संपादकीय
संपादकीय अप्रैल 2025 – हिंदी पर घमासान

संपादकीय अप्रैल 2025 – हिंदी पर घमासान

शंभुनाथ  अब भाषा पर टकराव है, मुनादी तमिलनाडु से हुई है। अमेरिका के डलाश शहर के तमिल डायस्पोरा तक इसकी प्रतिध्वनि है। नए युग में सत्ता अपने आधुनिक अभियानों में अतीत के प्रेतों को साथ रखती है। तमिलनाडु में पिछले दिनों कहा गया, ‘हिंदी भारतीय भाषाओं को निगल रही है।...

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संपादकीय मार्च 2025 – इतिहास में लोकप्रियतावाद

संपादकीय मार्च 2025 – इतिहास में लोकप्रियतावाद

शंभुनाथ मैं जब विलियम डेलरिंपल की नई पुस्तक ‘द गोल्डन रोड : हाउ एंशियंट इंडिया ट्रांस्फार्म्ड द वर्ल्ड’ पढ़ रहा हूं, मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ (1912) की एक पाद-टिप्पणी याद आ रही है, ‘प्राय: सब नए और पुराने इतिहासवेत्ता इस बात को स्वीकार करते हैं कि दर्शन, विज्ञान...

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संपादकीय फरवरी 2025 – निराला के दलित और अंधेरे का ताला

संपादकीय फरवरी 2025 – निराला के दलित और अंधेरे का ताला

शंभुनाथ 20वीं सदी पिछले कई सौ सालों की जाति व्यवस्था से विद्रोह की सदी है। इस दौर में दलितों के आत्मसम्मान और अधिकार की लड़ाई प्रबल हुई। छायावाद के समय हिंदी क्षेत्र की दशा महाराष्ट्र से भिन्न थी, जहां अंबेडकर के नेतृत्व में महारों का आंदोलन चल रहा था। छायावाद और...

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संपादकीय जनवरी 2025 – भारतीय ज्ञान परंपरा : स्वच्छंदता की आवाजें

संपादकीय जनवरी 2025 – भारतीय ज्ञान परंपरा : स्वच्छंदता की आवाजें

शंभुनाथ इधर भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा जोरों पर है। यह एक अच्छा विषय है, यदि इसे स्थिर और एकरेखीय रूप में न देखा जाए। यदि कुछ भी ज्ञान है, वह एक द्वीप जैसा नहीं हो सकता। हर देश की राजनीति उसकी अपनी होती है, पर ज्ञान उसकी सरहदों से बंधा नहीं होता। एक समय था जब ज्ञानी...

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संपादकीय दिसंबर 2024 – प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ : सौ साल बाद

संपादकीय दिसंबर 2024 – प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ : सौ साल बाद

शंभुनाथप्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ को सौ साल बाद (1924-2024) याद करने का क्या अर्थ है जबकि ‘गोदान’ ने कई दशकों से उसे बौद्धिक पिछवाड़े में डाल रखा है? उसी समय के उनके नाटक ‘कर्बला’ को भी कोई याद नहीं करता। हम जब ऐसी कृतियों पर बात करते हैं जो लंबे समय से चर्चा के...

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संपादकीय नवंबर–2024 : कल्पना के अंत से कुछ पहले

संपादकीय नवंबर–2024 : कल्पना के अंत से कुछ पहले

शंभुनाथ ‘मैं कपड़े की तरह बुनता हूँ शब्दों को गहन रात्रि में/यह एक मौन सिंफनी है चांदनी में नहाई हुई!’ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, अर्थात मेधाबोट द्वारा यह अंग्रेजी में लिखी गई कविता है। मेधाबोट की रची एक और पंक्ति है, ‘मेरे पास तुम्हारी दुनिया को खत्म कर देने की क्षमता...

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संपादकीय अक्टूबर–2024 : हिंसा की अंधेरी गलियां

संपादकीय अक्टूबर–2024 : हिंसा की अंधेरी गलियां

शंभुनाथ आज हर व्यक्ति हिंसा के निशाने पर है और उसका औजार भी! दुनिया में शिक्षा और व्यापार के विस्तार के कारण शांतिप्रिय लोगों की संख्या किसी भी युग से अब ज्यादा है। इसके बावजूद, हर देश में अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में न केवल बेतहाशा वृद्धि हुई है बल्कि इन दिनों हिंसा...

