वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

(गतांक से आगे)

गोल-गोल चक्कर बनाती, बलखाती सीढ़ियाँ, मेहराबदार खंभे और चारों ओर फैली हरीतिमा की अंतिम सीढ़ी पर खड़े होकर ॠतु ने अपनी दृष्टि दूसरी ओर घुमाई तो उस दृश्यमान दृश्य को देखकर उसे स्वयं अपने सौभाग्य से ईर्ष्या हो रही थी, क्योंकि सारे जीवन से प्यारी उसकी आँखों को पहली बार अब जाकर तृप्ति हुई थी।

ॠतु ने जब अपनी निर्धारित मेज़ के बारे में पूछा तो रिसेप्शन काउंटर से एक संभ्रांत व्यक्ति उठे और एकदम स्पष्ट और सुसंस्कृत भाषा में उसका पूरा परिचय लेने के बाद उन्होंने विस्तार से उसकी अपेक्षित पुस्तकों की सूची मांगी ताकि वह  पुस्तकों के उस महासागर में डूबने से बच जाए।ॠतु उनकी सूझ-बूझ और जानकारी देखकर उनकी कायल हो रही थी।रह-रह कर उसके मन में प्रभु की उस अहेतु कृपा के प्रति एक कृतज्ञता भाव भी उभर रहा था जैसा उसे प्रथम दिन अचानक श्रीवास्तव सर को अपने यहाँ देखकर हुआ था।दो-चार मिनटों में ही वे वापस आए और उन्होंने थोड़ा सा झुक कर ‘बाअदब, बामुलाहिज़ा’ की ‘टोन’ में ॠतु से कहा :‘आप ठहरी साहित्य की साधिका, इसलिए आपको तो वही मेज़ मिलनी चाहिए जो किसी बड़े साहित्यकार के नाम हो और किताबों के हृदय में स्थित हो, अर्थात् बीचों-बीच हो।आइए, आप इधर आइए।’ कहते हुए और ॠतु का मार्ग दर्शन करते हुए वे जिस मेज़ के सामने पहुँचे, वह ‘ग़ालिब’ को समर्पित मेज़ थी और उसके ऊपर-नीचे, बाएँ-दाएँ उर्दू की कलात्मक लिपि को और भी कलात्मक बनाते हुए कालजयी साहित्यकार ग़ालिब साहिब के हृदय  छूते मार्मिक कलाम उकेरे हुए थे।

काली महोगनी लकड़ी की वह मेज़ बिना नक्काशी के ही सैंकड़ों नक्काशीदार मेज़ों को मात दे रही थी।राम जाने वह मेज़ किस बाबा आदम के ज़माने की थी पर उसकी सतह और शरीर ऐसे चमक रहे थे गोया वह अभी-अभी पॉलिश करवाकर कारख़ाने से आई है।ॠतु का झक्की दिमाग़ फ़ालतू बातों की शोध करने में तो माहिर था ही, इसलिए वह इसी बात की तह में घुस गई कि आख़िर इस मेज़ का इतिहास क्या था और यह बनी कब थी?

नेशनल लायब्रेरी की उत्पत्ति की खोज में जुटी ॠतु उसे कई तरह के खानों में खोजती जा रही थी, पर उसके इतिहास या भूगोल का कोई भी सिरा उसके हाथ नहीं आ रहा था।ठीक उसी समय नृसिंह भगवान की तरह वही मिस्टर चंद्रा, जो वहाँ के सबसे अधिक तालीमयाप्ता लायब्रेरियन थे, अचानक वहाँ प्रकट हो गए और अपनी उसी लखनवी तहज़ीब के अनुरूप पहले दिन की तरह ही ॠतु से पूछा कि वे ॠतु को काफ़ी देर से परेशान देख रहे हैं, क्या वे उसकी काई सहायता कर सकते हैं? दरअस्ल ॠतु की टेबल के ठीक सामने मि.चंद्रा की भी टेबल थी और एक मारवाड़ी घर की महिला इतनी विपरीत परिस्थितियों में पी-एच.डी. कर रही है, सोच कर वे अनायास ही ॠतु के प्रति विशेष कृपालु हो गए थे।जब कोई आपको इतनी इज्ज़त देता हो, तो उससे कोई भी बचकाना प्रश्न पूछने में हिचक होती है, इसलिए ॠतु ने बहुत ही संकोच से झिझकते हुए उन्हें अपनी जिज्ञासा बता दी।मि.चंद्रा ठहरे समुद्र से गहरे और आकाश-सी विस्तृत संवेदना के धनी।उन्होंने कहा ‘‘आज मुझे यह देखकर इतना आनंद हो रहा है कि कोई जिज्ञासु तो ऐसा आया जिसे इस पुस्तकालय के उद्भव, विकास और इतिहास में इतनी गहरी रुचि है, वर्ना आजकल के शोधार्थी तो केवल अपने मतलब के विषय से वास्ता रखते हैं।’’ यह कह कर उन्होंने ॠतु को अपने पीछे आने का इशारा किया और विशालकाय लायबे्ररी के एक कोने में ले जाकर उसे पुरानी-धुरानी पुस्तिकाएं देते हुए कहा ‘‘हालांकि इसमें आपको अपने प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे, पर इनकी जीण-शीर्ण काया देखकर मेरा मन नहीं कर रहा कि आप अकेली इससे माथा फोड़ें।आइए, मैं आपके साथ चलता हूँ, आपको जितने प्रश्न पूछने हों, आप बेखटके पूछ सकती हैं।’’

