सुपरिचित कथाकार और कवि। ‘बीड़ी पीती हुई बूढ़ी औरत’ (कविता संग्रह) और ‘बारिश थमने के बाद’ (कहानी संग्रह) प्रकाशित। त्रैमासिक पत्रिका ‘पाठ’ का संपादन।
सुधांशु भारद्वाज को अपने बेटे के शहर में आए, आज तीसरा दिन है, साथ में पत्नी भी आई है। उनका बेटा नीलेश, विदेशी कंपनी में सेल्स इंजीनियर है। इस शहर में बेटे को आए हुए तीन साल हो रहे हैं। बस कुछ महीने और उन्हें रहना है। हर तीन या चार साल में उनका ट्रांसफर नए शहर में हो जाता है। हर बार की तरह इस बार भी बेटे नीलेश ने मम्मी-पापा को कुछ दिन के लिए अपने शहर में रहने के लिए बुला लिया है। इससे पहले भी वे पुणे और पटना में बेटे के पास रह चुके हैं।
वैसे तो सुधांशु छत्तीसगढ़ के महासमुंद के रहने वाले हैं। सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने रिटायरमेंट के पैसों से शहर में दो मंजिला मकान बनाया है। नीचे के मकान में वे पत्नी के साथ रहते हैं और ऊपर का मकान किराए से दे रखा है।
वैसे भी सुधांशु को अपने शहर को छोड़कर, अन्य शहरों में ज्यादा दिन तक रहना पसंद नहीं है। इस बार बेटे ने बार-बार आने को कहा था और पत्नी भी जाने को तैयार थी। सुधांशु ने पत्नी और बेटे से कह दिया है कि हर बार इस तरह और आना जाना उनसे नहीं हो पाएगा, एक तो उम्र और दूसरा उनके न रहने से बगीचे के पौधों की ठीक देखभाल नहीं हो पाती।
वे अपना ज्यादातर समय बागवानी में गुजारते हैं। नए-नए पौधे लगाना फिर उनकी देखभाल करना उनको अच्छा लगता है। यह आदत उनको नौकरी के समय से है। जब दो-चार दिन के लिए शहर से बाहर जाते हैं तब तो ठीक है, पर जब वे पंद्रह-बीस दिन के लिए बेटे के पास आते हैं, तब काम करने वाली बाई को यह जिम्मेदारी सौंप कर आते हैं। काम करने वाली बाई सुबह किराएदार से चाबी लेकर घर की साफ सफाई के बाद पेड़-पौधों पर पानी डालती है। वैसे तो हर संडे माली आता है। माली काफी पुराना है, सुधांशु को बागवानी में गुलाब के फूलों का विशेष शौक है। उनके घर पर कई तरह के गुलाब के गमले हैं। फिर भी अगर उनको किसी के घर नए गुलाब के पौधे दिख जाते हैं, तब वे दूसरे दिन नर्सरी जाकर उस पौधे को खरीद लाते हैं। कभी माली भी नए पौधे लाकर देता है। बागवानी का शौक परिवार में सिर्फ उन्हीं को है। उनकी पत्नी नए-नए पकवान बनाने के शौकीन है। जब भी वह बेटे के पास आती है, बहू से कहकर वह किचन का सामान मंगवाकर जितने दिन वहाँ रहती है, रोज-रोज बेटे-बहू और नाती के लिए नए-नए पकवान बनाकर खिलाती है।
नीलेश शहर के प्राइम लोकेशन पर तीन मंजिला फ्लैट की दूसरी मंजिल पर रहता है। फ्लैट से थोड़ी दूर पर उसकी कंपनी का कार्यालय है। उसका बेटा चार साल का सुजश चौथी क्लास में पढ़ रहा है। उसका स्कूल भी नजदीक है। वह बस से आना-जाना करता है।
सुधांशु को सुबह जल्दी उठने की आदत है। फिर वे बाहर टहलने निकल जाते हैं, चालीस-पैंतालीस मिनट पैदल चलने के बाद लौटकर चाय पीते हैं, फिर बागवानी के कामों में लग जाते हैं। दो घंटे कैसे बीत जाते हैं उनको पता ही नहीं चलता।
बेटे के पास आने के बाद सुधांशु की नींद सुबह जल्दी खुल जाती है पर वह बिस्तर नहीं छोड़ते। जब उसकी पत्नी उठती है तब वे बिस्तर छोड़ते हैं। सुबह उठकर वे बालकनी में रखे दो-चार गमलों में लगे फूल के पौधों पर पानी डालने के बाद कमरे में लौट आते हैं। दो दिन से उनकी सुबह ऐसे ही कट रही थी। सुबह चाय-नाश्ता के बाद अखबार और टीवी पर समय निकल जाता, दोपहर दो घंटे सो लेते, फिर शाम को बेटे और नाती के घर लौटने का इंतजार होता।
आज सुबह चाय पीते हुए उन्होंने पास सोफे पर बैठे बेटे नीलेश से पूछ ही लिया- ‘बेटा, यहां आस-पास कोई गार्डन या पार्क या खुला मैदान नहीं है जहां सुबह-शाम टहल सकें खुली हवा में?’
