युवा कवि।अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।फिलहाल खेती बाड़ी, इधरउधर काम।

ये गेहूं के उगने का समय है

हर रोज की तरह सूरज पूरब से उगेगा
खुला आसमान रहेगा और दूर-दूर से पंडुक आएंगे
मैनी चिरैया आएंगी
देसी परदेसी पंछी आएंगे
गेहूं की निकली हुई पहली पहली डिभी को
मिट्टी में चोंच से गोद गोद कर खाएंगे
इन्हें बच्चे हुलकाएंगे तो उड़ जाएंगे

ये गेहूं के उगने का समय है
और देश में किसान हक के मोर्चे पर खड़े हैं
युगों की पीड़ा से सनी हुई मिट्टी
किसानों के लबों से बोल रही है

जिनके पास ज्यादा खेत हैं
उन्हीं का भरा पेट है
दोष मिट्टी का नहीं
ज़मीन का खून-पसीना लूटने वाले लोगों का है

ये गेहूं के उगने का समय है
यह समय मौसम के फसल को
सही-सही लिखित मूल्य मिलने का समय है

यह समय हत्यारे गोदामों की ओर से
कुवारी जमीन की ओर गेहूं के लौटने का समय है!

अभी भी

अभी भी लकड़ी का हल चलता है यहां
अभी भी हजारों जोड़ी बैलों से
खेतों को जोता जाता है
अभी भी गन्ने के खेतों में
बहुत रस बचा हुआ है
अभी भी जंगलों में जंगली हाथी
गरजते हैं बादल से भी तेज

अभी भी एक प्राचीन कवि
कविता की पत्थलगड़ी करता है
जंगलों से जमीनों से
खदेड़े जाने के बाद भी
अभी भी सिंगार करती हैं
आदिवासी स्त्रियां वनफूलों से
अभी भी प्यार करती हैं
रेलगाड़ियां परदेसिया मजदूरों से

अभी भी हम साइकिल चलाते हुए जाते हैं
बैगन बेचने लंका
अभी भी बिहार में
तंबाकू की खेती में टाटा का फरुहा चलता है
अभी भी भारत के झारखंड में
बहुत खंड बचा हुआ है
अभी भी सात बहनों का राज्य
जल जंगल जमीन
नद-नदी दीप-समूह से घिरा हुआ है

अभी भी हमारे सपनों में
एक कपिली नदी बहती है
जिसके ऊपर पुराना पुल
थोंग नोक बे के नाम से है
जिस पर से अभी भी
सैकड़ों असमिया, कार्बी लड़कियां
मस्तकों पर असमी गमछा पहने हुए
हर रोज जाती हैं धान रोपने, घास काटने

अभी भी गांव के सामने वाली मड़ई में
पिसुआ मड़ुवा पर नमक लगी लिट्टी गमकती है
अभी भी ब्रह्मपुत्र में
लकड़ी की नावों पर मछलियां पार होती हैं
अभी भी डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया में
चाय बागान लहराते हैं
अभी भी हम नदियों के किनारों पर
बांस की बंसी बजाते हैं
अभी भी हम आदमी को
तांबूल-पान से स्वागत करते हैं

अभी भी पचास लाख साल पहले की हमारी पृथ्वी का
निजीकरण नहीं हुआ है
अभी भी हम निजीकरण के सरदारों से
सत्ता छीन सकते हैं
अभी भी यह देश हम श्रमिकों का है
अभी भी इस देश के सदियों पुराने पंछी
देश के बचे-कुचे खेतों में से
फसलों के तिनके बीन सकते हैं
अभी भी।

कंधे पर हल ढोने की आवश्यकता ही मेरी कविता है

कंधे पर हल ढोने की आवश्यकता
ही मेरी कविता है
मैंने ही लकड़ी के हल का आविष्कार किया है
इसलिए मैं सुबह-सुबह जा रहा हूँ
कुदाली और बैल तो पिता जी लेकर चले गए हैं
सूरज को भी हांकते हुए

मैंने कंधे पर गमछा रखा है
तब भी हड्डी दुखती है
कुहुकती है कंधे के भीतर!

मौसमों ने
कितना हँसी का पात्र बना दिया है हमें
कि जोती हुई हल-रेखा के बीच
मेरी कविता हांफ रही है बेदम होते हुए
और अब मैं हमेशा की तरह आ गया हूँ दूर
अपने खेतों में
जहां से दिल्ली क्या
असम की राजधानी दिसपुर भी
बहुत दूर है।

संपर्क :खेरोनी कछारी गांव, कार्बी आंगलोंग-७८२४६१ (असम) मो.९३६५९०९०६५