अनुवाद –प्रीति प्रकाश

विभिन्न पत्रिकाओं पर रचनाएं प्रकाशित।बिहार सरकार में अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण पदाधिकारी के पद पर कार्यरत।

चिमामंदा न्गोची आदिची

नाइजीरिया की कथाकार और लेखिका।२००८ में ‘मैक आर्थर फेलोशिप’।टाइम्स लिटरेरी फेस्टिवल में सबसे प्रभावशाली लेखकों में शुमार।उन्हें अफ्रीकन साहित्य को एक नई ऊर्जा देने का श्रेय दिया जाता है।वर्तमान में वह अमेरिका में रहती हैं।

(गतांक से आगे)

मैं लागोस में लेखन की कार्यशाला आयोजित करती हूँ।एक बार वहां एक प्रतिभागी ने, जो एक युवा महिला थी, मुझे बताया कि उसके दोस्त ने उससे कहा था कि वह मेरी फेमिनिस्ट बातें नहीं सुने।नहीं तो वह मेरी बातें सीख लेगी और फिर इससे उनके वैवाहिक संबंध प्रभावित होंगे।वैवाहिक संबंधों का खराब होना एक तरह की धमकी है, जिसका मतलब होता है वैवाहिक संबंधों का ख़तम होना, जो आमतौर पर हमारे समाज में महिलाओं के खिलाफ पुरुष इस्तेमाल करते हैं।

जेंडर दुनिया में सभी जगह एक महत्वपूर्ण मसला है और मैं आज आप सभी से यह कहना चाहूंगी कि हमें एक बेहतर दुनिया का ख्वाब देखना चाहिए।एक ज्यादा निष्पक्ष दुनिया।एक ऐसी दुनिया जिसमें मर्द और औरत दोनों सच्चे मायनों में खुश हों।इसकी शुरुआत हमें करनी होगी अपनी बेटियों की परवरिश बेहतर ढंग से करके, साथ ही हमें अपने बेटों की भी परवरिश बेहतर तरीके से करनी होगी।

हम लड़कों की परवरिश करने में बहुत बड़ी गलती करते हैं।हम उनके अंदर की इनसानियत को मार देते हैं।हम मर्दानगी को बहुत ही संकीर्ण अर्थों में परिभाषित करते हैं।जैसे मर्दानगी एक बहुत ही तंग पिंजड़ा हो जिसमें हम जबरन लड़कों को डाल देते हैं।हम लड़कों को सिखाते हैं कि उन्हें डरना नहीं है, कमजोर नहीं पड़ना है, झुकना नहीं है।हम उन्हें सिखाते हैं कि उन्हें खुद को एक नकाब के पीछे छुपाकर रखना है।क्योंकि वह एक नाइजीरियन मर्द है।

सेकेंडरी स्कूल में पढ़ने वाला एक लड़का और एक लड़की अगर कहीं बाहर जाते हैं और अगर वे दोनों किशोर हैं, जिन्हें थोड़ी बहुत ही पॉकेटमनी मिलती है, फिर भी वह लड़का ही होगा, जिससे यह उम्मीद की जाएगी कि वह बिल का भुगतान करे ताकि यह साबित हो सके कि वह मर्द है। (और हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि क्यों लड़के ही ज्यादातर घर से पैसे चुराते हैं)।

हम लड़के और लड़कियों दोनों को इस सोच के साथ बड़ा क्यों नहीं करते कि मर्द होने और पैसे खर्च करने का कोई रिश्ता नहीं होता है।

इसमें ताज्जुब की बात नहीं है कि हमारी सामाजिक संरचना ऐसी होती है जिसमें लड़कों के पास ही ज्यादा पैसे होते हैं।लेकिन अगर हम बच्चों की परवरिश अलग तरीके से करें तो हो सकता है कि पचास साल या सौ साल में लड़कों के ऊपर ऐसा कोई दबाव नहीं रहे कि उन्हें भौतिक चीजों से अपनी मर्दानगी साबित करनी है।

हम लड़कों को कठोर बनाने की कोशिश में उन्हें बहुत अहंकारी भी बना देते हैं।बहुत ही कमजोर इगो वाला इनसान।जो पुरुष जितना कठोर होता है उसका इगो उतना ही नाजुक होता है और उसे थोड़ी-थोड़ी बात का भी बुरा लग जाता है।

