प्रत्येक जाति आत्माभिव्यक्ति और आत्म-चरितार्थता की प्रक्रिया में विश्व-सभ्यता में कोई-न-कोई मूलभूत योगदान करती रही है। भारत का मूलभूत अवदान उसकी भारतीयता है। यदि हम प्रश्न करें कि इस मूलभूत-अवदान में सर्वाधिक विशिष्ट क्या है, तो सबसे पहले हमें स्पष्ट समझ लेना होगा कि किसी भी जाति के अनुभव में सभी कुछ पूर्णत: अनन्य होना असंभव है। निश्चय ही उसकी कुछ निजी विलक्षणताएं होती हैं। यदि हम विश्व को राष्ट्रों का परिवार मान लें, तो भारत की स्थिति को सबसे अच्छी तरह समझ सकेंगे।

यह देश असंख्य अनुभवों से गुजरा है और इसने अनेक ऐसी समस्याओं का समाधान खोजा है, जिन्हें परवर्ती जातियां शायद ही पहचान सकी हैं। भारत के अनुभव का सारभूत तत्व समग्र जीवन की एकात्मता के चिरंतन ज्ञान तथा अनुन्मूलनीय अंत:प्रज्ञा में उपलब्ध है। इस एकात्मता की पहचान ही सर्वोच्च कल्याण एवं चरम स्वाधीनता में है। भारत अपने दर्शन से उद्भूत इस समग्र चिंतन को विश्व को भेंट स्वरूप प्रदान कर सकता है। वास्तव में यह दर्शन अन्यों के लिए अजाना नहीं है। यह ईसा, ब्लेक, लाओ त्से और रूमी के आप्त-वचनों में उपलब्ध है, लेकिन इसे कहीं भी समाजशास्त्र और शिक्षा का मूलभूत आधार नहीं बनाया गया है।

प्रत्येक जाति को अपनी समस्याएं अपने ढंग से हल करनी चाहिए। यद्यपि शिक्षाएं अनेक और मूल्यवान हो सकती हैं, फिर भी मैं यह सुझाव नहीं दूंगा कि विशिष्ट भारतीय समस्याओं के पुराकालीन भारतीय समाधान वर्तमान दशाओं पर सीधे-सीधे लागू किए जा सकते हैं। मेरा अभिमत है कि जीवन के मूल अर्थ और उद्देश्य को हिंदुओं ने अन्यों की अपेक्षा अधिक दृढ़ता के साथ ग्रहण किया तथा अन्यों की अपेक्षा अधिक सोच-समझ कर जीवन के उपलब्ध फलागम के आलोक में समाज का संगठन किया। इस संगठन की रूपरेखा किसी एक वर्ग के लाभ को केंद्र में रखकर नहीं, बल्कि आधुनिक सूत्र का प्रयोग करें, तो प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार लेने और प्रत्येक को उसकी आवश्यकताओं के अनुसार देने को केंद्र में रखकर निर्मित की गई थी।

यह मतभेद का विषय हो सकता है कि प्राचीन ऋषि इस उद्देश्य में कहां तक सफल हुए। हमें भारतीय समाज को, विशेषकर वर्तमान के ह्रासशील वाले भारतीय समाज के संदर्भ में, इस रूप में मूल्यांकित नहीं करना चाहिए कि उसने ब्राह्मणवादी सामाजिक विचारों को अपना लिया है, बल्कि अपने समस्त अधूरेपन के बावजूद हिंदू समाज के अस्तित्ववान बने रहने से बहुतों को प्रतीत होगा, कि वह अन्यत्र कहीं भी व्यापक स्तर पर अर्जित समाज-व्यवस्थाओं से उच्च है और हमारे द्वारा ‘आधुनिक सभ्यता’ के नाम से अभिहित की जाने वाली समाज-व्यवस्था से असीमित रूप में श्रेष्ठ है।

