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चर्चित कहानीकार।अद्यतन कहानी संग्रह ‘श्यामलाल का अकेलापन’, उपन्यास ‘तीन ताल’।संप्रति ‘नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली में सहायक संपादक। |
पिछले दो-तीन दशकों से हिंदी कहानी की मुख्यधारा में ऐसी कहानियों को ज्यादा महत्व मिलता रहा है, जो समाज के बड़े संकटों की शिनाख्त करती हैं और प्रचलित विमर्शों से जुड़ती हैं।ऐसी कहानियां अपने ढांचे में औपन्यासिक विस्तार लिए होती हैं और मूल कथ्य के अलावा ढेर सारे अन्य समाज विषयक तथ्यों को समेटे रहती हैं।ये किसी न किसी निष्कर्ष या नाटकीय परिणति तक अनिवार्य रूप से पहुंचती हैं।इस संरचना वाली कुछ यादगार कहानियां जरूर सामने आईं, मगर अब यह एक रूढ़ि बन गई है और बेजान, कृत्रिम व कुछ-कुछ रिपोर्ताज सी दिखने वाली कहानियों का अंबार लगता जा रहा है, जिनमें जिंदगी की धड़कन और सहजता नहीं मिलती।हालांकि इसी के समानांतर अनेक कहानीकार इस ढांचे से अलग कहानियां भी लिख रहे हैं।ऐसा नहीं है कि इनमें बदलता समय दर्ज नहीं होता या ये सामाजिक बहसों या विमर्शों से निरपेक्ष हैं, लेकिन ये चौकाऊं नहीं हैं।ये तोड़-फोड़ या कोई विस्फोट करने के मकसद से नहीं लिखी जा रही हैं।ये अनावश्यक रूप से नाटकीय भी नहीं हैं।ये उतनी ही नाटकीय हैं, जितना जीवन है, ये हमारे जीवन की तरह ही सहज-साधारण और अनगढ़ हैं इसलिए प्रामाणिक भी हैं।
साधारण परिस्थितियों में निहित कथा तत्व या कहानीपन को तलाश लेना आसान नहीं होता।कई बार ऐसी कहानियां कहानी के बने-बनाए ढांचे में फिट भी नहीं होतीं।वे कहानी जैसी नहीं लगतीं।कई बार तो उनमें कोई ‘उत्तेजक बिंदु’ या ‘ट्रिगर प्वाइंट’ भी नहीं होता।कहानी का एक गुण इन्हीं छोटी-छोटी चीजों को रेखांकित करना माना गया है और इसलिए उसे ‘स्लाइसेज ऑफ लाइफ’ भी कहा गया है।ऐसी कहानियां आमतौर पर साधारण चरित्रों के भीतर निहित असाधारणता को उद्घाटित करती हैं।
यह वाकई सुखद है कि इस तरह की कहानियां आज की तारीख में चार पीढ़ियों के कहानीकार लिख रहे हैं।हाल में ऐसे ही कुछ कहानीकारों के कहानी संग्रह आए हैं, जो चर्चा में हैं।
नर्मदेश्वर का कहानी संग्रह है- चौपाल।नर्मदेश्वर मुख्यतः गांवों-कस्बों की कहानियां लिखते हैं।गांवों और कस्बों के धीमे चलने वाले जीवन की तरह उनकी कहानियां धीमी चलती है, जैसे शांत लहर पर एक नाव चली जा रही हो।ऐसा नहीं है कि गांवों-कस्बों के जीवन में टकराव नहीं है, उथल-पुथल नहीं है, उतार-चढ़ाव नहीं है, पर नर्मदेश्वर की नजर इनसे परे रोजमर्रा के उन प्रसंगों पर है, जो जीवन के विस्तृत प्रवाह का एक छोटा हिस्सा भर हैं और जो प्रायः अलक्षित रह जाते हैं।
हमारा जीवन छोटी-छोटी खुशियों, छोटी-छोटी आशाओं-आकांक्षाओं और छोटी-छोटी लड़ाइयों के बीच अपनी राह तय करता है।कहानी और प्रकारांतर से साहित्य से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह मनुष्य के चरित्र को उद्घाटित करे, खासकर अच्छाइयों या विशिष्टताओं को उजागर करे।मतलब यह बताए कि एक मनुष्य में क्या संभावनाएं हो सकती हैं।मनुष्य और कितना बेहतर हो सकता है।नर्मदेश्वर की कहानियों में यह खोज दिखती है।इनकी कई कहानियों के पात्र बेहद साधारण औऱ कमजोर लोग हैं पर वे अपने स्वभाव और चरित्र में असाधारण हैं।जैसे ‘धर्मसकंट’ शीर्षक कहानी का बसंत बिंद।वह एक छोटा किसान है जो ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर खेती करता है जबकि ठीक उसी के बगल में उसने अमरूद का बाग़ लगा रखा है।इनके अलावा उसने अपने मित्र कुंदन पासी के साथ मिलकर अधिया पर किसी और की जमीन पर खेती का जिम्मा भी ले ऱखा है।उस इलाके में बड़ी संख्या में नीलगायें रहती हैं जो अकसर आकर फसल चट कर जाती हैं।नीलगायों से बचाव के लिए बसंत और कुंदन तरह-तरह के उपाय करते रहते हैं।उन्होंने बिजूका बना रखा है।वे खेतों के बीच मचान पर रात बिताते हैं।नीलगायों को डराने के लिए कभी-कभार पटाखे जलाते हैं।एक रात वे ताड़ी पीकर गहरी नींद में सो जाते हैं।सुबह उन्हें बगीचे में नीलगायों की मौजूदगी के निशान दिखाई पड़ते हैं तो लाठी लेकर दौड़ते हैं।सारी नीलगायें भाग जाती हैं पर नीलगाय का एक बच्चा लाठी की मार से गिर जाता है और उठकर भाग नहीं पाता।बसंत बिंद उसे देखकर परेशान हो उठता है।वह उसे खटिया पर उठाकर अपने घर ले आता है।उसे दूध पिलाता है।सारे लोग उसे कोसते हैं कि जो किसानों का सबसे बड़ा दुश्मन है, बसंत उसकी सेवा-शुश्रूषा कर रहा है।वह उसे घर में रखना चाहता था पर भारी विरोध के कारण उसे वापस बगीचे में ले आया।वह लगातार उसे लेकर परेशान रहा और ठीक से सो भी नहीं पाया।दूसरे दिन उसने देखा कि एक नीलगाय आकर उसकी फसल खा रही है।वह बच्चा दौड़कर उसके पास गया और उसके थन से दूध पीने लगा।बसंत ने उसकी मां को कुछ नहीं कहा।उसे फसल खाने दिया।फिर जब वह बच्चा अपनी मां के साथ चला गया तो बसंत ने राहत की सांस ली।
बसंत के भीतर की यह करुणा और ममत्व ही उसे असाधारण बनाता है।वह एक सामान्य किसान ज़रूर है पर इस कहानी में उसके चरित्र की एक अलग विशिष्टता उभरकर आई है।यहां वह अपने निजत्व के साथ चित्रित हुआ है।इस तरह यह कहानी रेणु की परंपरा से जुड़ती है।रेणु में भी साधारण पात्र अपना एक निजी वैशिष्ट्य लिए सामने आते हैं।वे प्रारूपिक पात्र नहीं होते।