हम इससे भी ज्यादा गलत लड़कियों के साथ करते हैं।हम उन्हें भी इस सोच के साथ बड़ा करते हैं कि उन्हें लड़कों के झूठे अहंकार को संतुष्ट करना है, उन्हें खुद को सिकोड़ना है, खुद को छोटा बनाना है।

हम लड़कियों को सिखाते हैं कि हां, तुम्हारी महत्वाकांक्षा हो सकती है, लेकिन ज्यादा बड़ी नहीं।तुम्हें ख्वाब देखने हैं, लेकिन ज्यादा बड़े नहीं।तुम्हें सफल होना है, लेकिन बहुत नहीं।नहीं तो ‘मर्दों’ को तुमसे डर लगने लगेगा।अगर तुम अपने घर का खर्च भी चला रही हो तो भी तुम्हें यह दिखावा करना होगा कि तुम ऐसा नहीं कर रही हो।खासकर के लोगों के बीच तो बिलकुल भी नहीं, वरना ‘उन्हें’ बुरा लगेगा।लेकिन क्या होगा अगर हम इस पूरी परिस्थिति पर ही सवाल खड़ा करें।एक औरत की सफलता से एक मर्द को डर क्यों लगता है।क्या होगा अगर हम ‘कमतर’ शब्द को ही, जो मेरी नजर में बहुत ही बुरा शब्द है, मिटा दें।

एक नाइजीरियन परिचित ने मुझसे एक बार सवाल पूछा कि क्या मुझे चिंता नहीं होती है कि पुरुष मेरे व्यक्तिव से डर जाएंगे?

मुझे इस बात की बिलकुल चिंता नहीं है, क्योंकि वैसे पुरुष जो मेरे व्यक्तित्व से डर जाएं उनमें मुझे रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं है।हालांकि मुझे उसके इस सवाल से आश्चर्य हुआ।लेकिन मैं समझ सकती हूँ कि समाज की नजर में मैं आख़िरकार एक औरत हूँ और मुझसे यह उम्मीद की जाती है कि मैं शादी के लिए खुद को तैयार करूं।मुझसे यह उम्मीद की जाती है कि मैं हमेशा अपने जीवन के जरूरी फैसले इस बात को ध्यान में रख कर करूं कि मुझे शादी करनी है और शादी सबसे जरूरी चीज होती है।शादी एक अच्छी चीज हो सकती है।खुशी, प्यार और एक दूसरे का साथ देने का साधन हो सकती है, लेकिन फिर भी हम लड़कियों को ही क्यों सिखाते रहते हैं कि शादी करना कितना जरूरी है, जबकि हम लड़कों को ऐसा नहीं सिखाते हैं।

मैं एक नाइजीरियन महिला को जानती हूँ जिसने अपना घर बेचने का फैसला किया, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि जो आदमी उससे शादी करना चाहता है उसे उसकी संपत्ति से डर लगे।

मैं एक अविवाहित नाइजीरियन महिला को भी जानती हूँ जो जब भी किसी कांफ्रेंस में जाती एक वेडिंग रिंग पहन लेती, ताकि लोगों को यह लगे कि वह विवाहित है और वे उससे सम्मान से पेश आएं।

यह कितनी निराशाजनक बात है कि एक ‘वेडिंग रिंग’ उसे सम्मान का हकदार बनाता है, जबकि वेडिंग रिंग का न होना उसे कम महत्व का साबित करता है, और यह सब एक आधुनिक कार्यक्षेत्र में होता है।मैं ऐसी कई युवा महिलाओं को जानती हूँ जिन्होंने शादी के लिए अपने परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों का जबरदस्त दबाव झेला और फिर गलत फैसले लिए।