बेटे ने मुस्कराकर कहा – ‘नहीं पापा। यहां आपके शहर के जैसा नजदीक में कोई पार्क या गार्डन नहीं है। एक पार्क बच्चों के लिए है, पर वह थोड़ी दूर है। आपको ऑटो से जाना होगा।’
यह सुनकर सुधांशु हँसकर कहने लगे- ‘सुबह-शाम टहलने के लिए ऑटो से पार्क जाना होगा! ठीक है।’
पिता की तरफ देखकर नीलेश कहने लगा- ‘दरअसल पापा, हमारा यह एन्क्लेव काफी पुराना है, सुविधाएं कम हैं। आज के बिल्डर ग्राहकों के लिए काफी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं।’
‘ठीक है। मैं ऐसे ही सड़क पर टहल कर आ जाऊंगा…।’
‘यहां की ट्रेफिक बहुत अच्छी नहीं है पापा, आप जरा संभलकर सड़क पर पैदल चलिएगा।’ नीलेश ने पापा से कहा।
‘आप रेणुका के साथ चले जाइएगा।’ थोड़ी देर ठहरकर नीलेश ने पापा से कहा।
‘अरे नहीं उसकी जरूरत नहीं है, बहू घर का काम छोड़कर कहां जाएगी। उसे दिन भर घर के कामों से ही फुर्सत नहीं मिलती।’
तभी पास खड़ी रेणुका हँसकर बोली-
‘पापाजी, आप साथ में मम्मी को ले जाइए। मम्मी जी भी दो दिन से घर पर ही हैं, बाहर निकलने से उनको भी अच्छा लगेगा।’
‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी। घर पर ठीक हूँ।’ पत्नी ने कहा।
‘किसी को मेरे साथ जाने की जरूरत नहीं है, मैं अकेला चला जाऊंगा। वैसे भी तुम्हारी मम्मी को तुम्हारे साथ किचन में रहना पसंद है।’ सुधांशु ने हँसकर पत्नी की तरफ देखकर कहा।
थोड़ी देर के बाद सुधांशु सुबह का नाश्ता करके बाहर निकलने के लिए जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचे, पत्नी ने कहा – ‘क्या तुम घर के कपड़े पहने बाहर निकल जाओगे?’