यदि इस दृष्टिकोण की रक्षा करना असंभव भी हो और यूरोपियनों तथा भारत के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का बहुमत इसके प्रतिकूल हो, तब भी आधुनिक विश्व के लिए भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक उत्कृष्ट चरित्र और उसकी महानतम अर्थवत्ता बनी रहेगी। इस संस्कृति का आधार है, जीवन के अर्थ और मूलभूत उद्देश्य को समझने का अविराम प्रयास तथा उसी व्यवस्था की संगति में समाज का प्रयोजनपरक संगठन। ब्राह्मणवादी प्रत्यय है- एक भारतीय ‘देव नगर’। इसका संकेत संस्कृत की लिपि ‘देवनागरी’ से मिलता है। उस नगर का नए सिरे से निर्माण सभ्यता का नियत कर्तव्य है; और यद्यपि भवन की परिरेखीय स्थिति तथा हमारी योजना के विवरण में बदलाव आ सकता है, फिर भी हम भारत से धर्म एवं शाश्वतता की नींव पर उसके निर्माण की सीख ग्रहण कर सकते हैं।

आधुनिक यूरोप के औसत मानस से भारतीय मानस भिन्न है। यूरोप और अमेरिका में दर्शन का अध्ययन स्वयं में ही अंत के रूप में माना जाता है। साधारण लोगों के लिए उसका महत्व कम दिखाई देता है। इसके विपरीत भारत में दर्शन मूलत: मस्तिष्कीय व्यायाम के रूप में नहीं, बल्कि गहरी धार्मिक आस्था है, क्योंकि वह अज्ञान (अविद्या, जो यथार्थ के बोध को हमारे नेत्रों से सदैव ओझल बनाए रखता है) से हमारा उद्धार (मोक्ष) करता है। दर्शन जीवन के मानचित्र की कुंजी है। इसके माध्यम से जीवन का अर्थ और उसके उद्देश्य को उपलब्ध करने के साधन स्पष्ट होते हैं। ये सभी से संबंधित विषय हैं; अत: आश्चर्य नहीं कि इसीलिए भारतीय लोग दर्शन का अध्ययन उत्साहपूर्वक संपन्न करते हैं।

राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण और ब्राह्मण परंपरा में मूलभूत अंतर है। आधुनिक राजनीतिज्ञ मानता है कि राजनीति में आदर्शवाद अव्यावहारिक है। वह अधिकांशत: सामाजिक आपदाओं के समाधान के बारे में तब सोचता है जब वे सामने आ खड़ी होती हैं। ठीक यही दृष्टिकोण इस यथार्थ में भी पहचाना जा सकता है कि आधुनिक चिकित्सा-प्रणाली निवारण की अपेक्षा उपचार पर अधिक बल देती है, अर्थात सामाजिक पर्यावरण में परिवर्तन के स्थान पर अप्राकृतिक-दशाओं से रक्षा के उद्यम को प्राथमिकता। पश्चिम के समाजशास्त्रियों को यह दावा करने में महारत हासिल है कि ‘धर्म और दर्शन की शिक्षाएं सही हो भी सकती हैं और नहीं भी, लेकिन व्यावहारिक सुधारवादी के लिए उनकी कोई सार्थकता नहीं होती।’ इसके विपरीत ब्राह्मण परंपरा ने माना है कि जीवन के अर्थ एवं उद्देश्यों के शाश्वत सिद्धांत के अनुकूल घटित न होने वाले सभी कार्य संपूर्णत: अव्यावहारिक हैं।

यूरोपियन लोगों की दर्शन के प्रति उदासीनता को भूल जाना एक ही दशा में संभव है। वह यह कि ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ उन्हें अंतर्चिंतन का अवकाश ही नहीं देता। दर्शन केवल उनका विषय हो सकता है जो समान रूप से तटस्थ और चिंता-मुक्त हों और यूरोपीय लोग उस प्रकार के मुक्त लोग नहीं हैं, फिर चाहे उनकी राजनैतिक स्थिति कैसी भी हो। आधुनिक औद्योगीकरण जहां प्रबल है, वहां ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र समान रूप से वैश्यों द्वारा शोषित हैं।

इस प्रकार जहां तक वाणिज्यव्यवसाय की जड़ें फैल गई हैं, वहांवहां लगातार अस्तित्व की बेचैनी अनुभव की जा रही है। औद्योगीकरण का शिकार अपने विचारों को अपने और अपने परिवार के आगामी कल के भोजन के बारे में सोचने तक सीमित कर देता है, जीवित रहने की सामान्य इच्छा प्रभुता की इच्छा पर हावी हो जाती है।

