वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

(गतांक से आगे)

पूर्व दिशा में प्रभास की लाली छा कर उषा के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी, कि सूर्य नरमाई से आहिस्ता से उठा और आकाश के बीचोबीच आ गया।उसका आना किसी से छिपा थोड़े ही रहता, इसलिए देखते ही देखते उसने पूरे आकाश को अपने प्रकाश से भर दिया।उसके साथ ही पक्षियों की पातों पर पातों ने अंग्रेज़ी में विजय का डिजायन बनाते हुए आकाश के राजा सूर्य को प्रणाम किया।प्रकृति के इतने सकारात्मक क्रियाकलापों को देखकर ॠतु का मन भी प्रफुल्लित हो गया।वह सोचने लगी, मैं कितनी लालची हूँ जो जीवन तो जीवन, अपनी मृत्यु की भव्यता तक का हिसाब कर रही हूँ।बात तो मैं करती हूँ कि जीवन एक नदी है, फिर मैं इस नदी को बाधारहित बहने क्यों नहीं देती? अचानक ॠतु को ध्यान आया कि वह अपनी कल्पना की उड़ानों में आज फिर आकाश-पाताल एक कर रही है और इस उड़ान का भी वही हश्र होगा कि चारों ओर से बुज़ुर्गों की डाँट पड़ेगी, जैसी लायब्रेरी के शुरुआती दिनों में पड़ी थी।

उसने निष्कर्ष निकाला कि जब जीवन की सारी बीहड़ताओं को ॠतु ने जैसे अननभाव में बिना ध्यान दिए आराम से हँसते-खिलखिलाते जी लिया है, तो अब उसे क्या हुआ जो उसमें इतना हार भाव आ गया है?

बारिश के बाद जैसे पक्षी अपने परों को फड़फड़ाकर सुखाते हैं वैसे ही ॠतु ने अंगड़ाई लेकर अपने हाथ पैर तोड़े, मरोड़े और तनकर खड़ी हो गई।शायद भगवान उस पर कुछ अतिरिक्त मेहरबान थे जो उसके खड़े होने के साथ ही, छोटे-छोटे नाना रंग के फूल-पत्तों का एक झोंका आया और उस पर सिर से पैर तक बौछार कर वासन्ती रंग से रंग गया।प्रभु की इस अहेतु कृपा से ॠतु गदगद होकर सिहर गई।उसने आकाश की ओर दोनों हाथ जोड़ कर उस परमपिता की अभ्यर्थना की ही कि तभी मुचि-मुचड़ाई कागज़ की एक छोटी सी पर्ची हवा के झोंके के साथ ही गोल-गोल घूमते हुए आकर ॠतु की दोनों जुड़ी हुई हथेलियों के नमस्कार पर बैठ गई।ॠतु को थोड़ी ‘झाल’ भी आई कि यह इतनी विशाल और दामी जगह है, पर यहाँ के बाशिन्दे इस स्थल की पवित्रता और सफ़ाई का ध्यान नहीं रख पाते हैं।

ॠतु ने झुँझलाते हुए उस पर्ची को उठाकर उसकी सिलवटें निकालीं और जब उस मुचे-मुचड़ाए  क़ाग़ज़ को पढ़ा तो उसकी आँखें उसमें लिखे वैभव के वर्णन से चुँधिया गईं।वह पर्ची क्या थी, ‘खुल जा सिम-सिम’ की तरह कारूँ के ख़जाने की कुंजी थी।उसमें साफ़-साफ़ अक्षरों में लिखा था कि मल्लिक राजबाड़ी की चौतरफ़ा चहारदीवारी ॠतु का मालिकाना हक़ होगा जो कि अपनेआप में कोई छोटी-मोटी चीज़ नहीं थी।हाँ, ॠतु के बचपन में बड़े-बड़े टोकनों को ठोकर मारती बुआ लोगों की हिक़ारत ने बड़े होने के बाद भी ॠतु को उसकी क़ीमत नहीं समझने दी थी, पर जायदाद के वकीलों और दलालों को वह ज़मीन लाखों में नज़र आई थी।चूंकि वह मारवाड़ी राजबाड़ी का बड़ा हिस्सा दान कर चुकी थी, इसलिए उसने सोचा कि इन सबका हिसाब लगाकर उसे यह जायदाद भी दान कर देनी चाहिए।त्वरित गति से निर्णय और काम दोनों को अंजाम देने में माहिर ॠतु ने देखते-देखते मारवाड़ी राजबाड़ी की चौतरफा ज़मीन भी उसी ट्रस्ट में मिलाकर दान कर दी।

