सुपिरिचित कथाकार। दो उपन्यासों‘नागफनी के जंगल में’और‘मुट्ठी में बादल’ के अलावा छह कहानी संकलन।
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‘ओ के, बाय बाय बेटा, टेक केयर। स्कूल में किसी से झगड़ना नहीं। ममा शाम को आएगी, ठीक से रहना स्कूल में’ कहकर अंजुला नागर ने जब आपनी सात साल की बेटी ऋचा को स्कूल की आया को सौंपा तो मन आत्मग्लानि से भर उठा। इतनी छोटी बच्ची अब दिन में दो बजे तक स्कूल में रहेगी और उसके बाद स्कूल की ओर से बनाए गये क्रेच में चली जाएगी शाम तक, जब तक वह उसे लेने न आए। दिन में दो बजे स्कूल की छुट्टी होने के बाद क्रेच की आया उसे स्कूल लेने पहुंच जाती। क्रेच की आया स्कूल के बाद उसके कपड़े बदलती, उसे खाना खिलाती, उसे सुलाती और शाम के सात बजने का इंतजार करती। यह उसका रोज का नियम था।
डे बोर्डिग स्कूल था वह, जहां पढ़ने वाले बच्चे स्कूल के बाद क्रेच में चले जाया करते थे। अंजुला नागर के पास इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा था। आफिस जाने से पहले वह रोज ऋचा को और उसके दिन भर के खाने-पीने का सामान स्कूल की आया को सौंपती और कुछ हिदायतें देकर अपने आफिस चली जाती। ऑफिस जाते वक्त रोज़ उसका मन आत्मग्लानि से भर उठता। यदि उसके पति अतुलवीर इस शहर में होते तो ऋचा को वही स्कूल छोड़ते, वही लेते।
कार चलाते वक्त जेहन में बार- बार पति अतुलवीर की स्मृतियां कौंध रही थीं।
करीब तीन महीने पहले एकाएक एक दिन अतुलवीर ने सहमते हुए उसे बताया था, ‘मेरी कंपनी बंद हो रही है। अब मुझे कोई दूसरा काम तलाशना होगा।’
उस दिन आसमान से गिर पड़ी थी अंजुला नागर। उसे यकीन नहीं हुआ था कि जो वह सुन रही थी वह सच था।
‘मिल जाएगा दूसरा काम?’ आशंका से भरकर पूछा था उसने।
‘कह नहीं सकते।’
दूसरा काम मिल भी गया था अतुलवीर को। टूरिस्टो को घुमाने का काम। बेहद जानलेवा काम था। न दिन को चैन, न रात को चैन। कहने को तो अतुलवीर एक गाइड की हैसियत से उनके साथ जाता था, लेकिन उनके खाने-पीने का इंतजाम करने से लेकर उनके ऐशो आराम की हर चीज मुहैया कराता था और कभी-कभी तो उनके लिए खाना भी पकाना पड़ता था। महीने में बीस दिन वह बाहर रहता ।
हेल्थ केयर की एक स्टार्ट अप कंपनी थी जो दवाइयों से लेकर इंश्योरेंस तक ऑनलाइन बेचती थी। कई शहरों में कंपनी के आउटलेट थे। इस कंपनी में बतौर एच आर हेड काम करती थी अंजुला नागर। पाँच साल पहले ही बनी थी यह कंपनी। कंपनी का सारा खेल फंडिंग पर चलता था। पहले से ही अमीर इन्वेस्टर और ज्यादा अमीर बनने के लालच में इस कंपनी में अपना पैसा लगाते थे।
अपने केबिन में पहुंच कर अंजुला नागर ने अपना बैग अपने साइड की टेबल पर रखा और इत्मीनान से अपनी पीठ को कुर्सी पर टिकाकर बैठ गई।
थोड़ी देर तक यूं ही बैठी रही, फिर कम्प्यूटर आन किया। वह रात भर में आए मेल को देख ही रही थी कि उसके सामने कंपनी में काम करने वाली मंजूषा आकर बैठ गई। मंजूषा ने उससे दो साल बाद यह कंपनी ज्वाइन की थी। अंजुला नागर ने ही कैम्पस प्लेसमेंट में उसे इस कंपनी में भर्ती किया था।
‘कैसी हैं मैम।’ मंजूषा ने बैठते ही पूछा।
‘ठीक हूँ, तुम कैसी हो?’ अंजुला नागर ने कहा।
‘मैं ठीक हूँ।’ मंजूषा ने कहा लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी के भाव थे।
‘क्या बात है। कुछ परेशान दिखाई दे रही हो सुबह-सुबह।’
‘आपको पता है कंपनी में क्या होने वाला है।’
उसकी आवाज में एक घबराहट थी।
‘क्या होने वाला है कंपनी में?’
