मेरे लिए पेंटिंग सोच नहीं प्रयास है

चर्चित युवा चित्रकार सुश्री निर्मला सिंह से मेरी मुलाकात 2018 में मुंबई में हुई। उसके पहले उनसे फोन पर बात होती रहती थी। मुंबई में पूरे एक दिन उनके स्टूडियो में उनके चित्रों को देखकर मुझे यह एहसास हुआ कि वे गंभीर कलाकार हैं और अलग तरह का काम कर रही हैं। पिछले साल उनकी कला प्रदर्शनी राग रंग का उद्घाटन रविवार, 17 नवंबर 2023 को जवाहर कला केंद्र, जयपुर की अलंकार गैलरी में प्रख्यात मूर्तिकार श्री हिम्मत शाह द्वारा किया गया। उद्घाटन के अवसर पर श्री प्रयाग शुक्ल भी उपस्थित थे। इस प्रदर्शनी ने उनकी तरफ सबका ध्यान आकर्षित किया।

प्रश्न- सबसे पहले आप अपने बचपन के बारे में बताएं। कैसी यादें हैं बचपन की?

उत्तर – मेरा बचपन, एक सुविधासंपन्न जमींदार घर में बीता है। घर गांव में था। किंतु पास में ही 150-200 वर्ष पुरानी रियासत थी और पिताजी पिछले 26 वर्ष गांव के प्रधान भी रहे। अतः ग्रामीण वातावरण के साथ-साथ प्रशासनिक एवं शहरी वातावरण की झलक भी देखने को मिलती थी।

प्रश्न- आपके मन में पेंटिंग करने की चाह कब हुई?

उत्तर- मेरा स्वभाव एकाकी था।  मन हमेशा सुंदरता पाने की इच्छा से भरा रहता था। मैंने अपने पापाजी का बैरागी स्वभाव बचपन से देखा और वही मेरी चित्तवृत्ति बन गई। बचपन में जो देखा उस दुनिया से बाहर नहीं आ सकी। जब मैं अपने चारों तरफ समाज से टकराई, तब अंदर होती चली गई। और खुद में ही, अपने में ही रही। मेरे मन की यही पीड़ा मेरे हाथ में पेंटिंग के रूप में आई। जाने क्यों बाहरी जीवन में खुशी महसूस नहीं कर सकी। सभी के लिए कुछ करने की चाह, सभी को खुश देखने की चाह ही मेरा पेंटिंग में है।

प्रश्न- बचपन में आप का झुकाव किस तरफ था? क्या चित्रकला की तरफ?

उत्तर- बचपन में मेरा झुकाव पेंटिंग की तरफ नहीं था। चित्रकला क्या होती है, मैं नहीं जानती थी। मेरे आस-पास कला से संबंधित किसी भी प्रकार की बात नहीं हुई और न ही आज होती है। बचपन में मेरा शौक सुंदरता की तलाश था।
एक दाग घर में नहीं।
एक दाग शरीर में नहीं।
जहां-जहां मेरी निगाह जाए, सब बहुत खूबसूरत हो। वह खूबसूरती मैंने अपने पापा में देखी। एक लीडर बनने की क्षमता और करुणा से भरे सभी के लिए। समान भाव से देश और समाज के लिए जीना। मैं भी रोज सपने में रहती कि मैं रानी हूँ। मुझे कोई भी हरा नहीं सकता। मतलब फिल्मी ज्यादा थी। इसलिए मैं क्या हूँ, जाना नहीं। बचपन में हमेशा सुंदरता की खोज में रही, जबकि मेरी कोई हैसियत नहीं। मुझे मालूम ही नहीं कि मेरे अंदर क्या है! निगाहों में सिर्फ सुंदरता का भाव जीती एकाकी होती गई।

प्रश्न- आपको कब लगा कि आपको चित्रकला की विधिवत शिक्षा लेनी चाहिए?

