जन्म 14 नवंबर 1945। शासकीय सेवा में राजपत्रित अधिकारी रहे।कहानियाँ, उपन्यास, फिल्मआलेख आदि पर सतत लेखन जारी रहा। कुल बाईस उपन्यास, दो कहानी संग्रह गुजरात साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हुए।पिछले 24 अप्रैल 2021 कोकोरोना के कारण गुजरात के जूनागढ़ में दुखद निधन।

 

 

 

 

निवृत्त बैंक प्रबंधक।गुजराती से हिंदी में अनूदित बारह पुस्तकें प्रकाशित।

जून-जुलाई में भारी बरसात होती और तब मुंजपर गांव की स्थिति बहुत खराब हो जाती। समाचार सुनने के लिए लोग हीरावाला चौक में इकट्ठे हो जाते। मुंजपर के हीरावाला चौक में रघुनाथबापू की ‘जय शक्तिमाँ’ होटल थी, जिसमें ‘नेशनल ऐको’ नामक रेडियो था। एरियल लगवा कर, दरवाजे पर लाउडस्पीकर की व्यवस्था की गई थी। बाहर रास्ते पर खड़े-खड़े या दुकान के ओटले पर बैठकर लोग समाचार सुनते। जवान लड़के-लड़कियां फिल्मी गीत सुनते तो प्रौढ़ लोग समाचार सुनते… मुंजपर में तब मनोरंजन के लिए और कोई जगह थी भी नहीं।

गांव में टेलीफोन नहीं थे, एक डाकघर था। अन्य जगहों से बस के द्वारा डाक के थैले आते और फिर खाकी वर्दी में डाकिया साइकिल पर डाक वितरित करने के लिए निकल पड़ता। इस तरह से रिश्तेदारों व मित्रों के बीच संबंध बने रहते थे। एक सार्वजनिक अस्पताल था, जहां एक टकला डॉक्टर कागज पर बेतरतीब अक्षरों में कुछ लिख देता था और उस बेतरतीब लिखावट को पढ़कर कंपाउंडर दवा देता था। अधिकतर पीने की एक लाल-पीले रंग की दवाई दी जाती थी।उस दवाई को लेने के लिए घर से एक खाली कांच की बोतल साथ ले जाना पड़ता था। कंपाउंडर पूछता : बोतल लाए हो? यदि हाँ बोला तो बोतल में दवाई दे देता और यदि कोई कहता- नहीं, तो उसे बगैर दवाई लिए वापिस लौटना पड़ता। एक पुलिस-स्टेशन था, जहांलंबी मूंछों और भारी-भरकम पेटवाला एक फौजदार पैर लंबे कर और सिर की टोपी को मुंह पर रख कर खर्राटे लेता रहता। अपराध कम थे, इसलिए फौजदार के पास नींद लेने के अलावा करने के लिए और कोई काम भी नहीं था।

पूरे तालुके में एकमात्र मुंजपर की यह विशिष्टता थी कि वह टेकरी पर बसा हुआ था। यह बताया जाता था कि प्रलय के समय बाढ़ आई, इसलिए कई लोग जान बचाने के लिए टेकरी पर चढ़ गए। बाढ़ उतर गई, लेकिन लोग टेकरी पर रह गए और फिर उन लोगों ने टेकरी पर ‘झोंपड़े’ बनाए और वहां बसना शुरू कर दिया और इस तरह मुंजपर अस्तित्व में आया।