इन कामों से मुक्त होते-होते सांझ ढल आई थी कि तभी एक निर्मल विनोद का बानक बना।

ॠतु चूंकि बचपन से ही अच्छी कद-काठी और ईरानी नाक नक्श की मालकिन थी, इसलिए छोटी उम्र से ही लड़कों ने उसके चारों ओर चक्कर काटने शुरू कर दिए थे।हालांकि लापरवाह ॠतु ने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया, पर यदि सात-आठ वर्ष की उम्र में ही उसकी क्लास के लड़के उस पर छोटी-छोटी कविताएँ लिख-लिख कर मरते रहे तो वह क्या करती।यह सब सोचते-सोचते ही उसके दिमाग के आकाश को ढेरों तुकांत कविताओं ने घेर लिया।

और तभी लाल स्याही में लिखा टूटे-फूटे  हुरुफ़ों वाला एक पत्र मिला- ‘लिखता हूँ ख़त ख़ून से स्याही न समझना, मरता हूँ तेरी याद में ज़िन्दा न समझना’।यह पढ़कर आज की उम्र दराज़ ॠतु भी अपने चेहरे को गुलाबी रंग में डूबने से नहीं बचा पाई, क्योंकि यह संतोष नाम के लड़के की लिखी कोई साधारण कविता नहीं थी, बल्कि स्मृतियों का बड़ा ढेर थी।उसके साथ ही उसे याद हो आई- बाला, परकास, चन्दर आदि की प्रेम पगी छोटी-छोटी कविताएँ।मसलन- ‘‘उड़-उड़ रे कागा हवा की उड़ान’,  ‘उस दो चौक के पाँच तलिया मकान में’’ आदि में जो आधा दर्जन किशोर भरे थे, वे चकोरों की तरह ॠतु के चन्द्रमुख की तरफ़ टकटकी बाँध कर ॠतु नामक चन्द्रमा की प्रतीक्षा में रहते थे।लगता है, उस लम्बी पंजाबी कद-काठी की ॠतु की प्रतीक्षा में वहाँ के मकान की कॉर्निशों पर बड़ी संख्या में जो पक्षी भरे रहते थे वे भी ॠतु के उठने की राह देखा करते थे।

सम्पूर्ण चन्द्र की कांति को निहारते-निहारते न जाने कब ॠतु की आँखें धीरे-धीरे मुँद गईं और – ‘‘धीर समीरे जमुना तीरे, बसति बने वनमाली’’ पंक्तियां उसके हृदय और मस्तिष्क से होती हुईं उसकी आँखों में आ समाईं।शरद पूर्णिमा की रात के सन्नाटे में यदि एक ‘आर्ट-स्टूडेंट’ को गीत गोविन्द की रास के ये साक्षात् बिम्ब अपनी पूरी भव्यता के साथ सादे संगीत के वाद्यों के साथ और घुंघरुओं की झंकार धीरे-धीरे अपनी ख़ुमारी के आगोश में न सुला दें तो धिक्कार है।धिक्कार जयदेव के गीत गोविंद को और केलूचरण महापात्र के मनमोहक नृत्य को, सबने मिलकर नींद के मल्हारों में झूलती ॠतु को न जाने कब उसकी बाँह मोड़ कर उसपर उसकी गरदन टिका दी और न जाने ॠतु कितनी देर अपनी बाँह पर सिर रखे सोई रही और सुबह की मन्द-मन्द बयार में उसने ‘ऊँ- आँ’ करके वापस गरदन को नई मुद्रा में करवट लेने के लिए मना लिया। ‘एलिस इन द वन्डर लैंड’ और कालिदास की शकुन पक्षियों की तरह कबूतरों से घिरी हुई ॠतु जब उठी तब सूर्य का ताप और किरणें उसकी पतली पलक को पार कर उसे उठा चुकी थीं।उसने अपनी जीभ को पूरे मुँह में फिरा कर देखा पर उसे ज़रा भी नाश्ते के कॉर्नफ्लेक्स का ज़ायका नहीं आया, हाँ, इन हरक़तों ने उसे यह ज़रूर समझा दिया कि वह जिसे सुबह सकारे का सूरज समझ रही थी दरअस्ल वह सारा नज़ारा शाम का था।शाम के झुटपुटे को अनायास ही उसने सुबह का उगता सूर्य समझ कर उन सारे क्रिया कलापों को ‘एकमएक’ कर देना ॠतु जैसी सौंदर्य की उपासिका के साथ क्यों घटा, यह वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी।उसे लगा ही न हो यह ऊपरवाले की आँख मिचौली खेलने की नई भंगिमा है।ॠतु मन के झूले में झूलती अभी भी सुबह-शाम के बीच हिचकोले खा रही थी।फिर उसने अपनी ख़ुमारी को झड़काया और संध्या स्नान पूजन करने के बाद काम के लिए तत्पर हो गई।तभी वकील साहब ढेरों काग़ज़ों से लदे-फदे ॠतु की हाजरी में आकर खड़े हो गए।

