वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

(गतांक से आगे)

विस्मयकारी है यह जानना कि वे एक-दूसरे से इतनी रली-मिली सहेलियां थीं कि जुड़वा बहनों को मात देती थीं।दरअसल प्रभावती देवी बांग्लादेशी जमींदारी ख़ानदान से ताल्लुक रखती थीं और कांतादेवी हरियाणा के करोड़पति ख़ानदान की बेटी थी।दोनों का मिलन स्थल कलकत्ता था।  यह तथ्य आश्चर्यजनक है कि दोनों की कद-काठी और रंग भी एक-दूसरे से बेहद मिलते-जुलते थे।इसलिए उन्हें अनायास ही जुड़वाँ बहन मान लेना कोई बड़ी बात नहीं थी।इतना ही नहीं बचपन बांग्लादेश में गुजारने के कारण वे वहाँ के बाशिंदों के बहुत क़रीब थीं।उनकी उठ-बैठ में दोनों जगहों का सलीका भी एकाकार हो गया था।बांग्लादेश के लोगों का आचार-व्यवहार यों भी एक तरह का खुलापन लिए होता है।इसलिए विमान से उतरते ही जब ॠतु ढाका यूनिवर्सिटी के चेयरमैन मुकुल उ़र्फ मुजिबुरहमान से गलबहियाँ करके मिली तो न तो प्रभावती देवी और न ही कांता देवी को अटपटा लगा, बल्कि वे दोनों उसी उन्मुक्तता से एक-दूसरे से चिपक गईं।तीन-चार वर्ष की उम्र से एक-दूसरे के हाथ में हाथ डालकर झुलाते हुए स्कूल जाना, लड़कों के सारे खेल खेलना अनायास ही ॠतु के व्यक्तित्व के अविभाज्य अंग हो गए थे।

मुकुल उन लोगों की तरह ही ऊँचे ख़ानदान का लड़का था और उसका अभिजात्य तो लखनऊ के नवाबों को भी मात देता था।

वे दोनों वैसे ही एक-दूसरे से सटे हुए, जब महल की गोल-गोल सीढ़ियाँ चढ़ कर बाईं ओर जा रहे थे, तभी उन्हें माँ प्रभावती देवी की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘बच्चो, तुरंत यहाँ आओ।’’

दोनों दौड़ते-से प्रभावती देवी के पास पहुँचे तो उन्होंने देखा कि एक बड़े कमरे में प्रभावती देवी ‘पंडारा’ बिखराए बैठी हैं।उनके चारों ओर चीज़ों का इतना बड़ा अम्बार था कि वे उसमें खोई हुई थीं।उन्होंने कांता माँ को भी वहीं बुला लिया था और वे दोनों इस बात पर तुली हुई थीं कि ॠतु को अधिक से अधिक सामान से लाद दें।ॠतु अपने समाज-सुधार स्वभाव के कारण कम से कम सामान लेना चाहती थी।ख़ैर, यह निर्णय उनमें से किसी के भी हाथ में कहाँ था?  उन्हें तो आगे हिदायतों से भरे कई हथ-लिखे नोट्स और चिट्ठियां मिलती जा रही थीं।अचानक एक ‘सातकल’ की लम्बी चाबी उनके हाथ आई जिस पर चिट चिपकी हुई थी, ‘कांता की बेटी के लिए, केवल वह ही इससे तिजोरी खोले।’

ॠतु को पुलकावलि के साथ ही ज़िम्मेदारी के बोझ की भी प्रतीति हो रही थी, पर काम तो करना ही है, सोचकर ॠतु ने वह चाबी उठाई और खट् से सातकल वाली तिजोरी खोल दी।

उस तिजोरी का यूं पानी की तरह खुल जाना वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को चकित कर गया।ॠतु खुद हैरान थी कि एक मिनट में बिना आवाज़ किए उस भारी भरकम तिजोरी का यों इशारे से खुल जाना उसे तिलस्मी कहानियों की तरह प्रतीत हो रहा था।उसके खुलने के पहले ऐसा लग रहा था मानों उसमें कारूँ के ख़जाने को ठूंस-ठूंस कर भर दिया गया है; और तिजोरी खुलते ही उसमें से जितनी तरह के हीरे-जवाहरात ज़ोरों की आवाज़ करते हुए बरस पड़े, यह भी उनके अनुमान के परे था।तभी एक और मोटी चिट्ठी ॠतु को मिली, जिसमें प्रभावती देवी ने साफ़-साफ़ लिखा था कि यह उनदोनों बहनों का धन है और वह दान में जाएगा और उसका स्वरूप क्या होगा वह बाद में वसीयत की तरह पुख़्ता ढंग से लिखा जाएगा।