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संपादकीय सितंबर–2024 : महादेवी : छायावाद की स्त्री आवाज

संपादकीय सितंबर–2024 : महादेवी : छायावाद की स्त्री आवाज

शंभुनाथ 11 सितंबर महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि है। हिंदी में अपने महान साहित्यकारों का स्मरण करने की परंपरा कमजोर है, क्योंकि इसके लिए खुद को थोड़ा भूलना पड़ता है। हम कह सकते हैं कि महादेवी हमारे लिए आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनका काव्य स्त्री मुक्ति और छायावाद दोनों...

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संपादकीय अगस्त-2024 : स्वाधीनता का वर्तमान

संपादकीय अगस्त-2024 : स्वाधीनता का वर्तमान

शंभुनाथ 15 अगस्त का स्वतंत्रता दिवस अब महज छुट्टी का एक दिन है या देश की राजधानियों में परेड और शक्ति प्रदर्शन का दिन। गली-मुहल्ले में तिरंगा फहराने का अनुष्ठान भी हो जाता है। सिर्फ यह नहीं सोचा जाता कि देश-दुनिया के हजारों-लाखों शहीदों ने कैसी स्वाधीनता के स्वप्न...

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संपादकीय दिसंबर 2024 – प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ : सौ साल बाद

संपादकीय जुलाई 2024 : प्रेमचंद – परंपराओं से विच्छेद के दौर में

शंभुनाथ प्रेमचंद ने हिंदी प्रांतों के गवर्नर मालकम हेली की एक टिप्पणी ‘भारत 1983 में’ का विरोध करते हुए लिखा था, ‘सर मालकम हेली के विचार में भारत की परंपरा और उसकी संस्कृति प्रतिनिधि (लोकतांत्रिक) शासन के अनुकूल नहीं है। यह कथन हमें चिंता में डाल देता है।... यह मानव...

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संपादकीय जून-2024 : लेखक का अकेलापन

संपादकीय जून-2024 : लेखक का अकेलापन

शंभुनाथ साहित्य महज कुछ लिखना नहीं है, बल्कि यह दुनिया में प्रेम और स्वतंत्रता की खोज है जो कई बार अकेला कर देती है। फिर भी साहित्य लिखना और पढ़ना जरूरी है, क्योंकि यह जीवन की सुंदरताओं को बचाकर रखनेवाली मनुष्यता की सबसे सच्ची अभिव्यक्ति है। साहित्य का खो जाना सभ्यता...

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संपादकीय मई-2024 : कामायनी का महत्व

संपादकीय मई-2024 : कामायनी का महत्व

शंभुनाथयदि आज की उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिपक्ष में किसी एक कृति को रखना हो, कहा जा सकता है कि वह प्रसाद की ‘कामायनी’ है। यह कृति सुख की दासता और स्वेच्छाचारिता से एक महाकाव्यात्मक विद्रोह है। आज का मनुष्य कृत्रिम इच्छाओं की वजह से भोगवादी और कट्टर एकसाथ दोनों होता जा...

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संपादकीय अप्रैल 2024 : मानवता का पुनर्जन्म

संपादकीय अप्रैल 2024 : मानवता का पुनर्जन्म

शंभुनाथ दुनिया के सभी धर्म भय और निराशा की देन हैं। ईश्वर जरूर लोगों के दुख से निकला होगा और आशा की किरण बनकर आया होगा। धर्म ही कभी खुले आसमान के नीचे जीवन के शिक्षालय थे, संवाद के स्थल थे, रोने की एकांत जगह और गाने के मंच थे। धर्म सृष्टि की उन चीजों की व्याख्या करते...

