सुपरिचित कवि। भारतीय लेखा परीक्षा विभाग में कार्यरत। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
मुट्ठी भर बीज
मुट्ठी भर बीज से बनानी है मुझे
हरी-भरी समूची पृथ्वी
गिनो मत इन बीजों को
इनपर मत हँसो
सिर्फ प्रदक्षिणा करो
दे सको तो दो मुझे
उस जमीन में से गज भर जमीन
जिसपर तुम खड़े हो
अपने हिस्से की धूप में से एक टुकड़ा
अंजुल भर पानी
फिर देखना
देखते ही देखते मैं उगाऊंगा कुछ पेड़
कुछ फूल कुछ फल
कुछ खुशबू कुछ छाया
फलों से निकलेंगे कुछ और बीज
फिर होंगी कुछ और मुट्ठियां बीजों से भरी
रंग उठेगी पूरी पृथ्वी एक दिन हरे रंग से।
पिता ने कहा था
पिता ने कहा था
बेटा यह आकाश तुम्हारा है
शायद वह आकाश की ओर सधी
गिद्ध निगाहों से परिचित नहीं थे
पिता ने कहा था
धरती पर पसरी हवा तुम्हारी है
हवा में बारूदी गंध
शायद तब पूरी तरह घुल नहीं पाई थी
पिता ने ही बताया था
नदियों, झीलों, सागरों में लहराता हुआ
सारा जल मेरा है
शायद तब उन्हें कुछ भी पता नहीं था
पानी के लिए होने वाली छीना-झपटी के बारे में
आखिरी दिनों में पिता ने
आकाश की ओर देखना छोड़ दिया था
खुली हवा में बैठना बंद कर दिया था
और पानी पीने से मना कर दिया था
जाते-जाते वह जान चुके थे
कुछ भी नहीं है हमारा
हवा पानी धूप सभी के चुनिंदा दावेदार हैं।
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