मुंजपर में मात्र हिंदुओं की बस्ती थी। मुस्लिम का एक भी घर नहीं। हिंदुओं के सभी वर्ण मिलजुल कर रहते थे। गांव में सुतार जाति का हमारा एक ही झोंपड़ा। दूसरे थे, लेकिन रोजीरोटी की तलाश में वे शहर चले गए। मैं अर्थात मगनलाल छगनलाल मिस्त्री। गांव के बुजुर्ग मुझे मगनमिस्त्री के नाम से बुलाते हैं और व्यापारी समाज के लोग मुझे कारीगर कहते हैं। लेकिन इससे मेरे धंधे में कोई फर्क नहीं पड़ा। उम्र के पचास वर्ष पूरे हुए। सिर पर सफेदी आ गई, इसलिए काले रंग की टोपी पहन ली। यदि मेरी पढ़ाई के बारे में पूछो तो, पढ़ाई के नाम पर पुंगी! आठवीं कक्षा फेल… शहर गया और वहां सुतारी के काम की तालीम ली। वहां डाइनिंग टेबल, सोफे, मेज- कुर्सी, टीवी-शोकेस आदि सब प्रकार के फर्नीचर बनाना सीखा। तालीम पूरी होने के बाद नेता से प्रमाण-पत्र लिया, फोटो खिंचवाया और मुंजपर आकर गर्व से कारीगर बन गया। मेरी पोशाक एक ही प्रकार की, पाजामा, बंडी, पैरों में जोड़ी और सिर पर काली टोपी… अब परिवार के बारे में भी बता दूं… परिवार में बीमार, खांसती रहनेवाली, दुबली, बुढ़िया जैसी दिखनेवाली पत्नी कांता। खांस-खांस कर जिसके गाल बैठ गए और जो है चालीस वर्ष की, लेकिन दिखती है, साठ वर्ष की बूढ़ी… भगवान ने एक लड़का दिया है, कनु। लेकिन सब कुछ उलटा-पुलटा। सभी तरह के ‘लक्खन’ पूरे। आवारा, जुआखोर, शराबी। बीस वर्ष का हो गया, लेकिन किसी काम का नहीं। एक लड़की भी हुई, नाम मंजू। लेकिन दोनों पैर से लाचार। जन्म से ही दोनों पैर, सांप जैसे निर्जीव मरे हुए… उठा कर ले जाना पड़े और पैर रस्सी की तरह लथड़ाते रहें… बहुत मालिश की, लेकिन उस रस्सी में खून नहीं आया तो नहीं आया… पैर घिसटती-घिसटती वह गली में निकलती और आते-जाते लड़के तिरछी नजर से जब देखते रहते और तब मुझे बहुत गुस्सा आता… ‘मंजूड़ी… घर में रह, बाहर क्या तेरे बाप ने कुछ गाड़ रखा है…’ घरवाली कांता पर भी झुंझलाता… ‘घर में क्या कोई दूसरा फ्राक नहीं है, जो छाती पर फटा हुआ फ्राक पहनाया…!’ यह है हमारे चार लोगों की सुखी-दुखी हालत… जैसा भी समझो, वैसा हमारा परिवार !

अब जब इतनी बात की है तो साथ ही घर के लिए भी बता दूं। बाप का कच्ची मिट्टी का झोंपड़ा… दरवाजे में घुसते ही बड़ा गलियारा, जहां मेरी फैक्ट्री… उसी गलियारे में मेरी साधन-सामग्री और औजार पड़े रहते… लकड़ी के लट्ठे पड़े रहते… गलियारे मैं उकडूं बैठ कर ही काम करना, लकड़ी छील कर साफ़ करना, कीलें मारना, हथौड़े ठोकना, लकड़ी में छेद करना, आदि… एक आलमारी, जिसमें शहर से जो तालीम ली थी, उससे संबंधित पुस्तकें। कभी कोई नई तरह का काम आ जाए, तब इन पुस्तकों को पलटना पड़ता है…

मैंने पहले ही बताया, भरपूर जवान लड़का कनु, किसी काम का नहीं। लेकिन कहावत है न कि बिन मांगे जो दौड़ता आए, उसका नाम नसीब! पड़ोस में रहनेवाली विमला विधवा बन गई और उसका लड़का हसु मेरे पास आने लग गया। अठारह वर्ष का उसका बेटा काम में तैयार हो गया और मेरा सहायक बन गया…

प्रत्येक वर्षा ऋतु में मुंजपर गांव नहा-धो कर तरोताजा बन जाता था। लेकिन इस बरसात में तो इतना अधिक नहाया कि पानी में डुबकी-दांव खेल शुरू हो गया।