उत्तर- शादी के बाद 8 साल मैं अलवर थी। ड्राइंग एंड पेंटिंग घर में करती थी। आगरा यूनिवर्सिटी से एम.ए. कर लिया। फिर इ.एव. का फॉर्म राजस्थान यूनिवर्सिटी से भरा और एग्जाम भी दिया। मेरे पति का तबादला मुंबई हो गया था। जब मेरी बेटी तीन साल की हो गई, मेरे सास-ससुर और पति ने कहा कि बच्ची की एजुकेशन के लिए मुंबई में घर लेना होगा। इस तरह मैं मुंबई आ गई। वहां भी घर में ड्राइंग करती थी।

मेरे स्वभाव में पेंटिंग होने की वजह से मैं इसमें डूबी रहती थी। ड्राइंग करने से मन को शांति मिलती थी। इसलिए पहले पेंटिंग का डिप्लोमा लिया। फिर पेंटिग कॉलेज की लेक्चरर बनने के लिए डिप्लोमा इन आर्ट एजुकेशन किया। मुंबई से एसएनडीटी कॉलेज से  ब्रिक्स कोर्स किया। उसमें मुझे फर्स्ट क्लास मिला। 2012 और 2013 में जे.जे. स्कूल आफ आर्ट से मास्टर इन फाइन आर्ट्स किया।

प्रश्न – जे.जे. स्कूल आफ आर्ट्स में आपके प्रिय शिक्षक, फैकल्टी कौन थे? किनसे आप प्रभावित हुईं?

उत्तर- जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट अपने आप में मोटिवेशनल जगह है। जहां किसी टीचर की जगह परिवेश ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया। जे.जे. की दीवारें, दरवाजे, झरोखे और कक्षा में जाते वक्त लकड़ी की सीढ़ियां ही मेरे लिए सब कुछ थीं। मुझे नहीं मालूम पड़ा कि कौन सा शिक्षक कैसा था और क्या मिला। बच्चे छोटे थे सो क्लास में डर लगता था कि एम.एफ.ए. इन फाइन आर्ट्स पूरा हो पाएगा या नहीं। वहां गणेश की एक मूर्ति है, छोटा सा मंदिर, सो छुपकर उनका दर्शन कर लेती और अपना असाइनमेंट पूरा करती। छुट्टी होते ही घर चली जाती।

जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स का परिवेश बहुत सुंदर है। वहां के प्राकृतिक परिवेश में अपने आप ही पेंटिंग करने का मन करता था। वैसे जे.जे. की फैकल्टी बहुत अच्छी है। पर किसी की याद नहीं है। हां, मैंने डायरेक्टरेट ऑफ महाराष्ट्र में जी.डी.आर्ट डिप्लोमा किया। वहां नूरिल भोंसले ने मुझे पोर्ट्रेट पढ़ाया। वे बहुत गहराई से सिखाते थे। मैंने उनसे ही कंपोजिशन सेंस एंड पोट्रेट की कला सीखी। आजकल वे महाराष्ट्र के अहमदनगर आर्ट कॉलेज में प्रिंसिपल हैं।

प्रश्न- आपके चित्रों में क्या आपको लगता है अकेलापन है। ऐसा है तो क्यों है?

उत्तर- मेरे चित्रों में अकेलापन है। मैं कैनवास पर पेंटिंग करने तभी जाती हूँ जब मैं खुद से दूर होती हूँ। मुझे मेरे जीवन के अनुभव ने, वैसे जीवन में कुछ भी तो नहीं है सब कुछ हमसे ही है। मैं खुद से पीछा छुड़ाते-छुड़ाते पेंटिंग में अपने आप को एक्सप्रेस करती रही हूँ।

प्रश्न- अपने काम के स्वभाव के बारे में बताइए?

