संपादकीय
संपादकीय जून-2023 : सभ्यता का ‘मंकी सिंड्रोम’

संपादकीय जून-2023 : सभ्यता का ‘मंकी सिंड्रोम’

शंभुनाथ हर विकासशील भारतीय भाषा का अपना एक विश्व है जो ‘स्थानीय’, ‘राष्ट्रीय’ और ‘वैश्विक’ के बौद्धिक त्रिभुज से बनता है।इस त्रिभुज का कोई कोण छोटा या बड़ा हो सकता है, पर इसके बिना हर भारतीय अधूरा है! आज हर भारतीय में यह त्रिभुज लड़खड़ाया है या दरका है, जिसका असर साहित्य...

read more
संपादकीय मई-2023 : आत्मनिरीक्षण का जोखिम

संपादकीय मई-2023 : आत्मनिरीक्षण का जोखिम

शंभुनाथ कई बार मनुष्य के पास सिर्फ एक उपाय होता है, ‘जो घटित हो रहा है उसे चुपचाप जियो’।यह अंधेरे का फोटो खींचने से अलग हो सकता है, यदि हमारे सामने यह सवाल हो- ‘फिर भी यह जीवन अपना है, तो इसका क्या अर्थ है?’ इस प्रश्न का संबंध सबसे पहले आत्मनिरीक्षण से है।भारतीय समाज...

read more
संपादकीय अप्रैल-2023 : आलोचनात्मक सोच का संकट

संपादकीय अप्रैल-2023 : आलोचनात्मक सोच का संकट

शंभुनाथ आलोचनात्मक ढंग से देखने या रचनात्मक होने का क्या अर्थ है, यह साहित्य ही नहीं, जीवन का भी प्रश्न है।२१वीं सदी की वास्तविकता यह है कि आलोचनात्मक दृष्टि संकुचित हो गई है और रचना से ज्यादा उत्पादन का महत्व है।समाज में बाजार एक सर्वभक्षी डायनासोर के रूप में घुसा...

read more
संपादकीय मार्च-2023 : असहमति का भविष्य आम असहमति में है

संपादकीय मार्च-2023 : असहमति का भविष्य आम असहमति में है

शंभुनाथ साहित्य का जन्म असहमति से हुआ है।इसका प्रमाण है ‘रामायण’ में बहेलिया द्वारा मिथुनरत नर क्रौंच को मार गिराने के प्रतिवाद में वाल्मीकि के कंठ से फूटा पहला श्लोक, ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः...’।यह भी गौर करने की चीज है कि कवि वाल्मीकि का अयोध्या के राजदरबार से...

read more
संपादकीय फरवरी-2023 : विमर्शों को जोड़ने का अर्थ

संपादकीय फरवरी-2023 : विमर्शों को जोड़ने का अर्थ

शंभुनाथ दलित विमर्श दलित चेतना की एक मंजिल है, अंतिम मंजिल नहीं।इसी तरह स्त्रीवाद स्त्री चेतना की एक मंजिल है, अंतिम ठिकाना नहीं।१९८० के दशक से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श शुरू हुए थे।इसमें राजेंद्र यादव और उनके ‘हंस’ (१९८६) की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।उन्होंने नई...

read more
संपादकीय जनवरी-2023 : संस्कृतियां साहित्य के कारण ही जीवित रहती हैं

संपादकीय जनवरी-2023 : संस्कृतियां साहित्य के कारण ही जीवित रहती हैं

शंभुनाथ साहित्य हमेशा सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों का मामला है।आज समाज में साहित्य की जरूरत कितनी महसूस की जाती है, शिक्षित लोगों के जीवन में साहित्यिक कृतियों का कितना स्थान है और साहित्य के नाम पर जो कुछ घटित हो रहा है, वह कितना साहित्य है- ये चुनौतीपूर्ण प्रश्न हैं।कहीं...

read more
संपादकीय दिसंबर-2022 : महान परंपरा और लघु परंपरा

संपादकीय दिसंबर-2022 : महान परंपरा और लघु परंपरा

शंभुनाथ पश्चिमी कोण से एक चर्चित विभाजन है- ‘महान परंपरा-लघु परंपरा’।धारणा बनाई गई है कि वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, गीता, संस्कृत के अन्य क्लासिकल ग्रंथ और इनसे संबंध रखनेवाला साहित्य ‘ग्रेट ट्रेडिशन’ है।कालिदास महान परंपरा हैं।रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य आदि महान...