अंजुला नागर समझ न सकी कि कंपनी में ऐसा क्या होने जा रहा है जो एच आर हेड होने के नाते उसे नहीं पता और इसे पता है।
‘पिछले हफ़्ते चीन से एक डेलिगेशन आया था।’ कहते-कहते वह अचानक रुक गई। उसने केबिन के इधर उधर देखा। कहीं वहां उन दोनों के सिवाय कोई तीसरा तो नहीं। ।
‘हाँ जानती हूं। मैंने ही कंपनी का प्रेजेंटेशन तैयार किया था। बहुत बड़ी फंडिंग देने वाले हैं वे लोग।‘
‘वह फंडिंग नहीं मिली।’ मंजूषा ने आहिस्ता से ऐसे कहा जैसे कोई बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा उठाया हो।
‘ओह… फंडिंग नहीं मिली।’ अंजुला नागर भौचक्क रह गई। उसे लगा जैसे कि पत्थरों की चट्टान पर गिरा दी गई हो। अचानक अंजुला नागर की व्यग्रता बढ़ गई।
फंडिंग न मिलने का मतलब जानती थी वह। पिछली बार भी जब कंपनी को कोई फंडिंग नहीं मिली तो डायरेक्टर ने खर्च कम करने के लिए कंपनी के कई लोगों को नौकरी से निकाल दिया था। उसे याद है जब एक बाईस साल की लड़की को उसने टर्मिनेशन लेटर दिया तो वह रोने लगी, ’मैम, मुझे नौकरी से मत निकालिए, मेरी तो एजुकेशन लोन की किस्त चल रही है। कैसे दूंगी मैं सब। आप कहें तो मैं आधी तनखाह पर काम कर लूंगी लेकिन मुझे मत निकालिए।’
लेकिन उसने एक न सुनी उसकी। वह कर भी क्या सकती थी। उसे तो खुद अपनी नौकरी बचानी थी। उस समय ही यह खबर थी कि अगली बार भी फंडिंग नहीं मिली तो कुछ सीनियर लोगों की भी छुट्टी की जा सकती है। कहीं इस बार गाज उसके ऊपर न गिर जाए। यह सोच कर अंजुला नागर घबरा उठी। एसी रूम में भी उसके माथे पर पसीने की बूँदें दिखाई देने लगीं।
‘अरे, ऐसा कैसे हुआ। सारे राउंड की बातचीत तो ठीक चल रही थी और वे लोग कंपनी से सैटिस्फाई भी थे। फिर उन्होंने क्यों मना कर दिया।’ पूछा था अंजुला नागर ने।
‘कोई क्यों लगाएगा पैसा हमारी कंपनी में, हम लोग कोई प्रोडक्शन तो करते नहीं जिससे कंपनी का काम चलता रहे। हमारे जैसा काम तो कई कंपनियां कर रही हैं। इस बार मैंने सुना है कुछ सीनियर लोगों को भी बाहर का रास्ता दिखाने वाले हैं’, मंजूषा ने बताया।
हैरान रह गई अंजुला नागर। कहीं सीनियर में उसका नंबर तो नहीं लग जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो वह कहीं की भी नहीं रहेगी। उसके ऊपर तो कर्ज का अंबार है। घर की किस्तें हैं। बेटी की पढ़ाई है। यदि उसे बाहर कर दिया गया तो कैसे होगा यह सब। मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ेगा उसके ऊपर। नहीं… नहीं… ऐसा नहीं हो सकता। उसे नहीं निकाल सकती कंपनी। वह तो पहले से ही तीन-तीन लोगों का काम अकेले करती है। उसने अपने मन को तसल्ली दी।
‘डायरेक्टर लोग रिट्रेंचमेंट करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि मोटी- मोटी तनख्वाह वालों को बाहर का रास्ता दिखाया जाए। वे तो यह भी कहते हैं कि बिना फंडिंग के कंपनी को ज्यादा दिन नहीं चला पाएंगे।’ मंजूषा ने कहा।