उत्तर- अक्सर दो वस्तुओं के बीच की दूरी मुझे मेरे चित्र में बहुत प्रभावित करती है और वहां मुझे सारी दुनिया दिखाई देती है जहां कुछ भी नहीं है। रास्ते में जाते हुए किसी भी ‘पल’ का आ जाना और उस पल का खुद से टकराना, जैसे किसी का साथ छोड़ना। मैं भटकती बहुत हूँ और अचानक  अपने पास की दूरी ही मेरी पेंटिंग में आ जाती है और यही स्वभाव है। अमूर्त चित्र बनाती हूँ।

प्रश्न- अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताइए? क्या आपको रचना प्रक्रिया में संगीत और कविता के संकेत-चिह्न आकर्षित करते हैं। क्या आपको लगता है कि पेंटिंग को पहले पेंटिंग बनाना चाहिए इलस्ट्रेशन नहीं। क्या आप भी कुछ ऐसा सोचती हैं?

उत्तर- जी, बिल्कुल। पेंटिंग ही होनी चाहिए। मैं कैनवास से आकर्षित होती हूँ जो सफेद है। बहुत सुंदर है। मेरे जीवन से मिले अनुभव भी तो सफेद और सुंदर हैं। जो मिले हैं या नहीं मिले। वही तो जीवन की खोज है। वही तड़प है। वही भाव पूर्णता से अपने कैनवास पर उतारती हूँ।

मैं कुछ भी आर्टिफिशियल, बनावटी व्यवहार नहीं कर पाती, न अपनी जिंदगी में न अपने चित्र में।

पल का भ्रम जो सुख से भरा है। हमारी क्रिया में अपनत्व का भाव भी पेंटिंग में लाना पड़ता है। जो सिर्फ भ्रम है और एक कल्पना का सागर है। पेंटिंग होने के बाद ऐसा होता है जैसे कुछ नहीं किया। इसलिए पेंटिंग एक उन्माद है। एक एक्ट है।

प्रश्न- आपने पहली कलाकृति कब बनाई और आप वह कलाकृति बनाने की तरफ कैसे उन्मुख हुईं?

उत्तर- जब महाराष्ट्र से डिप्लोमा इन पेंटिंग में किया था। उस समय पेंटिंग मेरे लिए खुद को एजुकेट करने का रास्ता था और पेंटिंग करने से मुझे खुशी मिलती थी। सोचती थी कि आर्ट की एजुकेशन लेने से अपने व्यक्तित्व का निर्माण करूंगी। मेरे अंदर की बेचैनी कम हो जाएगी। इससे ज्यादा डिप्लोमा करते हुए कुछ नहीं सोचा। लेकिन डिप्लोमा पूरा होने पर ऐसा लगा जैसे मैं इसके करीब होती जा रही हूँ। पेंटिंग सिर्फ कंपोजिशन नहीं है। पेंटिंग और कुछ भी है।

प्रश्न- आपकी कला में चटख रंग प्रकट होते हैं। इसका कारण बताइए और वह कौन-कौन से चटख रंग हैं जिसे आप प्रयोग में लाती हैं?

उत्तर- जब कैनवास पर कलर लगाती हूँ तब मुझे मालूम नहीं होता है कि कौन सा रंग है लेकिन लाल और सफेद रंग कैनवास पर आकर्षित करता है। पेंटिंग होने के बाद मुझे भी महसूस होता है कि चटख रंग हो गए हैं। मैं स्वभाव से आजादी चाहती हूँ, खुले आसमान की तरह। जमीन की गहराई की तरह। जो सत्य शिव और सुंदरता से भरी हो। जो मुझे मिली नहीं है। इसके लिए पेंटिंग करती हूँ कि ‘मैं सत्य हूँ। शिव हूँ। मैं सुंदर हूँ।’ पेंटिंग करते हुए अनुभव मुझे सत्य के करीब लगते है।

प्रश्न – आपके चित्रों में किस रंग की ओर बार-बार संकेत होता है? उसके पीछे क्या कारण है?