यदि ठीक उसी काल-खंड में यह निर्णय किया जाता है कि राष्ट्रीय परिषदों में प्रत्येक व्यक्ति के मत का बराबर महत्व होगा, तो स्वाभाविक रूप से, सोच-विचार न करने वाले धैर्यहीन लोगों द्वारा विचार करने वाले लोगों की आवाज को दबा दिया जाएगा। यह स्थिति समान रूप से सभी वर्गों को शोषण करने वाले चरित्रहीन लोगों की दया के हवाले कर देती है, क्योंकि दार्शनिक आधार से हीन समस्त राजनैतिक प्रयास मात्र अवसरवादी बनकर रह जाते हैं। अपनी कुलीनता की खोज करना और अपनी इच्छा का सम्मान करना सीखना आधुनिक यूरोप की समस्या है।

भारत ने अपने संदर्भ में बहुत पहले अपने ढंग से इस समस्या का समाधान कर लिया था। भारतीय दर्शन समाज के दो उच्च वर्गों- ब्राह्मण और क्षत्रिय की रचना है। इनमें से बाद वाले वर्ग को इसके कई प्रगतिशील आंदोलनों का श्रेय है, जबकि पहले वाले को इसके विस्तारीकरण, व्यवस्थितीकरण, मिथकीय प्रतिनिधित्वीकरण और कार्यान्वयन का। ब्राह्मण वर्ग ने संगठन के लिए न केवल प्रतिभा-वैशिष्ट्य पर, बल्कि अपनी इच्छा को कर्म में लाने की शक्ति पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इसीलिए व्यक्ति विशेष की चाहे जो असफलताएं हों, एक वर्ग के रूप में हिंदू उन्हें हमेशा के लिए प्रणम्य मानने को तैयार हो गए और अब भी सर्वोच्च सम्मान तथा जुड़ाव प्रदर्शित कर रहे हैं। उनके प्रभुत्व का रहस्य बहु-स्तरीय है, लेकिन सबसे अधिक वह उनके द्वारा निर्धारित धर्म, अध्ययन, शिक्षा और आत्म-त्याग में है।

मैं बौद्ध दर्शन के विषय में विस्तारपूर्वक चर्चा नहीं करूंगा, फिर भी यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि बौद्धों ने कभी सीधे-सीधे मानव समाज के संगठन का प्रयास नहीं किया। उनकी दृष्टि में स्वयं को राजनीति में उलझाने की अपेक्षा भिक्खु-जीवन के उजले पक्ष का अनुकरण करने के लिए सांसारिक जीवन के अंधकार भरे पक्ष का त्याग कर देना चाहिए। बौद्ध दर्शन का सिद्धांत वह औषधि है जिसने व्यक्ति को पूरी तरह भविष्य के किसी नरक की अग्नि में नहीं, बल्कि उसकी अपनी ऐषणाओं से उत्पन्न वर्तमान की ज्वाला में जलने से बचने का मार्ग दिखाया। उसकी मान्यता है कि ‘सुम्मुम बोनुम’ (परमार्थ) केवल नित्य जीवन-चक्र से बचने का मार्ग नहीं, बल्कि जीवन का परम उद्देश्य है। वह सबसे अधिक बुद्धिमान है जो स्वयं को इसके प्रति पूरी तरह समर्पित कर देता है। वह सर्वाधिक प्रिय है, जो अपने को दूसरों को प्रबोधित करने में लगा देता है।

इसके बावजूद बौद्ध धर्म ने भारत की शासन-प्रणाली को गहरे स्थायी रूप में प्रभावित किया। जिस प्रकार ब्राह्मण दार्शनिकों ने अपने शासक-आश्रयदाताओं को परामर्श दिए एवं उनका मार्ग-दर्शन किया, उसी प्रकार बौद्ध तपस्वियों, भिक्खुओं ने किया। बंधुता (मैत्रेय) के मनोभाव ने व्यक्ति-चरित्र को प्रभावित करके सामाजिक-मत पर प्रभाव छोड़ा तथा एक अभिक्रिया उत्पन्न की।