हमारा समाज लड़कियों को यह बताता है कि उनकी शादी न होना उनकी बहुत बड़ी असफलता साबित होगी।जबकि उसी उम्र के अविवाहित मर्द पर वैसा कोई दबाव नहीं आता है।यह कहना आसान है कि महिलाएं सीधे ‘न’ भी बोल सकती हैं, लेकिन यह इतना आसान नहीं है।हम सब एक समाज में ही रहते हैं और हम अपने समाज से ही विचार पाते हैं।यहां तक कि वह भाषा जो हम इस्तेमाल करते हैं, वह भी हम समाज से ही सीखते हैं।शादी की भाषा भी एक पक्ष की दूसरे पक्ष पर हावी होने वाली भाषा होती है, सहयोग की भाषा नहीं होती है।हम ‘आदर’ शब्द का इस्तेमाल उस व्यवहार के लिए करते हैं जो एक औरत एक पुरुष के प्रति रखती है, लेकिन उस व्यवहार के लिए नहीं करते जो एक पुरुष एक औरत के प्रति प्रदर्शित करता है।

पुरुष और महिला दोनों यह बात अकसर बोलते हैं कि मैंने ऐसा अपने वैवाहिक जीवन की शांति के लिए किया।जब पुरुष ऐसा कहते हैं तो इसका मतलब किसी ऐसी चीज से होता है जो वे अब सामान्य रूप से नहीं कर पा रहे हैं।कुछ ऐसा जो वह अपने दोस्तों को यूं ही बता सकें, जो उतना भी जरूरी न हो। ‘ओह, मेरी पत्नी ने कहा कि मैं रोज रात को क्लब नहीं जा सकता हूँ, इसलिए अब अपने वैवाहिक जीवन की शांति के लिए मैं सिर्फ सप्ताहांत में ही क्लब जाता हूँ।’

जब महिलाएं यह बात कहती हैं कि मैंने ऐसा अपने वैवाहिक जीवन की शांति के लिए किया तो वे कुछ ऐसा होता है ‘जैसे नौकरी छोड़ना, कोई करियर-गोल या फिर किसी ख्वाब को छोड़ना।’

हम औरतों को पढ़ाते हैं कि रिश्ते में समझौते ज्यादातर महिलाएं ही करती हैं।हम लड़कियों को एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी के रूप में बड़ा करते हैं लेकिन यह प्रतिद्वंद्विता नौकरी या उपलब्धियों के लिए नहीं होती है जो मेरी नजर में एक अच्छी चीज है।बल्कि यह प्रतिद्वंद्विता लड़कों का ध्यान खींचने के लिए होती है।

हम लड़कियों को बताते हैं कि वह अपनी कामुक इच्छाओं को वैसे जाहिर नहीं कर सकती हैं जैसे लड़के करते हैं।अगर हमारे बेटों की दोस्त लड़कियां हैं तो हमें कोई एतराज नहीं होता, लेकिन अगर हमारी बेटियों के दोस्त लड़के हैं तो … (तब तो भगवान ही मालिक है)।हालांकि जब उनकी शादी की उम्र हो जाती है तब हम मन ही मन उम्मीद करते हैं कि वह किसी काबिल लड़के को चुन कर घर ले आएंगी।

हम लड़कियों की निगरानी करते हैं।हम लड़कियों की पवित्रता की दुहाई देते हैं, लेकिन हम लड़कों की पवित्रता की दुहाई कभी नहीं देते। (हालांकि मुझे यह समझ नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है, क्योंकि कौमार्य खोना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अलग-अलग लिंग के दो लोग शामिल होते हैं।)

हाल ही में नाइजीरिया की एक यूनिवर्सिटी में एक युवा लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और कई युवा नाइजीरियन लड़कों और लड़कियों की प्रतिक्रिया लगभग एक जैसी ही थी- ‘हां ये बहुत गलत हुआ, लेकिन वह लड़की, चार लड़कों के साथ एक कमरे में कर क्या रही थी?’