ॠतु ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया और एक सेकंड भी नष्ट किए बिना ज़मीन-ज़ायदाद के काग़ज़ अच्छी तरह पढ़ लिए।प्रभु कृपा से ॠतु की कैमरा छाप स्मृति अभी भी क्षीण नहीं हुई थी इसलिए उसने सारा काम खटाखट पूरा कर लिया।

इसी बीच निर्मल आनंद से भरी एक घटना घटी।ॠतु की माँ कांता देवी ठेठ हरियाणवी थीं और लल्लो-चप्पो या चाशनी में लपेट कर कोई भी बात नहीं कहती थीं, बल्कि ॠतु के बाबूजी तो यहाँ तक कहते थे कि तुम्हारी माँ बहुत ही ‘लट्ठमार’ तरीक़े से बातचीत करती है।

घटना यों घटी- ॠतु की माँ ने अपनी सारी ज़मीन-ज़ायदाद अपनी बेटी के नाम कर दी थी और उस वसीयत के ‘एक्ज़िक्यूटर’ थे उसके पति, जो कि बहुत ही संकोची और नफ़ीस व्यक्ति थे।जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने उस वसीयत को छटका दिया और कहा, ‘‘माँ थे या भोत बड़ी गलती कर रह्या हो।थारी इतनी हेलियाँ और कटरा है पर थे थार्या बेटा नै एक कोटड़ी तक कोनी दी?’’

उनका इतना कहना भर था कि ॠतु की माँ आकर ॠतु के पति के बगल में बैठ गई और कहन लगीं ‘‘कॅवर जी, मै तो थानै बुद्धिमान समझै थी।अच्छा जरा मनै बताओ कि जो बेटा मेरी जीती कै जीवन सै ‘आउट’ हो ग्या, वै मेरी मरेड़ी के जीवन में कठै सै आ ग्या।’’ बेचारे ॠतु के पति तो लगे बगले झांकने और बस एक ही बात दोहराते रहे कि ‘‘ओहो! मेरी जीती कै से जीवन से ‘आउट’ हो ग्या तो मरेड़ी के जीवन में कठै सै आ ग्या।’’

डंके की चोट पर बात करने वाली माँ की भंगिमा से ॠतु ने बहुत कुछ सीखा और उसने भी निर्णय किया कि वह चटपट वसीयत और ट्रस्ट बना देगी।उसने उसी रौ में वकील साहब से कहा भी, ‘‘सर, आपको जँचे तो ट्रस्ट, वसीयत आदि भी अभी ही बना कर काम ख़त्म कर दें।’’ इस पर वकील साहब का तुरंत उत्तर था, ‘‘ॠतु जी, आपकी गति तो संसार की प्रत्येक गतिशील वस्तु से तेज़ है पर मैं ठहरा उम्रदराज़ प्रौढ़, मैं आज इस काम के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा, इसलिए इस काम को शांति से करने के लिए मुझे एकाध दिन का समय दे दीजिए।’’

ॠतु ने आज्ञाकारी शिष्या की तरह कहा, ‘‘सर, आप जैसा कहें, मेरी तो आदत ही हर काम को त्वरित गति से करने की है, पर आपका कहना सही है, हम इस काम को एकाध दिन में कर लेंगे।’’

एक-दूसरे को नमस्ते अभिवादन करते हुए इस बैठक का समापन हो गया।

(जारी)