अब तक ॠतु ने उनके ‘बायोडाटा’ से यह जान लिया था कि वे बड़े भारी ‘इतिहास विद्’ हैं।उन्होंने इसलिए पहला प्रश्न पूछते ही बताया कि १८३६ सन् में इसकी स्थापना ‘कलकत्ता पब्लिक लायबे्ररी’ के नाम से हुई थी।१९४८ में इसे राष्ट्रीय पुस्तकालय का दर्जा दिया गया और इसका नाम ‘नेशनल लायब्रेरी’ कर दिया गया।आपकी नज़र एकदम सही है कि ये मेज़ वगैरह ‘सी.लेजरस कम्पनी पेरिस’ की ख़ास महोगनी लकड़ी से बनी हुई है।महोगनी लकड़ी को कीड़े भी नहीं लगते और यह बहुत ही भारी  होती है, पर ॠतु जी, यदि आप मेज़ पर ही अटक जाएँगी तो पूरी लायब्रेरी देखकर आपका क्या हाल होगा?

‘‘आपने घुसते वक़्त सीढ़ियाँ और कोरिन्थेनियन खंभे तो देखी ही थीं और आप यदि सेंट्रल हॉल में खड़ी होकर चारों ओर का नज़ारा देखेंगी तो गश ही खा जाएँगी! आपके प्रश्नों के ढेर इतने बड़े होंगे कि आपकी थीसिस उसी में खो जाएगी।इसलिए अब आप इस शोध को विराम दीजिए और जब जी आए गूगल पर इसका संक्षिप्त दृश्य देख लीजिए।आपको वह भी इतना नयनाभिराम लगेगा कि आप उसके सौंदर्य में खो जाएंगी।’’

यह कहते हुए मि.चन्द्रा वापस ॠतु की मेज़ तक लौट आए।ॠतु जैसे बच्चे किसी जादूगर को अचरज भरी आँखों से देखते हैं, वैसी ही भंगिमा से लायब्रेरी और मि.चंद्रा को कुछ देर तक देखती रही।

जब श्रीवास्तव सर आए तो उन्होंने ॠतु के इस कांड के लिए उसकी ऐसी की तैसी कर दी।आमतौर पर वे ॠतु की जिज्ञासु प्रवृत्ति की प्रशंसा करते रहते थे, पर जब उन्हें पता चला ॠतु ने आज का पूरा दिन नेशनल लायब्रेरी की शोध में नष्ट कर दिया है तो उन्होंने महादुखी स्वर में ॠतु से कहा :‘‘ॠतु जी, यदि आप इसी तरह भटकती रहीं तो आपकी इस थीसिस में आराम से दस-बारह साल और लग जाएंगे।कृपया मुझे साफ-साफ बता दीजिए, आप चाहती क्या हैं? फ़ालतू बातों से मेरा और आपका समय नष्ट करना या कोई ठोस काम करना?’’ वे इसी तरह के कई उपालंभों से ॠतु को सज्जित करते रहे और ॠतु सिर झुकाए अंगूठे से ज़मीन कुरेदती रही।जब सर का गुस्सा कुछ शांत हो गया तो ॠतु ने सिर झुकाए-झुकाए माफ़ी मांगी और कहा, ‘‘भविष्य में वह एक मिनट भी आलतू-फ़ालतू बातों में नहीं गँवाएगी।’’

उसकी आँखों में तिरते पानी को देखकर दया के सागर बेचारे श्रीवास्तव सर ‘मरूँ’ ‘मरूँ’ हो गए और ॠतु के सिर पर हाथ रखकर कहने लगे, ‘‘ॠतु जी! आप मेरी विशेष स्नेह-पात्रा हैं, इसलिए आपकी कोई भी ग़फ़लत मुझसे बर्दाश्त नहीं होती है।आशा है, आप इसे अन्यथा नहीं लेंगी।’’

श्रीवास्तव सर, के ये वचन सुन कर ॠतु इतनी शर्मिंदा हुई कि उसे लगा यदि धरती फट जाए तो वह उसमें समा जाए।उसने मन ही मन कसम खाई की वह श्रीवास्तव सर की सारी हिदायतों का मन प्राण से पालन करेगी।