नर्मदेश्वर की कहानियों की संरचना भी रेणु की कहानियों की तरह है, जिनमें घटना विशेष पर ज़ोर नहीं होता।वहां मनोभावों और परिवेश का चित्रण ज्यादा मायने रखता है। ‘विदाई’ लॉकडाउन की पृष्ठभूमि में लिखी गई है।महानगर से निकले ढेर सारे मज़दूर एक गांव से गुजरते हैं।गांव के छोटे किसान और मजदूर उन्हें अपने यहां शरण देते हैं।उन्हें अपने रिश्तेदार की तरह रखते हैं।बाहर से आने वाले मजदूरों में एक महिला गर्भवती है।गांव वाले प्रसव तक उसके परिवार को रोक लेते हैं और उसका खूब खयाल रखते हैं।जब बच्चे का जन्म होता है, तब उत्सव का वातावरण बन जाता है।फिर मजदूर दल विदा लेता है।समाज का कमजोर वर्ग अपने ऊपर आए संकट को किस तरह मिल-जुलकर झेलता है, यह उसकी एक मार्मिक दास्तान है।लेकिन इसी संकट में समाज का दबंग तबक़ा किस तरह अपने फ़ायदे देखता है, यह ‘कोरनटीन’ बताती है।गांव के मुखिया जी कोरोना के दौर में शहरों से लौटकर गांव पहुंचे मज़दूरों को क्वारंटीन करने के बहाने अपने बगीचे में शरण देते हैं और वाहवाही लूटते हैं।लेकिन इसके पीछे उनका स्वार्थ यह है कि उनके बगीचे की रखवाली हो जाए।
इसी तरह ‘चौथा आदमी’ भी एक मामूली आदमी को प्रतिष्ठित करती है।किसी क़स्बे के नामी वकील अपने एक मित्र और एक जूनियर वकील के साथ पिकनिक मनाने चलते हैं।रास्ते में उन्हें एक अजनबी मिलता है जो बताता है कि वकील साहब ने उसे जेल से छुड़वाया था।वह वकील साहब का अहसानमंद है।लेकिन उसकी मौजूदगी वकील साहब और उनके दोस्त को खटकती है।वे उसके आने को रंग में भंग पड़ने की तरह देखते हैं।उन्हें लगता है यह व्यक्ति जरूर खाने के लोभ में उनके साथ लग गया है।वे उससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं।लेकिन कदम-कदम पर उन्हें मुसीबतों का सामना करना पड़ता है और वही व्यक्ति उनकी मदद करता है।वही उनका खाना भी बना देता है और अचानक उफनाई नदी की बाढ़ से उनकी जान भी बचाता है।फिर अपना काम कर वह चला जाता है।एक मामूली सी घटना के ज़रिए कथाकार ने वर्गीय चरित्र को उजागर किया है।मध्यवर्ग का जीवन जिस कमज़ोर वर्ग पर निर्भर है, उसे ही वह हिकारत से देखता है।क़स्बे की ही कहानी है ‘स्वेटर’ जिसमें एक निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति बाज़ार में ख़ुद को उलझा हुआ महसूस करता है।
‘फन्दा’ भारतीय किसानी जीवन की मार्मिक गाथा है।मुन जी एक किसान है, जिसकी ज़मीन बांध के लिए अधिगृहीत की जाती है, मगर लालफीताशाही के कारण मुआवज़ा समय पर नहीं मिल पाता।मुन जी का जीवनयापन कठिन हो जाता है।इस बीच बहन की शादी के लिए उसे कर्ज़ लेना पड़ जाता है, जिसे वह समय पर नहीं चुका पाता।महाजन की धमकी के बाद मुन जी के लिए आत्महत्या करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं रह जाता।वह अपने लिए रस्सी का फंदा तैयार करता है और गले में डाल लेता है, लेकिन ऐन वक्त पर उसे अपने बैल की आवाज़ सुनाई देती है।उसे याद आता है कि उसके बैल भूखे हैं।अपने बैल को भूखा छोड़कर जाना उसे गवारा नहीं होता और वह खुदकुशी नहीं करता।
एक किसान के मनोविज्ञान को बड़ी बारीकी से नर्मदेश्वर ने पकड़ा है।एक किसान के लिए अपने जीवन-मरण के प्रश्न से ज्यादा अपने पशुओं की देखभाल और खेत की हिफाजत अहम है।वह इसके लिए अंत-अंत तक जूझता रहता है।
हिंदी में पिछले दिनों ग्रामीण और कृषि जीवन पर अनेक कहानियां लिखी गई हैं, लेकिन उनमें सामाजिक-राजनीतिक और जातिगत संघर्ष प्रमुखता से चित्रित हुआ है।उन पर दलित और स्त्री विमर्श इतना हावी रहा है कि कई बार उनके चरित्र बिलकुल टेलर मेड कैरेक्टर लगते हैं।ऐसा लगता है कि पहले से एक तय निष्कर्ष के तहत कहानियां लिखी गई हैं।उनमें गांवों का सहज जीवन, परिवेश और रोजमर्रा जिंदगी का राग-विराग कम ही दिखता है।किसानों को लेकर भी कुछ तयशुदा नतीजे और फार्मूले दिखते हैं।नर्मदेश्वर की कहानियां इस मायने में भिन्न हैं।वे किसानी जीवन को अच्छी तरह समझते हैं।वे गांवों के जीवन में धंसकर लिखते हैं।दरअसल उनकी कहानियां एक इनसाइडर की कहानियां हैं, इसलिए प्रामाणिक लगती हैं।एक उदाहरण देखिएः ‘आलू बोने का समय आ गया था।आलू के खेत कई चास जोतने पड़ते हैं और हर चास के बाद हेंगा से मिट्टी भी तोड़नी पड़ती है।इसलिए मुन जी रकबे के अनुसार ठेका तय कर लेता था।काम अधिक बढ़ जाने पर वह कुरूर चलाने नहीं जाता था।गांव में हल-बैल अब कोई नहीं रखता था।भाड़ा पर ट्रैक्टर लिया और खेत जुतवा लिया।कौन सानी-पानी करने जाए, गोबर-पानी का झंझट ऊपर से।लेकिन आलू के खेत हल-बैल के बिना नहीं बनते थे।’
‘चास’ या ‘कुरूर’ जैसे शब्द ग्रामीण जीवन और अंचल विशेष के शब्द हैं।इस तरह का प्रयोग वही कर सकता है जो स्थानीय जीवन को बखूबी समझता हो।नर्मदेश्वर की कहानियों में ग्रामीण जीवन के डिटेल्स भरे हुए हैं।उनकी कहानियों के ज़रिए हमारे सामने आज के गांवों का यथार्थ अपनी पूरी जटिलता के साथ आता है।
नर्मदेश्वर से संवाद
जिज्ञासा: आपकी कहानियों के गांव में जातिगत और राजनीतिक पहलू न के बराबर हैं।ऐसा क्यों?
