रोज की तरह वह बस स्टैंड पर आ खड़ी हुई।शाम ६ बजे की बस में यहीं से बैठती है।काम निपटाकर सुबह पांच बजे वापस आ जाती है।आज घर से निकलते समय ही मन बेचैन हो रहा था।मिनी बड़ी हो रही है।रंग भी निखरता जा रहा है।दूसरी मांएं अपनी लड़की की सुंदरता देख खुश होती हैं, वह डरती है।आज निकलते समय पास का ढाबेवाला मुस्कराकर बोला, ‘तेरी लड़की बड़ी हो गई है अब।’ उसने अनसुना तो कर दिया पर गर्म लावे सा पड़ा था कानों में यह वाक्य।मन में उथल-पुथल मच गई।इस तरह क्यों बोला वह मिनी के बारे में? घर वाले ने साथ दिया होता तो यह नरक ना भोगना पड़ता।आंसू टपक पड़े।नहीं, उसे अब रोने का भी हक नहीं है।देह-व्यापार करनेवाली औरतों के आंसुओं का कोई मोल नहीं।

तभी बस आती दिखाई दी।उसने राहत की सांस ली।बस में चढ़ने के लिए एक पैर रखा ही था कि उसके दिमाग में ढाबेवाले का वाक्य फिर से गूंजने लगा, ‘तेरी लड़की बड़ी हो गई है अब।’ -क्या करूं? हर दिन, हर पल, एक भंवर है।एक पैर अभी नीचे ही था, वह झटके से बस से उतर गई।देखनेवाले हैरान थे इतनी देर से बस का इंतजार  कर रही थी, इसे क्या हुआ।वह बदहवास मां अपने घर की ओर दौड़ी जा रही थी।

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