कविता-संग्रह ‘किसी उम्मीद की तरह’, ‘पुतले पर गुस्सा’; साहित्यिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर निरंतर लेखन।

देखो ईश्वर तुम जहाँ भी हो सुन लो
इस दुनिया के लिए
गरीबों का होना बहुत ज़रूरी है
गरीबों से तुम्हारी, तुम्हारी मूर्तियों
और तुम्हारे मंदिरों की शाख है
गरीबों की कतार देखकर तुममें आस्था बढ़ती है
तुम्हारे कारण
सैकड़ों ग़रीबों को भोजन मिल जाता है
पसरे हुए हाथों पर भोजन सामग्री रखते हुए
तुम्हारे भक्त कितने खुश होते हैं
मंदिर के भीतर इन लोगों ने तुमसे
कितने वरदान मांगे होंगे तुम्हीं जानते हो
शायद ही किसी ने तुमसे कहा हो
ग़रीबों का तुम खयाल क्यों नहीं करते
छोड़ो इस बात को
तुम्हारे सामने शीश झुकाते ही
लोग कितने स्वार्थी हो जाते हैं
कितने कातर कितने ग़रीब
कितने भावशून्य कितने विचारहीन
एक बार मैं भी तुमसे मांगने आया था
तुमने ऊँची आवाज़ में मुझसे पूछा – बोलो क्या चाहिए
बोलने के पहले ही मैं शर्मिंदा हो गया था
इतना ही बोल पाया कि
जो मेरे मन में है वह मुझे मिल जाए
तुम मेरे मन की बात समझ नहीं पाए
मैंने तुम्हारी पत्थर-आँखों को देखकर समझ गया
तुमने कहा- इस हरामखोर को बाहर निकालो
बाहर, मंदिर के बाहर खाली हाथ मुझे देख कर
गरीबों ने भी कहा
कंगाल पता नहीं कहाँ से चले आते हैं
जिनकी मन्नतें पूरी हो गई थीं
वे मंदिर के ओसारे में भंडारे चला रहे थे
रसोईए पूड़ियाँ छान रहे थे
गरीब कतारों में खड़े हाथों में दोंगे लिए
पूड़ियों के लिए उतावले हो रहे थे
लोकतंत्र में ईश्वर और ग़रीब बहुत जरूरी हैं।
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