वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

(गतांक से आगे)

धीर गंभीर शीलवान का रूप धरे ॠतु ने बहुत ही शांति से ये सारे रूप विचारे पर भीतर ही भीतर उस चटपटिया देवी को यह हड़बड़ी मची हुई थी कि कैसे आगे का काम बढ़े और यह सब चारों ओर बिखरा जंजाल खत्म हो।यह सर्वविदित है कि इस लम्बे-चौड़े  कार्यव्यापार को मिनटों में सलटाया नहीं जा सकता था, पर यह बात तूफान मेल ॠतु की समझ से बाहर थी।

वह तो सुबह-सकारे ही नहा-धोकर बाहर आकर बैठ गई, गोया अभी आसमान से कोई लम्बा-चौड़ा विमान उतरेगा और ॠतु को आशीर्वाद देकर उसके हाथों में वो सारे कागजात रख देगा जिनको यथाशीघ्र ठिकाने लगाने को ॠतु परीलोक में उड़ रही थी कि उसे माँ के ‘हेले’ की आवाज़ सुनाई दी। ‘‘बेटा ॠतु, अनिल, बेटा विजय, बेटा कमल बच्चों तुम सब तुरंत नीचे आओ, अपने लोगों को तुरंत नानी बाड़ी चलना है, नानी बाड़ी चलना है।बेटा सब ज़रा जल्दी करो घर में इतना बड़ा आयोजन है और यदि हम ही देर से पहुँचेंगे तो सबको कितना बुरा लगेगा।’’ दरअसल कांतादेवी को खुद के भी देर से तैयार होने की शर्म आ रही थी।वैसे यह गनीमत थी कि नानी-बाड़ी और हमारा घर एक-दूसरे से एकदम सटे हुए थे, पर देर तो देर ही होती है।

दरअसल आज ॠतु ने नानाजी की तेरहवीं और सुख शय्या थी और चूंकि वे लगभग बानवे वर्ष की बड़ी उम्र में ढेरों सुख-समृद्धि से भरे हुए गए थे इसलिए उनका सारा ताम-झाम भी ज़ोरों का था।

कांतादेवी, ॠतु, विजय, कमल आदि संतानों और फलफूल मिठाई आदि से लदी -फँदी नानी-बाड़ी पहुँचते ही पूरे रौब से वहां के कामों से ऐसी एकाकार हो गईं जैसे वे ही वहाँ की अधिष्ठात्री देवी हों।ॠतु की मामी जी अर्थात् कांतादेवी की भाभी वैसे भी उनसे रौब और उम्र में हल्की पड़ती थीं।इसलिए वहाँ चारों ओर कांतादेवी की ही आवाज़ गूँज रही थी।

छोटे मामा पुरुषोत्तम दान लेने वाले इस पंडित से ख़ूब नाराज़ थे।उनका मानना था यह ‘गंजेड़ी-भंगेड़ी, नशेड़ी ब्राह्मण इतने चांदी के बर्तन, इतने सोने के ज़ेवर, इतनी बढ़िया रज़ाइयाँ इस नशेड़ी पंडित को महज़ यह कहकर कि वह सब कुछ ‘मंगतराय नानाजी’ को मिलेगा, देना पाप है, पर कांतादेवी बड़ी थीं और किसी का भी सुझाव नहीं मानती थीं।पुरुषोत्तम मामाजी मुँह फुलाये एक कोने में बैठे अपनी चुप्पी से अपनी नाराज़गी का इज़हार कर रहे थे।

तभी हवा में ज़ोरों से गूंजा,‘‘ऐ पुरुषोत्तम, ऐ! विजय, ऐ देवकी, ऐ कमल आओ सब के सब और इस पलंग ने उठाओ।’’ मारवाड़ियों में दानकर्ता ब्राह्मण देवता को पलंग पर बैठाकर झूला झुलाता है ताकि वह सारी सुविधाओं के साथ साथ स्वर्ग  पहुँच जाए। ‘पावहाड़िया’ का वह कंकाल सा ब्राह्मण जो नशा कर-कर के और भी सूख गया था, आराम से चढ़कर बैठ गया।पलंग के ऊपर मोटे-मोटे गद्दों और रेशमी रज़ाइयों के बीच उसका अस्तित्व न के बराबर था, पर वह था कि राजा की तरह इठला रहा था।दोनों हाथों की कोहनियों के बल बैठ कर अपनी बत्तीसी निकाले हुए चारों ओर का नज़ारा देख रहा था, इसलिए वह कभी बांएँ तो कभी कभी दांएँ झुक जाता था गोया वह किसी हवेली की ऊँची मुंडेर से जग का मुजरा कर रहा हो।बड़े लड़के तो मामाजी के पीछे-पीछे उसको देख-देख कर मुँह बिचका रहे थे पर ॠतु की उम्र के बच्चों में ख़राब-अच्छे समय का कोई संज्ञान तो था ही नहीं इसलिए वे आपस में ही-ही- कर रहे थे।

