वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

(गतांक से आगे)

ॠतु को कोई भी काम अनिर्णीत रखना बिल्कुल नहीं सुहाता था।इसलिए जब उसने नए काम के लिए अपना आकाश टटोला तब उसकी स्मृति में वह मोटी लाल फाईल चमकी जो सीताराम जी ने इम्तिहान होने के बाद उसे दिखाई थी।जैसे ही ॠतु की स्मृति में वह लाल फाईल कौंधी, उसकी कौंध से ही वह छटपटिया देवी उठी और लगी लगातार आवाज़ देने ‘‘सीताराम भैया, सीताराम भैया’’ बेचारे सीताराम जी घबराकर हाथ का काम जैसा का तैसा छोड़कर दौड़ते हुए आए और पूछने लगे, ‘‘क्या हुआ बहू जी जो आप इस तरह ताबड़तोड़ पुकार रही हैं।लगता है कुछ अनहोनी घट गई है?’’

सीताराम जी की यह बात सुनकर ॠतु को हल्की शर्मिन्दगी महसूस हुई और उसने सकुचाते हुए कहा, ‘‘भैया आप तो जानते ही हैं कि किसी बात को सलटाने के लिए मेरे कैसे ‘तालामेली’ लग जाती है।आप मेरी परीक्षा के बाद किसी लाल फाईल का ज़िक्र कर रहे थे जो मारवाड़ी राजबाड़ी की आलमारी से मिली थी।सोचती हूँ, जब बाबू जी ने उसे इतनी एहतियायत से रख रखा था तो उसमें अवश्य ही कोई ज़रूरी कागज़ात होंगे।सोचा कि अभी मेरे पास समय है, इसलिए आप इतना भर बता दीजिए कि वह फाईल कहाँ रखी है।मैं ले आऊँगी?’’ सीताराम भैया तो ठहरे सीताराम भैया! जो न केवल ॠतु की रग-रग से वाक़िफ थे बल्कि उसके मन से गुज़रते मनोभावों का पता भी रखते थे।उन्होंने अलादीन के चिराग के ज़िन्न की तरह पलक झपकते ही वह फाईल हाज़िर कर दी।ॠतु ने अचरज से आँखें फाड़कर उस फाईल को देखा और बरबस बोल पड़ी ‘‘भैया, क्या आप कोई ज़िन्न हैं या साक्षात भगवान जो आप इस तरह बिना कहे ही मेरे मन की बात समझ लेते हैं।सीताराम जी का मन तो था कि कहते, ‘‘बहू जी मैंने तन-मन-धन से एकनिष्ठ भक्त की तरह आपको ही ध्याया है, तो इस तपस्या का इतना फल तो मुझे मिलना ही था।’’ पर उन्होंने बाहर से इतना ही कहा  कि ‘‘बहू जी, आपने भी तो मेरी ‘रखपत’ रखी है।’’

ॠतु ने जब पहली फाईल खोली तो केदारनाथ जी के तौर-तरी़के और सलीका देखकर वह आश्चर्यचकित रह गई।मोती जैसे हुरुफ़ बिना किसी काटा-पीटी के उस पन्ने पर ऐसे सजे हुए थे गोया वह ‘अबुलफ़ज़ल का अक़बरनामा’ हो जिसके ‘ख़तो’ की प्रसिद्धि पाँच सौ सालों में भी फ़ीकी नहीं पड़ी थी और आज भी अजायबघर में कांच से घिरे उस ग्रंथ को देखने मात्र के लिए पूरे विश्व के लोग आते थे।