नर्मदेश्वर: मेरी कहानियां मानवीय और सामाजिक मूल्यों की पक्षधर हैं।इनमें सायास आरोपित जाति और राजनीति नहीं नजर आएंगी।फिर भी इनके पात्र, प्रसंग और घटनाएं अपने समय की राजनीति से निरपेक्ष नहीं।राजनीतिक बोध इनके परिप्रेक्ष्य में है।
जिज्ञासा: क्या देश में बढ़ते शहरीकरण के कारण ही हिंदी कथा परिदृश्य में गांवों की उपस्थिति कम हो गई है?
नर्मदेश्वर: गांव के अनपढ़ मजदूरों और पढ़े-लिखे लोगों की तरह लेखकों को भी रोजी-रोटी की तलाश में शहरों में जाकर बसना पड़ता है।कालांतर में गांव का अनुभव-संसार उनकी स्म़़ृतियों में क्षीण होने लगता है और वे अपने नए परिवेश से प्रभावित होकर शहरी जीवन की कहानियाँ लिखने लगते हैं।कुछ ऐसे कहानीकार भी हैं, जिनकी कहानियों में गांव बंबइया फिल्मों की मोटिफ की तरह आता तो है किंतु वे ग्रामीण जीवन के संघर्षों का चित्रण करने की जगह यौन-संबंधों की कहानियां लिखने लगते हैं।खुशी की बात यह है कि आज भी दस-पंद्रह कहानीकार ग्रामीण जीवन पर लगातार प्रामाणिक और अच्छी कहानियां लिख रहे हैं।
जिज्ञासा: कहानी किसी एक छोटे प्रसंग पर होनी चाहिए या उसमें व्यापक सामाजिक-आर्थिक हालात का चित्रण होना चाहिए?
नर्मदेश्वर: किसी एक घटना और छोटे प्रसंग पर आधारित होकर भी कहानी अपने समय के व्यापक सामाजिक-आर्थिक हालात का प्रामाणिक चित्रण करने में समर्थ हो सकती है।यह जरूरी नहीं कि कहानी लंबी ही हो।
वरिष्ठ कथाकार शंकर के संग्रह ‘एक बटा एक’में भी ज्यादातर जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को कहानी का विषय बनाया गया है।उनमें एक तरफ रोजमर्रा जीवन की भागदौड़ और तकलीफे हैं, तो दूसरी तरफ उन्हीं में छुपी हुई खुशियां और उम्मीदें भी हैं।शंकर की कहानियां मध्यवर्ग के इर्द-गिर्द घूमती हैं।वे नौकरशाही की दुनिया को बखूबी समझते हैं और उसकी विसगंतियों को उजागर करते हैं।
संग्रह की पहली ही कहानी ‘लपटें’ हमारी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को अपने तरीके से एक्सपोज करती है।यह बताती है कि कुछ भ्रष्ट राजनेताओं, अफसरों, कारोबारियों, अपराधियों और दलालों के गठजोड़ द्वारा किस तरह संसाधनों को लूटा जा रहा है।यह गठजोड़ इतना खतरनाक है कि अपने रास्ते में आने वाले व्यक्ति की हत्या करने में भी नहीं हिचकता।लपटें कहानी इस संग्रह में अपवाद की तरह है, क्योंकि इसका दायरा बेहद व्यापक है और संरचना भी संग्रह की अन्य कहानियों से भिन्न है।यह किसी क्राइम थ्रिलर की तरह है जो धीरे-धीरे परत दर परत खुलती जाती है और हमारा सामना एक भयावह यथार्थ से होता है।कहानी के केंद्र में एक ईमानदार अफसर है जिसे छोटा अफसर कहा गया है।उसका काम है पुरानी और बेकार फाइलों को नष्ट करना।यह काम उसे सजा के तौर दिया गया है।पहले जहां उसकी पोस्टिंग थी, वहां उसे एक गलत बिल पर हस्ताक्षर करने के लिए दवाब डाला गया, लेकिन उसने इनकार कर दिया।बिल एक ठेकेदार से संबंधित था, जिसने अपने संपर्कों के बल पर उसका तबादला करा दिया।लेकिन अफ़सर विचलित नहीं हुआ।वह पुरानी फाइलों को नष्ट करने का काम मनोयोग से करने लगा।वह हर फाइल को ध्यान से पढ़ता तभी उसे नष्ट करता।इसी क्रम में उसे एक ऐसी फाइल मिली, जो बस आठ साल पुरानी थी।उसे संदेह हुआ, क्योंकि बारह साल पुरानी होने पर ही कोई फाइल नष्ट करने योग्य मानी जाती थी।छोटे अफसर ने उस फाइल को खोलकर देखना शुरू किया।वह एक चेक पोस्ट पर ड्यूटी अफसर के जलकर मर जाने के हादसे से संबंधित थी।छोटे अफ़सर ने जब गौर से सबकुछ देखा तो उसे कई चीज़ें गड़बड़ लगीं और वह इस मामले की तफ्तीश में जुट गया और पता चला कि यह हादसा नहीं हत्या थी।अफसर ने इस मामले की फिर से जांच कराने की मांग के साथ वह फाइल आगे बढ़ा दी।
उस अफसर की जांच से पता चलता है कि राहत सामग्री के वितरण में एक बड़ा घोटाला हुआ है जिसमें एक बड़े नेता का हाथ है।उस नेता को ऊपर से नीचे तक समर्थन प्राप्त है।इस तरह यह कहानी हमारी व्यवस्था को लेकर बड़ा प्रश्न खड़ा करती है।लेकिन यह आश्वस्त भी करती है कि ड्यूटी अफसर और छोटा अफसर जैसे लोग भी इसी व्यवस्था में हैं, जो मूल्यों को बचाए रखने की कोशिश करते हैं।वे हारते हैं, मरते हैं लेकिन अपने तरीके से संघर्ष करते हैं।उनकी अपनी सीमाएं हैं।छोटा अफसर इससे ज्यादा और क्या कर सकता था कि जबरन बंद कर दी गई एक फाइल को फिर से खोल दे।आगे उस पर कार्रवाई हो न हो पर उसने अपना कर्तव्य तो निभाया।
