सुपरिचित कवि।वागर्थका लंबे समय तक संपादन। अद्यतन आलोचना पुस्तक आधुनिक हिंदी कविता और काव्यानुभूति। संप्रति दिल्ली में शासकीय सेवा में।

प्यास

कभी दाहरा के तट जाता हूँ
कभी नदिया के पास
कैसी यह प्यास है
यह प्यास नहीं बुझती
समुद्र के पास जाने के बारे में
सोचता हूँ
लेकिन खारा है उसका पानी
भूमि को खोदता हूँ
तो पानी निकलता है
पानी को पीता हूँ
तो देह होती शीतल
लेकिन हृदय में जलती रहती अग्नि
फूल के रस को फूलचुहकी पीती है
आंसू को पीती है माँ
जादूगरनी पीती मानुष का रक्त
साहूकार पीता गरीब का पसीना
कौन-सा जल पीऊं
कि बुझ जाए मेरी भी प्यास
किस रास्ते जाऊं
कौन गांव?
मुझे तुम बता दो; ओ संगी मेरे
कुंवार की धूप में काली पड़ गई काया
जल गई घास
और जंगल
तर जाता
यदि एक घूंट पी लेता
हृदय के दोने में
प्रेम का जल
कैसी यह प्यास है!
कभी दाहरा के तट जाता हूँ
कभी नदिया के पास
यह प्यास नहीं बुझती!

मेला

मेले में एकत्र हुए हैं गांव भर के लोग
आए हैं दूसरे गांवों से भी
उत्तर के गांव और दक्षिण के गांव
पूरब के गांव और पश्चिम के गांव
एकत्र हुए हैं यहां सब दिशाओं से
लड़कियां झूल रहीं उड़न खटोला
लड़के खा रहे पेड़े गोल-गोल
बने हुए खूब शक्कर और खोवा से
इधर दुकान सजी है जमीन पर
मनिहारी की-टिकुली, चूड़ी
दर्पण और कंघी, रिबन, फुंदा
चोटी, अंगूठी और माला
इतनी धूल कि प्राण अकबका गए
तब भी गन्ना चूस रही
सेठानी गांव की
साथियों से यहां हो रही मुलाकात
जय राम, राम-राम, कैसे हो भई?
कोदो की पत्तियों को चबाया है इस तरह
जैसे मैंने खाया हो पान
लाल-लाल रचे हैं होंठ
मेले में घूमता इतरा रहा ऐसे
किसी को पता चलेगा नहीं-
कि एक भी पैसा नहीं जेब में।

मतावर

केउ मछली जमीन पर चलती है
कभी-कभी चढ़ जाती है झाड़ में
कोतरा की तरह कोई मछली नहीं चमकती
कोतरा खिलौना है मेरे बच्चे का
वह खेलता है
और फिर भूने हुए कोतरा को
खाता है चाव से
भुंडी जैसी कोई मछली नहीं जीती
पानी के बाहर इतनी देर तक
नन्हीं-नन्हीं चिंगरी मछलियां
खाने में कुर्र-कुर्र लगती हैं
जबकि पड़िहना मछली पानी से
बाहर आते ही मर जाती है तुरंत
वह होती है इतनी नाजुक
बहुत रक्त होता है
मोंगरी मछली में
मोंगरी जैसी कोई मछली स्वादिष्ट नहीं होती
तालाब का पानी खलबला रहा है
ढीमर पारा के मछेरे-स्त्री, पुरुष, बच्चे
सब-दोनों पांव से
मता रहे हैं तालाब को
ताकि मटमैले-खलबलाते पानी में
घबराई हुईं मछलियां
आ जाएं जल की सतह में
और पकड़ ली जाएं
टोकनियों में या हाथ से
क्या पता भगवान
मेरे भाग्य में लिखी हैं
कितनी मछलियां
सांप जैसी दिखती है बांबी मछली
मेरी पत्नी पकड़ती है
और डर कर पुन: छोड़ देती है
पानी में।

मोह की जड़ें
मुझे देखा तो रो दिए
बहुत बूढ़े हो गए हैं बाबा
मोह-वृक्ष की जड़ें
गहरी
और गहरी
धंसती जातीं जीवन में
उम्र के संग-संग
प्रेम थी तो आता था
हर साल राखी में
वह भी नहीं रही
अब मन नहीं करता पांव रखने का
उस घर की देहरी में
‘हम लोग नहीं हैं क्या?’
‘कहीं निकलने का मन नहीं करता
बस मंदिर और चौपाल
खेत और खलिहान
पड़ा रहता हूँ नीम के नीचे
खाट डाल कर
तुम्हारी दादी की खांसी भी
उठती है तो थमती नहीं
आए थे डॉक्टर इंजेक्शन लगाने
बड़े बेटे ने खोला है
छोटा-सा होटल
स्कूल के सामने
पकौड़े, बड़े और गुलगुले
हो जाती है कमाई जीने लायक
खेती का तो कोई ठिकाना नहीं
पानी गिरा नहीं है इस बार
अभी तक
ड्राइवर बैठ गया है बस में
बजा रहा है हॉर्न
‘चलता हूँ बाबा…’
छुए पांव विदा में
तो बरस गईं उनकी आंखें
मोह की जड़ें
गहरी
और गहरी…।

