सुपरिचित कवि।फिल्में तथा टीवी धारावाहिकों के लिए शोधकार्य और लेखन।कई कविताएं देशी और विदेशी भाषाओं में अनूदित।नया कविता संग्रह अब जान गया हूँ तो

 


समझ लेना

कोई कुशल क्षेम पूछे तो सूझता नहीं उत्तर
ठीक ठीक अपना दुख बता दो तो
कुछ नहीं पूछता फिर!

अंधेरे को भी उजाला मानने के लिए
तर्क करते हैं लोग
जबकि कहे पर यकीन नहीं करता कोई
उलझन में नहीं डालती आंख रोई!

हर आदमी एक चलता फिरता संदेश है
शोक की वजह हो यह जरूरी नहीं
और हर शोक को समझ लेना
अनिवार्य नहीं अब!

आवश्यक नहीं

किसी को गाय ले जाते हुए भी मारा जा सकता है
और कपड़े की नाप लेते हुए भी काटा जा सकता है
हत्यारों ने हत्या को एक पर्व बना दिया है!

मुश्किल यह है कि
अब हत्या को हत्या कहना हत्यारे और
उसके कर्म का अपमान है
हो सकता है ऐसा कहने पर माफी मांगनी पड़े
हत्यारे से
या अदालत कहे कि इस कथन से
हत्यारे को ठेस पहुंची है!
आदमी बोलने से अधिक
बोलने के अभिप्राय से डरा हुआ है!
जो चुप है आवश्यक नहीं कि वो मरा हुआ है!

पराजय

खंभे से बंधा है एक अकेला आदमी
उसे एक समूह के लोग लगातार
पीट रहे हैं निर्दय!

उसके बचाव में कोई नहीं निकलता
उस खंभे को फाड़ कर!
कोई देवता नहीं कहीं अब!

वह बंधा हुआ देखता है हर एक पीटने वाले को
आंखों की क्रूरता उसे अनुनय करने से रोकती है

ऐसा ही होता है
आदमी रोता है उसी से
जिसकी आंखों में कुछ नमी हो

बंधा हुआ आदमी नहीं करता
किसी से भी बचाव की पुकार
यह देवता और मनुष्य दोनों की है हार!

सूखता हुआ पौधा जल के लिए नहीं
करता बादलों से प्रार्थना!
तुमने किसी पौधे को
आकाश की ओर हाथ उठाए देखा है?

अंत तक समझ में आ ही जाता है

जो कतार में लगता जा रहा है
कुछ किलो राशन के लिए
जो दुत्कारा और पुचकारा जा रहा है
कुछ साल शासन के लिए

अन्न की गठरी लिए घर लौटता
वह समझता है कि उसके साथ
जो कुछ हो रहा है ठीक नहीं है
बिक जाने के बाद भी उसका सोचना
सत्ता की असल पराजय यही है!

भूख और अपमान के बीच
दुविधा में पड़ा आदमी
सत्ता के खिलाफ एक मुनादी है
कितना भी कुचला जाए अंत में
सच समझ लेना
आदमी की बुनियादी खराबी है!

प्रस्ताव

मेरे पास कुछ थके शब्द और
एक पराजित भाषा है
मुझे किंतु अब से
इनसे ही कुछ आशा है!
बाकी क्या है कैसे है क्यों है
जैसे प्रश्न अनेक हैं
आज हर चाकू पवित्र
और हर मार खाया आदमी
अंत में नेक है!

तुम्हारा मन करे तो चाकू को सरकार समझ लो
और नहीं भी समझो तो यह तुम्हारी आजादी है!

मैं कविता न समझने के लिए तुम्हारी आजादी
छीने जाने का प्रस्ताव नहीं ला सकता!

अपार दुख

मैं समुद्र के पास गया
लेकिन उसे देख नहीं पाया
वह अंधेरे में पड़ा विलप रहा था निरंतर
केवल उसका रोना सुन पाया!

जितने तारे पहाड़ पर होते हैं
उतने ही थे समुद्र के ऊपर
हवा झांव झांव रोती थी
कलपते सागर का दुख छूकर!

कुछ देर खड़ा रहा उस दुखी के पास
फिर आऊंगा कह कर चला आया!
पता नहीं दिन होने पर
किसी ने क्या उसे चुप कराया?

विपरीत

जब तक पेड़ पंछियों को
अपने कंधे पर घोसले बुनने देते हैं
जब तक नदी नाव को
अपने जल पर बहने देती है
जब तक टूटे तारों को
अपने माथे पर रेखा खींचने देता है आकाश!
तब तक कोई भी तानाशाह रहेगा हताश!