‘तब तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।’ अंजुला नागर का डर सामने आ गया।
कमरे में सन्नाटा सा छा गया। कोई कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद मंजूषा ने चुप्पी तोड़ी और कहा, ’मैंने सुना है कि कोई लिस्ट बन रही है और उसमें मेरा नाम भी है।’ कहते-कहते उसका चेहरा बुझ गया।
‘किसने कहा तुमसे।’ अंजुला नागर ने अपने डर को छिपाते हुए कहा।
‘कहा तो किसी ने नहीं। पर सुना है मेरा नाम भी है। मैं सुबह-सुबह इसलिए आई हूँ यदि मेरा नाम हो तो प्लीज, मेरा नाम निकलवा देना उस लिस्ट से। सब कुछ आप ही करती हैं।’
‘अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं है। कुछ होगा तो तुम्हें बताती हूं।’ अंजुला नागर ने अपने डर को छिपाते हुए उसे आश्वासन सा दिया।
मंजूषा उसके केबिन से चली गई, लेकिन अंजुला नागर उलझ कर रह गई उसकी बातों से। जरूर उसकी बातों में कुछ न कुछ सच्चाई होगी। हो सकता है कि इस बार उसका नाम भी हो, तभी उसे कुछ नहीं बताया गया। नहीं तो ऐसी ख़बरें सबसे पहले उस तक ही पहुँचती हैं। एक चुभन सी महसूस की उसने। क्या करे वह? कैसे पता करे कि उसका नाम तो नहीं है लिस्ट में? सारा दिन इसी उधेड़बुन में रही। एक-एक कर कई डर उसके सामने आ रहे थे। सबसे बड़ा डर तो यही था कि कहीं उसे भी अगले महीने से न आने के लिए कह दिया जाए। इसी डर में सारा दिन बीता।
सात बजने वाले थे और अंजुला नागर को सात बजने से पहले अपनी बेटी ऋचा को लेने के लिए क्रेच में पहुँचना था। उसने सोचा अभी पंद्रह मिनट का वक्त है। पंद्रह मिनट में वह क्रेच पहुंच जाएगी और अपनी बेटी ऋचा को लेकर घर जाएगी। ऋचा को लेकर उसके मन में एक आत्मग्लानि सी रहती थी। इधर पिछले कुछ दिनों से यह सिलसिला बार-बार टूट रहा था। न चाहते हुए भी रोज आफिस में ही नौ-दस बज जाते। ऐसे में अंजुला नागर क्रेच के गार्ड से याचना करती कि वह उसकी बेटी ऋचा को अपने गार्ड रूम में बिठा कर रखे।
अंजुला नागर ने अपना कम्प्यूटर बंद कर दिया। वह अपनी सीट से उठने ही वाली थी कि मोबाइल पर मेसेज आया कि अभी एक जरूरी मीटिंग है, वह कांफ्रेस हॉल में पहुंचे।
मेसेज कंपनी के डायरेक्टर नवीन सहगल का था।
इस मेसेज को देखकर सुबह से दिल में समाया डर और भी बड़ा हो गया। इस वक्त… यह जाने का टाइम है। इस वक्त मीटिंग बुलाने की क्या जरूरत थी। वह कैसे जा सकती है मीटिंग में। उसे तो पंद्रह मिनट में क्रेच पहुँचना है। फिर फौरन ही दूसरा ख्याल आया कि कहीं मीटिंग में रिट्रेचमेंट वाला मसला तो नहीं डिस्कस होगा। उसके मन में आशंकाएं जन्म लेने लगीं। मंजूषा की सुबह की कही हुई बातें सच होती दिखाई दे रही थीं। लेकिन फिर भी अपने मन को कड़ा किया। ऐसा नहीं हो सकता। पर दूसरे ही पल खल आया कि यदि ऐसा हुआ तो? तो?…. इसके आगे वह सोच नहीं सकती थी। सात बजे मीटिंग में जाएगी तो कब खत्म होगी मीटिंग और कब वह पहुँचेगी क्रेच?