फूल धर के जाना

अंधेरे में बोलते हैं झींगुर
हुआं-हुआं करते सियार
दीप धर के जाना
जाना जो खेत तो
रास्ते भर घूमते हैं नाग और करैत
मोखला कांटा मैदान में
बबूल पगडंडी में
फूल धर के जाना
जाना देवालय तो
कुपित न हों घाट के देव
पिछले साल की बातें
और उससे भी पिछले
बरस का दर्द
प्यार लेकर जाना
जाना परदेश तो
भूलें न बंधु – मितान।

पाहुन

किस गांव से आ रहे हो बेटा
पूछती है मां-
रोहिना कि सिंगदेही
कुकदा कि परसदा
लखना कि हथबंध
किस गांव से?
जल रही भूमि
तप रहा सूर्य
टीकाटीक दोपहर, जेठ की धूप
पत्ता भी जब हिल नहीं रहा
रोक दो गाड़ी
बांध दो बैलों को, दे दो पुआल
पीने दो पानी प्रस्तर कुंड से
तुम भी बिलम लो घड़ी भर
नीम की छांह में
पी लो लोटा भर घड़े का पानी
भभक रही धरती, पर
शीतल है मिट्टी की कोठरी
शीतल है जल मिट्टी की हंड़िया में
खा लो बटुली भर भात
और ‘नूनचरा’ अचार की एक फांक
फिर बढ़ना आगे
टीकाटीक दोपहर, जेठ की धूप
किस गांव से आ रहे हो बेटा
रोहिना कि सिंगदेही।

निशान

बांह में है मेरी गोदना का फूल
उंगली में अंगूठी चांदी की
आंखों में समाया है रूप तेरा साथी
हाथ में गुदा है तेरा नाम
गुदा है हृदय में
हाथ के गोदना को सारा जग देखता है
हृदय के गोदना को
कोई नहीं देखता
संसार के इस मेले में
यदि खो जाऊं कभी
तो निशान को देख कर
पहचान लेना मुझे
फूल से पहचानोगे
कि अंगूठी से
आंखों से पहचानोगे
कि नाम से
देह के गोदना को सारा जग देखता है
तुम हृदय के गोदना से
पहचान लेना मुझे।

प्यार में

तुम कुआं से पानी नहीं
मुझे निकालती हो
तुम ढेंकी में धान नहीं
मुझे कूटती हो
तुम चक्की में दाल नहीं
मुझे पीसती हो
तुम वेणी में फूल नहीं
मुझे खोंसती हो
क्या-क्या होता रहता है प्यार में
अमारी का फूल
सूर्य में बदल जाता है।

आषाढ़

फूल गए
पत्ते आए
दिन बहुरे टेसू के
पूरी रात बारिश
अब खिली है धूप
हल चल रहे
सींच रहे बीज कृषक खेत में
दिन आ गए बुआई के
कोई ‘खुर्री’* कोई ‘जरई’*
कोई ‘रोपा’* की कर रहा तैयारी
फिर सो जाएंगे बीज धरती में
जागेंगे नया जन्म लेकर
लेकर नया भेष
डबरों में जगह-जगह
भरा है पानी
पी रही सल्हई चिड़िया
धूप गई
बादल आए
दिन बहुरे ‘सौंखी’** और ‘चोरिहा’** के
भूमि के स्लेट पर
पानी के गीत लिख रहे मेघ
दिन बहुरे
फूल गए, पत्ते आए।

भादो

एक जुगनू झाड़ियों में चमकता है
और दूसरा
तुम्हारी आंखों में
कैसा यह भादो है
कैसी यह रात
एक फूल आंगन में महकता है
और दूसरा तुम्हारी वेणी में
कितने बरसों के अंधकार को
किया है मैंने पार
तुम्हारी देहरी में जल रहा जो दीया
उसी के उजास में
तुम्हारी स्मृतियां थीं
सघन अंधकार में
जैसे कांस के उजले फूल
हृदय के पुण्य
देह के पाप
दूर की जिंदगी कैसा अभिशाप
कार्तिक पूर्णिमा में
नदी स्नान-सी पवित्र
आज यह काया
यह आत्मा
मन-प्राण
चमक रही बिजली
बरस रहा पानी
एक वृक्ष आंगन में भीग रहा
और दूसरा तुम्हारे प्रेम में
कैसा यह भादो है
कैसी यह रात!

*खुर्री, जरई, रोपा : धान बोआई की अलग-अलग पद्धतियां
**सौंखी और चोरिहा : बांस के बने मछली रखने और पकड़ने के टोकनीनुमा ग्रामीण उपकरण।(अनुवाद : स्वयं कवि)

संपर्क: 68, त्रिवेणी अपार्टमेंट, के के शर्मा का मकान, विवेक विहार पुलिस स्टेशन के पास झिलमिल कॉलोनी, दिल्ली110095 मो. 9433135365, 9625297106