स्वतंत्र रूप से यह बताना कठिन है कि क्या बौद्ध धर्म से उद्भूत है और क्या परंपरागत भारतीय है, किंतु हम चरित्र और नीतियों पर बौद्ध-शिक्षाओं के प्रभाव के उदाहरण के रूप में न्यायसंगत भाव से महान बौद्ध सम्राट अशोक के शासन-कौशल को ले सकते हैं। उसकी प्रसिद्ध राजाज्ञाएं बड़ी स्पष्टता के साथ इस सामान्य रूप से स्वीकृत सत्य की सोदाहरण व्याख्या करती हैं,‘प्राच्य जगत में प्राचीन काल से ही राष्ट्रीय सरकार हितैषिता की भावना पर आधारित रही है और उसे जनता के कल्याण एवं सुख के संरक्षण के लिए निर्देशित किया गया है।’ राजाज्ञाओं में से सबसे सार्थक एक राजाज्ञा ‘सच्ची विजय’ की मीमांसा करती है। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पूर्व अशोक ने अपने पड़ोसी राज्य कलिंग पर विजय प्राप्त की थी। उसने इस भू-भाग को अपने राज्य में मिला लिया था। लेकिन अब एक राजाज्ञा घोषित करती है कि महामहिम ‘कलिंग विजय पर पश्चाताप अनुभव कर रहे हैं, क्योंकि पूर्व में अविजित राज्य को जीतने में प्राणि-हत्या, मृत्यु और मनुष्यों को बंधक बना कर लाना शामिल है। पावन महामहिम के लिए यह गहन दुख और अनुताप का विषय है… पावन महामहिम की इच्छा है कि प्राणी मात्र के आत्म-संयम, मन की शांति और आनंद को संरक्षण प्राप्त होना चाहिए… मेरे पुत्र और पौत्रों को कोई नवीन विजय पाना अपना कर्तव्य नहीं मानना चाहिए। यदि कभी उनके सामने शस्त्रों से विजय पाने की बाध्यता आ खड़ी हो तो उन्हें सज्जनता और धैर्य में आनंद तथा प्रेम और धर्म-निष्ठा (जो एकमात्र सत्य है) द्वारा विजय के प्रति सम्मान का अनुभव करना चाहिए। उससे इस लोक और परलोक, दोनों की उपलब्धि होगी।’

एक अन्य राजाज्ञा में है, ‘पावन और कृपालु महामहिम अधिपति भिक्खु और गृहस्थ, सभी वर्गों के लोगों के प्रति श्रद्धा रखते हैं।’ अन्यत्र वे चिकित्सालयों की स्थापना और अधिकारियों की नियुक्ति की घोषणा करते हैं ताकि ‘ऐसे लोगों के प्रकरणों पर ध्यान दिया जा सके, जिनके परिवार बड़े हैं और आपदा के शिकार हो गए हैं अथवा जो वय-वृद्ध हो चुके हैं।’ वे आज्ञा देते हैं कि उनके दस्तरखान के लिए पशु हत्या न की जाए। वे आदेश जारी करते हैं कि राज-मार्गों के किनारे यात्री-निवास बनाए जाएं और फलदार वृक्ष रोपे जाएं। वे सभी को ‘कठिन परिश्रम’ का उपदेश देते हैं। वे बौद्ध धर्म की शिक्षा को उद्धृत करते हैं, ‘सभी लोग मेरी संतानें हैं।’ भारत के तथा विशेष रूप से श्रीलंका के वार्षिक वृत्तांतों में हमें इसी प्रकार के स्वभाव वाले अन्य बौद्ध शासकों की जानकारी मिल सकती है। लेकिन यह भी पता चलेगा कि परोपकारी निरंकुश तंत्र में बौद्ध शिक्षाओं के इन प्रभावों को अन्य परिणामों का सामना भी करना पड़ा, क्योंकि वहां एक बुद्धिमान शासक द्वारा स्थापित नैतिक व्यवस्था उसके उत्तराधिकारियों द्वारा नष्ट की जा सकती थी।

जहां तक मुझे ज्ञात है, बौद्ध धर्म ने कभी भी एक संविधान के निर्माण अथवा सामाजिक-व्यवस्था ने निर्धारण का प्रयास नहीं किया। दूसरी ओर, यही कार्य ब्राह्मण परंपरा ने अनेक प्रकार से किया और काफी दूर तक सफलता भी प्राप्त की। यह मुख्य रूप से सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में उनके धर्म-दर्शन का कार्यान्वयन है, जिसने वर्तमान विचार-विमर्श की विषयवस्तु का निर्माण किया है।