पत्नी की बात सुनकर सुधांशु ने अपने कपड़ों की तरफ देखकर मजाकिया अंदाज में कहा- ‘इन कपड़ों में बुराई क्या है, साफ हैं, रंग सफेद है, कुर्ता पैजामा है, घर लौटकर चेंज कर लूंगा। वैसे भी इस शहर में मुझे पहचानता कौन है? अड़ोस-पड़ोस के फ्लैट में रहने वाले कहां किसी के घर ताका-झांकी करते हैं। किसी को अपने ही घर से फुर्सत नहीं है। जब देखो सभी के फ्लैट का दरवाजा अंदर से बंद रहता है। मैंने एक भी चेहरा आज तक नहीं देखा।’
रेणुका सुधांशु की बातों पर हँस पड़ी थी। बात उन्होंने सोलह आने सच कही थी। कोई किसी के घर झांकता नहीं है। सभी के फ्लैट के दरवाजे ज्यादातर समय बंद रहते हैं।
सुधांशु लिफ्ट से नीचे उतर आए। नीचे दो-चार फेरीवाले, सब्जी वाले हांक लगा रहे थे। वे मेन गेट की तरफ चल पड़े। इस एनक्लेव में कुल तीन ब्लॉक हैं। अन्य एन्क्लेव की तरह इस एन्क्लेव में नीचे दीवार पर फ्लैट में रहने वालों का नाम नहीं लिखा है। सिर्फ फ्लैट का नंबर लिखा है और बगल में मोबाइल नंबर।
एन्क्लेव के मेन गेट से निकलकर वे सीधे सड़क पर पहुँच जाते हैं। वह सड़क के किनारे चलने लगते हैं। थोड़ी दूर चलने के बाद उनको बेटे की बात सही लगती है। शहर की ट्रैफिक व्यवस्था बहुत ढीली है। किसी को सही ढंग से ट्रैफिक के नियम मालूम नहीं हैं और हैं भी तो वे गैर-जिम्मेदार होकर वाहन चला रहे हैं। थोड़ी दूर तक उनको चलने में परेशानी हुई। बाद में वह फुटपाथ पर चलने लगे। सड़क के दोनों तरफ बने फुटपाथ पर काफी भीड़ थी। सुबह का समय होने के कारण सभी लोग अपने-अपने काम पर जा रहे थे।
सुधांशु को समझ में आया, शहर काफी व्यस्त है। दोनों तरफ की दुकानें और दुकानों की साज-सज्जा महानगरों से कम नहीं है। वैसे भी आजकल बाजार का समय है। कुछ दूर चलने के बाद उनको ऐसा लगा कि यह शहर सचमुच बाजार की दुनिया में बसा हुआ है।
तीस-पैंतीस मिनट पैदल चलने के बाद सुधांशु लौटने लगे। वैसे उन्हें सुबह-शाम पैंतालीस-पचास मिनट चलने की आदत है। दिसंबर की सुबह थी। दो दिन से ठंड ज्यादा पड़ रही थी। सुधांशु ने न स्वेटर पहन रखी है और न ही इनर। पैदल सड़क पर चलने वाले बहुत कम लोग गरम कपड़े पहने हुए हैं।
एन्क्लेव के नजदीक पहुंचने से पहले सुधांशु की नजर चाय की एक दुकान की तरफ पड़ी। दुकान में भीड़ थी। प्राय: सभी लोग सफेद कुर्ता-पजामा और टोपी पहने हुए थे। सभी लोगों का हुलिया एक जैसा था। सुधांशु को चाय पीने का मन हुआ। सुबह सिर्फ एक ही लाल चाय पी थी। वैसे सुबह नाश्ते के बाद चाय पीने की रोज की आदत है, पर आज जान-बूझकर उन्होंने नाश्ते के बाद चाय पीने से मना कर दिया था। आज वर्षों बाद न जाने क्यों चाय की इस दुकान के पास उनके पांव ठिठक गऐ। वे रुक गए। उनको अपना शहर याद आ गया। अक्सर वे हमउम्र लोगों के साथ ऐसे ही चाय-ठेले या दुकान पर चाय पिया करते थे। चाय पीने की आदत बरसों पुरानी है।
दुकान के पास पहुंचते ही भीड़ एकाएक छंटने लगी थी। वे लोग एक साथ आए थे चाय पीने के लिए और पीकर सभी साथ निकल गए। सुधांशु को समझने में देर नहीं लगी कि ये लोग एक ही कौम के हैं। कुछ देर दुकान के सामने खड़े रहने के बाद अचानक चाय वाले लड़के की नजर उन पर पड़ी – ‘सर जी, चाय पिलाऊं?’
‘हां, पिलाओ।’ सुधांशु ने चाय वाले लड़के की तरफ देखकर इशारा से कहा। चाय वाला लड़का इक्कीस-बाईस साल का है। रंग गोरा, सामान्य कद, चेहरे पर हल्की दाढ़ी-मूछें, सफेद टी शर्ट, जगह-जगह चाय के धब्बे लगे। लड़के ने फुर्ती से गंजी पर चाय के उबलते पानी में दूध डाला। थोड़ी देर के बाद चायपत्ती डालकर एक बड़ा चम्मच से घोलता रहा, फिर चाय को एक बड़े बर्तन में छानने लगा। छानने से पहले उसने इलायची दानों को खलबट्टा में कूटकर चाय की गंजी में डाल दिया। सुधांशु उस लड़के की फुर्ती और चाय बनाने की अदाकारी को देख कर हँस रहे थे। लड़के ने कप में चाय डालकर सुधांशु की तरफ बढ़ा दी। सुधांशु ने एक घूंट पीकर मुस्कराकर कहा- ‘अरे वाह, बहुत बढ़िया चाय! मजा आ गया।’ लड़के ने हँसकर कहा – ‘आपको मजा आया सर?’