read more
संपादकीय नवंबर-2022 : पश्चिमी नजर में धार्मिक भारत

संपादकीय नवंबर-2022 : पश्चिमी नजर में धार्मिक भारत

शंभुनाथ यह देखना रोचक होगा कि पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने भारत को किस नजरिये से खोजा और इस देश को एक राजनीतिक ही नहीं, धार्मिक नक्शा भी दिया।उन्होंने भारत के बारे में यात्रा वृत्तांत लिखे थे, व्याख्यान दिए थे और चमकदार जिल्दों में अनगिनत रोचक पुस्तकें छपाई थीं।कभी ये...

read more
संपादकीय अक्टूबर 2022 : सभ्यता की हिंसा

संपादकीय अक्टूबर 2022 : सभ्यता की हिंसा

शंभुनाथ मनुष्य दूसरे जीव-जंतुओं की तरह अपनी प्रकृति से हिंसक है।हिंसा प्रकृति है, जबकि अहिंसा सभ्यता है।अहिंसा स्वाभाविक नहीं है, यह प्रयत्न से अर्जित की जाती है।यह सिर्फ मनुष्य जाति द्वारा संभव है।हम जानते हैं कि महाभारत के पन्ने युद्ध और हिंसा के दृश्यों से भरे पड़े...

read more
संपादकीय सितंबर 2022 : हिंदी संस्कृति का स्वप्न

संपादकीय सितंबर 2022 : हिंदी संस्कृति का स्वप्न

शंभुनाथ हिंदी एक गंवारू बोली है, यह अग्रवाल, कायस्थ, खत्री जातियों की भाषा थी, यह एक सांप्रदायिक निर्मिति है- 19 वीं सदी से यूरोपीय विद्वान इस तरह की बातें कहते आए हैं।आमतौर पर यूरोपीय विद्वता ही, जिसका एक हिस्सा औपनिवेशिक मिजाज का है, हिंदी क्षेत्र के कई...

read more
संपादकीय अगस्त 2022 : वंदे भारतम्-वंदे मानवम्! स्वतंत्रता का हलफनामा

संपादकीय अगस्त 2022 : वंदे भारतम्-वंदे मानवम्! स्वतंत्रता का हलफनामा

शंभुनाथ स्वाधीनता के 75 वें वर्ष पर दो पुराने कथन याद आ रहे हैं।एक कथन है, ‘मनुष्य स्वाधीन पैदा होता है, लेकिन उसे हमेशा बंधनों में जीना पड़ता है।’ दूसरा है, ‘मनुष्य एक करुणासंपन्न प्राणी है, लेकिन हमेशा ऐसे समाज में जीता है जो निष्करुण और अन्यायपूर्ण है।’ जब दुनिया...

read more
संपादकीय जुलाई 2022 : क्या हम प्रेमचंद को भूल गए?

संपादकीय जुलाई 2022 : क्या हम प्रेमचंद को भूल गए?

शंभुनाथ यदि कोई देश अपने साहित्यकारों को भूलता जाता है तो वह निश्चय ही आत्मघात के पथ पर है।प्रेमचंद को लेकर हिंदी के आम शिक्षित नागरिकों, यहां तक कि लेखकों के अंदर भी अब कोई उत्सुकता नहीं है।विभिन्न विमर्शों ने उन्हें पहले से साहित्यिक पिछवाड़े में डाल रखा है।उनसे...

read more
संपादकीय जून 2022 : एलीट विमर्श और लोकमन-2

संपादकीय जून 2022 : एलीट विमर्श और लोकमन-2

शंभुनाथ एक लोक वह रहा है जिसमें संदेह करने, प्रश्न करने, सृष्टि से प्रेम करने और मिल-जुलकर रहने के महान गुण थे।मेगस्थनीज (300 ईसा पूर्व) ने अपने यात्रा वृत्तांत में बताया है कि उनके समय का लोक कैसा था।राजा जिस समय कहीं युद्ध लड़ रहे होते थे, पास में कृषक अपनी जमीन पर...