क्योंकि यह सब कुछ उस तानाशाह की
इच्छा के विपरीत है
यह सब उसकी अपार शक्ति पर
निर्बलता की जीत है!

दिहाड़ी!

दिन डूबने पर जेब में
उदासी के अलावा
कुछ नहीं बचता
यही दिहाड़ी लेकर
लौटता हूं घर!

होना!

गांव के लोगों जितना ही
गांव के पेड़ याद आते हैं
जिन्हें गिरने का इंतजार किए बिना
हमने काट दिया!

कई पूर्वज नहीं हैं अब लेकिन वे हैं
अपने कहे शब्दों में!
जैसे कटे हुए पेड़ों की
परछाइयां नहीं मिटा पाए!

जब धूप बहुत कड़ी होती है
एक कटे पेड़ की परछाईं
पीठ पर छाया सी होती है!

दुख का साझा

एक पेड़ का दुख
तुम उसकी छाया में चल कर नहीं
उसके साथ जल कर ही समझ सकते हो!

एक पेड़ का सुख तुम
उसके सूखने में नहीं पा सकते हो!

वसंत और हरियाली ही पेड़ का ठाट है
बाकी सूखापन तो जीवन में
लकड़ी है काठ है!

प्रार्थना!

जर्मनी वाले हिटलर का हर जेलर
पढ़ा लिखा था!
उसके यातना शिविर के कर्मचारी भी
उच्च शिक्षित थे!

उनकी निजी डायरियां
दार्शनिकों के महान कथनों से भरी थीं!
किंतु नफरत की इबारतें अधिक हरी भरी
और भारी थीं!
वहां जेल की दीवारों पर भी
महाकाव्यों की पंक्तियां अंकित थीं!
यातना शिविरों के रास्तों में पड़ते थे
महाकवियों और दार्शनिकों के पवित्र घर!
अनेक पुस्तकालय और प्रार्थना घर
सब थे पर जैसे खंडहर!

हिटलर भी सुनता था संगीत
पढ़ता था किताबें!
उसकी सूक्तियों की डायरी में नफरत वाले एक भी
वाक्य नहीं थे!

किंतु मारे जाते रहे लोग
जो उसके अपने नहीं थे
उनकी हत्या होती रही
जो सहमत नहीं थे!

यह सब अभी कुछ वर्ष पहले की बात है
क्या तुम्हारे आसपास वैसे ही दिन वैसी रात है?

मैं कुछ भी लिखते डरता हूँ
तुम कुछ भी पढ़ते डरो
तुमसे यह आशा की जाती है कि तुम
कविता और सूक्तियों पर नहीं
अपने समय की निर्दय मुनादियों पर यकीन करो!

क्रूरता को छुप कर देखो
और उस पर मौन रहो

अगर तुमको आसपास की
चीख सुनाई नहीं दे रही
तो किताब और दीवारों के अक्षर तुमको
सुनना नहीं सिखा सकते!

मैं बंद करता हूँ लिखना
तुम बंद करो पढ़ना!
हत्यारों के लिए गिफ्ट तैयार करने वाले दिन आएं
उनके हाथों सत्कार की स्थिति में पाए जाओ
फिर उनके लिए स्वागत के फूल बिछाने से
कैसे बचोगे?

बच सको तो पहले त्रासदी को नियति मानने वाले
व्यभिचार से बचो!
कविता के सुमधुर शब्द नहीं
जो रास्ता दे वह जीवन छंद रचो!

वर्षा

पानी सिर्फ मेरे लिए नहीं बरसता
वह सिर्फ तुम्हारे लिए भी नहीं बरसता

पानी उस किसी के लिए नहीं बरसता
जो उसे अपने माथे से पोछ कर तय करते हैं
आगे का रास्ता!
पानी को अपने ऊपर से हटा देना
आर्द्रता के विरुद्ध
एक हिंसा है!

वे पेड़ जो कहीं नहीं जाते पानी खोजने
वे पत्थर जो पानी को पुकारना भूल गए हैं
घोंसले के वे तिनके
जो पानी का स्वाद नहीं जानते
वह धूल जो पानी के लिए उड़ तो सकती है
लेकिन पानी की मांग नहीं कर सकती
इन सबके लिए बरसता है पानी!
किसी बूंद से पूछ पाओ तो पूछो
वह कोई इंद्र उनका स्वामी नहीं
मेघ किसी वरुण के बंधक नहीं
वे तुमको अपनी आर्द्रता की भाषा में बताएंगे कि
वे बरसते हैं वहां जहां मंत्र और श्लोक से नहीं
जल की झिर-झिर से खिलता है जीवन
जहां पानी के धागे से सिला जाता है
उधड़ा सीवन!