जुलाई की शुरुआत में दस इंच बरसात हो गई। गांव के नीचे के भाग की तलहटी में तो दो पुरुष की ऊंचाई तक का पानी भर गया। पूरा गांव एक कैदखाना जैसा बन गया। बाहर आने-जाने के लिए बस-व्यवहार अस्तव्यस्त हो गया। गांव के बाहरी मैदान के भाग में जहां भी नजरें घुमाओ, सब ओर लहरें मारता पानी ही दिखाई पड़े। मुंजपरवासियों के लिए यह कोई नया नहीं था, वह सब उनकी आदत में आ गया था, लेकिन भूलचूक से कभी कोई मेहमान बन कर यहां रुक जाए, तो उसे दो महीनों की कैद! पानी देख कर उसे मूर्छा आ जाए! गांव किसी टापू जैसा बन गया। लेकिन पिछले वर्ष रघला कोली ने लकड़ी और बांस की एक किश्ती बना दी थी। वह किश्ती एक नाव तरह उपयोग में आ जाती थी। रघलो हाथ में बांस का डंडा लेकर किश्ती के किनारे खड़ा रहता और पानी की तली में डंडा घुसाकर किश्ती को धक्का लगाते हुए सामने के किनारे पर ले जाता।उसने बांस की पट्टी को नरेटी की रस्सी से बांध कर, उस पर सूखे घास के पूले रखे थे, जिस पर एकाध मुसाफिर बैठ सकता था… किश्ती एक या दो मुसाफिर का भार ही वहन कर सकती थी, तीसरा यदि बैठे तो किश्ती ‘डबुक’ कर डूब जाए!

आठ दिन की झड़ी के बाद बादल छटे, सूखापन महसूस हुआ और सूर्य महाराज दिखाई दिए। हल्की-हल्की धूप निकली और इसलिए घर में कैद लोग बाहर निकलने लगे। मृत मुंजपर में कुछ हलचल हुई और वह आकार में आया। बाजार जीवंत हुआ। बंद दुकानें खुलने लगीं। चौक में रघुबाबा के रेडियो के लाउडस्पीकर से आवाज आने लगी। अब भी भारी बरसात का पूर्वानुमान लगाया जा रहा था। बरसात के कारण गीली हुई दीवारें सूखने लगीं। वातावरण में आर्द्रता की गंध फैलती गई।

मेरा राजकुंवर कनु सात दिन से गायब था… कांता ने शोर मचाया, ‘जल्दी जाओ और कनुडा को ढूंढ कर लाओ। मेरी आंख फड़क रही है, तो जरूर उसने कुछ उलटा-पुलटा किया होगा…’  मैं हाथ में छत्री पकड़ कर रास्ते पर आया। सीधे कल्लूकलाल के दारू के अड्डे पर पहुंचा, तो अड्डा बंद था। भाणदा बाबा के खंडहर पहुंचा, तो खंडहर सूना था। जगाजुआरी से पूछा तो कहा, ‘इस बरसात में तो जुआ खेलने कोई आया ही नहीं’। अब मुझे धक्का लगा। जरूर कुछ उलटा-पुलटा…! कलेजा धक-धक करने लगा। अब थाने जाने के अलावा और कोई चारा नहीं था। थाने के मार्ग पर जा ही रहा था कि किसी से टकरा गया। जिससे टकराया, उसने जोर से मेरा हाथ पकड़ा और कहा : ‘अरे,मगन, ऐसे पागल की तरह क्यों भाग रहे हो!’

मैंने देखा तो रेनकोट में सज्ज वह शख्स मेरा हकला था! बचपन में हम सब उसे हकला कहते थे, लेकिन वह अहमदाबाद पढ़ाई के लिए गया और फिर वहांपूरी तरह वह बदल गया। साथ ही उसका धर्म भी बदल गया, अब वह हरिजन न रह कर ईसाई हो गया था। अब हकला नहीं, बल्कि हेकल बन गया था- मिस्टर हेकल!

‘मैं तुम्हें हेकल नहीं, हकलो कह कर ही बुलाऊंगा’। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

‘तुम्हे जिस नाम से भी बुलाना है, छूट है, क्योंकि तुम मेरे जिगरी हो, तुमने कभी मेरे साथ भेदभाव नहीं रखा। एक ही पुड़िया से दोनों ने सेव-चने खाए हैं…’ उसने प्रेमभरी नजरों से मेरे सामने देखा और फिर कुछ हिचकते हुए कहा, ‘तुम्हें मेरे लिए एक जरूरी काम करना है’।

‘मेरा काम…? मैं तो सुतार हूँ’।

‘लेकिन सुतार जो कर सकता है, वह अन्य कोई नहीं कर सकता’।

‘लेकिन… काम क्या है?’ मैं उलझन में पड़ गया। इसलिए उसने कहा, ‘यहां कहने से कुछ समझ में नहीं आएगा, मेरे घर चलो और खुद देख लो, तो यकीन हो जाएगा।’

