंद जी ने अंग्रेज़ साहब की ओर देखा जो मारे घमंड के अपना मुँह और नाक फुलाए फूँ-फ़ाँ करता इधर-उधर देखता हुआ गरदन झटके जा रहा था।

स्थिति से अनजान दुलीचंद जी ने एक बार सेठ जुगलकिशोर जी बिड़ला की ओर देखा जिनकी पेशानी पर चिंता की रेखाएँ खिंचीं थी, साथ ही उन्होंने वहाँ एकत्रित लोगों को देखा जिनके चेहरे बेइज्ज़ती के डर से मुरझाए हुए थे।

सेठ दुलीचंद जी ने बिड़ला जी से पूछा “बाबू, असल समस्या के है?”

जुगलकिशोर जी बिड़ला ने उस अंग्रेज़ की ओर मुखातिब होकर कहा कि “दुलीचंद जी ये बोलै हैं कि थे लोग तो बड़ा-बड़ा ब्यापारी हो, जरा मेरे हाथ में जो टुकड़ो है, इन्ने देखकर बतावो कि यो कुण सो कपड़ो है?” (ये कह रहे हैं कि आपलोग तो बड़े-बड़े व्यापारी हैं, मेरे हाथ में जो टुकड़ा है ज़रा इसे देखकर बताइये कि यह क्या है?)

दुलीचंद जी ने दूर से ही उस कपड़े की धज्जी को देखा और मुस्कराते हुए उसे छूने के लिए हाथ बढ़ाया। पर यह क्या वह गोरे साहब तो एकदम ‘छनक’ कर दूर जा खड़े हुए। अब तो दुलीचंद जी की मुस्कराहट और बढ़ गई और उन्होंने अपने सदासंगी मृदुल स्वर में कहा, ठीक है आप इसे मेज़ पर रख दीजिए। मैं इसे वहीं परख लूँगा। अंग्रेज़ साहब ने बिजयी मुद्रा में वह धज्जी उस मेज़ पर रख दी और मेज़ के पास तन कर खड़े हो गए।

दुलीचंद जी धीरे से अपनी कुर्सी से उठे और उन्होंने आव देखा ना ताव उस ‘धज्जी’ को उठाकर ज़मीन पर पटक दिया। अंगरेज़ साहब, आँऽ, आँऽ, करते रहे और देखते ही देखते उसके महीन-महीन रेशे ज़मीन पर बिखर गये और उस अंग्रेज़ साहब ने गरदन झुका ली।

दुलीचंद जी ने सबकी आकंठ तक डूबी जिज्ञासा को इशारे से शांत किया और बिड़ला जी की ओर देखकर विनम्रता से बोले- “बाबू, यो कोई ख़ास कपड़ो नहीं है, यो तो कच्चो जूट है, जो देखणै में सिल्क लागै है।”

जुगलकिशोर जी बिड़ला ने अंग्रेज़ साहब की ओर देखा तो उसने शर्म से गरदन हिलाकर ‘हाँ’ भरी।

दुलीचंद जी ने जब जाते वक़्त बिड़ला जी को प्रणाम किया तो उन्होंने खड़े होकर उन्हें आशीर्वाद दिया और बोले आज तो थारै कारण मेरी पत (इज़्ज़त) रह गी।ऑफ़िस के हो हल्ले में अपने हक़ की शाबाशी लिए बिना दुलीचंद जी अचानक वहाँ से अन्तर्धान हो गए।

दुलीचंद जी मेधावी होने के साथसाथ संगीत रसिक भी थे। बंगाली ज़मींदारों की तरह उनकी एक बागानबाड़ी दमदम के पास थी जिसकी संगीत की महफिलें पूरे हिंदुस्तान में मशहूर थीं।

गौहरजान, जिन्हें जार्ज पंचम के सम्मान में हुए दिल्ली-दरबार में गाने का अवसर मिला था, सेठ दुलीचंद को अत्यधिक चाहती थी। गौहरजान कहीं भी गाना गाने के लिए पहले 100 गिन्नियों का पेशगी लेती थीं, कहते तो यह भी हैं कि जब तक किसी महफ़िल में दुलीचंद जी नहीं पहुँच जाते थे गौहर जान गाना शुरू नहीं करती थीं। उनके क़रीबी मानते थे कि सेठ दुलीचंद जी और श्यामलाल जी खत्री कलकत्ता में गौहर जान के संरक्षक थे।

कल्पना की जा सकती है कि सेठ दुलीचंद उन पर कितना पैसा खर्चते होंगे। दुलीचंद जी आदमी की मर्यादा को कितनी तवज्जुह देते थे इसका उदाहरण एक छोटी-सी घटना है। एक बार दुलीचंद जी की बागानबाड़ी में संगीत की महफ़िल अपने पूरे उठान पर थी कि हरकारे ने आकर कहा, “सेठ जी, सेठानी जी आई हैं। उत्तर के.. क्याऽऽऽऽ के साथ ही दुलीचंद जी नंगे पैर दरवाज़े तक दौड़ते हुए आए और सेठानी जी की बग्घी का डंडा पकड़ कर बोले, “सेठानी जी, आप यहाँ? मुझे बुला लेतीं? सेठानी जी ने उत्तर में कहा “सेठ जी, बग्घी में बैठ जाओ।” परम मेधावी दुलीचंद बिना कोई प्रश्न किए झट से बग्घी में बैठ गए और कहा “फरमाओ सेठानी सा! के हुकुम है?”