आकाश फटने की तरह जैसे ही कांतादेवी के ‘हेले’, ऐ पुरुषोत्तम, ऐ विजय, ऐ देवकी गूंजा वैसे ही उन कसरती जवानों ने हड़क कर पलंग को ख़ूब ऊँचा उठा दिया।अब क्या था! बेचारे ब्राह्मण देवता तो बेमौत ही मारे गए।ब्राह्मण जी की बत्तीसी अंदर घुस गई थी और वे जूड़ी के बुखार में ‘धुजते’ मरीज़ की तरह धूज रहे थे।मारे डर की उनकी आँखें उनके मरियल से चेहरे से बाहर निकली पड़ रही थी और वे बिना बात ही हाथ जोड़े माफ़ी की मुद्रा में घिघियाते नज़र आ रहे थे।उनके चेहरे की भंगिमा से कांतादेवी का हृदय द्रवित हो रहा था, पर वे चारों जवान तो अपनी मस्ती में सुनी को अनसुनी करते हुए उसी जोशों-ख़रोश से ब्राह्मणदेवता को आकाश की सैर करवा रहे थे।मन तो आख़िर ठहरा मन, वह कब अपनी तरंग में बह जाए इसका किसी को अंदाज़ नहीं था।अचानक उन जवानों ने पलंग को बाईं ओर से ऊपर की ओर उठा दिया या मन की लहर से ऐसा हो गया।पलंग के अचानक ऊपर की ओर उठने से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह पलंग व्यक्तिविहीन हो गया है और इस क्षण के ‘स्लोमोशन’ में वहाँ एक गंभीर सन्नाटा छा गया।जब तक इन सबमे हरकत लौटती तब तक तो माँ कांतादेवी की आवाज़ गरजी, ‘‘बिजैऽऽ धर पलंग नै नीचे’’ अब माँ की बात विजय भैया न सुने यह तो असंभव ही था, साथ ही पुरुषोत्तम मामाजी भी उस गर्जन से सकते में आ गए थे, पर सब मिलाजुलाकर स्थिति ऐसी बनी कि वह पलंग उन लोगों से छूट गया और इसलिए वह भी गर्जन करता हुआ धड़ाम से ज़मीन पर गिरा।कुछ ऊँचाई पर से आवाज़ करते हुए झटका खाते ज़मीन पर आ टिका।कांतादेवी का वश चलता तो वे सबको ज़ोरों से थप्पड़ लगातीं, पर इतने बड़े और पढ़े-लिखे लड़कों पर हाथ उठाने में उन्हें संकोच हुआ, इसलिए उन्होंने अपने गुस्से का इज़हार ज़ोरों से गर्दन झटक कर किया।यों भी उन अकेले का तो कोई दोष था भी नहीं।दरअस्ल सारी परिस्थितियों ने मिलाजुला कर अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार काम किया था।

खड़-खड़ऽऽ खटांग करके पलंग के नीचे आते ही सारे जवान लड़के गरदन लटका कर उस पलंग को घेर कर खड़े हो गए, केवल पुरुषोत्तम मामा जी निरासक्त से छिटके हुए थोड़ी दूरी पर बैठे थे।हालांकि उन जवानों के होंठों के किनारे से भी ‘फूक्ड’ ‘फूं’ करके रोकी हुई हँसी फूट रही थी, पर कांतादेवी के डर से बाहर नहीं आ रही थी।अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं ‘अर्जेन्ट कॉल’ हँसी की वैसी ही कॉल, इतनी ज़बरदस्त थी कि सबके भींचे मुँहों पर भी उन सबकी हँसी एक साथ ज़ोरों से फूट पड़ी।कांता ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें, जिन पर ‘डबलपावर’ का चश्मा लगा हुआ था, जब उनकी ओर घुमाई तो वे सारे सॉरी… सॉरी करते वहाँ से ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।

पूरे परिवार के साथ ॠतु, कांतादेवी और बाक़ी के लोग नानीबाड़ी से लौट आए।

होने को सांझ का झुटपुटा हो गया था।पर वे सब जब भी उन ब्राह्मण देवता को देखते, उन्हें हँसी आने लगती।

तभी अचानक एक नई बात घटी।कांता जी ने एक चिट्ठी, जो कि उनकी माँ प्रभावती देवी की लिखी हुई थी, निकाली और उसे ॠतु की ओर बढ़ा दिया।उस पर लिखा था ‘‘कांता की बेटी को मिले जब वो खुद इसे पढ़ने लायक हो जाए।’’

ॠतु ने वह मोटा लिफ़ाफ़ा लपक कर ले लिया।

वैसे भी नानी प्रभावती से ॠतु के गुण मिलते थे।बचपन से ही वह प्रभावती देवी की लाड़ली थी, ऊपर से उसकी प्रतिभा और अप्रतिम सुंदरता की भी वे दीवानी थी।ॠतु प्रभावती देवी के इतने सिर चढ़ी थी कि वे जब कभी भारत से बाहर भी गईं तो अपने साथ ॠतु को लाद कर ले गईं।हालाँकि उस छुटकी के साथ जाने से प्रभावती देवी को अकेलापन भरा हुआ पूरापन लगता था।

अब ऐसे इतिहासवाली नानी की मोटी चिट्ठी देखकर ॠतु को आनंद तो होना ही था।

(जारी)