वह मुझे अपने साथ अपने इलाके में ले गया, जहां बेहद गंदगी, गरीबी व दुर्गंध थी। गड्ढों में बरसात का पानी भरा था, इसलिए वहां मक्खी व मच्छरों की भिनभिनाहट जगह-जगह महसूस की जा सकती थी। हवा की एक तेज लहर आई और मेरे नथुनों में मृत पशु की बदबू भर गई… उबकाई आई और मुझे थूकना पड़ा। कांटेदार बबूल के झुंड के पीछे, बच्चे घुटनों से नीचे चड्डी उतारकर बैठ गए थे। सूखा मल, मरे कुत्ते का सड़ा मांस और उड़ रहे गिद्धों की चिल्लाहट… मेरी वापस जाने की इच्छा हो गई।

‘दिस इज अवर लाइफ’, हेकल ने जबरन हँसते हुए कहा, ‘इस समाज को सुधारने के लिए ही मैंने ईसाई धर्म का सहारा लिया है।’

उन झोंपड़ियों के बीच एक पक्की छतवाला मकान देख कर ही यकीन हो गया कि वह हेकल-साहब का एक छोटा बंगला है! दरवाजे पर क्रास लटक रहा था। दरवाजा पार करते ही एक छोटा, स्वच्छ व सुंदर आंगन था। क्यारी में कुछ फूलवाले पौधे थे। मुझे मालूम था कि वह जब कभी आता, तो किसी पादरी या किसी नन को साथ में लाता था और उनके द्वारा उसके घर ईसा से संबंधित प्रवचनों का आयोजन होता था, जिन्हें उस विस्तार के लोग वहां सुनने के लिए जाते थे।

हेकल मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सीधा कमरे में ले गया। कमरे के बीच पलंग पर एक वृद्ध बीमार व्यक्ति का शरीर पड़ा हुआ था। लंबी सफेद फ्राक और सिर पर स्कार्फ लगाए एक नन पास के स्टूल पर बैठी थी और बैठे हुए ही वह हाथ के पंखे से उन्हें हवा कर रही थी। अस्सी वर्ष के उस बूढ़े का चेहरा सफेद पड़ गया था। सिर के बाल खिर गए थे और गाल बैठ गए थे। मात्र दो आंखें ताक रही थीं और छाती कुछ ऊंची-नीची हो रही थी और शायद जीवित होने का वही एक-मात्र सबूत था… सिर पर हैट लगाए एक डॉक्टर सामने बैठे थे और इंजेक्शन लगाने के बाद, उसके होनेवाले परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।उन्होंने वृद्ध की कलाई हाथ में ली फिर हमारे सामने देखा और इशारे से बाहर आने के लिए कहा और  कमरे के बाहर निकल गए।मैं और हेकल उनके पीछे-पीछे गए। वे आंगन में खड़े रहे और फिर कहा :

‘ये ज्हान अंकल छह घंटे के ही मेहमान हैं…।’

‘सिर्फ छह घंटे?’ हेकल की आवाज थरथराने लगी।

‘नाड़ियां बहुत धीमी चल रही हैं।’ फिर हेकल की ओर देखा, ‘इंजेक्शन का असर भी नहीं हो रहा है।’

‘मुझे लग रहा था, इसीलिए तो मगन को बुला कर ले आया…।’

मेरा नाम सुन कर मैंने बीच में पूछा, ‘लेकिन मेरा क्या काम आ गया?’

‘बताता हूँ, कुछ धीरज रखो…।’

डॉक्टर गए और तब हेकल ने कहा : ‘अब मगन सुनो… ये ज्हान चाचा मेरे पिता के समान हैं। मैं गांव की शिक्षा पूरी कर जब पढ़ाई के लिए शहर गया, तब ज्हान चाचा ने ही मुझे संभाला। उनके कारण ही मैं पढ़ाई पूरी कर सका, नौकरी हासिल कर सका और मारिया से शादी भी कर सका! लेकिन इस समय बरसात में उन्हें यहां लाकर मैंने बड़ी भूल कर दी। वृद्ध व बीमार थे, फिर भी साथ ले आया। बरसात हुई, मुंजपर चारों ओर पानी से घिर गया और चाचा बीमार हो गए। अब तो वे घड़ी, दो घड़ी के मेहमान हैं। इन मेहमान को दफ़नाने के लिए ‘कॉफिन’ बनाना है, इसलिए तुम्हें याद किया…।’