‘कुहासा’ नौकरशाही के चरित्र पर तंज कसती है।एक छोटी सी घटना के जरिए लेखक ने अफसरशाही के स्वार्थपूर्ण रवैये को उजागर किया है।इसमें एक छोटा अफसर है, जो भारी ठंड की वजह से दफ्तर जाने की हिम्मत नहीं जुटा रहा है, मगर वह अपने ड्राइवर को समय पर घर बुला लेता है।जब वह काफी देर से दफ़्तर पहुंचता है तो बड़े अफ़सर का फोन आ जाता है जो उसे देर से आने के लिए डांटता है, लेकिन छोटा अफसर देर से आने का ठीकरा अपने ड्राइवर पर फोड़ देता है और कहता है कि ड्राइवर ही लेट से आया था।यहां ऐसा लगता है कि बड़ा अफ़सर बड़ा कर्तव्यनिष्ठ है, लेकिन पता चलता है कि वह भी ऑफिस नहीं आया है और घर में बैठकर अपने जूनियरों को कर्तव्यपालन का उपदेश दे रहा है। ‘एक बोरी आम’ में भी इसी तरह की मनोवृत्ति को लेखक ने उद्घाटित किया है। एक छोटे से प्रसंग के जरिए मानव चरित्र के एक बड़े पहलू का उद्घाटन शंकर की ख़ास विशेषता है।
कहानी ‘एक बटा एक’ जीवन में बाजार के दख़ल का चित्रण करती है।बाजार अपना माल बेचने के लिए तरह-तरह के फंदे बुनता है जिसमें एक साधारण आदमी फंस जाता है, जिसे बाद में अहसास होता है कि वह ठगा गया। ‘एक बटा एक’ में एक पिता-पुत्र हैं।पुत्र को एक टेबल-कुर्सी की जरूरत है।पिता चाहते हैं कि किसी ढंग की दुकान से एक मज़बूत टेबल-कुर्सी ले ली जाए।लेकिन बेटा एक समर सेल से कुर्सी टेबल ख़रीदने की जिद करता है।वहां एक टेबल-कुर्सी के साथ एक और टेबल-कुर्सी फ्री मिल रही है।बेटे की ज़िद पर दो सेट टेबल-कुर्सी लाई जाती है, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हो पाता, क्योंकि उनकी क्वालिटी बेहद खराब निकलती है।एक मामूली प्रसंग के जरिए यह कहानी बाजार को एक्सपोज करती है।यह बताती है कि किस तरह नई पीढ़ी बाज़ार की चकाचौंध में फंसती है और छली जाती है।बाज़ार दरअसल मध्यवर्ग की लालसा को उछालता है।वह तरह-तरह के दांव चलता है और लोगों को रंक से राजा होने का सपना दिखाता है।
‘जीवन कथा’ बाज़ार की इसी मृगतृष्णा में मध्यवर्ग के फंसने की कहानी है।एक क़स्बे से राजकृष्ण रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली और उसके बाद अनेक महानगरों में जाता है।वहां लोगों को समृद्ध होते देख उसकी लालसा भी जाग उठती है।उसके भीतर यह विश्वास घर जमा लेता है कि पैसे से पैसा कमाया जा सकता है।वह पागलों की तरह शेयर खरीदता है।हर्षद मेहता उसका आदर्श है।राजकृष्ण ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाकर करोड़ों कमाने के सपने देखता है पर उसका नंबर नहीं आता।वह अपने भाइयों और अन्य लोगों को भी खुद की तरह पैसे दांव पर लगाने के लिए कहता है।वह अपनी मां के बीमार पड़ने पर घर आता है पर मां की तीमारदारी से कहीं ज्यादा उसकी रुचि पैसे पर बात करने में है।वह जीवन के हर प्रसंग को बाजार के खेल की तरह देख रहा है।यहां तक कि मां के जीवण-मरण पर भी वह दांव लगा रहा है।पूरा घर उसके रंग में रंगता जा रहा है।मां जीवन और मौत के बीच झूल रही है और पूरा परिवार नोटों के वैभव में खोया हुआ जुआ खेल रहा है।पूंजी ने मानवीय संबंधों को कितना विद्रूप बना डाला है, यह कहानी उसकी एक झलक पेश करती है।हम बाजार के मुहावरों में ही सोचने लग गए हैं और तमाम रिश्तों को भी उसी की कसौटियों पर परखने लगे हैं।बाजार पर हाल में बहुत सी कहानियां लिखी गई हैं पर यह कहानी एक अलग ही प्रभाव छोड़ती है।राजकृष्ण का परिवार देश के मध्यवर्ग के एक रूपक के रूप में सामने आया है और स्वयं राजकृष्ण आज के औसत मध्यवर्गीय व्यक्ति का प्रतिनिधि है।शंकर की कई कहानियों में कोई बना-बनाया निष्कर्ष नहीं होता।मतलब यह ज़रूरी नहीं कि वे किसी परिणति तक पहुंचें।उनमें स्थितियां होती हैं, दृश्य होते हैं।वे ज्यादा लेखकीय हस्तक्षेप भी नहीं करते और पात्रों को खुद बोलने देते हैं।
शंकर से संवाद
जिज्ञासा: आपके लिए कहानी में घटना विशेष महत्वपूर्ण है या घटना की प्रस्तुति?
शंकर: यथार्थवादी कहानी में घटना की अपनी महत्ता है।घटना की प्रस्तुति नैरेशन से भी संभव है और ‘विजुअल्स’ से भी।मैंने अपनी कहानियों में घटनाओं की प्रस्तुति ‘नैरेशन’ से भी की है और ‘विजुअल्स’ से भी, लेकिन मुझे लगता है,घटनाएं जब-जब ‘विजुअल्स’ से प्रस्तुत हुई हैं, तब तब कहानी ज्यादा जीवंत और पठनीय हुई हैं।
जिज्ञासा: इक्कीसवीं सदी की कहानी पिछली सदी की कहानी से किस मायने में भिन्न है?
शंकर : इक्कीसवीं शताब्दी में उभरे कथालेखकों ने जो कुछ लिखा है, उसमें वैचारिक दृष्टि से सशक्त कहानियां कम हैं।जो कथालेखक पिछली शताब्दी में उभरे और इक्कीसवीं शताब्दी में भी लिख रहे हैं, उनकी कहानियां वैचारिकता और संवेदना के स्तर पर सघन और उत्कृष्ट हैं।अब वैचारिकता और गुणवत्ता से ज्यादा बस लिखते जाने के जुनून का दौर है।
जिज्ञासा: क्या हिंदी के व्यापक कथा परिदृश्य का सहीं ढंग से मूल्यांकन हो पा रहा है।अगर नहीं तो क्यों?