उस फ़ाईल में सबसे ऊपर एक चौकोर काग़ज़ लगा हुआ था जिसमें सारी फ़ाइलों की विगत लिखी हुई थी।केदारनाथ जी के ये तौर तरी़के किस पर हुए? वे ऐसे कैसे गढ़े गए? इन बातों से अनजान ॠतु ने अपनी स्मृति पर बहुत ज़ोर डाला तो उसके स्मृति पटल पर एक धुँधली-सी छवि केदारनाथ जी की उभरी, जिसमें वे कान्ता जी के एक प्रश्न के उत्तर में बता रहे थे कि कैसे दो माँओं की खींचतान के बीच वे पिसते रहते।यदि वे गोद वाली माँ से कुछ ले लेते तो जाई हुई माँ उसे फिकवा देतीं।इस प्रकार वे एक अनाथ की तरह हो गए थे और अपनी छोटी सी उम्र से ही वे सारे काम खुद ही करते थे।होने को तो किले जैसी हवेली में दुनियाँ भर के नौकर-चाकर थे, पर सिर पर यदि किसी संरक्षक का हाथ नहीं हो तो वह बच्चा भरे-पूरे परिवार में भी अनाथ ही रहता है।लेकिन कभी-कभार ऐसा भी होता है कष्टों और असुविधाओं में गढ़ा होने के कारण कोई आदमी अपने आप दृढ़ संकल्प वाला बने और पूरी दुनियाँ में अपनी शर्तों पर जीना सीख ले, तो बस केदारनाथ जी भी ऐसे ही बन गए।इंजीनियर, बिजली मिस्त्री, रसोइया अर्थात् गृहस्थी के छोटे-मोटे काम से लेकर वे साहित्य मर्मज्ञ भी हो गए।एम.ए. में आने के बाद भी ॠतु संस्कृत, उर्दू और हिंदी साहित्य में यदि कहीं भी अटकती तो वह केदारनाथ जी के पास जाकर खड़ी हो जाती थी और वे सारे सटीक जवाब दे दिया करते थे।

दरअस्ल यह मात्र उनकी अप्रतिम प्रतिभा के कारण नहीं, बल्कि उनकी लगन और निष्ठा की वजह से भी संभव हो सका था जिसमें उन्होंने ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया था जो अविश्वसनीय था।वे सुबह चार बजे से रात के ग्यारह बजे तक अहर्निश कोई न कोई काम करते रहते थे।वे छोटे से छोटे काम को भी पूरे मनोयोग से ऐसे करते थे मानों वे वेद-पुराण का पाठ कर रहे हों या उपनिषद पर किसी भाषण की तैयारी कर रहे हों।इतना ही नहीं, वे शास्त्रीय संगीत में भी पारंगत थे और उसमें नियमानुसार रियाज़ किया करते थे।

ॠतु ने सोचा कि जब इतने ज्ञानी-गुणी आदमी ने ये नोट्स बनाए हैं, तो उसमें अवश्य ही ॠतु से संबंधित कागज-पत्तर भी होंगे।ॠतु ने बहुत एहतियात से फाईल नं. एक को खोला, तो यह देख कर दंग रह गई कि उन तीन मारवाड़ी राजबाड़ियों में से पहली वाली कोठी, जिसमें ॠतु के माता-पिता सपरिवार रहते थे उसका विस्तृत वर्णन था और उसमें साफ़-साफ़ लिखा हुआ था कि वह कोठी केदारनाथ जी को मिले और बाद वाली दोनों कोठियाँ क्रमश: बड़ी बुआ और छोटे काकू के हिस्से में रहेंगी।बाकी दो कोठियों की क़ीमत कुछ कम होने के कारण काकू और बुआ को बाज़ार की दोनों दुकानें भी मिलेंगी।शायद वह बँटवारा इस बात के मद्देनजर किया गया था कि एक तो केदारनाथ जी कुछ ज्यादा नफ़ीस थे और दूसरे, उनका परिवार भी ज्यादा बड़ा था।उनका सारा परिवार अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसमें बँटकर रहता था, लेकिन केदारनाथ जी की ठसक के सामने छोटी बुआ का रहन-सहन कुछ फ़ीका पड़ता था।इसलिए बिना बात के वे सबसे लड़ती रहती थीं।इतना ही नहीं, वे हर वक्त किसी न किसी बहाने आपस में लड़ते रहते थे।दरअस्ल बुआ और काकू की पत्नी उन लोगों से जलते थे, इसलिए उन दोनों के बीच हर छोटी-छोटी बात पर झगड़ा होता रहता था।केदारनाथ जी का परिवार ऊपर से नीचे तक तमीज़ से संचालित था।वे लोग कभी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते थे।