अंजुला नागर बिना पल गंवाए अपनी सीट से उठी और कंपनी के डायरेक्टर नवीन सहगल के कमरे में चली गई। डायरेक्टर ने उसे देखते ही कहा, ‘आइए अंजुला जी, आइए। मैं आप ही को याद कर रहा था।’
वह चुपचाप उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई।
इससे पहले कि वह कुछ कहती नवीन सहगल ने कहा, ’आपको तो पता चल ही गया होगा कि हमें चीन वाले डेलिगेशन ने फंडिंग देने से मना कर दिया है।’
‘हाँ, सुना है। यह ठीक नहीं हुआ। काफी उम्मीद थी इस फंडिंग से।‘
‘हाँ, उन सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। अब हमारे सामने मुश्किल आ रही है।’
सतर्क हो गई अंजुला नागर यह सुनकर। जो डर सुबह से मन के कोने में समाया हुआ था वह फिर सामने आ गया।
‘अब कंपनी के पास पैसा नहीं है। कंपनी अपने प्लान को कैसे आगे बढ़ाए। इस पर बात करने के लिए ही आज की मीटिंग रखी गई है। आप आ रही हैं न मीटिंग में।’ नवीन सहगल ने अपनी आवाज में मिठास घोलते हुए पूछा।
‘एक्सक्यूज मी सर, आज मैं मीटिंग में नहीं आ पाऊंगी।’
‘क्यों, क्या हुआ?’ अचानक उसका स्वर बदल गया
‘सर, सात बजे मुझे अपनी बेटी को क्रेच से लेना होता है। सात बजे के बाद मेरा रुकना मुश्किल है।’ अंजुला नागर ने हिम्मत करके कहा।
‘आज आप किसी तरह मैनेज कर लीजिए। आज आपका मीटिंग में रहना बहुत जरूरी है। बिना आपके मीटिंग नहीं हो सकती प्लीज।’
उसके प्लीज में एक धमकी थी। यह कहकर उसने अपनी पीठ को कुर्सी के पीछे टिका दिया और पीठ से कुर्सी को हिलाने लगा।
मन मसोस कर रह गई। अंजुला नागर मुंह लटकाए अपने केबिन में आ गई।
छोटा सा केबिन था उसका। इस केबिन की सामने वाली दीवार पर एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें एक तरफ कंपनी की उपलब्धियां दर्ज थीं ओर दूसरी और कंपनी के टारगेट। अंजुला नागर को कहा गया था कि हर वक्त यह टारगेट उसके जेहन में होने चाहिए। दो मिनट तक तो अंजुला नागर की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। चुपचाप बैठी रही।
फिर पता नहीं क्या सूझा। क्रेच के गार्ड को फोन किया और याचना भरे स्वर में कहा, ‘भैया, मुझे आफिस में आज थोड़ी देर हो जाएगी, तुम ऋचा को अपने केबिन में बिठाकर रखना।’
‘मैडम, हमें बहुत दिक्कत होती है। आप बहुत देर से आती हैं। हम अपनी डयूटी ठीक से नहीं कर पाते।’ गार्ड ने आनाकानी करते हुए कहा था।
‘पर आज जल्दी आ जाऊंगी।’ उसके स्वर में एक अनुनय था, एक बेचारगी थी।
‘तो यह आखिरी बार होगा, मैडम। इसके बाद नहीं करेंगे। आपको देर होनी हो तो कोई दूसरा इंतजाम किया करिए। हमारे भरोसे मत रहा करिए’, गार्ड ने धमकी के अंदाज में कहा था।
‘’हाँ, इस बार अपने पास रख लीजिए ऋचा को। अगली बार आपको नहीं कहूंगी।’
‘ठीक है मैडम, इस बार तो हम ऋचा को अपने पास रख लेंगे। पर आप आज जल्दी आ जाएं। ऋचा बहुत परेशान हो जाती है आपके बिना। बार- बार आपको पूछती है। आप ज्यादा देर मत करना।’ गार्ड ने कहा था।
गार्ड से तसल्ली पाकर मन थोड़ा हल्का हुआ। लेकिन डर कम नहीं हुआ ।
मीटिंग में कौन क्या कह रहा है, अंजुला नागर की समझ में नहीं आ रहा था। बस इतना सुना उसने कि यदि अगली बार भी हमें फंडिंग नहीं मिली तो कंपनी को बेचने के सिवाय हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचेगा।
उसे अपने पति अतुलवीर की कही हुई बात याद हो आई। एक बार उसने कहा था कि ग्लोबलाइजेशन ने सबको तबाह कर दिया है। देखना ये जितनी छोटी–छोटी कंपनियां कुकुरमुत्तों की तरह रातों–रात उग आई हैं, एक दिन धड़ाम से जमीन पर गिरी मिलेंगी। अमरीका की बड़ी–बड़ी कंपनियां सबको निगल जाएंगी, पढ़े–लिखे इंजीनियर अमेरिकी कंपनियों की दलाली करते फिरेंगे।
