बिपिन बिहारी साव : आज की मीडिया व्यावसायिक बुद्धि से संचालित होती है और जिस मीडिया में आदर्श की स्थिति बची है उसका भी रुझान इसी तरफ हो रहा है। इस समस्या की मुख्य जड़ पूंजीवादी सभ्यता है।

विनय कुमार सिंह : अगस्त 2021 के संपादकीय में समकालीन पत्रकारिता की दशा-दिशा का जो विश्लेषण किया गया है, उसपर विमर्श अपेक्षित है। ‘चौथा खंभा’ भी सशक्त रहे तो समाज को, देश को बौद्धिक ऊर्जा मिलती रहेगी।

पुष्पांजलि : बेहतरीन संपादकीय। मीडिया आज केवल बिकाऊ है और कापी पेस्ट बनकर रह गई है। सचाई को दिखाने की ताकत नहीं है। जिसका खाता है, उसी का गाता है।लोकतंत्र का चतुर्थ आधारस्तंभ जर्जर स्थिति में पहुंच चुका है।आत्मसम्मान खोकर पर कतरवाए परिंदे की तरह।खबरों की मंडी में तब्दील हो रहा है आज का मीडिया।

प्रदीप कुमार शर्मा : संपादकीय में आपने सही लिखा है कि पढ़ने की संस्कृति धीरे-धीरे कम होती जा रही है। पढ़ने के स्थान को मीडिया के रूप में आए इस नए सोशल नेटवर्किंग साइट ने हैक कर लिया है। क्या अपढ़, क्या इंटेलेक्चुअल सभी इसकी जद में हैं। इसपर विजय प्राप्त करना सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि आजकल मां बाप रोते हुए छोटे बच्चों को बहलाने के लिए खिलौनों के रूप में मोबाइल पकड़ा देते हैं।

प्रकाश मनु : मीडिया के चरित्र को परत-दर-परत खोलता बहुत मार्मिक और जोखिम भरा संपादकीय। जिन बातों को आपने कहा है और पूरी तेजस्विता से कहा है, उन्हें आज कोई नहीं कहना चाहता। ज्यादातर लोग बचते हैं और नजरें घुमा लेते हैं या गोल-मोल शब्दों में सचाई को ढक दिया जाता है। मीडिया का चरित्र न सिर्फ क्रूर, बल्कि हिंसक भी होता जा रहा है। एक ओर राजनीति और दूसरी ओर पूँजीपतियों से हाथ मिलाकर, उसने अपने को और निर्मम और बेहया बना लिया है। वह खबरें दिखाता नहीं है, बल्कि बड़े घमंड और घामड़पन से कहता है कि जो हम दिखाते हैं, वही खबर है।

सन् 1993 में मैंने हिंदी की पत्रकारिता और मीडिया को लेकर उपन्यास लिखा था, ‘यह जो दिल्ली है’। उस समय पत्रकारिता जगत की अंदरूनी सचाइयों को दर्शाने वाले एक प्रखर उपन्यास के रूप में इसकी खूब चर्चा हुई थी। पर आज –कोई तीन दशकों बाद– लगता है, पत्रकारिता की बेहयाई इतनी बढ़ गई है कि एक नया ‘यह जो दिल्ली है’ लिखे जाने की जरूरत है। शायद नई पीढ़ी में कोई यह काम करे। अलबत्ता, इस तेजस्विता भरे संपादकीय के लिए मेरा साधुवाद!