‘क्यों नहीं भई, इतनी स्वादिष्ट चाय, किसे मजा नहीं आएगा। तुम्हारा नाम क्या है भाई?’
‘हैदर… हैदर अली।’ लड़के ने मुस्कुराकर कहा।
‘दुकान काफी पुरानी है?’ सुधांशु ने पूछा।
‘जी साहब। तीस-बत्तीस साल पुरानी है।’ लड़के ने कहा।
‘इससे पहले दुकान में कौन बैठता था?’
‘मेरे अब्बा।’ लड़के ने सहज होकर कहा।
‘अभी वह दिख नहीं रहे हैं, कहां हैं? बुजुर्ग हो गए हैं?’
सुधांशु ने लड़के से एकसाथ कई सवाल कर दिए। लड़के ने काफी देर के बाद कहा- ‘साहब, वे मारे गए है…।’
‘मारे गए हैं… या उनका इंतकाल हो गया है? मैं समझा नहीं तुम्हारी बात।’
‘दंगाइयों ने उन्हें गोली मारकर हत्या कर दी।’
यह सुनकर सुधांशु थोड़ी देर के लिए अचंभित रह गए। आश्चर्य से कहा- ‘दंगाइयों ने, कहां के दंगाइयों ने?’
‘वे लोग दूसरे इलाके के थे।’
लड़के ने चाय की गंजी को चूल्हे से नीचे उतारते हुए कहा।
‘कब, क्यों…?’ सुधांशु ने उतावला होकर पूछा।
‘ग्यारह साल पहले ऐसे ही जाड़े के महीने में। वे लोग आठ-दस थे, नकाब पहने। रात के दस बजे अब्बा अकेले दुकान पर थे। एकाएक उनको निशाना बनाकर उनके सीने में गोलियां दाग दीं, फिर वे लोग भाग गए।’
‘क्यों? क्या दुश्मनी थी उनसे?’
‘वे लोग दूसरे कौम के थे, दूसरे मजहब के।’
‘तो क्या हुआ?’
‘अब्बा ने उनसे चाय का पैसा मांगा था, वे लोग मना कर दिए थे…’
‘यह कोई बात हुई?’
‘सर, यह इलाका ठीक नहीं है, बात–बात पर दंगा होता है। कत्ल करना यहां के लोगों के लिए बच्चों के खेल जैसा है। बात निकली नहीं, तलवार चल जाती है, बंदूक से गोलियां निकल जाती हैं।’
सुधांशु कुछ देर चुप रहे, उस वक्त दुकान पर वह अकेला था। लड़के ने सुधांशु की तरफ देखकर पूछा– ‘आप पहली बार दुकान आ रहे हैं। क्या आपको हमारी दुकान के बारे में पता नहीं है? आप अब्बा को भी नहीं जानते। क्या आप शहर में नए आए हैं?’
‘हां।’
‘कहां रहते हैं?’
‘पास के आर.के.एन्क्लेव में।’
‘रसूल कलाम एन्क्लेव, मस्जिद के पास?’
‘नहीं, यह नाम नहीं, कोई दूसरा नाम होगा।’
‘जी नहीं, यही नाम है उस एन्क्लेव का। दरअसल यह नाम बिल्डर का है, उन्होंने अपने नाम से फ्लैट्स का नाम आर. के. एन्क्लेव रखा है।’
‘वे कहां रहते हैं?’
‘रसूल कलाम जी आपके फ्लैट के सामने, रोड के उस पार जो आर. के. इलेक्ट्रॉनिक्स की बड़ी दुकान है, वह दुकान उन्हीं की है।’
‘मैं यहां नया हूँ, बेटे के पास आया हूँ। दस-बारह दिनों के लिए।’
‘आपके बेटे क्या करते हैं?’
‘कंपनी में नौकरी करते हैं।’
‘आपको देखकर मैं समझ गया था कि आप इस इलाके के नहीं हैं।’
‘हम लोग बाहर के हैं।’
‘आप मुसलमान हैं न?’