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संपादकीय मार्च 2024 : स्त्री, स्त्रीवाद और स्त्री-सशक्तिकरण

संपादकीय मार्च 2024 : स्त्री, स्त्रीवाद और स्त्री-सशक्तिकरण

शंभुनाथ ॠषि याज्ञवल्क्य ने गार्गी के लगातार सवाल करने पर गुस्से से कहा था, ‘ज्यादा पूछा तो तुम्हारा मस्तक फट जाएगा।’ प्राचीन युगों की तरह वर्तमान युग में भी स्त्रियां ज्यादा सवाल करने से रोकी जाती हैं। उनके साहस की हद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से बांध दी जाती है।...

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संपादकीय फरवरी 2024 : दगा की, इस सभ्यता ने दगा की

संपादकीय फरवरी 2024 : दगा की, इस सभ्यता ने दगा की

शंभुनाथ कवि निराला की उपर्युक्त पंक्ति बहुत कुछ कहती है। कोई व्यक्ति या दल दगा करता है तो हम कुछ साल पीछे हो जा सकते हैं, पर जब सभ्यता दगा करती है, देश का इतिहास विध्वस्त हो जाता है, इस विध्वंस से उड़े धूलकण भले बहुतों को सलमा-सितारे नजर आएं! निराला छायावादी कवि थे।...

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संपादकीय जनवरी 2024 : जिज्ञासा के द्वार खुले हैं या बंद

संपादकीय जनवरी 2024 : जिज्ञासा के द्वार खुले हैं या बंद

शंभुनाथ यदि हम वस्तुओं की दुनिया में अपने को खो नहीं चुके हैं तो कभी-कभी अपने को खोजने का प्रयत्न करना चाहिए कि हम कौन हैं, हमारे लक्ष्य क्या हैं। पृथ्वी की इन दिनों कितनी ज्यादा क्षति हो रही है, सामाजिक पर्यावरण कितना बिगड़ रहा है- ऐसे विषयों पर सोचे बिना आज जो लोग...

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संपादकीय दिसंबर-2023 : दृष्टि का अकाल

संपादकीय दिसंबर-2023 : दृष्टि का अकाल

शंभुनाथमीराबाई दमन और हिंसा के माहौल में भी कृष्ण के प्रेम में बावरी थी। उन्होंने सवाल किया था कि इतने पाखंड और लोभ से भरकर तुम ईश्वर की भक्ति कैसे कर सकते हो- ‘यहि विधि भगति कैसे होय’। राणा उन्हें पहरे में रखता था। लोग कड़वा बोलते थे, निंदा करते थे। मीरा ने कहा, ‘कड़वा...

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संपादकीय नवंबर-2023 : भारतीय ज्ञान परंपरा पर बहस

संपादकीय नवंबर-2023 : भारतीय ज्ञान परंपरा पर बहस

शंभुनाथ इस युग में किसी विचार की सचाई के लिए बौद्धिक शक्ति का होना पर्याप्त नहीं है। भौतिक शक्ति भी चाहिए, अर्थात भीड़ और पूंजी की शक्ति। सौ साल पहले लोग ज्ञानियों का अपार आदर करते थे और पांच सौ-हजार साल पहले वे ही समाज के आलोकस्तंभ थे। वर्तमान युग में ज्ञान की जगह...

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संपादकीय अक्टूबर-2023 : अहिंसा के लिए कविता

संपादकीय अक्टूबर-2023 : अहिंसा के लिए कविता

शंभुनाथ अहिंसा का व्यापक अर्थ है। यह गांधी के दर्शन का संपूर्ण सार और भारत देश का बार-बार दबाया गया महाभाव है। अहिंसा की जो यात्रा बुद्ध से शुरू हुई थी, वह सभ्यता के वर्तमान शिखर पर गंभीर चुनौतियों से घिर गई है। इस बार संपादकीय की जगह अहिंसा के लिए प्रार्थना के रूप...

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संपादकीय सितंबर-2023 : भाषा में अंधेरा

संपादकीय सितंबर-2023 : भाषा में अंधेरा

शंभुनाथ उपनिषद में भाषा को ‘मन की नहर’ कहा गया है। वह मानव चित्त का प्रतिबिंब होने के अलावा समूची सभ्यता का प्रतिबिंब है। हम जो बोलते हैं, उसमें इसकी झलक होती है कि समाज किस तरफ जा रहा है। खासकर  बहस की भाषा से सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास की दिशा का बोध हो सकता है।...

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