जीवन की चरम समस्याओं के ब्राह्मण-क्षत्रिय समाधान आरंभिक उपनिषदों  में प्रस्तुत किए गए हैं। यह अद्वैतवाद का परिशुद्ध (शंकराचार्य के अनुसार) अथवा परिशोधित (रामानुज के अनुसार) रूप है। समग्र जीवन की एकात्मता अथवा अंतराश्रितता के धार्मिक-सिद्धांत से उत्साहित ब्राह्मण स्वप्नदर्शियों ने स्वयं इस उपलब्ध आधार पर एक सामाजिक-व्यवस्था स्थापित करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने महान महाकाव्य  में स्वर्णिम अतीत में अस्तित्व में रही सामाजिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने महाकाव्य के नायकों के मुख-वचनों में न केवल अपने वास्तविक दर्शन को, बल्कि उसके व्यावहारिक कार्यान्वयन के सिद्धांत को भी प्रतिष्ठित कर दिया। यह सबसे अधिक मृत्यु-शैया पर लेटे भीष्म के लंबे विमर्शों में है। उन्होंने परवर्ती पीढ़ियों के पथ-प्रदर्शन के लिए आदर्शवादी वर्ग के नायकों के चरित्र गढ़े। इसीलिए भारतीय शिक्षा में उद्देश्यपूर्ण ढंग से नायक-पूजा है। मनु के ‘धर्मशास्त्र’  और चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’, जो संभवत: विश्व के पास असाधारण समाजशास्त्रीय दस्तावेज हैं, में वे लोग विधि के दृष्टिकोण से परिभाषित आदर्श समाज की रूपरेखा निर्मित करते हैं। इन और अन्य उपायों से उन्होंने जो निष्पादित किया वह अभी तक किसी भी अन्य देश में धार्मिक दर्शन को लोकगत संस्कृति तथा राष्ट्रीय राजनीति का मूल आधार बनाने में प्रभावशील नहीं हो सका है।

फिर ब्राह्मण परंपरा का जीवन-संबंधी दृष्टिकोण क्या है? इस प्रश्न के विस्तृत उत्तर के लिए, आत्मा के विज्ञान (अध्यात्म विद्या) – जो भारत का धर्म और दर्शन है- की व्याख्या के लिए पर्याप्त विस्तार में जाने की आवश्यकता है। पहले ही संकेत किया जा चुका है कि यह विज्ञान समग्र जीवन की एकात्मता की पहचान करता है- एक स्रोत, एक सत्व और एक उद्देश्य। यह एकात्मता को जीवन का चरम कल्याण, परमानंद, मुक्ति, स्वाधीनता और अंतिम लक्ष्य मानता है। हिंदू दार्शनिकों के लिए शाश्वत जीवन काल की नित्यता में नहीं, बल्कि काल के इसी क्षण आत्मा में समग्र और समग्र में आत्मा की स्वीकृति में है। ‘अन्य सभी से महत्वपूर्ण’ कबीर जिन्हें भारत की अभिव्यक्ति का संवाहक माना जा सकता है, कहते हैं, ‘मैं अपने हृदय में उस प्रेम को पालता-पोसता हूँ जो मुझे इस संसार में अनंत जीवन जीने योग्य बनाता है।’ भौतिक और आध्यात्मिक जगत की यह अविभाज्य एकात्मता भारतीय संस्कृति की नींव बनी हुई है।

ब्राह्मण परंपरा कल्याणऔर दुष्टताके धर्मतत्वज्ञपरक प्रयोग से बच कर चली है। उसने ज्ञानऔर अज्ञान’ (विद्या और अविद्या) संबोधन को और सत्व’, ‘रजसतमसगुणों को वरीयता दी है। जैसेजैसे ज्ञान की वृद्धि होती है, मनुष्य किसी कर्तव्यभावना के वशीभूत नहीं, बल्कि आत्मार्पित चेष्टा द्वारा प्रत्यावर्तन में प्रवृत्त होता है। उसका चरित्र और व्यवहार अधिक निर्मल रूप में सात्विक होता जाता है। लेकिन हम उस आधार पर पाप कह कर अज्ञान जन्य आत्मआग्रह की निंदा नहीं कर सकते; क्योंकि जहां आत्मज्ञान है, क्या वहां कभी भी आत्मआग्रह नहीं होता?