read more
संपादकीय मई 2022 : एलीट विमर्श और लोकमन

संपादकीय मई 2022 : एलीट विमर्श और लोकमन

शंभुनाथ राम जब वनवास के समय केवट से गंगा पार उतारने के लिए कहते हैं, केवट मना कर देता है।वह संदेह व्यक्त करता है कि राम के पैरों की धूल से कहीं उसकी नाव अहिल्या की तरह स्त्री बन गई तो उसकी जीविका कैसे चलेगी।वह कहता है, भले लक्ष्मण तीर चलाकर मार डालें, वह पैरों से धूल...

read more
संपादकीय अप्रैल 2022 : आदिवासियों पर बाज

संपादकीय अप्रैल 2022 : आदिवासियों पर बाज

शंभुनाथ भारत में आदिवासी 2011 की जनगणना के अनुसार कुल आबादी के 8.6 प्रतिशत हैं, अर्थात आज के समय में करीब 11 करोड़।ये नई शब्दावली में ‘जनजाति’, ‘देशज लोग’ (इंडिजिनस पीपल) कहे जाते हैं।देश की सबसे अधिक प्राकृतिक विविधता आदिवासी इलाकों में है और उतना ही विविध है उनका...

read more
संपादकीय मार्च 2022 : स्त्रीवाद को एक मोड़ की जरूरत है

संपादकीय मार्च 2022 : स्त्रीवाद को एक मोड़ की जरूरत है

शंभुनाथये कुछ समाचार हैं जिनसे स्त्री की दशाओं का बोध होता हैः - कोरोना महामारी के दौर में स्त्रियां सबसे ज्यादा बेरोजगारी और घरेलू हिंसा की शिकार हुईं।- स्त्रियां मर्यादा न लांघें।मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीताहरण हो जाता है।अगर कोई स्त्री मर्यादा लांघती है तो...

read more
संपादकीय फ़रवरी 2022 : नया मीडिया और हम

संपादकीय फ़रवरी 2022 : नया मीडिया और हम

शंभुनाथ21वीं सदी में मीडिया के स्वरूप में ऐसा परिवर्तन आया है, जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अब इसे ‘नया मीडिया’ तथा मुद्रित माध्यमों को ‘परंपरागत मीडिया’ कहा जाता है। नया मीडिया के दो रूप हैं- कारपोरेट टीवी और सोशल मीडिया। कहा जा सकता है कि मल्टीनेशनल के लिए...

read more
संपादकीय जनवरी 2022 : भविष्य की कविता

संपादकीय जनवरी 2022 : भविष्य की कविता

शंभुनाथप्रेमचंद कवि नहीं थे, लेकिन उन्होंने कवि के बारे में जो लिखा है वह अनोखा है :‘जिसे संसार दुख कहता है, वह कवि के लिए सुख है।धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि- ये विभूतियां संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहां जरा भी आकर्षण नहीं है।उसके...

read more
संपादकीय दिसंबर 2021 : सूफी प्रेम के मायने

संपादकीय दिसंबर 2021 : सूफी प्रेम के मायने

शंभुनाथसूफी दरवेश होते थे, एक प्रांत से दूसरे प्रांत और एक देश से दूसरे देश में आने-जाने वाले| वे प्रेम से भरे और लोभहीन लोग थे| इसलिए भ्रमणशील और निरंतर यात्री थे| यह विचित्र लग सकता है कि एक समय धर्म प्रचारकों और व्यापारियों ने ही उन बड़े भूमि-मार्गों और जल-मार्गों...

read more
संपादकीय जून 2021 : महामारी और नागरिक परिसर

संपादकीय जून 2021 : महामारी और नागरिक परिसर

शंभुनाथ1918 में भारत में स्पेनिश फ्लू नाम से आई महामारी ने भारतीय स्थितियों में दो बड़े परिवर्तन ला दिए थे। एक, इसने दमनमूलक अंग्रेजी राज के प्रति लोगों के मन में असंतोष भर दिया, जिससे प्रथम सत्याग्रह आंदोलन के लिए जमीन मिली। दूसरे, देश में एक अनोखा नजारा देखने को...

read more