युवा कवयित्री।दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में शोधार्थी।

हामिद

अमीना मुझे माफ़ करो
मैं चुरा रही हूँ सभी बच्चों को तुम्हारे हामिद सहित
जिन्हें आज तीन कोस दूर ईदगाह जाना है

नहीं-नहीं अमीना रोको उन्हें
वापस बुलाओ
मत जाने दो आज ईदगाह की गलियों की तरफ
पुरानी टोपी या पैरों की चप्पलों का ही
बहाना बना कर
रोक लो उन्हें
तुम यहां सेवइयों की चिंता में डूबी बैठी हुई हो
वहां बाहर धीरे-धीरे
कितना कुछ बदलता जा रहा है

और ये बदलता मौसम
हामिद के साथ- साथ देश में
कितना कुछ बदल देना चाहता है

वह कभी नहीं झुक कर देख पाएंगे
हामिद के पैरों के छाले
जिनकी पूरी ऊर्जा
धर्म की ऊंचाई तक पहुंचने में खत्म हो चुकी है
नहीं ढूंढ़ पाएंगे उसकी अम्मी के मर्ज का इलाज
जो मरी उस बेनाम बीमारी से
जिस बीमारी से इस देश की गरीब विधवा औरतें
यूं ही मर जाती हैं
देखो न अमीना जिस दुनिया में पत्थरों को भी
सम्मानपूर्वक जीवन मिलता है
वहां एक औरत के लिए
सम्मानजनक मौत का न होना
अब हास्यास्पद नहीं लगता

अमीना
महाजन कासिम अली से बड़ा
एक महाजन अपने जिन्नादों के साथ बढ़ रहा है
सेवइयों की खुशबू से भरे हर उस घर की तरफ
जहां अम्मियों ने आज कई दिनों के बाद
बच्चों की कटोरी में सेवइयां डाली हैं
और बच्चों की जेबों में
आज उनके अब्बा ने हँसते हुए
दो पैसे ईदगाह जाने के लिए डाले हैं

दो पैसों का भार गरीब बाप पर
इतना ज्यादा क्यों होता है अमीना?
मेला अब बाज़ार बन गया है और हामिद मुसलमान
बाजार को हामिद चाहिए
और हामिद को एक अदद चिमटा
अमीना रोको हामिद को बाजार जाने से।

जिंदा होना

मैं तुमसे हमेशा कहती हूँ कि मैं जिंदा हूँ
पर मेरे दोस्त
यूं ही मेरा यकीन मत करना

पहले छूना
फिर पहुंचना मेरी हृदय-धमनियों के भीतर
रंग की अंतिम सीमा तक होना लाल
कई दिनों की भूख पर
गर्म रोटी की तरह फैल जाना

शहर की सारी चिड़िया ठहरती हैं जैसे
मेरे भीतर बचे
एक मात्र पेड़ की शाखाओं पर रात भर
बस कुछ देर तुम भी ठहरना
उनकी ही ध्वनियों में उनसे संवाद करना

फिर वापस लौटना और
मुझे मेरे कहे पर बार-बार यकीन दिलाना ।

उदासी

उदासियों को समय के ताप से पिघला कर
मैं नीले फूलों के बीज वहां बार-बार बोती रही
ताकि दुनिया में
नीले रंग का विकल्प केवल आकाश न रहे

मैं स्मृतियों को तहखाने से निकाल कर
धूप की गर्माहट के लिए
कई दिनों तक उन्हें
सुखाने की प्रक्रियाएं दोहराती रही

हर बार जब भी नए मौसम की हलचल हुई
दुख के लिए पहला दरवाजा मैंने खोला
कभी कोई बाधा नहीं पहुंचाई
दुख को दुख की तरह जीती हुई
मैं कविता में दुख को
दुख की तरह ही लिखना चाहती थी।

यादों का मौसम

इक गहरे सदमे की तरह
आज फिर आई तुम्हारी याद
और दुनिया के सभी बच्चों के हाथों से
छूट गए उनके प्रिय गुब्बारे

मैं सोचती हूँ इस शहर में अब सावन
या आषाढ़ या किसी भी मौसम में बादल
क्यों नहीं आते
और बिना मौसम हुई बारिश
पके गेहूं की बालियों को
पता नहीं कहां ले जाती है

इस गर्मी में
जिन लीचियों को खूब लाल होना था मेरे लिए
वे अपने ही माली की नफ़रत से झर गईं

ट्रेनें अब भी समय पर ही आती हैं
पर मेरा समय किसी ट्रेन से क्यों नहीं आता

आखिर क्यों नहीं आता?
बच्चो माफी! गेहूं की बालियां माफ़ी!
लीची माफ़ी!

संपर्क :शोधार्थी, हिंदी विभाग, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया,  chahatanvi@gmail.com