क्या हम उनके इस अमानवीय प्रतिक्रिया को कभी भूल सकते हैं? इन नाइजीरियन लोगों को इस सोच के साथ ही बड़ा किया गया है कि अगर ऐसा कुछ होता है तो फिर ये लड़की की ही गलती है।और उन्हें इस सोच के साथ बड़ा किया गया है कि वे मान लेते हैं कि लड़कों का आत्मनियंत्रण नहीं होना बहुत ही सामान्य सी बात होती है।

हम लड़कियों को लज्जा करना सिखाते हैं।पैर सिकोड़ कर बैठो, खुद को ढक कर रखो।हम उन्हें यह एहसास कराते हैं कि जैसे लड़की के रूप में पैदा होकर ही उन्होंने कोई बड़ी गलती कर दी हो।और इसलिए जब वे बड़ी होकर एक औरत बनती हैं तो यह जाहिर नहीं कर पातीं कि उनकी भी कामुक इच्छाएं हैं।वे खुद को चुप कर लेती हैं।कभी खुल कर बताती नहीं कि वे क्या चाहती हैं।उन्होंने दिखावे का जीवन जीने के लिए एक जरूरी कला में बदल लिया है।

मैं एक ऐसी महिला को जानती हूँ जो घरेलू काम को नापसंद करती थी, लेकिन फिर भी वह दिखावा करती थी कि उसे घर के काम करना पसंद है।क्योंकि उसे एक अच्छी ‘मैरिज मटेरियल’ बनना था।उसे ‘घरेलू’ बनना था।और फिर एक दिन उसकी शादी हुई और उसके पति का परिवार यह शिकायत करने लगा कि वह बदल गई है।वास्तव में वह बदली नहीं थी, बल्कि वैसा होने का दिखावा करने से थक गई थी, जैसा वह कभी थी ही नहीं।

जेंडर के साथ यह समस्या होती है कि यह हमें सिखाता है कि हमें कैसा होना चाहिए, बजाय इसके कि वह हमें उस रूप में पहचान दे जैसे हम हैं।आप सोच सकते हैं कि हमें कितनी खुशी होगी, हम कितना आजाद महसूस करेंगे, अगर हमें बजाय जेंडर के पैमानों पर तौलने के उस रूप में पहचान मिले जैसे हम हैं, और हमें अपने जेंडर के कारण उम्मीदों का दबाव नहीं झेलना पड़े।

लड़के और लड़कियां जैविक रूप से बिलकुल अलग होते हैं।पर समाज उनके बीच के इस अंतर को और बढ़ाता है।उदाहरण के तौर पर खाना पकाने को ही लें।अभी के दौर में भी महिलाएं पुरुषों की तुलना में घरेलू काम करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाती हैं।फिर चाहे वह खाना पकाने की बात हो या साफ सफाई की।लेकिन ऐसा क्यों है? क्या ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि महिलाओं में खाना पकाने का कोई आनुवांशिक गुण होता है या फिर ये इसलिए है, क्योंकि समाज उन्हें ऐसा करने को प्रेरित करता है।मैं शायद यह मान लेती कि खाना पकाना महिलाओं का आनुवांशिक गुण होता है, लेकिन तभी मुझे यह याद आया कि दुनिया में जो सबसे अच्छा खाना पकाने वाले लोग होते हैं, जिन्हें फैंसी शब्दों में ‘शेफ’ कहा जाता है, वे ज्यादातर पुरुष हैं।

मैं अपनी नानी को याद कर रही हूँ जो एक काफी बुद्धिमान महिला थीं।मैं अकसर सोचती हूँ कि अगर उन्हें वे सारे मौके मिले होते जो पुरुषों को मिलते थे तो वे क्या कमाल कर सकती थीं? हालांकि आज महिलाओं के पास पहले की तुलना में ज्यादा मौके हैं।आज क़ानून और नीतियों में बदलाव आ रहे हैं और परिस्थितियां मेरी नानी के समय से बेहतर हैं।

लेकिन अभी भी हम अपना दिमाग और अपनी सोच को नहीं बदल पाए हैं।

कैसा हो अगर बच्चों को बड़ा करते समय बजाय उनके लिंग के बारे में सोचने के हम उनकी क्षमताओं के बारे में सोचें।कैसा हो अगर हम उनकी रुचि के बारे में सोचें।

