अनिल कुमार बर (1968) बोडो के प्रतिष्ठित कवि, अनुवादक, आलोचक, संपादक एवं लोकसाहित्यविद।गौहाटी विश्वविद्यालय में लोकसाहित्य विभाग में प्रोफेसर।एक दर्जन से अधिक मौलिक, अनूदित एवं संपादित पुस्तकें।साहित्य अकादेमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मान प्राप्त। |
अनुवाद : अंशु सारडा अन्वि हिंदी कवयित्री एवं लेखिका।पूर्वोत्तर के अग्रणी हिंदी पत्र ‘दैनिक पूर्वोदय’ में नियमित स्तंभ लेखन। |
एक लकड़हारे का स्वप्न
पाया और खोया
एक लकड़हारे का स्वप्न
तुम कहाँ जाते हो
तुम अपना चेहरा कहाँ छुपाते हो
चंद्रमा की रोशनी वाली रात में
पूरा चंद्रमा चमकता है
अर्धरात्रि के लिए
तेज चमक रहा है
पाया और खोया
एक लकड़हारे का स्वप्न
कहाँ छुपा है लकड़हारे का स्वप्न।
अगर तुम कभी आते हो
अगर तुम कभी मेरे गाँव आते हो
मुझसे मिलना मत भूलना
छोटी नदी और बाँस के पुल के ठीक आगे
हरा-भरा सुपारी और कटहल के फल का उपवन
और मीठे फलों की फल वाटिका
तथा सुगंधित पुष्प कुंज है
अगर तुम कभी भी मेरे गांव आते हो
वर्षा ऋतु की मिट्टी से भयभीत मत होना
यहां युवतियां अब बो रही हैं
साली की फसल काटने के लिए
घुटने तक गहरी मिट्टी के जरिए
हरवाहा अछूते खेत को जोतता है
चावल की शराब के प्याले को बांटना भूलना मत
नोगल जांगखर डे पर,
युवतियों के परिपक्व और कोमल पैर
मिट्टी से सने
और उनकी प्यारी सी आंखों की चमक
जहां वे काम करती हैं और गाती हैं
बारिश से भीगी जमीन के गीत
और जीवन पुकारता है
अगर तुम कभी मेरे गांव आते हो
मुझसे मिलना मत भूलना
वहाँ धान के खेत में
सड़क के किनारे
मैं काम करता हूँ और गाता हूँ चरवाहों के गीत
फसल काटनेवालों के साथ
अगर तुम स्वाद लेना चाहते हो
कुटी मछली और हरे धनिए की पत्तियों का
और पकवान
उबले हुए लाफा मैदृयू का
सुनहरे खेत में चले आना
अगहन के महीने में
सड़क के किनारे वहां
सुनहरे खेत मेरे प्यारे गांव का आधार
मुझसे मिलना कभी मत भूलना
हमारे गांव की खैराय साली में
पूर्णचंद्र की रात में
माघ के महीने में
खाम की ताल के साथ
और सिपुंग की धुन के साथ
जोथा की लय
एक वृत्ताकार में भक्तों के द्वारा
किया जाता देवधनी नृत्य
उन भक्तों के बीच
तुम मुझे ढूँढ लेना,
अगर तुम कभी मेरे गाँव आते हो
मुझसे मिलना कभी मत भूलना
पुराना घर
पीपल के वृक्ष के नीचे मेरा कार्य क्षेत्र है,
अपनी मातृभाषा सीखता हुआ
बच्चों के साथ
मूलभूत सिद्धांत ग्रहण करने को
जोड़ना और घटाना,
संगीत सीखने के लिए
जिंदगी के प्रकाश का
बलगम पोछते हुए वहां उनकी नाक का
वे सीखते हैं
कैसे स्लेट पर बिंदु बनाया जाता है
अपनी जिंदगी की पहली तालिका के साथ
अपने विद्यालय की आधी टूटी दीवारों पर
मेरे गाँव आना कभी मत भूलना
ओ मेरे मित्र
पहाड़ और मैदानों के चौराहों पर वहां
सूरज के आनंदित कर देने वाले
चुंबन के साथ जो चमकता है
मेरा प्यारा छोटा-सा गांव
बहुत-बहुत दूर
पागल कर देनेवाली भीड़ से
जो कि अंतिम आधार है
मानवता के घर का।
अनिल कुमार बर : लोकसाहित्य विभाग, गौहाटी विश्वविद्यालय, गुवाहाटी, असम 781014, मो. 9864114151
अंशु सारडा ‘अन्वि’: प्रेम ऑटोमोबाइल्स, ऐक्सिस बैंक के सामने, सराफ़ बिल्डिंग के निकट, ए टी रोड, गुवाहाटी, असम–781001, मो. 9864331662
सर प्रणाम 🙏
आपकी लोकसाहित्य संबंधित किताबें कैसे मिल सकती है।
लोक से पंगे बगैर मन को छूने वाली आपकी कविताओं ने मन कों मोह लिया। स्थानीय बिंबो और प्रतीकों को चुनकर आपने बेहद मर्म युक्त कविताएं लिखी है आपको बहुत बधाई और शुभकामनाएं।