ढाका की बारिश तो सदा ही जब-तब यत्र-तत्र-सर्वत्र फुहारों में बरसती रहती है।वह भला ॠतु और मुकुल की राह कैसे नहीं रोकती, पर वे दोनों कहने को तो छाते लेकर आए थे, पर भूल से भी उन लोगों ने छाता नहीं खोला था।वे इधर से उधर ‘बरबंडी’ मारते रहे थे, यह प्रमाण था इस बात का कि वे वहां के वातावरण में कितने अधिक घुले-मिले थे।

इतने सालों के बाद जब वे प्रभावती देवी के महलनुमा ज़मींदारी घर में घुसने लगे तो उन्हें लगा कि वे उस लम्बे-चौड़े महल में भूल-भुलैया की तरह खो जाएँगे, पर कुछ ही देर में उन्हें उसका पूरा नक्शा याद आ गया।वे उन सीढ़ियों पर, जिन पर वे कभी कुद्दक्कड़े मारते थे, खटा-खट चढ़ते-उतरते नज़र आए।

ॠतु और मुकुल का समय पर लगा कर उड़ रहा था।सर्वप्रथम तो तिजोरियों का संकट, तत्पश्चात बहुमूल्य वस्तुओं की सूची बना कर, ‘सूदबी’ या ‘क्रिस्टी’ के बिचौलियों की मार्फत उसके सही दाम लगवा कर उन्हें ‘सलटाना’।यदि इतना अनाप-शनाप धन मिला था तो दोनों ओर के दानों की सूची भी कम वज़नदार नहीं थी।

गरीब लड़कियों की प्राथमिक शिक्षा से शुरू करके वे जितना भी पढ़ना चाहें, उसके अनुरूप सारी सुविधाओं को उन्हें मुहैया करवाना आदि फ़रमाइशें निहायत छोटी फ़रमाइशें थीं, प्रभावती और कांता देवी की ख़ास फरमाइश थी- आधुनिकतम सुविधाओं से लैस ‘सुपर स्पैशलिटी’ अस्पताल का निर्माण।उनके संचालन का भार मुकुल और प्रभावती देवी की योजना के अनुसार उनके दत्तक बच्चों को संभालने को दिया जाना था।

यह तय हुआ कि बाहरी व्यक्तियों की जगह निजी लोगों का चयन ही ठीक रहेगा, दरअसल मुकुल और ॠतु दीर्घ समय से ढेरों ऐसे दत्तक पुत्र-पुत्रियाँ तैयार कर चुके थे जो उनलोगों के दातव्य अस्पतालों का लेखा-जोखा रखने को तैयार थे।इसलिए उनलोगों ने दोनों परिवारों में से व्यक्तियों का चयन कर लिया था।लगभग पन्द्रह व्यक्ति प्रभादेवी की दत्तक संतानों से और पन्द्रह व्यक्तियों का चयन कांता देवी के परिचित लोगों में से उनकी काबलियत के आधार पर चुन लिए गए।

जब एक से एक निष्ठावान और समर्पित युवा तन-मन-धन से किसी परियोजना में जुट जाएं तो स्वाभाविक है कि उसकी गति को किसी मापक यंत्र से भी नहीं मापा जा सकता।ऊपर से उन सबने मिलकर इस तरह उस काम को बाँट लिया था तो उसकी गति का कहना ही क्या? बावजूद इसके कि वे सब एक से एक धुरंधर थे और नि:शुल्क सेवा देने को तैयार थे।ॠतु ने सबको अन्य संस्थानों से अधिक मात्रा में मेहनताना देना तय किया था।ऊपर से ॠतु और मुकुल स्वयं का तो भूले से कभी नाम नहीं लेते थे पर उन लोगों पर लगातार अलंकारों की वर्षा करते रहते थे।मित्रों ने उनसे कहा भी, यदि इतनी अधिक प्रशंसा करोगे तो इनका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाएगा और ये किसी काम के नहीं रहेंगे।उनकी इस तरह की बातों को अनसुना कर ॠतु-मुकुल उन लोगों की शाबाशियों में कोई कोताही नहीं करते थे।शायद उनके इस तरी़के ने उन लोगों की प्रतिबद्धता को और गति दे दी थी।देवताओं के वास्तुकार विश्वकर्मा की तरह सुपर स्पैशलिटी अस्पताल का एक पूरा तल्ला सारे उपकरण और साज-सज्जा से लैस अधुनातन कसौटी पर खरा उतरता, सज-धज कर आ खड़ा हुआ।

‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ कहावत को सिद्ध करता वह नयनाभिराम अस्पताल भव्यता में विदेशों में ही नहीं, सारी दुनिया के अस्पतालों में अनोखा था।आखिर उसके ईंट-गारे में ॠतु का ढेर सारा प्रेम और मुकुल की बेइंतिहां श्रद्धा जो मिली हुई थी।