मैं एक परिवार को जानती हूँ जिसमें एक बेटा और एक बेटी है।दोनों में एक साल का अंतर है और दोनों स्कूल में काफी मेधावी हैं।उस परिवार में बेटे को जब भूख लगती है तब उसके मम्मी-पापा अपनी बेटी से कहते हैं कि जाओ भाई के लिए नूडल्स बना दो।लड़की को नूडल्स बनाना पसंद नहीं है, लेकिन चूंकि वह लड़की है इसलिए उसे यह करना पड़ता है।क्या होता अगर अभिभावक शुरू से ही बिना यह सोचे कि कौन लड़का है और कौन लड़की दोनों बच्चों को खाना पकाना सिखाते।खाना पकाना वैसे भी जीवन जीने के लिए एक जरूरी हुनर है।मुझे नहीं लगता है कि ऐसा सोचना ठीक है कि आप अपने जीवन के इतने जरूरी काम के लिए ताउम्र किसी दूसरे पर निर्भर रहेंगे।

मैं एक ऐसी महिला को जानती हूँ जिसके पास बिलकुल वही डिग्रियां और वैसा ही जॉब है जो उसके पति के पास है।लेकिन जब दोनों काम से वापस आते हैं तो घर के ज्यादातर काम वह महिला ही करती है।इससे भी ज्यादा अजीब मुझे तब लगा जब कभी उसका पति उसके बच्चे की नैपी बदल देता है वह उसे थैंक यू कहती है।कैसा होता अगर वह इस बात को बिलकुल सामान्य मानती और यह समझती कि बच्चों की परवरिश में दोनों का सहयोग होना चाहिए।

मैं खुद के जीवन में सीखे गए लैंगिक असमानता के कई सबक भूलने की कोशिश कर रही हूँ जिसे बड़े होते वक्त मैंने सीखा था।पर मैं अब भी कई मौकों पर खुद को मजबूर पाती हूँ, खासकर जब लैंगिक अपेक्षाओं के मुद्दे होते हैं।

जब पहली बार मैंने एक स्कूल में लेखन पर एक क्लास दिया था तब मैं चिंतित थी।इस बात से नहीं कि मेरे पास पढ़ाने के साधन नहीं थे।क्योंकि मेरी तैयारी मुकम्मल थी और मैं पढ़ाने का लुफ्त भी उठाती थी, बल्कि इस बात से कि मैं उस दिन पहनूं क्या? मैं चाहती थी कि मुझे वे लोग गंभीरता से लें।

मुझे यह बात पता थी कि चूंकि मैं एक महिला हूँ तो मुझे बार-बार अपनी योग्यता और क्षमता साबित करनी होगी, और मुझे इस बात की चिंता थी कि अगर मैं बहुत ज्यादा फेमिनिन दिखी तो शायद वे लोग मुझे गंभीरता से न लें।मैं उस दिन चमकीला लिप ग्लॉस लगाना चाहती थी और लड़कियों की घेरे वाली स्कर्ट पहनना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने फैसला किया कि मैं ये नहीं करूंगी।बजाय इसके मैंने गंभीर दिखने के लिए एक पुरुषों जैसा दिखने वाला बेरंग और भद्दा सूट पहना।

यह बात दुखदायी है कि जब हमारे लुक की बात आती है तो हम लड़कों वाले मानक पर खरा उतरने की कोशिश करते हैं।हममें से कई लोग यह सोचते हैं कि एक महिला जितनी कम फेमिनिन दिखेगी उसे उतनी ही गंभीरता से देखा जाएगा।जब कोई पुरुष किसी बिजनेस मीटिंग के लिए जाता है तो वह कभी यह नहीं सोचता है कि वह कुछ ऐसा पहने जिससे लोग उसे गंभीरता से लें।लेकिन एक महिला हर बार ऐसा सोचती है।

मैं अब भी सोचती हूँ कि क्या होता अगर मैंने उस दिन वह भद्दा सा सूट पहनने के बजाय अपने आत्मविश्वास को तवज्जो दी होती।मैं वह बनकर जाती, जो मैं थी।तब शायद मेरे विद्यार्थी मुझसे ज्यादा लाभान्वित होते।क्योंकि तब मैं उन्हें ज्यादा सरलता से और खुद की तरह पढ़ा पाती।