डी.आर.पाटील, नासिक : वागर्थ के अगस्त 2021 में साक्षात्कार के अंतर्गत ‘जलवायु ही जल है, जल ही जलवायु है : जलपुरुष राजेंद्र सिंह से जावैद अब्दुल्लाह की बातचीत’ में आपका जल जागृति अभियान जबसे शुरू हुआ तबसे सारी दुनिया को पता चला कि इस क्षेत्र में काम करना बहुत जरूरी है। हम गर्व से कह सकते हैं कि आप द्वारा शुरू किया गया प्रयास आज पूरी दुनिया में रंग ला रहा है। आप दोनों की चर्चा बढ़िया रही। आपका विवेचन काफी बेहतरीन रहा।

आनंद भारती :वागर्थ अगस्त में सुरभि विप्लव द्वारा प्रकाशित आलेख में विश्वगुरु और सत्यजित रॉय के रिश्तों की ऐसी व्याख्या और रॉय के कार्यों का खूबसूरत आकलन इसकी बड़ी खासियत है… सत्यजित रॉय की लगभग सारी फिल्में सालों पहले देखी हैं लेकिन अब फिर से देखने की जरूरत महसूस होने लगी। सुरभि विप्लव ने बहुत करीने से सजाकर इस लेख को लिखा, जो सम्मोहित करने वाला है… आभार।

अवधेश कुमार मिश्र : अगस्त अंक में शेखर जोशी का संस्मरण ‘श्री नरेश मेहता, गीतकार नईम और निन्यानवे का फेर’चलचित्र की भांति अविस्मरणीय संस्मरण का स्मृति चित्र अत्यंत रोचक लगा। शब्दों में भाव चित्रण ऐसा, जैसे कोई फिल्म चल रही हो। अच्छाई पर बुराई की धूल डालकर उसे जनमानस भले ही विस्मृत कर दे, लेकिन धूल के नीचे उसकी उपस्थिति झूठ के प्रशंसकों की कलई तो खोल ही देती है। मेहता जी के नाम सेनिर्मित पुल भले ही आतंक के साए में अतीक के नाम से जाना जाए, लेकिन साहित्यकार की कलम लोकमानसिकता को भी आईना दिखा देता है। बहुत सुंदर संस्मरण ।

प्रदीप कुमार शर्मा : के श्रीलता ने महाभारत के आख्यान पर बहुत ही बेहतरीन कविता रची है। उनकी कविता दिल को छू गई।

नवनीत कुमार झा, दरभंगा :आपके संपादकीय से यह ज्ञात हुआ कि 1918 में भारत में स्पैनिश फ्लू नामक महामारी ने देश में दो बड़े बदलाव किए और दोनों ही बदलाव बहुत ही महत्वपूर्ण थे। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों में जो गुस्सा, असंतोष और अविश्वास की भावना भर गई उसके कारण ही प्रथम सत्याग्रह आंदोलन को जन – समर्थन मिला और दूसरा परिवर्तन इसलिए महत्वपूर्ण था कि इस महामारी ने भारतीय आवाम को जाति और धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठकर मानवमात्र की सेवा के लिए प्रेरित किया। संकट के समय अपने और पराए का भेद तो नीचता की पराकाष्ठा ही होती है, लेकिन भारतीय समाज, जो जाति और धर्म की लीक पीटने वाला एक दकियानूस समाज था, उस समाज को महामारी ने एक-दूसरे के साथ लाकर खड़ा कर दिया। दरअसल बड़ी विपत्तियां हमें मनुष्यता सिखाती हैं और हम धर्म और जाति से ऊपर उठकर मानवता का ऋण चुकाने को तत्पर होते हैं। महामारी के समय तो न हिंदू देखा जाना चाहिए न मुसलमान। बाभन और चमार की ओछी मानसिकता और सीमांकन से ऊपर उठकर ही तो ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को चरितार्थ किया जा सकता है ? 1918 में भारतीय समाज में तत्कालीन दमनकारी सत्ता के प्रति जैसा असंतोष रहा होगा उससे कई गुणा ज्यादा असंतोष आज इस कोरोना-काल में वर्तमान सत्ता के प्रति है, क्योंकि अंग्रेज तो बाहरी थे जिनकी रुचि देश को लूटने में थी न कि जनकल्याण में, लेकिन हमारे आज के प्रशासक हमारे द्वारा चुने गए हमारे तथाकथित जन-प्रतिनिधि हमारी ही छाती पर मूंग दल रहे हैं और हम इनका कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे हैं। जनहित में कार्य करने की शपथ लेकर भी जनविरोधी नीतियों,योजनाओं और कानून बनाकर जनता को हलकान करने वाली सरकार को न जन के स्वास्थ्य की चिंता है न जीवन की और न ही जेब की, तभी तो कोरोना के महासंकट में भी मंहगाई आसमान छू रही है और सरकार हमारे मौलिक अधिकारों को कुचल कर धनकुबेरों के खजाने भर रही है। लेकिन फरियाद करने हम कहां जाएं? आज का समय और समाज संवेदनहीन हो चुका है और अपने-अपने स्वार्थ में लिप्त संवेदनहीन समुदायों से नागरिक परिसर के निर्माण की अपेक्षा तो दूर, निःस्वार्थ सहयोग की भी अपेक्षा मत रखिए। हमारी सरकारें, हमारे राजनेता, हमारे उद्योगपति, महान फिल्मी हस्तियां और तमाम पढ़े-लिखे सब अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थ से ग्रस्त हैं और इन्हें जनसामान्य की पीड़ा और जीवन संघर्षों से कोई लेना-देना नहीं है, सब अपना-अपना उल्लू सीधा करते हैं और फिर पल्ला झाड़ कर दूसरों पर जिम्मेदारी फेंक रहे हैं। आपका संपादकीय विचारोत्तेजक है जो आज के दारुण यथार्थ से रूबरू करवाता है। 