बल्कि हम स्पष्ट रूप में देखते हैं कि कुचली गई दैनंदिन कामनाएं महामारी को जन्म देती हैं। इसलिए ब्राह्मणों ने अपने लिए अति-संयम के नियम लागू करने के बावजूद निर्धारित किया कि एक आदर्श समाज को समस्त आनंद का उपभोग उसकी कामना करने वालों के लिए सुलभ बनाना चाहिए। संभवत: उनकी मान्यता थी कि जो इंद्रियानुभव के तुष्टिकरण से ऊपर उठ चुके हैं और सामान्य आनंद के जीवन के पार हो चुके हैं, अर्थात परिशुद्ध हैं, वे वही हैं, जो पहले ही संपूर्णता में आनंद का उपभोग कर चुके हैं।

तार्किक आधार पर निर्धारित किया गया कि संपत्ति (अर्थ) और इंद्रियानुभव का आनंद (काम) नियमों (धर्म) से बंधा हुआ है, ताकि बलवानों से निर्बलों की रक्षा की जा सके। आधुनिक पश्चिमी समाज ने नैतिक प्रतिबंधों से नियंत्रित प्रतिस्पर्धा की स्थिति प्राप्त कर ली है। आज कोई समाज उन्नति नहीं कर सकता, जब तक वह उन लोगों की रचनात्मक इच्छा से बंधा हुआ न हो जो अहंवाद की चरम अवस्था से ऊपर उठ चुके हैं।  हम उन्हें नायक, संरक्षक, ब्राह्मण या सामुरै जो संबोधित करें अथवा चाहे सामान्य रूप से प्रतिभा संपन्न व्यक्ति मानें।

प्यूरिटनवाद (अति नैतिकतावाद) सामान्यतः संपूर्ण नैतिकतापरक तथा धर्मशास्त्र के अतर्कसंगत सिद्धांतों पर टिका होता है। इसके विपरीत अतिवाद का उदाहरण औद्योगिक समाज है जो प्रतिस्पर्धा और आत्म-आग्रह के सिद्धांत को मानता है। वह दर्शन व अनुशासन की मूल्यवत्ता को नकारता है। अपने दार्शनिक आधार के चलते स्व-धर्म के सिद्धांत को अपनाते समय ब्राह्मण समाजशास्त्र दोनों भ्रांतियों से बचा है। वह व्यक्ति की सामाजिक और आध्यात्मिक संगति के अनुसार ‘निज-नैतिकता’ की धारणा के अलावा ईश्वर के अनेक स्वरूपों के उस धर्म-सिद्धांत से जुड़ा है जिसकी मिशनरियों ने बहुदेववाद के रूप में बड़ी फूहड़  व्याख्या की है। ब्राह्मणों ने आत्म-पहचान को जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है। वे बहुत स्पष्टता से लक्षित करते हैं कि इस उद्देश्य को तत्काल समाज के उन सदस्यों पर लागू करना अतार्किक होगा जो अभी तक आत्म-आग्रह से थक नहीं गए हैं।

अपनी आध्यात्मिक वय के अनुसार हम मनुष्यों के तीन विशिष्ट वर्गों की पहचान कर सकते हैं। सबसे पहले, उन लोगों की भीड़ जो पहले से ही ‘मैं और मेरा’ के विचार की जकड़ में हैं। उनका लक्ष्य आत्म-आग्रह है। वे एक ओर विधिक तथा मृत्यु-पश्चात दंड के भय से नियंत्रित हैं, जबकि दूसरी ओर परिवार-मोह एवं राष्ट्र के प्रति प्रेम के उद्भव से। ये मुख्य रूप से ब्लेक के ‘डिवावर्स’ (विध्वंसक) और नीत्शे के ‘स्लेव’ (गुलाम) हैं। इसके पश्चात उस भीड़ से कम, किंतु तब भी संख्या में काफी अधिक विचारशील और अच्छे लोग हैं जिनका व्यवहार अधिकांशत: कर्तव्य-भावना से निर्धारित होता है। उनका आंतरिक जीवन पुराकालीन आदम और नव-मानव के बीच की भूमि है। इस प्रकार के मनुष्य एक ओर प्रसिद्धि और प्रभुता के प्रति आकर्षित तथा कमोबेश कुलीन महत्वाकांक्षा से प्रेरित होते हैं। दूसरी ओर के मानव-जाति के प्रति निस्पृह प्रेम से भी जुड़े होते हैं। लेकिन यह वर्ग अपवादस्वरूप ही अखिल-मानव होता है। इसका दृष्टिकोण प्राय: एक साथ स्वार्थपरता से मुक्त एवं संकुचित दोनों तरह कर होता है। इन सभी में स्वाधीनता का स्वाद लेना प्रारंभ कर चुके लोगों को अनिवार्यत: नियमों से निर्देशित होना चाहिए।