बहुत सोचने के बाद मैंने यह निर्णय लिया कि मुझे अपनी फेमिनिटी के लिए अब और शर्मिंदा नहीं होना है।मैं चाहती हूँ कि महिला होने को एक सम्मान की तरह देखा जाए।क्योंकि यह मेरा हक है।मुझे राजनीति और इतिहास पसंद हैं और मैं सबसे ज्यादा खुश होती हूँ जब मुझसे बात की जाती है, वैचारिक बातचीत की जाती है।मैं एक औरत हूँ, एक खुश औरत हूँ।मुझे हाई हील्स पहनना और लिपस्टिक्स लगाना पसंद है।मुझे अच्छा लगता है जब पुरुष और महिलाएं दोनों मेरी तारीफ करते हैं। (हालांकि मुझे ज्यादा अच्छा तब लगता है जब कोई स्टाइलिश महिला मेरी तारीफ करे।पर मैं ज्यादातर वैसे कपड़े पहनती हूँ जो पुरुषों को न तो पसंद आते हैं और न ही समझ आते हैं।मैं वैसे कपड़े पहनती हूँ, क्योंकि मुझे वह पहनना पसंद है और मैं उन्हें पहनकर खुश होती हूँ।पुरुषों की नजर से अपने जीवन के फैसले लेना मेरे लिए बहुत अजीब बात होगी।

लैंगिक असमानता पर बात करना कभी भी बहुत आसान नहीं होता।यह लोगों को असहज कर देता है।कई बार तो उन्हें खीज महसूस होने लगती है।पुरुष और महिलाएं दोनों ऐसी बातचीत से बचते हैं या फिर इस मसले को ही खारिज कर देते हैं।क्योंकि जो चीज वर्षों से चली आ रही है उसे बदलना आसान नहीं होता है।कुछ लोग पूछते हैं- फेमिनिस्ट शब्द की जरूरत ही क्या है? तुम ऐसा क्यों नहीं कहती कि तुम मानव अधिकारों की समर्थक हो या फिर कुछ और ऐसा ही।मैं ऐसा नहीं कहती, क्योंकि ऐसा कहना बेईमानी होगी।फेमिनिज्म निश्चित तौर पर मानव अधिकारों का हिस्सा है लेकिन मानव-अधिकार जैसे एक विस्तृत शब्द को इसकी अभिव्यक्ति के लिए चुनना, लिंग से संबंधित विशिष्ट और अलग समस्या से इनकार करना होगा।यह ऐसा कहने का बहाना होगा कि सदियों से महिलाएं हाशिये पर नहीं हैं।यह एक तरीका होगा यह कहने का कि लैंगिक मसले औरतों से जुड़े हुए नहीं है और उन्हें पीछे की तरफ नहीं धकेलते हैं।यहां समस्या इनसान होने में नहीं, बल्कि एक औरत होने के कारण है।सदियों से दुनिया ने इनसानों के दो गुट बना दिए हैं- और फिर एक गुट को पीछे करने और शोषित करने में लगी हुई है।इस मसले का हल ढूंढने के लिए सबसे पहले हमें मानना होगा कि यह एक मसला है और एक जरूरी मसला है।

कुछ पुरुष फेमिनिज्म के विचार से ही डरते हैं।मुझे लगता है कि यह सोच, यह असुरक्षा की भावना इस बात से आती है कि हम लड़कों को कैसे बड़ा करते हैं।उनमें खुद के वजूद को लेकर कितनी चिंता हो जाती है अगर वह प्राकृतिक रूप से घर के मर्द की भूमिका में या आसान शब्दों में कहें तो घर की औरतों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में नहीं आ पाते हैं।

कुछ पुरुष इस बात पर प्रतिक्रिया देंगे ‘हां, ठीक है, ये सुनने में तो दिलचस्प है।लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता हूँ।यहां तक कि मैं लैंगिक भेदभाव को भी उस तरह नहीं देखता हूँ।इस सामाजिक संरचना से औरतों को नुकसान है तो फायदे भी हैं।इसमें इतनी सोचने वाली कौन सी बात है?’