उत्तर- मैं बहुत कंट्रास्ट में जीने वाली कलाकार हूँ। भावुक हूँ। मुझे वार्म कलर प्रभावित करते हैं। जैसे मिट्टी का रंग। जैसे पतझड़ के बाद नए फूल-पत्तों का रंग और सफेद और लाल रंग। मुझे काले रंग में सभी रंग के दर्शन हो जाते हैं।

प्रश्न – चित्रकला में क्या अतीत की मौजूदगी खास तौर पर रंग और रूपाकार में है?

उत्तर- मुझे अमूर्त किसी बीते हुए समय को दर्शाने का रूप नहीं लगता है, बल्कि सत्य की खोज को ढूंढने का बहाना लगता है। मैं अपने अंदर बनते हुए न जाने कितने झूठ को सत्य साबित करती आई हूँ। मुझे यह समझ नहीं मिली कि सत्य की खोज कर सकूँ। सहज-सरल भाव से समाज की स्थिति को देखती हूँ तो कभी-कभी हवा के झोंके जैसे हल्की हो जाती हूँ और अपने को अमूर्त के करीब पाती हूँ। यही कारण है कि मैं अमूर्त में सहज रूप से चित्र बना पाती हूँ। मूर्त रूप को कभी समझ नहीं पाती। दुनिया एक मिट्टी का लौंदा है। अपने मन और भावनाओं के अनुसार ही तो मैं दुनिया को देखूंगी। खुद को देखने के लिए अंदर के रूप और समय को समझना है।

प्रश्न- आप चित्र रचना में क्या देखी हुई जगह की स्मृतियों को साथ लेकर बढ़ती और चलती हैं?

उत्तर- मेरे अंदर स्मृतियां चलती रहती हैं, लेकिन वह कभी भी जगह को लेकर नहीं होती है। समाज का जो रूप मैं अनुभव करती हूँ और बदले में जो व्यवहार करती हूँ, चारों तरफ से भावनाओं का आना और जाना, इस आने और जाने से अपने अंदर में जो ढूंढती हूँ, जो मुझे मेरे करीब लाता है और एक भ्रम सा पैदा होता है  वही भ्रम कैनवस पर उतारती हूँ। खाली जगह में भी कभी-कभी सपने में दुनिया दिखाई देती है।

प्रश्न- आपको किन चित्रकारों का काम बहुत अच्छा लगता रहा है? क्यों?

उत्तर- जब मैंने कॉलेज में एडमिशन लिया था 2001 में, डिप्लोमा क्लास में तब पुस्तकालय में किताबें देखती थी। सब कुछ नया था मेरे लिए। इसलिए सिर्फ पेंटिंग निहारा करती थी। मैं यह नहीं समझती थी कि कौन पेंटर कहाँ से हैं? सिर्फ देखती थी। पढ़ती नहीं थी। इसलिए पहला प्रभाव पिकासो और पॉल क्ली का पड़ा मुझपर। बाद में वह कलाकार जो कॉलेज में थे उनसे कुछ कलाकारों के बारे में मालूम हुआ। तब पढ़ना शुरू किया कि पेंटिंग जीवन में क्या होती है? मैं तो सिर्फ अशांत मन को संतुलित करने और अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए पेंटिंग कॉलेज गई थी।

प्रश्न- क्या आप नियमित काम करती हैं?

उत्तर- मैं नियमित काम करती हूँ। लगातार काम चलता रहता है। पेंटिंग के बिना रह नहीं पाती हूँ। बल्कि यह कहूँ कि मेरे मन को पेंटिंग ही संभालती है। पेंटिंग मुझे बांध कर रखती है। पेंटिंग मुझे संसार से बचा लेती है।

प्रश्न- काम करने के लिए किसी खास क्षण और मन:स्थिति का इंतजार आपको रहता है?