‘लेकिन मैंने तो कॉफिन कभी बनाया ही नहीं है।’

मैं घबरा गया…

‘अपने गांव में कोई ईसाई या मुसलमान नहीं, इसलिए मुझे कभी कॉफिन बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ी।’

‘लेकिन यदि तुम मेहनत करोगे, तो निश्चित ही बना दोगे। बहुत जटिल काम नहीं है। एक आलमारी बनाने जैसा ही काम है…’, हेकल ने सिर खुजलाया, ‘ज्हान चाचा मर गए, तो शव को बाहर नहीं ले जा सकेंगे, क्योंकि गांव में सब ओर पानी है… यहां मेरे घर के पीछे खुला मैदान है, वहां गड्ढा खोद कर दफना देंगे। बाईबल का पाठ पढ़ लेंगे। आचमन के लिए पवित्र जल छीटेंगे। सभी विधियां पूरी करेंगे… लेकिन उसके लिए कॉफिन चाहिए…।’ तब मुझे याद आया कि शहर में सुतारी काम की तालीम के समय कॉफिन बनाना भी सिखाया गया था। तालीम की पुस्तक में उसका नक्शा व माप सब कुछ दिए गए हैं और बनाने की विधि भी बताई गई है। वह तालीम-पुस्तिका अब भी आलमारी में पड़ी थी।

मैंने अंदर जाकर ज्हान चाचा के शरीर का मन ही मन माप ले लिया। पांच फुट लंबाई थी! हेकल की पीठ पर हाथ घुमाते हुए मैंने कहा, ‘सुबह तक कॉफिन तैयार हो जाएगा… नीम का पूरा तना पड़ा हुआ है। लकड़ी के पटिए भी वैसे ही कोरे पड़े हैं। अभी घर पहुंच कर सीधे काम शुरू कर देना है…।’

अटल निश्चय के साथ तेज कदम उठाते हुए मैं घर में दाखिल हुआ। वहाँ कांता अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर प्रश्नभरी आंखों से मुझे ताक रही थी। उसके होंठ खुले और उसके पहले सवाल ने ही मेरे सिर पर चोट की।

‘कनु मिला ?’

‘नहीं…।’ फिर उसके सामने से चेहरा हटाते हुए मैंने कहा, ‘भूखा होगा तो वह खुद पेट भरने के लिए आ जाएगा… वह कोई मर नहीं जाएगा… लेकिन एक बुढ़ऊ मरने वाला है और उस मुर्दे के लिए कॉफिन बनाना है…।’

‘कॉफिन? यह क्या होता है ?’उसने फिर दोनों हाथ कमर पर रखे और प्रश्नभरी नजरों से मेरी ओर देखा।

‘यह तो तुम जब देखोगी, तब तुम्हें उसके बारे में मालूम पड़ेगा, लेकिन पहले तुम विमलाबा के हसु को बुला लो, उसकी मदद के बगैर काम पूरा नहीं होगा।मेहनत का काम है… सुबह तक उस काम को पूरा करना है।’

हसु आया तब तक मैंने पोशाक और टोपी उतार कर खूंटी पर लटका दिए। फिर लकड़ी की आलमारी खोली और उसमें से सुतारीकाम की पुस्तिका निकाली और उसमें नाव के आकार के कॉफिन के स्केच को मैं देखता रहा।कॉफिन के एक-एक भाग के लिए रेखाएं दर्शाई थीं और उनके माप लिखे थे। बनाने की कार्यपद्धति और उसके लिए आवश्यक साधनों की सूची भी उसमें दी गई थी। मैंने थैले बिछाए और एक-एक कर साधन उस पर रख दिए। मेजर-टेप, अलग माप के आकार की लकड़ी पर रद्दा लगाने काब्लेड, रद्दा, करवत, हथौड़ियां, अलग-अलग तरह के स्क्रू व कीलें, हुक, स्क्रू-ड्रायवर, वसूला, छेनी…

हसु ने गलियारे में झाडू लगा दी और हम दोनों करवत लेकर लकड़ी के टुकड़े करने के लिए आमने-सामने बैठ गए, घरघराटी शुरू हो गई। जिस प्रकार गलियारे में करवत लकड़ी का बूरा बिखेर रहा था, उसी तरह आकाश में जम गए काले बादलों को बिजली बिखेर रही थी…

‘लो फिर बादल घिर गए…’, हसु का मुंह उतर गया।

‘हमें क्या चिंता, जितना बरसना चाहे, बरसे…।’