एकाएक चाय वाले लड़के के इस सवाल से सुधांशु का सारा शरीर कांप उठा। वह चौक पड़ा, अंदर ही अंदर थरथरा उठा। आज तक किसी ने उनसे इस तरह का सवाल नहीं किया था। एक पल के लिए उनको ऐसा लगा कि किसी ने उनके मुंह में जबरदस्ती तेजाब की बोतल उ़ड़ेल दी है। उन्होंने जल्दी पूरी चाय पी ली।
‘हुलिया से ही मैं समझ गया कि आप हमारे कौम के हैं।’ लड़के ने हँसते हुए कहा।
सुधांशु ने उसकी तरफ आश्चर्य से देखकर पूछा, ‘तुमने कैसे समझा कि मैं मुसलमान हूँ?’
‘दूसरे कौम के लोग इस दुकान में चाय पीने कम ही आया करते हैं।’
‘क्या यह इलाका मुसलमानों का है?’ सुधांशु ने पूछा।
‘इलाके में ज्यादातर मुसलमान हैं, कुछ दूसरे कौम के हैं, पर वे लोग दंगा-फसाद के समय हमारे साथ रहते हैं, उन लोगों से हमें कोई खतरा नहीं है। वैसे आप जिस आर.के.एन्क्लेव में रहते हैं वहां के सभी फ्लैट में मुसलमान हैं।’
सुधांशु की नजर एकाएक अपनी कलाई पर बंधी गोल्डन चैन वाली घड़ी की तरफ पड़ी, काफी समय हो गया था। उन्होंने कुर्ते की जेब से पैसे निकालकर चाय वाले लड़के को देते हुए कहा – ‘यह लो चाय के पैसे।’
सामने टंगी तख्ती पर चाय, कॉफी की रेट लिखी हुई थी। लड़के ने मुस्कराते हुए कहा- ‘फिर आईएगा सर। वैसे पिछले चार-पांच महीनों से यह इलाका शांत है।’
‘पिछली बार इस इलाके में दंगा कब हुआ था?’ सुधांशु ने पूछा।
‘जुम्मा के दिन। टीवी पर भारत-पाकिस्तान के बीच मैच खेला जा रहा था, उस दिन भारत मैच हार गया था। उसके बाद दंगा भड़क उठा था।’
‘फिर क्या हुआ?’
‘दो हिंदू मारे गए थे।’
यह सुनकर सुधांशु की धड़कन तेज होने लगी। उन्हें महसूस होने लगा कि अब घर की तरफ निकल जाना चाहिए। यहां एक पल भी ठहरना मुनासिब नहीं। वे तुरंत दुकान से निकल गए। फुटपाथ पर तेज चलने लगे। माथे पर पसीना निकल आया था, उन्हें घर का रास्ता काफी दूर लग रहा था।’सुधांशु
वह किसी तरह फ्लैट की लिफ्ट के पास पहुंचा। फिर पीछे पलटकर नहीं देखा। वे सीधे लिफ्ट से चलकर फ्लैट के दरवाजे पर आकर खड़े हो गए। अचानक उनकी नजर फ्लैट के दरवाजे पर पड़ी। दरवाजे पर सिर्फ फ्लैट का नंबर लिखा हुआ था, बेटे के नाम की तख्ती उन्हें कहीं नजर नहीं आई। उन्होनें घंटी बजाई। दरवाजा खुलते ही वे ड्राईंग हॉल के सोफे पर जाकर धड़ाम से गिर पड़े। पत्नी ने यह देखकर आश्चर्य से पूछा- ‘आपकी तबीयत तो ठीक है?’
ठंड में भी माथे पर पसीना देखकर पत्नी घबरा गई थी।
‘थोड़ा पंखा चला दो।’ सुधांशु ने आंखें बंद करके कहा। तभी रेणुका ग्लास में पानी लेकर आई।
‘पापा जी, पानी पी लीजिए।’ बहू ने कहा।
सुधांशु एक ही घूंट में पूरा पानी पी गए।
‘मैं ठीक हूँ। चिंता की बात नहीं। बस कुछ देर ऐसे ही पंखे के नीचे बैठने दो, ठीक हो जाऊंगा।’ यह कहकर वे सोफे पर लुढ़क गए।
कुछ देर आराम करने के बाद सुधांशु सोफे पर उठ बैठे। बहू रेणुका पास में खड़ी थी, उसने उसकी तरफ देखकर पूछा- ‘अच्छा बहू, यह बताओ, तुम अड़ोस-पड़ोस के फ्लैटों में क्यों नहीं जाती? क्या यह बात सच है कि इस एन्क्लेव के ज्यादातर फ्लैट में मुसलमान परिवार के लोग रहते हैं?’ रेणुका ने धीमी स्वर में कहा- ‘हां। दो-चार हिंदू परिवार वाले भी हैं। क्या किसी ने कुछ आपसे कह दिया है?’