दूसरे दिन से ही ॠतु अपनी पुरानी दिनचर्या पर लौट आई और वह उगते सूरज को तो देखती थी पर डूबते सूरज की उसे कोई भी खोज-ख़बर नहीं रहती थी।

आख़िर वह ठहरी ज़िद्दी ॠतु, वह नोट्स पर नोट्स बनाती जाती थी और उन्हें देख-देख कर श्रीवास्तव सर, खुश होते रहते थे।

‘धर मँजला, धर कूचाँ’ में यात्रा करते हुए ॠतु ने कब पन्ने पर पन्ने लिख मारे, इसका होश न तो ॠतु को था, न ही उसके सर को।दिन, सप्ताह, महीने नहीं, साल दर साल ॠतु जी का लिखना चलता रहा और श्रीवास्तव सर का उसे जाँच कर उसकी प्रशंसा में आकाश-पाताल एक करना।कितना समय हो गया था, इसका होश न तो गुरु को था न ही उनकी चेली को।

भला हो ॠतु के ससुर का जो अत्यन्त मेधावी और हवा का रुख समझने में बेजोड़ थे।वे लगातार ॠतु पर ध्यान दे रहे थे।जो घर के बीचों-बीच रखी हुई खाने की बड़ी मेज़ पर पढ़ती थी।उनकी चौकस निगाहें ॠतु की सारी गतिविधियों पर नज़र रखती थीं।जब उन्होंने देखा कि थीसिस के पन्नों का पहाड़ बन गया है तब उन्होंने बहुत ही विनम्रता और मीठे स्वर में श्रीवास्तव सर को पूछा, ‘‘सर, ॠतु की यह थीसिस क्या मेरे जीते जी पूरी हो जाएगी? कृपया अब विचार करके इसे विराम दे दीजिए।’’

पू.बाबूजी की यह बात सुनते ही ॠतु बिजली की गति से उठी और उसने अपने प्रिय सेवक श्री सीताराम यादव से कहा कि वे ऊपर की आलमारी से वे सब काग़ज़ लेकर आएँ जो वर्षों से उस आलमारी में एहतियायत से रखे जा रहे हैं, जिसका नाम ही है ‘किताबों की आलमारी’।

पुस्तक-कीट श्रीवास्तव जी भी उनकी इस बात से सजग हो गए और उन्होंने ॠतु की थीसिस का यथाशीघ्र समापन करने की ठान ली।

आलमारी में ८०४ फुल स्केच पन्ने एकदम सजे हुए रखे थे जो कि किसी भी पी-एच.डी. के छात्र के मान से काफी अधिक थे।श्रीवास्तव सर के साथ मिलकर ॠतु ने कई घंटों तक परिश्रम किया और उन ८०४ पन्नों में से एकदम चुस्त लगभग ३०० पन्ने छाँट लिए।

ॠतु पर सीताराम जी के अनगिनत उपकार हैं।कहा जा सकता है, जैसे माँ अपने सतमासिए बच्चे को पालती है, उसी भाव की पूजा करते हुए सीताराम जी ने ॠतु के सारे काम पूरे समर्पण से किए।उनका समर्पण भाव समुद्र की तरह गहरा था।ॠतु जब पढ़ती थी तब सीताराम जी ने स्वयं को भी शिक्षित किया ताकि वे ॠतु की हर इच्छा पर खरे उतरें।स्वयं को शिक्षित करने के बाद उन्होंने केवल और केवल ॠतु के काम आने लायक सारी जिम्मेदारियाँ भी बिना कहे अपने सिर पर उठा लीं।पढ़ने-लिखने और सामाजिक कार्यों में पूर्णकालिक डूबे रहने के कारण कहा जा सकता है कि उन्होंने ॠतु के दोनों बेटों को न केवल पाला, बल्कि दोनों बच्चों को रामायण आदि की कहानियाँ भी उन्होंने ही राजगोपालाचारी की पुस्तक से पढ़-पढ़ कर सुनाई थी।उन्होंने ही एम.ए. के सोलह पर्चों के नोट्स संभाले और जब ॠतु ने लिखना शुरू किया तब उन्होंने उसके शुरुआती ड्राफ्ट पढ़कर उनमें एकाध अच्छे सुधार भी सुझाए।ॠतु के लिखे को वो कितनी तन्मयता से पढ़ते थे।इसका एक सशक्त उदाहरण यह है कि जब ॠतु का मौलिक लेखन चल रहा था, तभी ख़बर आई कि कल ॠतु का ‘वायवा’ है।