उत्तर- मैं पल में दुखी और पल में सुखी महसूस करने वाली आत्मा हूँ। पल का मुझसे यानी मेरे अनुभव से टकराना मेरा सब्जेक्ट बन जाता है। फिर पेंटिंग अपने आप अपना रास्ता दे देती है। मन:स्थिति मुझे कभी भी समझ में नहीं आती है। मेरा मन बहुत अशांत है। कभी किसी की हो जाती हूँ और उसी भाव में बस पेंटिंग हो जाती है।

प्रश्न- कैनवास पर रखने के लिए कोई भी पहला रंग चुनने के पीछे कभी कोई खास बात आपको नजर आई?

उत्तर- जी, बिलकुल। मैं कलर की सोचती हूँ। सेप ग्रीन और लेमन येलो कलर में नाजुकता दिखाई देती है मुझे। ये सभी जगह और सभी कलर को अपना बना लेती हैं। शुरू में जब सफेद कैनवस देखती हूँ तो मेरे मन में एक पल की चाह, जो मैंने जिया है, आ जाता है। सफेद पर लाल रंग बहुत अच्छा लगता है मुझे। लेकिन लाल रंग पर और कलर तैलीय रंग में नहीं जाता। इसलिए लेमन येलो और सेप ग्रीन की ट्रांसपेरेंसी मुझे अच्छी लगती है। इनमें मैं सब्जेक्ट को आसानी से बना लेती हूँ।

प्रश्न- हर कलाकार की जाने-अनजाने एक शैली बनती जाती है। कई बार लगता है कि वह शैली किसी समय उसके आड़े भी आने लग जाती है?

उत्तर- ज्यादातर एक शैली के आधार पर कलाकार काम करता है। एक फॉर्म या टेक्सचर में आने के बाद बदलता नहीं है। लेकिन मैं उसके विपरीत हूँ। इसलिए कला जगत में एक अलग ही रूप है मेरी पेंटिंग का और मेरे चैलेंज का भी। क्योंकि मेरी सोच में समय का प्रभाव ज्यादा है। बहुत सारे मूड पेंटिंग करते हुए आते हैं। मेरी पेंटिंग में प्रोग्रेस दिखती है। इसको संभालना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मैं समय को दर्शाने की कोशिश करती हूँ, जो बदलती रहती है।

प्रश्न- क्या आपने शुरू से ही आकृतिमूलक काम नहीं किया। फिगरेटिव?

उत्तर- मैंने शुरू के दो साल फिगरेटिव काम किया है। लेकिन मेरी सोच में भावनाओं से बना संसार था। इसलिए सोच को फिगर में देखने और करने से मन मे संतुष्टि नहीं थी। इसलिए अमूर्त में अपने आप ही आ गई। मैं नहीं जानती थी पहले कि अमूर्त काम करने लगी हूँ। धीरे-धीरे लेखक और कलाकारों मित्रों के जरिए समझ में आया।

एब्स्ट्रेक्शन मेरी सोच में है और सोच में था। लेकिन शुरू में मैं फिगरेटिव काम करती थी। जो ह्यूमन मैन और वूमेन थे। लेकिन मेरी सोच में औरत का आदमी का इंनर व्यू ही आता था। इसलिए फिगरेटिव करते वक्त इंसान का फिगर फ्लैट दिखाई देता था कि सब एक हैं। फिगर में नाक, आंख बनाने से उसमें मेरी सोच आती नहीं थी। फिर दो साल तक फिगर में काम हुआ नहीं था। फिर फिगर के टुकड़े करने लगी फिर कलर से खेलने लगी। फिर लगा कि सब फ्लैट है। मेरी थॉट जो मुझे एकाकी करती है उसमें ज्यामितीय फॉर्म में मैं बहने लगी और उसमें अपनी सोच को सहजता से पेंट करने लगी। और धीरे-धीरे मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि कब एक्सट्रैक्शन में आ गई हूँ। आज अमूर्त ही सभी जगह विद्यमान है। खाली जगह में भी अपना संसार बस सकती हूँ।

प्रश्न- आपकी पृष्ठभूमि कलाकार की नहीं है। एक स्त्री होने के नाते आपने चित्रकला की दुनिया में अभी तक क्या और कैसे संघर्ष देखे हैं?

