सुपरिचित कवि। फिल्में तथा टीवी धारावाहिकों के लिए शोधकार्य और लेखन। कई कविताएं देशी और विदेशी भाषाओं में अनूदित। नया कविता संग्रह ‘अब जान गया हूँ तो’।
1.
केता आवै केता जाई।
केता माँगे केता खाई।
केता रूष विरष तल रहै।
गोरष अनभै कासौ कहै॥
गोरखबानी, सबदी-58
गोरख स्वयं उलझन में हैं कि
अपना अभय ज्ञान किससे कहें!
सिद्धियां दिखाने की दौड़ में
साधक का रूप धारे
कितने आडंबरी योगी आ रहे हैं
और कितने जा रहे हैं!
कितने उधार का ज्ञान मांग कर जी रहे हैं
कितने ऐसे ही छीन झपट कर दूसरे के सिझाये
योग को खा पचा रहे हैं!
न योग की अपनी खेती न किसानी
न अपना जांता न अपनी पिसानी!
सब मांगा सब उठाया दूसरे का!
कितनों ने गृहस्थों के क्षेत्र को छोड़ कर
बस्ती के बाहर लगाया है
पेड़ों के नीचे डेरा
घर के बाहर द्वार पर बैठने को ही
मान रहे हैं योग का फेरा!
ऐसे भागा भागी और प्रदर्शन के समय में
बताओ भला गोरखनाथ किसे
सिखाएं अनभै योग?
साधारण अर्थ:
गोरख अभय ज्ञान किससे कहें, क्योंकि साधक बाहरी क्रियाओं को योग समझे हुए हैं। कितने ही आते-जाते रहते हैं। कितनों ने मांगना-खाना योग समझ रखा है। कितनों ने बस्ती के बाहर पेड़ों के नीचे रहना ही योग समझ रखा है।
2.
कोई न्यंदै कोई ब्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
गोरष कहै सुणौरे अवधू, यहु पंथ षरा उदासा॥
गोरखबानी, सबदी-126
कोई निंदा करे या करे उपहास
कोई वंदना करे या करे स्तुति
कोई वरदानी समझ कर
रिझाए इस आशा में कि
उसका मनोरथ साधने में
सहायक होगा योगी!
किंतु समझाते हैं गुरु गोरख
सुनो अवधूत
तुम जिस पर जा रहे हो
वह पूर्ण उदासीनता का महामार्ग है
इसमें न निंदा से निराश होना है
न प्रशंसा से पुलकित होना है
न शोक से विषाद
न आनंद से आह्लाद
न व्यक्ति से भावना से कोई सूत्र नहीं जोड़ते-जुड़ते!
किसी की तरफ क्षण भर लगाव से नहीं देखते-मुड़ते!
साधारण अर्थ:
कोई हमारी निंदा करता है, कोई वंदना करता है। कोई हमसे वरदान आदि प्राप्त करने के लिए आशा करता है। किंतु गोरख कहते हैं कि हे अवधू! यह मार्ग, जिस पर हम चल रहे हैं पूर्ण विरक्ति का है। हम निंदा या प्रशंसा सबसे उदासीन रहते हैं। किसी से संपर्क नहीं रखते।
3.
कोई बादी कोई बिबादी,
जोगी कौ बाद न करनां।
अठसठि तीरथ संमदि समावै,
यूं जोगी कौं गुरमुषि जरनां॥
गोरखबानी, सबदी -13
योग तर्क वितर्क नहीं जानता
वह मन में सधता है
कठिन सिद्धि से।
नहीं करे वाद
नहीं करे विवाद केवल ब्रह्म संवाद!
जैसे बाद विवाद के सभी पक्ष
सब अड़सठ तीर्थ अपनी गति
पाते हैं महासमुद्र में
वैसे ही सारे विवाद वाद घुल जाते हैं
गुरु मुख के शब्द ब्रह्म में
जो चाहते हो योग
उस एक गुरु गंभीर अनाहत वाणी में
अपने मतिभ्रम को डुबा दो!
अपनी अलग अहंकार वाली वाणी को
नष्ट कर दो गुरु स्वर में!
साधारण अर्थ:
योगी को वाद-विवाद के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिए। जिस प्रकार अड़सठ तीर्थ जल स्रोत अंत में समुद्र में लीन हो जाते हैं उसी प्रकार योगी को गुरुमुख की वाणी में लीन हो जाना चाहिए।
4.