वैसे ही जहीर कुरैशी की कहानी भी हमारे गांव-देहात के कटु सत्य को सामने रख रही है। रामचरण जैसे हजारों लोग हैं जो अहमदाबाद, मुंबई या फिर दिल्ली ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत से अपने गांव लौटने पर पाते हैं कि उनके गांव लौट आने से समस्याओं का हल नहीं निकला है। उनके गांव लौट आने से उनके अपने ही खुश नहीं हैं और फिर से महानगरों की ओर लौट जाने के सिवा उनके पास और कोई बेहतर विकल्प ही नहीं है। न गांव अपना लगा न ही परिवार। सोचकर लौटे कि गांव में पिता हैं और सहोदर भाई है पर सही कहा है कथाकार ने कि रिश्तों में जो कोरोना लग गया है वह महानगरों के कोरोना से अधिक घातक है। महानगर से पइसा-कौड़ी भेज-भेज कर जिस भाई की मदद की, उसकी पत्नी ने ही खरी-खोटी सुनाई तो रामचरण को सहज ही यह अहसास हुआ कि गांव लौटने से अच्छा तो अहमदाबाद में ही मर-खप जाते। पेट के लिए जो भी करना पड़े कम है, जॉब कार्ड के नाम पर धांधली का जो बयान किया गया है वहतो एकदम सही है, लेकिन वैक्सीन में जो धांधली हुई है उसे भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। वैक्सीन का कोई ज़िक्र नहीं है कहानी में, लेकिन फिर भी यह कहानी बहुत कुछ ऐसा कहती है कि कोई ठहर कर बहुत कुछ सोचता रहे। इस कहानी के लेखक आज हमारे बीच नहीं हैं सो यह कहानी छापकर वागर्थ ने उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि दी है। 

