वरिष्ठ कवि।कविता संग्रह ‘जो राख होने से बचे हैं अभी तक’ प्रकाशित।
अंधेरा
अंधेरे में किसी चीज का कोई रंग नहीं होता
मगर जिंदगी के अंधेरे का रंग
होता है बहुत डरावना
दिन की रोशनी में अपने अंधेरों से लड़ते हुए हम
जहां-तहां छिपाते हैं
अपने दुख और दुख की परछाइयां
कोई नहीं देख पाता हमारे जूते के तले में
बढ़ते हुए छेद का अंधेरा!
क्षत-विक्षत दिन का दुख
ढूंढता है ठिकाना रात के अंधेरे में
अपने एकांत में ध्यान से सुनो तो
साफ-साफ सुनाई देती हैं आसपास की
डूबती हुई अंधेरी सिसकियां
कितना घना, कितना गाढ़ा और कितना गहरा था
उस स्त्री का अंधेरा
जिसने कल रात अपने बच्चे के साथ
कुएं में लगा दी छलांग
और चली गई सभी अंधेरों को लांघ कर!
अकेला रह गया बूढ़ा
जिसके साथ मुट्ठियों में लिया था इंद्रधनुष
और पार किए थे तमाम रेगिस्तान और जंगल
उसके जाने के बाद
धसक गई घर की धरती और दरकने लगीं दीवारें
दूर देश में जा बसे बच्चों को
उसने कभी नहीं दिखाए
अपनी पसलियों पर लिखे शिलालेख
पिछले दिनों की याद में आज को जीता हुआ
इस घर में अकेला रह गया है बूढ़ा
झूठी हँसी की तरह फीका, बेमतलब और
प्रतीक्षाहीन है उसका जीवन
किसी सरीसृप की तरह
धीमे-धीमे सरकता है उसका दिन
मगर रात डर बन कर आती है उसके पास
वह बत्तियां जली छोड़ कर सोता है
पास में रखता है फोन और जरूरी दवाइयां
सुबह बचे रहने की हल्की-सी राहत के साथ
बड़ी देर तक पीता है फीकी चाय
आज आई घर में एक अनजान चिड़िया
और खेलती रही अकेली चंपा की शाखों पर
बूढ़ा देखता रहा उसे बहुत देर तक
और पिघलने लगी उसकी बर्फ की नदी
एकाएक वह उठा और बांध कर रख दीं उसने
अलमारी में सभी पुरानी तस्वीरें और एलबम
पार करने को एक और रेगिस्तान
आज सधे कदमों के साथ निकल पड़ा अकेला
अकेला रह गया बूढ़ा।
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Painting : Tutt’Art