शंकर: निस्संदेह हिंदी के व्यापक कथापरिदृश्य का यथोचित ढंग से मूल्यांकन नहीं हो रहा है।कुछ आलोचकों को व्यापक कथापरिदृश्य से मतलब नहीं है, उनके अपने चुनाव हैं।कुछ के सामने सब कुछ नहीं पढ़ पाने की स्वाभाविक विवशता है।कुछ गैर स्तरीय या औसत कहानियों का बिगुल बजा रहे हैं।
हरियश राय के संग्रह ‘महफ़िल’ की कहानियों के केंद्र में महानगरीय जीवन है, जो भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दबाव को सबसे ज्यादा झेल रहा है।उदारीकरण और निजीकरण ने कामकाज के तौर-तरीके ही नहीं बदले, बल्कि सामाजिक संबंधों और मूल्यों पर भी गहरा असर डाला।अब सफलता का मापदंड बदल गया, जीवन के आदर्श बदल गए।
कॉरपोरेट कल्चर ने अचानक समृद्धि की एक मृग-मरीचिका पैदा कर दी, जिसमें देश का युवा वर्ग फंस गया।उसे समृद्धि तो मिली, लेकिन साथ में असुरक्षा और अवसाद भी, क्योंकि नौकरियां असुरक्षित हो गईं।समृद्धि अब एक बड़ा मूल्य है, जिसे हासिल करने के लिए कई समझौते करने पड़ते हैं।इस तरह मनुष्य की स्वाभाविकता ख़त्म हो गई।वह एक पुर्जे में तब्दील हो गया।इस प्रकिया ने भारी दबाव और तनाव पैदा किया।
इस संग्रह की ‘दलदल’ शीर्षक कहानी में एक निजी कंपनी में काम करने वाली अंजुला नागर इसी तनाव से गुजर रही है।उसकी कंपनी के बंद होने की नौबत आ गई है।वह अपनी बेटी को क्रेच में रखती है।कई बार देर हो जाने पर बेटी को क्रेच के गार्ड के पास रखना पड़ता है।अंजुला अपनी बेटी की हालत से बेहद परेशान रहती है और सोचती है, नौकरी छोड़ दे, लेकिन उसे पता है कि बेटी को अच्छी शिक्षा-दीक्षा और बेहतर भविष्य देने के लिए उसका नौकरी करना जरूरी है।लेकिन उस पर भी आफ़त आई हुई है।उसे लगता है वह एक दलदल में फंसी हुई है।भूमंडलीकरण के इस दौर में स्त्रियों को स्वतंत्रता ज़रूर मिली, मनचाहा करियर भी मिला, लेकिन उन्हें भी भारी असुरक्षा, तनाव और अवसाद झेलना पड़ रहा है।
भूंडलीकरण ने छोटे कारोबार पर गहरा असर डाला।कई छोटी-मोटी कंपनियां बंद हो गईं और उसमें पहले से कार्यरत लोगों के सामने बेरोजगारी का संकट अचानक ही पैदा हो गया। ‘ऐसा हो तो…’ के बैजनाथ के साथ यही समस्या आती है।वह पचास साल का हो चुका है, उसके बच्चे बड़े हो चुके हैं और उसे अचानक एक दिन पता चलता है कि उसकी कंपनी बंद होने वाली है।वह जिंदगी भर अकाउंट्स का काम करता है पर उससे कहा जाता है कि वह घूम-घूमकर ऑर्डर लाए।यह उसके लिए मुमकिन नहीं है।उसकी हालत देखकर उसका बेटा अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर डिलीवरी बॉय की नौकरी स्वीकार कर लेता है।बेटी ने एमबीए कर रखा है पर उसे ढंग की नौकरी नहीं मिल पाती।बैजनाथ एक परिचित के जरिए एक छुटभैये राजनेता से मिलता है जो आश्वासन देता है कि नगर निगम चुनाव जीतने पर वह दारू की दुकान खोलेगा और उसमें बैजनाथ को नौकरी देगा।बैजनाथ के लिए यह झटका है।जीवन भर सम्मानजनक कार्य करने वाला वह इस तरह का काम करेगा, यह ख्याल उसे परेशान करता है।वह मनाता है कि यह नेता चुनाव हार जाए।
हरियश राय की राजनीतिक दृष्टि एकदम स्पष्ट है।अर्थतंत्र के समानांतर राजनीति में आए बदलावों पर भी वे पैनी नजर रखते हैं।सांप्रदायिक सियासत के लिए ज़मीन कैसे तैयार होती है, इसकी उन्होंने पड़ताल की है। ‘गुमसुम होती हवाएँ’ में एक व्यक्ति स़िर्फ इसलिए एक कट्टर सांप्रदायिक दल का हाथ थाम लेता है कि उसका कारोबार ठीक से नहीं चलता।उसे लगता है कि इस पार्टी का हिस्सा बनने से उसकी समस्याएं हल हो जाएंगी।सचाई है कि सांप्रदायिक ताकतें वंचित और अभावग्रस्त तबक़े का ही अपने वर्कफोर्स के रूप में इस्तेमाल करती हैं।अनेक बेरोज़गार नौजवान स़िर्फ इसलिए ऐसी विचारधारा की शरण में चले जाते हैं।इस तरह की विचारधारा बड़े सुनियोजित तरीके से फैलाई जाती है।यह बुद्धिवाद और तर्क पर प्रहार करती है।पढ़े-लिखे लोग भी इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं। ‘यूटर्न’ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो जीवन भर प्रगतिशील विचारों का प्रचार करता रहा और एक विवेकपूर्ण समाज के निर्माण में संलग्न रहा, लेकिन उसके मरते ही उसके बेटे उसकी प्रार्थना सभा पूरे कर्मकांड के साथ करते हैं।असल में उसके बेटों को मुख्यधारा के साथ चलने के लिए ऐसा करना ज़रूरी लगता है।यह सचाई है कि बहुत सारे लोग इसलिए भी कट्टर विचार अपना लेते हैं, क्योंकि वे व्यवस्था के साथ चलना चाहते हैं।प्रचलित और अपने समय में ताक़तवर विचार के साथ चलने में सबको सुरक्षा महसूस होती है और लाभ की गुंजाइश नज़र आती है।कहानी ‘पाठ’ बताती है कि किस तरह शिक्षा में सांप्रदायिकता घुसपैठ करती है।महानगर के एक आधुनिक कहे जाने वाले स्कूल में सिलेबस में भारी परिवर्तन किए जाते हैं और बच्चों के भीतर सांप्रदायिक ज़हर भरा जाता है।सांप्रदायिकता बहुलता और जनतांत्रिकता को कमजोर कर एकाधिकारवादी शासन के लिए ज़मीन तैयार करती है।बाजार ऐसे शासन को काफी हद तक अपने लिए अनुकूल मानता है।इसलिए ऊपर से बेहद आधुनिक दिखने वाला कॉरपोरेट सेक्टर भी बहुसंख्यकवाद से ग्रस्त रहता है और सांप्रदायिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है। ‘महफ़िल’ में इसका संकेत है।यह कहानी कॉरपोरेट सेक्टर में व्याप्त संवेदनहीनता, चापलूसी और अमानवीयता को भी उजागर करती है।यह लोक कलाओं के हाशिए पर जाने की दुखद गाथा भी है।
हरियश राय की कहानियों में वक़्त के साथ समझौता करने वाले रीढ़हीन पात्रों के अलावा कई ऐसे चरित्र भी हैं, जो अपने भीतर के मनुष्य को बचाए रखते हैं और कई मोर्चों पर लड़ते हैं।कहानी ‘रहग़ुजर’ की अमृता का चरित्र ऐसा ही है।वह अपना रास्ता ख़ुद बनाती है और इसके लिए संघर्ष भी करती है।वह अपनी शादी से खुश नहीं थी, उसने अपने पति से रिश्ता तोड़ लिया और भारी विरोध के बावजूद एक मुस्लिम से शादी की।उसके परिवार ने एक तरह से उसका बहिष्कार कर दिया।वह दुबई चली गई।फिर वह बहुत दिनों बाद जब भारत लौटी तो उसकी बहन को लगा कि वह अपना हिस्सा मांगने आई है।मगर पता चला कि वह शाहीन बाग़ में महिलाओं के संघर्ष में शामिल होने आई है।निश्चय ही हरियश राय की समय की नब्ज़ पर गहरी पकड़ है।उन्होंने हिंदी कहानी को कई नए चरित्र दिए हैं, जो बदलते वक़्त की उपज हैं।
हरियश राय से संवाद
जिज्ञासा: क्या सूचना और तकनीक क्रांति ने आपके लेखन को किसी रूप में प्रभावित किया है?