अंत में बहुत कम संख्या महान व्यक्तियों की है- ये नायक, मुक्तिदाता, संत, और अवतार हैं। ये निश्चित रूप से सर्वाधिक दबाव की कालावधि को पार करके समग्र रूप में जीवन की प्रासंगिक और त्रुटिहीन दृष्टि प्राप्त कर चुके होते हैं। ये यथार्थ रूप में सच्चे ब्राह्मण, महामानव के स्वभाव में भागीदार तथा बोधिसत्व हैं। उनकी गतिविधि नियमों से नहीं, बल्कि उनकी बौद्धिकता एवं प्रेम से निर्धारित होती है। वे विश्व में मानवता के सुमन हैं, हमारे नायक और पथ-प्रदर्शक हैं।

ब्राह्मण समाजशास्त्री दृढ़तापूर्वक मानते थे कि एक आदर्श समाज, अर्थात मनुष्य के द्वारा अपने उद्देश्य (पुरुषार्थ) की पूर्ति के लिए सोच-समझ कर अभिकल्पित समाज में प्रत्येक व्यक्ति को उसके आध्यात्मिक स्तर की आवश्यकता के अनुसार अनुभव प्राप्ति के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। इसके अलावा, सर्वश्रेष्ठों और सर्वाधिक बुद्धिमानों को ही शासन भी करना चाहिए। उन्हें यह असंभव प्रतीत हुआ कि किसी आदर्श समाज का कुलीनतावादी आधार को छोड़ कर कोई अन्य आधार होना चाहिए, कुलीनता एक साथ बौद्धिक और आध्यात्मिक दोनों स्तर पर। रक्त एवं संस्कृति, दोनों की आनुवंशिकता में दृढ़ विश्वास रखने वाले के रूप में उन्होंने समझ लिया था कि पहले से ही विद्यमान व्यवसाय आधारित जातियों के आधार पर एक आदर्श समाज का संघटन संभव हो सकता है।

उन्होंने विचार किया, ‘हम प्रकृत वर्ग निर्धारित कर सकते हैं तो उनमें से प्रत्येक को उसके संगत कर्तव्य (स्वधर्म, अपने मानक) आवंटित किए जाएं, और सुसंगत सम्मान दिया जाए। यह एक साथ आवश्यक श्रम-विभाजन को सुसाध्य बनाएगा, आश्रित व शिष्य परंपरा की आनुक्रमिकता में आनुवंशिक कौशल का हस्तांतरण सुनिश्चित करेगा, सामाजिक महत्वाकांक्षा की संभावना को नकारेगा और प्रत्येक व्यक्ति को उसके लिए आवश्यक व उसके द्वारा दायित्व के रूप में ग्रहीत गतिविधि एवं अनुभव की अनुमति प्रदान करेगा।’ उनकी मान्यता थी कि प्राकृतिक नियम के अनुसार व्यक्तिगत अहं हमेशा अथवा प्राय: हमेशा, अपने अनुकूल वातावरण में उत्पन्न होता है। यदि वे इस विषय में गलत थे तो ऐसे लक्ष्यों तक पहुंचने के अधिक सही मार्ग की खोज का दायित्व दूसरे लोगों के कंधों पर आ जाता है।