जरणा जोगी जुग जुग जीवै झरणा मरि मरि जाय।
षोजै तन मिलै अविनासी अगह अमर पद पाइ॥
गोरखबानी, सबदी-252
अग्नि की लपट उठती है सदैव ऊपर
वह उठाती भी है सदैव
उच्चतर
जो जीर्ण सिद्ध योगी अग्नि की तरह सदैव अपने
अंतर के ब्रह्म और तेज को
जला कर संचित करता रहता है
योग की आंच में
वही बचता है मारण की मार से
जो असावधान यति पतित होकर झर जाता है
महा वृक्ष की डाल से पत्तों जैसा
वह नष्ट हो जाता है
जो अपने शरीर घर में
अविनाशी गृहपति को खोजता है
वह अक्षर अविनाशी से जुड़ कर
हो जाता है अजर अमर
वही पाता है अग्रहणीय ब्रह्म परात्पर!
जो नहीं लक्ष्य कर पाता अलख को
वह निश्चय ही जाता है मर!
साधारण अर्थ:
जरणा जोगी ब्रह्मानुभूति को स्थिर रखने वाला युगों तक जीवित रहता है और जो उसे झड़ जाने देता है, वह मर जाता है। जो इस शरीर में अविनाशी की खोज करता है, वह अमर पद को प्राप्त हो जाता है।
5.
सकति अहैड़ै मिस रिध, कोस बल स्यूं बागो।
गोरष कहैं चालती मारूँ, गुरु लौ लागो॥
गोरखबानी, सबदी -268
कौन किसका अहेर करे
मृगया पर निकले योगी का शिकार होगा या
योगी योग कवच से करेगा अपनी रक्षा
शक्ति के भीषण आक्रमण से अपनी
और कर लेगा इच्छित का शिकार।
ऋद्धि पाएगा अपनी झोली में
अपने ज्ञान कोश में क्या क्या भर पाएगा
संसार के बीहड़ वन से!
गुरु ज्ञान से सिद्ध योगी कहता है
चुनौती देता हुआ
मेरा गुरु ज्ञान तभी सुफल माना जाए जब मैं
शक्ति के प्रभाव से अपने योग की रक्षा करूं
तब जब आक्रमण हो तीव्र से तीव्रतर!
अन्यथा दीक्षा व्यर्थ है
ज्ञान जोग सब अनर्थ है!
साधारण अर्थ:
शक्ति ने मृगया में ऋद्धि और कोष के बहाने बलपूर्वक हल्ला बोल दिया है। किंतु मैंने भी गुरु से दीक्षा तब ली है जब चलती ही को मार डालूँ।
6.
सांग का पूरा ग्यान का ऊरा।
पेट का तूटा डिम का सूरा।
बदंत गोरषनाथ न पाया जोग।
करि पाषंड रिझाया लोग॥
गोरखबानी, सबदी-190
जो बना फिरे योगी का बाना धरके
रूप सरूप में दिखे ज्ञान पुंज
किंतु अंतर्मन में घुप्प अंधेरा
बैठा हो जिसके केंचुली मारे
जिसकी ज्ञान क्षुधा वायु से भरी हो
छूंछी गागर जैसी
फूली हो आडंबर से
दंभ से भरा बहुरूपिया योद्धा
अपने करतब नहीं
अपनी हरकत से लोगों को रिझाना जानता है
गोरख कहते हैं वह योग नहीं जानता
दिखावे का योगी है बस!
साधारण अर्थ:
जो केवल स्वांग रचने में पूरा है और ज्ञान का अधूरा है, जिसका पेट खाली है अर्थात बड़ा पेट है और जो दंभ भरने में शूर है, उसे योग प्राप्त नहीं होता। वह केवल पाखंड रचकर लोगों को प्रसन्न करना जानता है।
मूल पाठ- गोरखबानी- डॉ. पीतांबर दत्त बड्थवाल जी की किताब से है। जो साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद से प्रकाशित है। साधारण अर्थ में बड़्थवाल जी के साथ डॉ. गोविंद रजनीश और डॉ. कमल सिंह की किताबें संदर्भ के काम आई हैं।
संपर्क :श्री गणेश सी. एच. एस., फ्लैट–3, सेक्टर–3, प्लॉट–233, स्वातंत्री वीर सावरकर मार्ग, खरकोप, कांदीवली (वेस्ट), मुंबई–400067मो.9820212573