मैंने जब कहा, तब कांता आकर खड़ी हो गई… ‘और वह अपना कुंवर मुआ अब तक बाहर ही मरा है… उसकी तो आपको कुछ पड़ी नहीं है…।’

‘पहले काम फिर छोकरा…,’ मैंने कहा और लकड़ी के दो भाग हो गए। श्वास में उड़ती धूल भर गई, इसलिए छींक आई। कांता को खांसी शुरू हुई, इसलिए वह खांसती-खांसती कमरे में चली गई।

लगातार दो घंटे की मेहनत के बाद तली में मछली जैसा आकार हो गया। हसु देखता रहा। कांता ने लालटेन जलाई और फिर खंभे से लटका कर चली गई।

मैंने कहा, हसु,देख, सुतार का काम कितना बड़ा होता है! जन्म लेनेवाले बालक के झूलने के लिए पालना बनाता है… और वह बालक जब बड़ा हो जाता है, वृद्ध हो जाता है, तब उसे कब्रिस्तान ले जाने के लिए कॉफिन भी बनाता है!

उमस बढ़ गई थी। बरसात तो मानो घर की दहलीज पर ही बैठी हो। अभी बड़ा काम बाकी था। कॉफिन के दोनों ओर के पार्श्व बनाने थे! तब वहां कांता तैयार गर्मागर्म भाखरी व चाय रख कर चली गई, ‘पहले पेट भर लो।’

मैंने व हसु ने गलियारे में ही भोजन कर लिया। उसके बाद बीड़ी जलाकर गहरे कश खींचने लगा। हसु बीड़ी नहीं पीता था…  कनु की तुलना में यह विधवा का लड़का कामकाज में मुझे हर तरह से सवाया लगता था !

मैंने माप-पट्टी की मदद से तली का माप लिया और पोल पार्टीशन जैसी लकड़ी के करवत से टुकड़े कर उसके पार्श्व तैयार किए। तलिए को खड़ा रख कर उसके सिरे पर पतरा रख कर कीलें ठोकने लगा।धड़ाधड़ हथोड़ी पड़ रही थी और कीलें ठुक रही थीं।उमस के कारण शरीर पर पसीने की बूंदे जम गई थीं। फिर खड़ा हुआ और कॉफिन के आकार का निरीक्षण किया।

अंदर कमरे में कांता मंजू से झगड़ रही थी, उसकी गालियों की आवाज गलियारे तक सुनाई दे रही थी। लगता था मंजू सुबक रही है, मेरी इच्छा हुई कि अंदर कमरे में जाकर कांता को अच्छी डांट पिलाऊं, लेकिन तभी वहां दीवार पर लगी घड़ी पर नजर गई और साथ ही हेकल को दिया गया वचन याद आया, इसलिए फिर काम शुरू कर दिया…

‘बहुत सुंदर बन गया।’ हसु ने खुश होते हुए कहा।

‘हाँ, अब सिर्फ ऊपर का ढक्कन बनाना बाकी है…’, मैंने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘जो समय निर्धारित किया था, उसके पहले ही काम पूरा हो गया।’ फिर ऊपर के ढक्कन का माप लेकर लकड़ी को करवत से अलग करना शुरू किया। मैं जोरों से करवत चला रहा था, जिससे उसकी गड़गड़ाहट में कांता व मंजू की आवाज दब जाए!

कॉफिन को उठाने के लिए हैंडिल फिट किए और फिर सब व्यवस्थित कर उसके खुले भाग पर ढक्कन लगाया… जो ठीक से फिट हो गया।

‘ढक्कन पर कीले नहीं लगानी हैं, उसे फोल्डिंग रखना है… ढक्कन को नीचे उतारते हुए मैंने कहा। अब रात के तीन बज गए थे। अचानक दरवाजे पर खटखट हुई। आवाज सुनकर हसु ने दौड़ लगाईं। ‘कनु आ गया!’ लेकिन दरवाजा खोला तो कनु के स्थान पर जले हुए बबूल के काले रंग जैसा चेहरा लिए मनु खड़ा था। हम उससे कुछ पूछें, उसके पहले ही उसने अपना मुंह खोला,

‘हेकल साहब ने भेजा है…कॉ… कॉ… कॉफि…।’

‘कॉफिन तैयार है…।’ मैंने कहा, ‘ज्हान अंकल कैसे हैं?’