उत्तर- मैं कलाकार या साहित्य घराने से नहीं हूँ। मेरे लिए यह सब अलग ही अनुभव है। कला जगह का एक अनमोल प्रभाव है मेरे मन पर।  लेकिन इसके विपरीत कला की एजुकेशन लेने से लेकर आज तक संघर्ष ही संघर्ष है। जहां भी जाती हूँ लगता है अकेली हूँ। चाहतों से भरी जिंदगी रही हमेशा मेरे घर में मेरे लिए।

लेकिन एक कलाकार होने के लिए समाज का भी रूप मैंने अनुभव किया कि कितना रूप कलाकार अपने पर चढ़ाता है। मेरा एक ही रूप है इसलिए मैं चित्रकार हूँ।

प्रश्न- अब तक आपके कितने ग्रुप शो हुए हैं?

उत्तर- मेरा स्वभाव एकाकी रहने का है। किसी से कोई सहायता लेने का नहीं है। मैंने किसी को ग्रुप शो के लिए नहीं कहा। इसलिए सन 2015 में एक ही ग्रुप शो एक स्त्री कलाकार के साथ हुआ। जहांगीर आर्ट गैलरी में। कॉलेज में कई पार्टिसिपेशन हुए हैं।

प्रश्न- अब तक आपके कितने सोलो शो हुए हैं?

उत्तर- मुझे सोलो शो बहुत अच्छा लगता है। अब तक चार सोलो शो हुए हैं। दिल्ली मुंबई और जयपुर में।

प्रश्न- अब आप नया क्या कर रही हैं?

उत्तर- आजकल मेरे काम में बहुत बदलाव आ रहे हैं। पहले मैं भावनाओं में इतना घुल जाती थी कि सब एक जैसे ही रूप हो जाते थे। शुरुआत पहले से आज तक एक ही रही है मेरी। लेकिन आजकल मुझे लगता है कि भावना के साथ-साथ रूप पूर्णता भी होनी चाहिए। इसलिए मेरे फॉर्म और कलर स्कीम दोनों ही बदले हैं। आजकल मैं खाली स्पेस में दुनिया तैयार कर रही हूँ। जो एक पल के रूप में आता है और एक पल के रूप में चला भी जाता है। लेकिन अपनी सत्यता चिह्न के रूप में छोड़ देता है। कलर स्कीम कोमल हुई है जैसे- पतझड़ के बाद जो कलर पेड़ दिखाते हैं- लाइट लेमन कलर,  क्रिम्सन रेड, पर्पल और ओलिव ग्रीन और ब्लू की लाइट ऑरेंज।

प्रश्न- चित्र रचना करते हुए आपको कितना लंबा अरसा हो चुका है?

उत्तर- अगर चित्र रचना की बात कहूँ तो मुझे 15-16 साल हो गए हैं पेंटिंग करते हुए। पहले चित्र रचना नहीं करती थी। सिर्फ काम में चित्र ढूंढती थी।

प्रश्न- चित्रकला के अलावा आपकी और क्या दिलचस्पियां रहीं जैसे लेखन, संगीत, नृत्य?

उत्तर- मुझे संगीत सुनने और फिल्म देखने में दिलचस्पी है। समय-समय पर संगीत सुनती हूँ। कुमार गंधर्व का भजन- ‘उड़ जाएगा हंस अकेला’ मेरा प्रिय है। लोक संगीत सुनती हूँ जो किसी भी भाषा में हो। मुझे जमीन की खुदाई करना बहुत अच्छा लगता है। मिटटी में घर बनाना, पेड़ लगाना, सफाई करना। चारों तरफ से सुंदर परिवेश में रहना, उसके लिए प्रयत्न करती रहती हूँ।

 

शर्मिला जालान
प्रतिष्ठित कथाकार। प्रकाशित कृतियाँ : शादी से पेशतर (उपन्यास), बूढ़ा चांद (कहानी संग्रह)