पानी का हर तार
पेड़ों के घाव की तुरपाई करता है
इसलिए बरसता है वन-प्रांतर में
वृक्षों को अंधेरे में टटोलता हुआ!
वह उस साइकिल के लिए भी बरसता है
और उस दीवार के लिए भी
और उस बकरी के लिए भी
और उस चींटी के लिए भी
जिनका भी हिस्सा छीन लिया गया है
इस आकाश के नीचे
पानी उनके लिए
उसका हिस्सा दिलाने के लिए
अपने बिखर जाने की परवाह किए बिना गिरता है!

अगर तुमको पानी का मतलब
सिर्फ जल ही समझ में आया है
तो तुम स्मरण करो उस प्रथम अनुबंध को
जो तुमने किसी प्राचीन वृष्टि में
किसी और पुरातन मेघ की छाया में किए थे!

क्या उस मेघ छाया के बिना संभव था
तुम्हारा स्नेह?
पानी का बरसना प्रश्न करने की परंपरा का
एक आर्द्र नाम है!
पानी का गिरना
संस्कृतियों को नम्र करती हुई एक छवि का
बनना भी है
वर्षा आज भी एक विस्मय है!

यही करता है दुख

वह मुझे दिखता है किंतु उसी समय
मैं उसे नहीं दिखाई पड़ता!

वह अपने नाखूनों से अपने घाव छील रहा होता है
उसे दवा और उपचार में विश्वास नहीं
उसे ऋषियों वैद्यों और राष्ट्र प्रमुखों के वचन
मिथ्या लगते हैं!

कितनी कठिन बात है
रात हो रही है
यह जान कर भी उजाले का
कोई इंतजाम न करना
खून बहने देना
घाव की तरफ न देखना!

देखने की शक्ति रखते हुए भी कुछ न देखने से अधिक दुखद और क्या हो सकता है
आंखों के लिए?

कुछ न सोच पाने वाला समाज
कितना भयकारी हो सकता है
यह सोच कर ही समझा जा सकता है!
मेरी बातों पर ध्यान मत दो
मैं कहीं पहुंचा नहीं
मैं तो पलट पलट कर देखता रहा पीछे
छूट रहे सहयात्रियों के भी पीछे चलने लगा
कई बार
पिछड़े आदमी का पिछलग्गू मैं!

सबसे पीछे चलने में यकीन करना
कभी आगे कैसे ले जाएगा
यह प्रश्न जब पंछियों ने नहीं पूछा
तो तुम या मैं क्यों पूछ रहे हैं?

जीवन कोई जुलूस नहीं
जिसमें नारे लगाने से गंतव्य जल्दी आ जाते हों
प्रकाश से दहकते मार्ग भी कहीं नहीं पहुंचते!
वैसे कोई रास्ता कहीं नहीं ले जाता!
सभी रास्ते लौट आते हैं अंत तक!

हर शब्द का अपना अलग अलग अर्थ होता है
प्राण से छूटी हवा भी प्रिय नहीं रह जाती
कोई उसके खो जाने से व्यथित कहां होता है!

अंधेरे में खड़े पेड़
अपने साथ वालों का ध्यान रखते हैं
वे इसलिए नहीं बोलते कि
उनके सच बोलने से संकट खड़ा होता है!

और उस कौए और कीड़े की नींद टूट जाएगी
जो कुछ दिन पहले ही इस पर रहने आए हैं
उनके पंखों और रेंगने से
पत्तों को जीवन मिलता है!
अंधकार होते ही बदल जाते हैं मनोभाव
फिर कैसा रक्त कैसा दुख कैसा घाव!

मैं देखता हूँ
हजारों साल से देखने और अदेखा करने को भी
लोग देखते हैं जबकि
अपने घाव अपने नाखूनों से छीलता वह
किसी को नहीं देखता!

दुख यही करता है
कुछ भी देखना बंद कर देता है
चलना छूट जाता है
स्थिर कर देता है सारे प्रकाश वृत्तों को
आना अपनी ओर
आंसू की बूंद में दूसरी बूंद का मिलना
भी एक त्रासदी को जन्म देता है!

यदि तुमको त्रासदी नहीं चाहिए तो
अकेले आंसू की बूंद बनकर खिलो
यातना से मुरझाई आंखों से खरोचो अपने घाव
न कोई पेंच न दाव!

संपर्क : श्री गणेश सी. एच. एस., फ्लैट-3, सेक्टर-3, प्लॉट-233, स्वातंत्री वीर सावरकर मार्ग, खरकोप, कांदीवली (वेस्ट), मुंबई-400067मो.9820212573