‘एक घंटे पहले गुजर गए!’

‘हे… भगवान !’ मैंने सिर पछाड़ते हुए कहा। तभी आकाश में गड़गड़ाहट हुई और तेज छींटे पड़ने शुरू हो गए…

‘ठीक है, मैं दो-चार लोगों को लेकर आता हूँ। कॉफिन उठाने के लिए कुछ लोग तो चाहिए न?’

इतना कह कर वह चला गया।

हसु भी गया। मैं ही एकमात्र गलियारे में था और मेरे सामने कॉफिन था। तब मेरे पीछे भूत जैसे आकार की हलचल हुई। वह आकार मानो इस मौके की राह ही देख रहा था, इस प्रकार वह कमरे से निकल कर गलियारे तक आया।

‘फिर परेशानी आई !’ कांता ने हांफते-हांफते कहा।

‘परेशानी?’

‘हाँ, मंजूडी के पैर फिर भारी…।’

‘अरररर भगवान…।’ मैंने हाथ से सिर पर जोर से चोट की…।’ तुमने क्या सोचा है? सभी तकलीफें मात्र मगनलाल छगनलाल मिस्त्री को ही? आपको दूसरा कोई नहीं मिला! यही घर आपको पसंद आया है!’ मैं लाल-पीला होकर आकाश की ओर देर तक ताकता रहा, आकाश में बिजली चमक रही थी… लालटेन का तेज कम हो रहा था, जब बिजली कौंधती थी, तब घर का आंगन चमकने लगता था।

‘यह दूसरी बार हुआ है… मालूम नहीं हो रहा है कि कौन लफंगा इसके पीछे पड़ गया है…?’ मैंने दांत भींचते हुए कमरे के बंद दरवाजे की ओर देखा, ‘इस रांड का तो अब गला दबा देने का मन करता है…।’

‘ऐसे चिढ़ो मत…।’

‘लेकिन वह है कौन?’

‘वह कहां नाम बताती है…! पैर घसीटती पूरी गली में इधर-उधर भटकती रहती है… कोई फुसला कर घर में ले जाता है और फिर पैर घसीटती दूसरे घर में चली जाती है…।’

‘अब क्या होगा?’ मैं गलियारे में बैठ गया और बीड़ी जला कर फूंकने लगा।

‘मैंने बंदोबस्त कर दिया है, रात सिर पर लेनी पड़ेगी… रघला पगी कि किश्ती में बैठा कर रात में ही सामने के किनारे पर ले जाएंगे और वहां से वाहन कर शहर ले जाएंगे और फिर नर्स रेखा बहन से मिलेंगे… वह पैसा लेगी, लेकिन सब काम निपटा देगी… क्या करें? जीव है, उसे मार तो नहीं सकते न… अगले वर्ष एक संस्था खुल रही है, लूले-लंगड़ों- काणों-तोतलों व अधपगले बच्चों के लिए, वहां रख देंगे…।’ कांता ने मुझे ‘हिम्मत’ देते हुए कहा। मेरी दिक्कत कुछ कम हुई, मैंने बीड़ी के ठूंठे को फेंक दिया। कांता कमरे में चली गई।

अंधेरा घना होता जा रहा था। लालटेन की रोशनी हलकी पड़ती जा रही थी। मैं बेतरतीब-सा कॉफिन के सामने बैठा था। मन में भी बादल इकट्ठे हो गए थे, गड़गड़ाहट हो रही थी, बिजली चमक रही थी… शराबी व जुआरी जवान लड़का, बार-बार भूल करनेवाली अपंग लड़की, बीमार घरवाली… इस घर को छोड़कर जाऊं तो जाऊं कहां? अचानक कॉफिन में कुछ हलचल हुई, मानो वह मुझे अपने में समाने के लिए आतुर हो गया था। मैं खड़ा हो गया और कॉफिन के पास गया और अंदर पैर रखे और बैठ गया। फिर धीरे से पैर लंबे किए, कमर झुकाई, सिर नीचे किया और अंदर सो गया… वाह! अरे, यह तो मेरे माप का बन गया। दोनों हाथों को छाती पर रखा, आंखें बंद की और मन को स्थिर कर मैं देर तक उसमें पड़ा रहा!

राजेंद्र निगम, 10-11, श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के सामनेझायडस हॉस्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद– 380059    मो. 9374978556