‘नहीं! ऐसी कोई बात नहीं…।’
सुधांशु बात यहीं खत्म करना चाहते थे। वे चुप हो गए। बहू और पत्नी किचन में चली गई। कुछ देर के बाद सुधांशु नहाने चले गए। नहाने के बाद वे कमरे के ड्रेसिंग टेबिल के आदमकद दर्पण के सामने खड़े हो गए और स्वयं को दर्पण में गौर से देखने लगे। क्या उनका हुलिया सचमुच मुसलमान जैसा है?
चेहरे पर सफेद दाढ़ी, सिर के सभी बाल पके हुए, रंग गोरा, आंखों में गोल्डन फ्रेम का चश्मा, पहनावे में सफेद पाजामा-कुर्ता …क्या सचमुच इन पोशाकों में वे मुसलमान जैसे लगते हैं? तभी चाय वाले लड़के ने उन्हें मुसलमान समझा। सुबह से शाम तक उसकी दुकान में न जाने कितने लोग आते होंगे, अलग-अलग हुलिया वाले। उन्हें देखकर वह पहचान जाता है कि कौन किस जाति का है। गनीमत समझो कि लड़के ने उनका नाम नहीं पूछा। पूछ भी लेता तो वह बताते, शाकिर अली! यह नाम उनके एक परिचित दुकानदार का है।
वे बेटे के बारे में सोचने लगे कि उसने कैसे अकेले इस फ्लैट में बीवी, बच्चों के साथ इतना समय गुजार लिया।
शाम को बेटे नीलेश का इंतजार वे ड्राईंग हॉल में करते रहे। नीलेश आया। वह हाथ-मुंह धोकर चाय-नाश्ता के लिए जब ड्राईंग हॉल के सोफे पर बैठा, सुधांशु ने कुछ समय बाद ही उसकी तरफ देखकर कहा – ‘बेटा मैं सुबह फुटपाथ से गुजर रहा था, तभी एक चाय की दुकान में चाय पीने की इच्छा हुई। वहां रुक गया। चाय वाले लड़के से यह पता चला कि हमारे इस एन्क्लेव का नाम रसूल कलाम एन्क्लेव है, जिसे हम आर.के.एन्क्लेव के नाम से जानते हैं। क्या यह सच है?’
‘जी पापा, ठीक कहा है उसने।’ नीलेश ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
‘क्या यह इलाका मुसलमानों का है?’
‘पापा जी, आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं? क्या चाय वाले उस लड़के ने आपसे कुछ कहा है?’
‘बस उसने इतना ही कहा…।’
‘पापा जी, यह शहर राजनीति का गढ़ है। राजधानी जो है। यहां आए दिन मंत्रियों को आना-जाना होता है। वैसे भी यहां के बच्चे-बच्चे राजनीति को खेल समझकर खेलते हैं। आए दिन कोई न कोई घटना घटती रहती है। कभी आगजनी, कभी तोड़फोड़, कभी दंगा-फसाद, बम-विस्फोट, 144 धारा, कर्फ्यू…!’
‘इन घटनाओं के बीच तुम कैसे रह पाते हो? हमेशा डर की जिदंगी कैसे जी लेते हो? कभी तुमने सोचा है कि तुम्हारे परिवार के साथ कभी भी कोई घटना घट सकती है?’