पुरुषों की इस तरह की सोच भी हमारी समस्या का एक हिस्सा है कि कई पुरुष सक्रिय तौर पर न तो लैंगिक भेदभाव के बारे में सोचते हैं और न ही ऐसी किसी बात पर ध्यान देते हैं।कुछ पुरुष तो ऐसा ही कहते हैं जैसा मेरा दोस्त लुईस कहता है कि हां, लैंगिक भेदभाव जैसी चीज थी, लेकिन ये गुजरे जमाने की बात है अभी तो…।आज के समय में तो सब कुछ ठीक है।और कई पुरुष इसे बदलने के लिए कुछ भी नहीं करते हैं।अगर आप एक पुरुष हैं और आप किसी रेस्टोरेंट में जाते हैं और वेटर बस आपका अभिवादन करता है तो क्या आप कभी यह पूछने की जहमत उठाते हैं कि उसने आपके साथ वाली महिला का अभिवादन क्यों नहीं किया? पुरुषों को इन परिस्थितियों पर भी जाहिर तौर पर प्रतिक्रिया करनी चाहिए, क्योंकि लैंगिक भेदभाव असहज होता है।किसी भी मुद्दे पर बातचीत को बंद करना बहुत ही आसान होता है लेकिन बातचीत को जारी रखना मुश्किल।

कुछ लोग अपनी बात को साबित करने के लिए जीवविज्ञान और बंदरों का सहारा लेते हैं।वे बताते हैं कि कैसे मादा बंदर, नर बंदर के सामने झुक जाती है।ऐसे ही और कई बातें वे अपनी बात को साबित करने के लिए लेकर करते हैं।लेकिन यहां यह समझना जरूरी है कि हम बंदर नहीं हैं।बंदर पेड़ों पर रहते थे और केंचुए खाते थे।हम तो ऐसा नहीं करते हैं।

कुछ लोग यह भी कहेंगे कि सिर्फ औरतों के लिए ही क्यों, गरीबों के लिए भी तो समय मुश्किल है, और लोग सचमुच ऐसा कहते भी हैं।

लेकिन यह वह बात नहीं है जिसके बारे में यह बातचीत है।लिंग और वर्ग दो अलग बाते हैं।गरीब से गरीब आदमी के पास भी यदि अमीर होने का मौका नहीं होता है तो कम से कम यह मौका होता है कि वह एक आदमी होता है।मैंने इस शोषण के तंत्र को बखूबी समझा है कि कैसे अश्वेत लोगों के बारे में बात करते समय लोग अंधे हो जाते हैं।

मैं एक बार लैंगिक भेदभाव के बारे में बात कर रही थी तभी एक आदमी ने टिप्पणी की कि मैं एक महिला के तौर पर ये बाते क्यों कर रही हूँ एक इनसान के तौर पर क्यों नहीं।इस तरह के सवाल किसी व्यक्ति के अपने विशिष्ट अनुभवों पर चुप्पी साधने को कहते हैं।हां, मैं एक इनसान हूँ, लेकिन एक औरत होने के नाते मुझे इस दुनिया में कुछ अलग और विशेष अनुभवों से गुजरना पड़ा है।हालांकि वही आदमी जिसने मुझे यह नेक सलाह दी, खुद अश्वेत होने के कारण बार-बार अपने अनुभवों पर बात करता है। (मुझे भी इस बात पर अपनी टिप्पणी करनी चाहिए कि वह एक अश्वेत के रूप में अपने अनुभव क्यों साझा कर रहा है, एक इनसान के रूप में क्यों नहीं।)

कुछ ऐसे भी लोग हैं जो बहुत ही गंदे तरीके से कहेंगे- लेकिन औरतों के पास असली ताकत है।उनके हुस्न की ताकत। (नाइजीरिया में ऐसा उन महिलाओं के लिए कहते हैं जो अपनी सेक्सुअलिटी का इस्तेमाल पुरुषों से लाभ पाने के लिए करती हैं।) लेकिन हुस्न की ताकत कोई ताकत नहीं होती है।क्योंकि यह औरतों को ताकतवर नहीं बनाती।बल्कि यह तो एक रास्ता होता है जिसके मार्फत औरतें किसी दूसरे व्यक्ति की ताकत का थोड़ा फायदा पा जाती हैं।और फिर क्या होता है, अगर वह ताकतवर पुरुष खराब मूड में हो, बीमार हो या फिर अस्थायी रूप से अक्षम हो।