अचरज की बात थी कि घूम-फिर कर वह सारी जायदाद ॠतु के पास आ गई थी।जो चीज़ें काकू ने औने-पौने में गिरवी रख दी थीं उन्हें केदारनाथ जी ने छुड़वा लिया था।ॠतु जब वह फ़ाईल लेकर मारवाड़ी राजबाड़ी पहुँची तो वहाँ के मकानात को देखकर दंग रह गई।

वह अपने पारिवारिक वक़ील साहब को साथ ले गई थी।वे केदारनाथ जी के समय से ही उस परिवार का सारा काम देखते थे।उन्होंने आनन फ़ानन में ही एक-एक कर उन काग़ज़ों में से काम के काग़ज़ छाँट कर ॠतु को पकड़ा दिए।ॠतु ने जब उन काग़ज़ों को पढ़ा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।वे काग़ज़ उन तीनों कोठियों के मालिकाना हक़ के थे।देवी लक्ष्मी की इस अनायास कृपा वर्षा से ॠतु हक्की-बक्की रह गई।फिर उसे याद आया कि माँ और बाबूजी ने उसमें दान करने के संस्कार दिए हैं जो कि वे उसमें गहराई से खुबे हुए हैं।इसलिए उसने आव देखा न ताव और ‘सुरुचि’ संस्था जो कि अकिंचन और निराश्रित महिलाओं को आश्रय देकर स्वावलम्बी बना देती है और वे महिलाएं नानाविधि से  अपना जीवन यापन करना सीख लेती हैं और इतनी आत्मनिर्भर हो जाती हैं कि दूसरों की सहायता कर सकें, ॠतु ने उसी की तर्ज़ पर वहाँ उनके लिए लम्बे-चौड़े रहवास का इंतजाम कर दिया।

सारा काम एकदम पुख्ता ढंग से करने के बाद ॠतु ने इतनी बड़ी जायदाद को लावारिस न छोड़ कर उसका एक ट्रस्ट बना दिया ताकि आने वाले समय में वह इतना सक्षम रहे कि अपना सारा ख़र्च खुद सम्हाल ले और इसके ट्रस्टी इसकी पूरी सम्हाल भी रख लें।

यह सारा जाचा जँचाने के बाद अपनी उम्र के मद्देनज़र उसने अपने भविष्य की योजना बनाने का विचार किया।उसने सर्वप्रथम डी. एल. खान रोड में स्थित गणदर्पण में अपने देहदान के कार्ड और कागज़ एक जगह एकत्रित कर लिए।जब वह यह सारी तैयारी कर रही थी तो उसकी मुँह बोली बेटी अमृता उदास हो गई।

उसका उतरा हुआ चेहरा देख कर ॠतु ने उसे ख़ुद से चिपकाया और प्यार से उसके सिर, माथे और पीठ पर हाथ फेर कर उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारी माँ की इतनी बढ़िया मानसिक तैयारी है।अमृता सच मानों, मुझे तो ऐसा बोध हो रहा है जैसे मैं एकदम हल्की हो गई हूँ।अमृता, जब मैं पड़ोसन ताई जी के साथ गंगा स्नान करके तिलक छाप लगवा कर आती थी, तो माँ हँसकर कहती थीं, जब ॠतु को लेने विमान आएंगे तो हमलोग उसके चारों तरफ लटक जाएंगे।ॠतु की माँ ने तो खैर ऐसा ही अपरिग्रही जीवन जी लिया था।अब बारी ॠतु की थी।तैयारी तो ॠतु की भी पूरी थी पर भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह कौन जानता है….!’

(जारी)

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