‘‘आपलोग अंतिम दिन सूचना देते हैं’’ कहती हुई ‘वायवा’ की अधिकांश लड़कियाँ ऑफिस में क्लर्क बगैरह से माथा लगा रही थी, कि तभी ॠतु के तारनहार वायसचांसलर महोदय यह शोर सुनकर वहाँ आ निकले, उन्हें देखते ही ॠतु ने कहा ‘‘सर, कौन से कमरे में वायवा देना है, यह पता नहीं चल रहा है’’। ‘‘क्या आप ‘वायवा’ देने को प्रस्तुत हैं?’’ ॠतु की गर्दन ना में तो कभी हिलती नहीं थी, इसलिए उसकी हामी देखते ही वे बोले, ‘‘आप मेरे साथ आइए।’’ एक बड़े कमरे में तीन प्रोफेसर नुमा व्यक्ति बैठे, परीक्षार्थियों की राह देख रहे थे।उन्होंने तुरन्त ॠतु से प्रश्न पूछने शुरू कर दिए।ॠतु का तो मन था वे कुछ अधिक प्रश्न पूछते पर उन तीनों को ही ॠतु के उत्तर अत्यधिक पसंद आए थे, उनलोगों ने ॠतु को तुरन्त ‘वायवा’ में पास कर दिया।यह प्रश्न कि ‘ॠतु अब करेगी क्या?’ औरों को ही नहीं स्वयं ॠतु को भी परेशान कर रहा था कि सीताराम जी लालरंग की मोटी ‘फ्लैट फाईल’ लाकर ॠतु के हाथ में यह कह कर धर दी कि बहूजी, हम जानबूझकर आपको यह फाईल आपकी पढ़ाई के बीच में नहीं दिए थे।यह फाईल आपके मायके के पुराने कागज़ों में निकली थी।

ॠतु ने उसे उलट-पुलट कर देखा और यह देखकर हैरान रह गई कि यह वही फाइल है जिसे ढूंढते हुए वह साठ वर्ष पहले मल्लिक राजबाड़ी के बगलवाली मारवाड़ी राजबाड़ी में गई थी और बुआ और काका ने उसे साफ मना करते हुए काफ़ी डाँट पिलाई थी।इतिहास को वर्तमान में उपस्थित देखकर ॠतु मुस्कुराई और बोली,‘‘यही सही समय था इस फाईल के मिलने का’’, कहते हुए उसने फाईल को अपने सिर से छुवाया और उसे एक ओर रख दिया।

प्रभावतीदेवी कहानी पढ़कर कहा ‘‘बहूजी, यह आपने क्या किया, इतने सुन्दर प्लाट पर तो आपको उपन्यास लिखना चाहिए था।इस पर ॠतु ने तमतमा कर उत्तर दिया ‘‘भैया, लगता है आपका माथा सूज गया है? भाई, मैंने दो-चार कहानियाँ क्या लिख दीं, आप सबको लगने लगा है कि मुझे तो लिखने में महारत ही हासिल हो गई है और अब मुझे उपन्यास लिखना चाहिए।’’ बाद में जब दिल्ली से कमल किशोर गोयनका ने भी यही लिखा तब ॠतु को झक मार कर ‘प्रभावतीदेवी’ को उपन्यास का चोला पहनाना ही पड़ा।आश्चर्यजनक ढंग से इस उपन्यास ने बहुत ख्याति प्राप्त की और ढेरों पुरस्कार प्राप्त किए।इसके बाद तो ॠतु को उपन्यास लेखन का चस्का लग गया और उसने कई उपन्यास भिन्न-भिन्न भावभूमि के लिख लिए, मसलन हरियाणा की मिट्टी से गढ़ी हुई अभिजात्य परिवेश में रची बसी और वहीं के अभिजात्य परिवेश में पली बढ़ी ‘फूलाँ बाई’ है, तो राजस्थान के बीहड़ स्थानों के रहवासी बंजारों की गाथा कहती ‘दाखी देवी’ है।इनकी बोली और पहरा आदि में आदमकालीन संस्कृति के अवशेष साफ़ नज़र आते हैं, लेकिन इनमें से एक उपन्यास एकदम आधुनिक तर्ज का ‘लाल बत्ती की अमृत कन्याएँ’ है जिसमें वेश्याओं के प्रमुख इला़के सोनागाछी में शारीरिक व्यापार करने को बाध्य लड़कियों की व्यथा-कथा है।इस तरह कुल मिलाकर सत्रह-अट्ठारह किताबें, जिनमें यात्रा वृत्तांत, आत्मकथा, कोश, कहानी संग्रह आदि सभी कुछ ॠतु जी ने लिख ली थी।आश्चर्यजनक ढंग से ये सभी रचनाएँ अनुभूत सत्य का खंभा पकड़ कर लिखी गई हैं और ये सभी नारीशक्ति की पक्षधर हैं।

(जारी)