कुछ लोग कहेंगे कि औरतें पुरुषों से कमतर हैं, क्योंकि यही हमारी संस्कृति है।लेकिन संस्कृति लगातार बदल रही है।मेरी दो ख़ूबसूरत जुड़वा भतीजियां हैं जो लगभग पंद्रह साल की हैं।अगर वे आज से सौ साल पहले पैदा होतीं तो कत्ल कर दी गई होतीं, क्योंकि इग्बो संस्कृति में तब जुड़वा बच्चों का जन्म होना बहुत गलत माना जाता था।आज की तारीख में खुद इग्बो लोग भी ऐसा करने को सोच नहीं सकते हैं।

फिर यहां संस्कृति की दुहाई किसलिए? आखिर किसी भी संस्कृति का मकसद लोगों का ही तो संरक्षण और पोषण करना होता है।मेरे परिवार में मैं वह बच्ची थी जिसे इस बात में दिलचस्पी थी कि हम कौन हैं, कहां से आए हैं और हमारी परंपराएं क्या हैं? मेरे भाइयों की इस बात में उतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी मेरी।पर रुचि होने के बावजूद मेरी इन परंपराओं के पालन में भागीदारी नहीं थी।क्योंकि इग्बो संस्कृति में परिवार के पुरुष सदस्य ही उन बैठकों में हिस्सा लेते थे जिसमें बड़े और जरूरी फैसले लिए जाते थे।इसलिए बावजूद इसके कि मुझे इन चीजों में दिलचस्पी थी, मैं बैठकों में भाग नहीं ले सकती थी।मैं अपनी बात नहीं कह सकती थी, क्योंकि मैं एक औरत हूँ।

संस्कृतियां लोगों को नहीं बनाती।लोग, संस्कृतियों को बनाते हैं।अगर यह सच है कि हमारी संस्कृति औरतों को पूरा इनसान बनने का हक नहीं देती, तो फिर हमें अपनी संस्कृति को फिर से बनाना होगा।

मैं अपने दोस्त ओकोलोमा के बारे में कई दफा सोचती हूँ।भगवान उन्हें और उनके जैसे दूसरे लोगों, जो उस दुर्घटना में मारे गए, की आत्मा को शांति दें।उसे हमेशा हम जैसे लोग, जो उससे मोहब्बत करते थे याद करेंगे, और आज से सालों पहले जब उसने मुझे फेमिनिस्ट कहा, वह सही था।हां, मैं फेमिनिस्ट हूँ।

और फिर उतने ही साल पहले जब मैंने शब्दकोश में फेमिनिस्ट शब्द का अर्थ खोजा था तब वह था,  – ‘ऐसा मनुष्य जो लिंग के आधार पर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समानता का हिमायती हो।’

मैंने अपने बचपन में जो कहानियां सुनी हैं, उनके आधार पर मेरी परदादी एक फेमिनिस्ट थीं।वे उस आदमी के घर से, जिससे वह शादी नहीं करना चाहती थीं, भाग गई थीं और उन्होंने अपने पसंद के आदमी से ही ब्याह रचाया।हर बार जब भी उन्हें यह महसूस हुआ कि एक औरत होने के नाते उन्हें जमीन से या दूसरे अधिकारों से महरूम किया जा रहा है, तब-तब उन्होंने इनकार किया, विरोध किया और अपनी आवाज उठाई।वे तो फेमिनिस्ट शब्द भी नहीं जानती थीं।पर इसका मतलब यह नहीं कि वे फेमिनिस्ट नहीं थीं।हममें से ज्यादातर आज की तारीख में फेमिनिस्ट हैं।जिस सबसे अच्छे फेमिनिस्ट को मैं जानती हूँ वह मेरा भाई है।वह बहुत दयालु, अच्छा दिखने वाला और मस्कुलिन पुरुष है।फेमिनिस्ट को लेकर मेरी अपनी परिभाषा है कि हर वह आदमी और औरत, जो यह कहता है कि ‘हां, लिंग को लेकर हमारे यहां एक समस्या है और हमें इस समस्या का हल ढूंढना होगा, हमें बेहतर करना होगा, फेमिनिस्ट है।

हम सभी को, चाहे हम औरत हों या मर्द, बेहतर करना होगा।

द्वारा-डी एन प्रसाद, बचपन प्ले स्कूल के पास, श्री कृष्ण नगर, मोतिहारी,पूर्वी चंपारण-८४५४०१ बिहार, ईमेल – preeti281192prakash@gmail.com