‘है न पापा जी। पर हम क्या करें। इस शहर में किराए का सही फ्लैट मिलना भी मुश्किल है। बहुत ढूंढने पर मिलता है। मेरा कार्यालय, कुणाल का स्कूल, बाजार, मॉल, रेलवे स्टेशन, नसिर्ंग होम सब इसी इलाके में है। कार्यालय ऑटो से पच्चीस मिनट की दूरी पर है। शहर का ट्रैफिक आप देख ही रहे हैं, अगर मैं दूसरी जगह मकान लूं तब आने-जाने में काफी दिक्कत होगी। मैं कभी भी समय पर कार्यालय नहीं पहुंच पाऊंगा। कुणाल के स्कूल की दूरी केवल पंद्रह मिनट। इतने पास सुविधायुक्त मकान मिलना मुश्किल है।’
कुछ देर ठहरकर नीलेश ने फिर कहा – ‘इतने दिन हो गए, अभी तक कोई परेशानी नहीं हुई। ज्यादातर लोग सर्विस क्लास वाले हैं। कुछ लोगों ने फ्लैट खरीद लिया है, पर ज्यादातर लोग किराए पर रहते हैं। किसी भी त्योहार में हमें कोई असुविधा नहीं होती। मेरी कंपनी के कार्यालय के एक सहयोगी ने किसी तरह परिचित दलाल से कहकर यह फ्लैट दिलवाया है। दलाल ने इसी शर्त पर यह मकान किराए पर दिलवाया है कि मुझे इस एन्क्लेव में रहने वाले मुसलमानों के साथ भाईचारे का रिश्ता बनाकर रहना होगा। मैंने शर्त मान ली। मेरे पास विकल्प नहीं था।’
‘क्या तुम इस फ्लैट में मुसलमान बनकर रह रहे हो?’
सुधांशु की बातों में आक्रोश के भाव थे। तभी बेटे ने सहज होकर कहा – ‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। तीन साल होने को हैं। कुछ महीने और रहना है, वह भी कट जाएगा।’
‘और बच्चे? फ्लैट के दूसरे बच्चों के साथ न मिलते है और न खेलते हैं।’
‘बच्चों के पास स्कूल और ट्यूशन के बाद समय ही कहां बचता है… और बचता भी है तो वे टीवी और मोबाइल पर अपना समय काट लेते हैं।’
‘मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है बेटा। पता नहीं, सुबह उस लड़के से मिलने के बाद मेरा मन अशांत हो उठा है। आखिर इन बचे महीनों में तुम बीवी-बच्चों के साथ कैसे चैन से रह पाओगे?’
‘पापा जी, दुनिया ऐसे ही चल रही है। यह बात सच है कि मेरे सर्विस जीवन में सबसे ज्यादा राजनीति वाला शहर यही रहा है। अब तक जिस भी शहर में रहा हूँ, इतना ज्यादा हिंसक राजनीतिक माहौल मैंने कहीं नहीं देखा।’ नीलेश ने अपनी बात को कुछ हल्के भाव में कहा।
सामने टीवी पर समाचार चल रहा था। नीलेश को रोज इस वक्त समाचार देखने की आदत है।
सुधांशु ड्राईंग हॉल से उठकर सामने बॉलकनी की तरफ चले गए। नीचे सड़क की तरफ उनकी नजर गई। सड़क पर लोगों की व्यस्तताएं थीं।
सुधांशु मन ही मन सोच रहे थे कि लोग इतना टेंशन में कैसे जी लेते हैं। महासमुंद में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया। उन्हें कभी जीवन में इस तरह के टेंशन का सामना करना नहीं पड़ा। राजनीति हर शहर में होती है, पर लोगों के इतने ज्यादा हिंसक और उग्र होने की बात पहली बार सुनी है। इस तरह के राजनीतिक माहौल में लोग आखिर बीवी-बच्चों के साथ कैसे रह लेते हैं। उन्हें यहां आने पर यह बात समझ में आ रही थी।
कुछ देर बॉलकनी में खड़े रहने के बाद सुधांशु ड्रॉईंग हॉल में लौट आए। एकाएक उनकी नजर सोफे पर बैठे बेटे की तरफ पड़ी। उसके चेहरे पर भी दाढ़ी, सिर के बाल कुछ लंबे, रंग गोरा, चेहरा गोल, आंखों में चश्मा… सचमुच वह किसी मुसलमान की तरह दिख रहा था। उन्हें समझ में आने लगा था कि उनका बेटा बिना नेम प्लेट वाले मकान में कैसे रहा है।
संपर्क :रॉयल टाउन, अपोज़िट गुलाब नगर, मोपका-495006, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, मो.9907126350