इस अंक में छपी कहानी ‘कीचड़’ को पढ़ने पर अपने बचपन का वह मंज़र साकार हो गया जब हम पानी से लबालब भरे गढ्ढों में सड़क ढूंढते हुए विद्यालय पहुंचते थे और हमारे जूते कीचड़ से लथपथ हो चुके होते थे! हालांकि सड़कों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है आज भी हमारे दरभंगा में। खैर, हमलोग तमाम तकलीफ़ झेल कर भी गाली नहीं दे सकते थे, लेकिन कुछ लोग बिना कुछ सोचे-समझे ताबड़तोड़ गालियां देने में कोताही नहीं बरतते हैं और व्यक्ति यदि विकृत मानसिकता वाला अपराधी हो तो कुछ कहना ही बेकार है! लेकिन इस कहानी में परिवर्तित हृदय वाले अपराधी ने जो अनुभव दिया है वह महत्वपूर्ण है। इस संसार में अपना सगा बाप अपना नहीं हुआ जिसने अपने ही बेटी के सुहाग उजाड़ने की सुपारी जिसे दी वह तो उस बेटी के लिए सगे बाप से बढ़कर निकला, क्योंकि क़ातिल निगेहबान बन गया। इस मार्मिक कहानी में यथार्थ का चित्रण इतना यथार्थवादी है कि क्या कहूँ। जातिवाद के कीचड़ में लिथड़े समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता और भावनाओं का कोई मतलब नहीं, थोथी परंपराओं और मान्यताओं का अधिक महत्व है। इस कहानी ने समाज के चेहरे से नकाब ही नहीं हटाया है, बल्कि मानवीय प्रेम को महिमा-मंडित भी किया है।

कवि मनोज कुमार झा की कविताएं अद्भुत होती हैं, क्योंकि संप्रेषणीयता के जिस तल पर उतर कर कवि अपनी कविताओं को सिरजते हैं वे पाठक को एक अलग ही समय में संप्रेषित कर देते हैं।एक समय जो पीछे छूट चुका है और उसकी तुलना में आज का समय बेहद अरुचिकर और कष्टप्रद है और हम सब अपने-अपने गांव लौट रहे हैं और ऐसा आभास होता है कि हम सब न सिर्फ गांव, बल्कि गांव के रास्ते तक को भूल बैठे हैं। हम अपनी स्वर्णिम लालसाओं की पूर्ति में इस कदर गुम हो गए कि कब गांव हमसे बहुत दूर हो गया और कब गांव और महानगर के बीच कंटीले पेड़ ओर नुकीले पत्थर उगे हमें पता न चला। कवि की पहली कविता (गांव की ओर भागते हुए) ने गांव के अहसास को जिंदा कर दिया। यह कविता गांव लौट रहे प्रवासी मजदूर लोगों की आंखों में बसे हुए उस आशा की तरंग को छू पाई है जो हर मेहनतकशों की एकमात्र पूंजी थी। 

युवा कवयित्री मनीषा झा जवान होती बेटियों को क्या ‘सीख’ दे रही हैं यह देखने के लिए पूरी कविता पढ़ ली और लगा कि वाह क्या कविता लिखी है। परिवार में बहू की पारंपरिक स्थिति कैसी होती थी यह इस कविता का प्रतिपाद्य नहीं है, क्योंकि कविता उससे दो डेग आगे की सोच रही है। जिस तरह से प्रेम की ऊष्मा से रहित असफल वैवाहिक जीवन के यथार्थ को स्वीकार करते हुए स्त्री को जाति और धर्म के अनुशासन में पिसना होता है उसकी झलक, जो समाज में दिखती है, उसे भी नजरंदाज नहीं करती है कविता। पारिवारिक डाह और वर्चस्व के घमासान में स्त्री का तन ही नहीं मन भी रोज़ लहूलुहान होता है और कवयित्री कहती हैं कि जिस जातीयता और धर्म  के अनुशासन में तुम्हारी कोई कदर नहीं है, तुम कुंठित सी घुट-घुट कर जीती हो। उस व्यवस्था से प्रतिरोध करो और जंजीर को तोड़कर जितनी जल्दी हो सके मुक्त हो जाओ। इस कविता के बहाने पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर क्या ख़ूब प्रहार किया है कवयित्री ने। इसके अलावे जो दो अन्य कविताएं हैं वो भी काफ़ी प्रभावोत्पादक हैं। 

सच्चिदानंद किरण, भागलपुर, बिहार : सर्वप्रथम सीमा जी को सहृदयता सहित नमन। इमाम दास्तां आपकी एकाग्रता से ‌सरल, सरस और सटीक भावों से ओतप्रोत है। मां के सरल स्वाभाविक मर्म को झकझोड़ती हुई कविता की पंक्ति से साक्षात दर्शन कराती है।