हरियश राय: जी हां, सूचना और तकनीक क्रांति से मेरा लेखन काफी हद तक प्रभावित हुआ है और यह प्रभाव एक सकारात्मक दिशा में ज्यादा हुआ है।तकनीक क्रांति की वजह से लिखने का अभ्यास लगभग छूट सा गया है।जो रचना पहले हाथ से लिखी जाती थी और उसकी प्रतियां बनाकर या फोटो कॉपी रखकर सहेजी जाती थी, वह सूचना तकनीक के माध्यम से लैपटॉप पर टाइप करके तुरंत सहेजी जा रही है।अपनी रचनाओं को गूगल ड्राइव पर या क्लाऊड कंप्यूटिंग पर सेव करने से निश्चिंतता भी बढ़ी है।रचनाओं के गुम होने का डर अब लगभग नहीं रहा है।लिखने की गति में भी फर्क आया है।मेरे लिए हाथ से लिखने की अपेक्षा टाइपराइटर पर लिखना ज्यादा सहज और आसान हो गया है।इंटरनेट के माध्यम से किसी भी घटना या जानकारी की सूचना सहजता से हासिल हो जाती है जो मेरे निजी अनुभवों को समृद्ध करती है और प्रकारांतर से लेखन में सहायक होती है।
सूचना तकनीक के माध्यम से किताबें प्राप्त करना भी ज्यादा सहज हो गया है।किसी भी प्रकाशक की वेबसाइट देखकर मनचाही किताब सहजता से हासिल की जा सकती है।साथ ही रचनाओं को पत्रिका के संपादकों के पास भेजना ज्यादा आसान हो गया है।पत्रिकाओं के ऑन लाइन संस्करण हासिल होने से पढ़ने का दायरा भी बढ़ गया है।
जिज्ञासा: आपकी कथा दृष्टि को बनाने में राजनीति की कितनी भूमिका है?
हरियश राय: यह सवाल विचारधारा से जुड़ा हुआ है।मेरी कथा-दृष्टि को बनाने में विचारधारा की बड़ी भूमिका रही है।विचारधारा मुझे अपने समय की हलचलों को और उन हलचलों के मूल में समानांतर रूप से चल रहे यथार्थ को समझने की दृष्टि देती है, जिससे मेरी कथा दृष्टि आकार लेती है।समाज के संघर्षो और द्वंद्वों को समझने में भी विचारधारा की भूमिका है।विचारधारा अनुभवों के साथ मिलकर रचना में रूपायित होती है।
जिज्ञासा: एक कहानी में किसी सामाजिक-राजनीतिक विमर्श की उपस्थिति उसे धार देती है या कमजोर करती है?
हरियश राय: यदि कहानी में सामाजिक-राजनीतिक विमर्श रचना की संवेदना के एक अंग के रूप में आता है और यदि सामाजिक-राजनीतिक विमर्श कहानी के कथ्य की मांग है तो यह विमर्श कहानी को धार दे सकता है।यदि यह विमर्श कहानी में आरोपित लगे या कथ्य की मांग के अनुरूप नहीं है या कहानी की संवेदना में ढलकर नहीं आ पाया है, तो यह कहानी को न सिर्फ कमजोर करता है, बल्कि कहानी को कहानी ही नहीं रहने देता।यह कोई जरूरी नहीं है कि एक मुकम्मल या बेहतरीन कहानी के लिए सामाजिक-राजनीतिक विमर्श कहानी में हो ही, बिना इसके भी कई बेहतर और अच्छी कहानियां लिखी गई हैं।
सूर्यनाथ सिंह के संग्रह ‘कोई बात नहीं’की कहानियों के विषय शहर से लेकर गांव तक फैले हुए हैं।उनके कई पात्र प्रवासी हैं, जिन्हें रोजी-रोजगार की वजह से गांव छोड़ना पड़ा।पलायन की इस प्रक्रिया को भी भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने बढ़ावा दिया है।
दरअसल विकास के नए मॉडल ने खेती को कमजोर किया, लघु और कुटीर उद्योग भी नष्ट हुए, फलस्वरूप गांवों से पलायन बढ़ा।अर्थतंत्र के इस नए दौर में एक बड़ी संख्या में मध्यवर्ग का युवा निजी कंपनियों में काम करने लगा।वहीं एक बड़ा तबका बेरोजगारी झेलने को मजबूर हो गया।कई युवाओं ने अपनी योग्यता से बेहद कम वेतन वाली नौकरियां स्वीकार कीं और बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करना स्वीकार किया।वहीं स्वार्थी तत्वों का एक बड़ा वर्ग उभरा जो बेरोजगारों को नौकरी देने के नाम पर ठगी करने लगा।कहानी ‘वह चला गया’ में एक नौजवान आशू रोजगार की तलाश में दिल्ली आता है।वह अपने साथ गांव के कई परिचितों के पते लेकर आया है।जब एक व्यक्ति नहीं मिलता तो वह दूसरे के यहां जाता है।यह दूसरा व्यक्ति कहानी का नैरेटर है, जो गांव के रिश्ते के हिसाब से उसका भाई लगता है।आशू बताता है कि उसके पिता उसके कुछ न करने पर उसे ताना मारते रहे हैं, इसलिए वह विवश होकर चला आया।नैरेटर को याद आता है कि जब उसकी नौकरी लगी थी तो आशू के पिता ने उस पर व्यंग्य किया था।उनका मानना था कि खेती में ज्यादा आमदनी और सम्मान है।लेकिन अब उन्होंने अपने बेटे को ही शहर जाने पर मजबूर किया था।नैरेटर को आशू पर दया आती है, पर वह अपने को लाचार पाता है।वह प्रोफेसर है, देश-विदेश में भाषण देता फिरता है, लेकिन किसी को नौकरी नहीं दिला सकता।इस बीच आशू एक कंपनी की ठगी का शिकार होता है।एक फर्जी कंपनी ने नौकरी दिलाने का झांसा देकर अनेक बेरोजगारों से पैसे ले लिए और चंपत हो गई।नैरेटर इससे परेशान हो जाता है पर आशू निराश नहीं होता।वह दिल्ली में ही सब्जी-फल ठेला लगाने वाले गांव के कुछ परिचित लड़कों के पास चला जाता है, जिन्होंने उसके लिए फैक्ट्री में बात कर रखी है।नैरेटर इस बात से हैरान है कि एमकॉम पास आशू एक मामूली सी नौकरी करेगा, लेकिन वह आशू को रोक नहीं पाता, क्योंकि उसे पता है कि अपने घर में वह उसे बहुत दिनों तक नहीं रख सकता और न ही उसे अच्छी नौकरी दिला सकता है।आशू की विडंबना न जाने कितने युवाओं की विडंबना है।