“मैंने अबार की स्यात बेटो गोद दुवाओ। पूरो परिवार मैंने निपूती मानकर घर कै कोई भी नेग मैं कोनी बुलावै।” (मुझे तो अभी की अभी एक बेटा दत्तक दिलवाइए, क्योंकि पूरा परिवार मुझे बांझ मानकर किसी भी शुभ काम में नहीं बुलाता है।)

सेठ दुलीचंद जी जानते थे कि उनके भाई के बेटे पर सेठानी जी का मन है इसलिए उन्होंने उसी वक्त घर से मंगवा कर गिन्नियों की थैलियाँ लड़के के माँ-बाप को दीं और सबके सामने बेटे को कानूनी तौर पर गोद ले लिया।

सेठ दुलीचंद जी का संगीत प्रेम तो सर्वविदित था ही, पर उनकी शास्त्रीय संगीत के समाज में उनकी ख्याति से शायद अनेक लोग अनजान होंगे। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में बंबई शास्त्रीय संगीत का गढ़ माना जाता था, जहां उस्ताद अब्दुल करीम खाँ से लेकर उस्ताद अल्लादिया खाँ अक्सर गायन के जलसों में अपना जलवा बिखेरा करते थे। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि 1918 में बंबई में एक सम्मान समारोह सेठ दुलीचंद के लिए आयोजित किया गया था। इसमें पद्मभूषण सुश्री केसरबाई केरकर ने अपना गायन प्रस्तुत किया था। पर उस दिन उनका गायन अत्यंत साधारण था। उसमें न तो भावों की गहराई थी और न ही सुरों की भव्यता। उनके मंद्र सप्तक के स्वर एकदम सटीक थे, पर उनके गायन ने कोई प्रभाव नहीं छोड़ा था। दुलीचंद जी गहरे रत्नों के पारखी थे। उन्होंने उस ‘अनकट हीरे’ के लिए अल्लाहदिया खाँ से अनुरोध किया कि वे उसे तराशें, पर उनकी नाहीं पर उन्होंने सेठ विठ्ठलदास को मनाया कि वे उनपर दवाब बनाएं। उस्ताद अल्लाहदिया खाँ की अनेक शर्तों को इन लोगों ने मंजूर किया और सन 1921 में उनको गंडा बांधकर शिष्या बना लिया।

1930 में भारत के आकाश में केसरबाई केरकर का नाम सूर्य की तरह चमकने लगा और जिसकी कांति चार दशकों तक इस आकाश में छाई रही।

चूंकि उपयुक्त प्रसंग ऐतिहासिक है, इसलिए हम उन किंवदंतियों पर सहज ही विश्वास कर सकते हैं जो सेठ दुलीचंद के जीवनकाल में उनके लिए प्रसिद्ध थीं।

पर प्रकृति का नियम तो विचित्रताओं से भरा है। एक बार दुलीचंद जी को व्यापार में बहुत बड़ा घाटा लगा और जो लोग उनके लिए पलक पाँवड़े बिछाते थे वे उन्हें पहचानने से भी इनकार करने लगे। उनका पूरा परिवार तितर-बितर हो गया।

एक प्रत्यक्षदर्शी का कथन है कि बड़ी उम्र हो जाने पर उनके द्वारा पोषित एक “बाई जी” (अशर्फी तवायफ़) उन्हें अपने घर बनारस ले गई। और उन्होंने ही उन्हें अंत तक संभाला। यहां तक कि उन्होंने उनकी देख-रेख के लिए एक ब्राह्मण भी रखा। मन लगाने के लिए दुलीचंद जी ने अपने मोतियों से सुंदर हुरुफों में याददाश्त के बल पर पांच अध्यायी गीता लिखी। उसे देखकर लोग कहते हैं कि ‘अबुलफ़जल’ का लिखा ‘अक़बरनामा’, जो अपने खुतूतों के लिए प्रसिद्ध है और जिसे देखने दुनिया जहान के लोग आते हैं, को इससे मिलाकर देखिए, तो शायद यह पुस्तक कम नहीं ठहरेगी।

आज भी सेठ दुलीचंद जी की लिखी ‘पंच-अध्यायी गीता’ जिसे भी रुचि हो वह उसे बिमला जी पोद्दार के बनारस के ज्ञान-प्रवाह म्यूज़ियम में देख सकता है।