मीटिंग खत्म होते-होते नौ बज गए थे और जब क्रेच पहुंची तो देखा ऋचा गार्ड की कुर्सी पर ही सो गई थी। उसे कुछ तसल्ली हुई। उसने आहिस्ता से उसे उठाकर अपने कंधे पर लिया और अपनी कार की पिछली सीट पर लाकर सुला दिया। मन में दबी आत्मग्लानि इस वक्त कई गुना बढ़ चुकी थी।
दिल की अतल गहराइयों से बार-बार आवाज आ रही थी- छोड़ दे इस काम को और संभाल अपनी बेटी को। लेकिन जानती थी इसका अंजाम क्या होगा और उस अंजाम के लिए वह तैयार नहीं थी।
अगले दिन स्कूल जाते समय कार में ऋचा ने पूछा, ‘ममा, आज तो देर नहीं होगी आपको आफिस में।’
‘नहीं बेटा, आज देर नहीं होगी। आज जल्दी आ जाऊंगी।’ उसके स्वर में एक कोमलता थी। गोया कह रही हो कल जैसी देर आज यकीनन नहीं होगी। लेकिन फिर सिहर भी गई कि क्या पता आफिस जाकर आज कैसा मंजर सामने आए।
‘ममा, कल जब आप नहीं आईं तो टीचर गार्ड अंकल से कह रही थी इसका ध्यान रखना, इसकी मम्मी तो दलदल में फंसी हुई है।’ ऋचा ने कहा।
चौंक गई ऋचा की इस बात से। यह दलदल की बात इसकी टीचर के जेहन में कैसे आ गई। जरूर वह जानती होगी कि आफिस में किस तरह का दलदल होता है।
‘क्या आप दलदल में फंस गई हो?’ ऋचा ने सवाल किया।
यह सवाल सुनकर अंजुला नागर हतप्रभ थी। ऋचा ने सवाल दुहराया। ‘मम्मी, यह दलदल क्या होता है?’ हैरान थी वह।
‘दलदल,…। दलदल वह होता है बेटा कि…’ उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी बच्ची को क्या बताए। फिर कहा, ‘जब ज्यादा कीचड़ एक जगह इकट्ठा हो और वहां से बदबू उठती हो, तो उसे दलदल कहते हैं।’
‘आप कैसे फंस गईं?’ ऋचा ने फिर सवाल किया।
‘बस फंस गई बेटा।’
‘दलदल मिटा नहीं सकते?’ अनायास ऋचा ने पूछा
‘मिटाना बहुत मुश्किल है। दलदल बहुत फैल गए हैं। बहुत गहरे हैं।’ उसने बेटी को समझाते हुए कहा।
‘कौन बनाता है दलदल?’ ऋचा ने सवालिया निगाह के साथ मां की ओर देखा।
‘बड़े लोग बनाते हैं, बेटा।’
‘क्या आप दलदल बनने से रोक नहीं सकते ममा?’
‘मैं… मैं कैसे रोक सकती हूं बेटा। खुद फंसी हुई हूँ इनमें। तुम्हारी टीचर ठीक कहती है बेटा।‘
‘हम बच्चे मिलकर इस दलदल को मिटाएं तो क्या नहीं मिट सकता?’
अंजुला नागर ने हैरानी से अपनी बेटी की ओर देखा, ’हाँ तब जरूर मिट सकता है, तुम्हें जल्दी से बड़ा होना है!’ अंजुला नागर ने अपनी बेटी को जवाब दिया। जवाब देते-देते उसके मन में एक चमक-सी आ गई।
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सभी कहानियाँ अच्छी और सच्ची हैं। आज का माहौल ही कुछ ऐसा है।पैसा ही सब कुछ नहीं है आदमी के लिए। फिर भी सब कुछ सामान्य नहीं है।
आज की पूंजीवादी सभ्यता ने हमें इतना विवश बना दिया है कि हम दूसरों की कौन कहे अपनी ही भावनाओं – संवेदना ओं के साथ भी न्याय नहीं कर पा रहे हैं ।’दलदल ‘ कहानी स सच्चाई का मार्मिक दस्तावेज है। कहानीकार ने बहुत प्रभावशाली ढंग से यह व्यक्त करने में सफलता हासिल की हैकि मौजूदा व्यवस्था ने इंसान को असुरक्षा, अनिश्चितता और आशंकाओं के घने जंगल में पहुंचा दिया है, जहां से निकलने का रास्ता मिलना बहुत कठिन है, लेकिन कहानीकार निराश नहीं है ।उसे पूरा विश्वास है की आने वाली पीढ़ियां अमानवीय हो चुकी इस पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर देगी और मनुष्य अपनी पूरी स्वायत्तता और गरिमा के साथ जी सकेगा।