नब्बे के दशक में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई।देश का एक बड़ा वर्ग अपनी जड़ों से कटकर महानगरों में रहने लगा।अब उसके जीवनमूल्य बदले।उसने खुद को समृद्धि और सफलता की एक होड़ में पाया।उसके जीवन में समृद्धि तो आई लेकिन अकेलापन भी गहराया, जो अवसाद और अनेक दूसरे संकटों तक ले गया।
अब संयुक्त परिवार टूट गए थे, उनकी जगह व्यक्तिगत परिवारों या माइक्रो फैमिली ने ली, लेकिन उसमें भी कई दरारें थीं। ‘कोई बात नहीं’ उदारीकरण के दौर में पैदा हुए एक नौजवान अनिमेष की कहानी है जिसके अपने तरीके के शौक हैं, अलग तरह की महत्वाकांक्षाएं हैं।उसके प्रोफेसर पिता ने उसे हर तरह की सुविधाएं और स्वतंत्रता दीं।वह छात्र जीवन में ही नशे करने लगा और काफी जिद्दी हो गया।उसके पिता उसकी हर जिद पूरी करते रहे।लेकिन खुद अपने जीवन में असफला से निराश हो गए और अपने बेटे के ही कठोर वचनों को नहीं सह सके और दिल के दौरे का शिकार हुए।पहले पिता फिर बाद में मां की मृत्यु से अनिमेष संभलता है।अपने छोटे भाई के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का भी उसे अहसास होता है।उसकी जिदगी अस्थिर नजर आती है, हालांकि वह अपने लक्ष्य को लेकर स्पष्ट है।वह एक बड़े कॉरपोरेट हाउस में पांच साल के लिए नौकरी करना चाहता है फिर कुछ क्रिएटिव करना चाहता है, अपने तरीके से।
अनिमेष उस महानगरीय युवा वर्ग का प्रतिनिधि है जिन्हें ऐशो-आराम की जिंदगी तो मिली है पर जीवन का गणित और उनका मनोविज्ञान काफी उलझा हुआ है।वे लीक से हटकर चलते हैं और अपनी स्वतंत्रता का अपने तरीके से इस्तेमाल करते हैं और कई बार अराजक भी हो जाते हैं।उन्हें जीवन का बंधा-बंधाया समीकरण मंजूर नहीं है।
इस संग्रह की कई कहानियां दांपत्य जीवन और स्त्री-पुरुष संबंधों में उतार-चढ़ाव को दर्ज करती हैं।कई बार अहं और महत्वाकांक्षाओं की टकराहट रिश्ते में टूट का कारण बनती हैं। ‘घोंघा’ के ब्रजेश जी की पत्नी उनसे अलग हो जाती है।अकेलापन ब्रजेश जी को तोड़ देता है और वे अवसाद का शिकार होने लगते हैं।उनका बेटा मयंक उन्हें अवसाद से निकलने की सलाह देता रहता है और इसके कई रास्ते भी सुझाता है, लेकिन ब्रजेश जी दुविधा में पड़े रहते हैं।इस बीच मयंक विदेश चला जाता है।ब्रजेश जी अपना अकेलापन दूर करना तो चाहते हैं, लेकिन उनके ऊपर उनका मध्यवर्गीय संस्कार हावी रहता है।अपने अकेलेपन को दूर करने का एक मौका उन्हें तब मिलता है जब दफ्तर में एक परित्यक्त महिला से उनकी दोस्ती होती है।वह महिला उन्हें संकेतों में उनसे विवाह का प्रस्ताव भी रखती है, पर अपने संस्कारों और उलझनों में वे इस कदर पड़े रहते हैं कि इसके लिए तत्काल तैयार नहीं होते।नौकरी से अलग होने के बाद जब अकेलापन उन्हें और ज्यादा टीसता है तब उन्हें उस महिला की याद आती है पर तब तक देर हो चुकी होती है। ‘रजामंदी’ भी दांपत्य संबंधों पर ही है।लेकिन इस कहानी में पति-पत्नी अलग होकर फिर मिल जाते हैं।दोनों को अहसास हो जाता है कि उनकी लालसा उन्हें बेवजह भटका रही है।
‘ज्योतिर्मय भइया की आसमानी दुकान’ कॉरपोरेट सेक्टर की भीतरी दुनिया की चीरफाड़ करती है।इस सेक्टर का एक ही मकसद है, एक ही मूल्य है एक ही विचार है-मुनाफ़ा।कहानी के नैरेटर के भीतर कॉरपोरेट सेक्टर को लेकर आकर्षण है, लेकिन इस क्षेत्र का हिस्सा बनकर उसे इस सचाई का पता चलता है कि चकाचौंध से भरी इस दुनिया में सच-झूठ, नैतिक-अनैतिक जैसा कोई द्वंद्व नहीं है।वहां बस वही स्वीकार्य है जो बिकता है।नैरेटर को यह देख कर धक्का लगता है कि आधुनिक जीवनशैली जीनेवाले अंग्रेजीदां ज्योतिर्मय भइया पंडिताई का बिजनेस करते हैं।निजी जीवन में घोर आधुनिक हैं, लेकिन धंधे में कर्मकांड को आगे बढ़ाने में उन्हें कोई विरोधाभास नजर नहीं आता।नैरेटर उनकी कंपनी में काम करता है।जब उनकी कंपनी एक कट्टरवादी पार्टी के प्रचार का जिम्मा लेती है तो नैरेटर परेशान हो जाता है।तब ज्योतिर्मय भइया उसे समझाते हैं कि व्यापार में विचारधारा नहीं देखी जाती, क्योंकि यहां पैसा ही विचारधारा है।
जब कॉरपोरेट सेक्टर कट्टर और धर्मांध राजनीतिक विचारधारा की मदद करता है तो समाज की क्या स्थिति होती है यह ‘थूनी थामो’ शीर्षक कहानी बताती है।कहानी में बशारत जैसे शरीफ लड़के को एक स्त्री को घूरने के आरोप में पीटा जाता है।दरअसल बशारत का कसूर यही है कि वह अल्पसंख्यक है।उसके साथ ऐसा इसलिए हो रहा है कि चारों तरफ बहुसंख्यकवाद का माहौल बना हुआ है जिसमें लोगों के मन में अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत भरी जा रही है।अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हो रहे हैं।लेकिन बुरी तरह पीटे जाने के बावजूद बशारत बदले की कार्रवाई के लिए उबल रहे अपने मोहल्ले के लड़कों को शांत करता है।सूर्यनाथ सिंह की भाषा में ज़बरदस्त प्रवाह है जो पात्रों के अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करने में सक्षम है।
सूर्यनाथ सिंह से संवाद
जिज्ञासा: आपकी कहानी का नैरेशन स्वतःस्फूर्त होता है या आप सचेत रूप से उसे निर्धारित करते हैं?
सूर्यनाथ सिंह: नैरेशन मैं नहीं गढ़ता, मेरी कहानी खुद गढ़ती है।हां, उसे थोड़ा अलग करने की कोशिश में, दूसरों से अलग करने के प्रयास में, बासीपन और पुरानेपन को तोड़ने की ललक में भाषा और रचाव के स्तर पर मैं थोड़ा रंदा मार कर दुरुस्त जरूर कर देता हूँ।मुझे लगता है, हर रचनाकार के भीतर, जब रचना पैदा होती है, तो वह अपने पूरे रंग-रूप, गुण-धर्म के साथ पैदा होती है।मैं किसी कहानी, कविता या किसी भी रचना को उसी रूप में देखता हूं, जैसे कोई बच्चा पैदा होता है, तो अपने रूप-रंग, गुण-धर्म के साथ पैदा होता है।बाद में हम उसे कुछ संस्कारित जरूर कर देते हैं, पर उसके रंग-रूप को चाह कर भी बदल नहीं पाते।अगर वह काला है, तो उसे गोरा नहीं बना सकते।अगर उसकी एक आंख विकृत है, तो उसे दुरुस्त नहीं कर सकते।सर्जरी करके बेशक कुछ दुरुस्त करने का प्रयास करते हैं।इसलिए अगर मैं सतर्क रह कर भी अपनी कहानी का नैरेशन कुछ बदलने का प्रयास करता हूँ, तो उस कहानी का मूल स्वरूप बहुत बदल नहीं पाता।हां, आप डीएनए के आधार पर परीक्षण करेंगे, तो जरूर यह कह सकते हैं कि मेरी कहानियां उन्हीं गुण-धर्मों के साथ पैदा होती हैं, जो मेरे भीतर की विचार-दृष्टि है।उसी में उनका नैरेशन भी अपना आकार गहता है।विचार-दृष्टि ही रचनाकार का डीएनए है।
जिज्ञासा: आपकी प्राथमिकता क्या है- अछूते विषयों की खोज या चिर-परिचित समस्याओं की प्रस्तुति?
सूर्यनाथ सिंह: मेरी प्राथमिकता अछूते विषयों की खोज ही है, समस्याएं चिर-परिचित हो सकती हैं।भूख, बेकारी, गरीबी, जाति-पांति, अशिक्षा और कुशिक्षा से पैदा हुई कुंदजेहनी, उन्माद, हिंसा वगैरह- इनमें से बहुत सारा हिस्सा तंत्र का रचा-विकसित किया हुआ है, कुछ प्रकारांतर या प्रभाव से पैदा हो गया है।मुझे लगता है कि हमारे देश में यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया बन चुकी है।फिर भी इसमें हर दिन, हर पल कुछ न कुछ अछूते विषय पैदा होते रहते हैं।हलकू और होरी प्रेमचंद के समय में थे, तो हमारे समय में भी हैं।पूरी तरह सांस लेते हुए, जिंदगी के साथ लिथड़ते हुए।अगर अमरकांत के यहां हत्यारे और जिंदगी और जोंक के पात्र थे, तो वे हमारे समय में भी हैं।हकीकत यही है कि वे हैं, थोड़े बदले हुए रूप में हैं।रचना में बिलकुल अछूता कुछ नहीं होता।इसलिए कि रचनाकार अपने से ही रस खींचता है।प्लेटो ने तो कहा था कि हर रचना एक आदर्श रचना की अनुकृति होती है।चूंकि संवेदनाएं पृथ्वी के हर मनुष्य की एक हैं, इसलिए बिलकुल अछूते या नए की अपेक्षा हमें करनी भी नहीं चाहिए।अकसर होता है कि एक ही घटना, एक ही विषय तमाम रचनाकारों को अपने ढंग से आंदोलित, विक्षोभित करती है, बेशक उसे वे अपने ढंग से उसे रूपायित करते हैं।
जिज्ञासा: आप कहानी के परंपरागत शिल्प में ही लिखते हैं।क्या उस स्तर पर कुछ अलग करने का ख़याल नहीं आया?
सूर्यनाथ सिंह: दरअसल, किसी भी रचना का शिल्प रचना खुद तय करती है, रचनाकार तय नहीं करता।जब भी रचनाकार शिल्प तय करने का प्रयास करता है, रचना के मूल विषय में टूट-फूट अनिवार्य रूप से होती है।इसलिए कि कोई भी रचना और उसकी विषय-वस्तु सबसे पहले रचनाकार के भीतर घटित होते हैं।उस विषय से रचनाकार आवेशित होता है।फिर वह वही नहीं रह जाता, जो वह सामान्य रूप से देखने में है।चाहे वह कविता हो या कहानी या कोई अन्य रचना, उसका विषय पहले तो रचनाकार को रचता है और फिर रचनाकार उस विषय को रचना का रूप देता है।उस रचाव में बहुत कुछ टूटता-फूटता-छूटता है।कई बार रचनाकार अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर हैरान होता है कि जो वह रचने का प्रारूप लेकर चला था, वह तो अब रहा नहीं।
मैं दरअसल, कहानी को भारतीय कहानी परंपरा में ढालने का प्रयास करता रहा हूं।मैं अंग्रेजी पद्धति की ‘कहानी’ के विरोध में रहा हूँ।अंग्रेजी पद्धति में एक घटना या क्षण ही कहानी है।जबकि भारतीय परंपरा में कहानी का अंत नहीं होता, उसकी परतें खुलती रहती हैं।आप लोककथाओं को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी।हमारे यहां कहानी असमाप्य है, उसका कोई अंत नहीं।मैंने किसी चर्चित रचनाकार के मोह में अपना लिखने का ढंग बदलना नहीं चाहा।हर पेंटर का चित्र बनाने का अपना ढंग होता है।हर फिल्मकार का अपना ढंग होता है, कोई कहानी पर बल देता है, तो कोई दृश्य पर।वही उसकी पहचान बन जाती है।इसलिए मैं हर समय कुछ नया करने का मोह नहीं पालता।यों भी, मैं गांव को उकेरना चाहता हूं, तो उसे उसी रूप में उकेर सकूं, तो सुख और संतोष पा सकूंगा।
समीक्षित पुस्तकें
(1) चौपाल: नर्मदेश्वर, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली। (2) एक बटा एक: शंकर, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। (3) महफ़िल: हरियश राय, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद। (4) कोई बात नहीं: सूर्यनाथ सिंह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।
ए-701, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012 (उप्र) मो. 9910257915
संजय सर शानदार