इस बात को कठिनाई से ही नकारा जा सकता है कि ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था एक ऐसे समाज की स्थापना के लिए अब तक खोजे गए साधनों में सबसे उपयुक्त साधन है, जिसमें प्रतिस्पर्धात्मक गुण को लागू करने का कोई प्रयास नहीं होता, बल्कि समस्त हित समान रूप में स्वीकार किए जाते हैं।

‘मनुस्मृति’ के विधिक दंड-सिद्धांत में ये तथ्य बहुत अच्छी तरह व्याख्यायित किए गए हैं कि समान अपराध के लिए शूद्र की अपेक्षा वैश्य को दुगुना भारी, उसी क्रम में क्षत्रिय को उससे दुगुना भारी, उसी क्रम में ब्राह्मण को उससे दुगुना- यहां तक कि चौगुना भारी दोषी माना जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि बुद्धि और स्तर के साथ-साथ दायित्व बढ़ता जाता है।

शूद्र एक ब्राह्मण पर लागू आत्म-त्याग के असंख्य रूपों से मुक्त है। उदाहरण के लिए वह मोटे-झोटे भोजन में शामिल हो सकता है, विधवा पुनर्विवाह कर सकती है। इस बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि प्रभावशाली रूप में यह निर्धारित किया गया था कि शूद्रों की संख्या किसी भी प्रकार अन्य जातियों से अधिक नहीं होनी चाहिए। यदि शूद्र बहुत अधिक होंगे- जैसे पुराने यूनान में घटित हुआ था, कि वहां स्वतंत्र लोगों की अपेक्षा गुलाम बहुत अधिक संख्या में थे- तो मात्र संख्या बल के चलते न्यूनतम बुद्धिमान की आवाज ही बलवती हो जा सकती है।

मशीनों के नियमन में रुचि रखने वाले आधुनिक शिल्पी इस तथ्य से प्रभावित होंगे कि व्यक्तिगत स्तर पर उद्योग की स्थापना और भारी मशीनों के संचालन को दारुण पाप माना गया था और कहा गया था कि बड़े प्रतिष्ठान केवल सार्वजनिक हित में संचालित किए जाने चाहिए।

ब्राह्मणवादी सिद्धांतों में बहुत गहराई के साथ शिक्षा की समस्याओं पर विचार किया गया है। गरुड़ पुराण कहता है, ‘बुद्धि से रहित मनुष्य ऐसा ही है जैसे दर्पण हाथ में लिए अंधा।’ ब्राह्मणों ने असमन्वित ज्ञान अथवा अनुभवहीन अभिमत को कोई महत्व नहीं दिया है, बल्कि इन्हें अकुशल शिल्पी के हाथों में खतरनाक औजार माना है। सर्वाधिक बल चारित्रिक विकास तथा सुनिश्चित आनुवंशिक मेधा पर दिया गया है। ब्राह्मण पद्धति आधुनिक आदर्शों से बहुत अधिक भिन्न है, क्योंकि वह इस बात पर विचार तक नहीं करना चाहती कि सभी के लिए समस्त ज्ञान सुलभ बनाया जाना चाहिए। शिक्षा की कुंजी व्यक्तित्व में उपलब्ध होती है। कोई भी शिक्षक शिक्षण को कर्तव्य से नीचे मानने वाला नहीं होना चाहिए (कोई भी ‘वेदों का विक्रय’ नहीं कर सकता) तथा जब तक शिष्य में ग्रहण करने की पात्रता न देख ले तब तक किसी शिक्षक को उसे ज्ञान प्रदान नहीं करना चाहिए।

स्त्री और पुरुष की सापेक्षिक स्थिति भी विचारणीय है। संभवत: सामान्य रूप में स्त्री अपेक्षाकृत कनिष्ठ आत्मा है, पेरासेल्स के कथनानुसार, फिर भी वह पुरुष की अपेक्षा संसार के अधिक निकट है। लेकिन कौन उच्च है, कौन निम्न के बारे में ऐसी कोई बहस नहीं है जिसमें प्रतिस्पर्धात्मक समानता के प्रश्न पर विचार नहीं किया गया है। हिंदू विवाह तादात्म्य पर ध्यान देता है, समानता पर नहीं। 

विवाह का मूल अभिप्राय मात्र व्यक्तिगत संतुष्टि नहीं है, बल्कि जीवन के उद्देश्यों, पुरुषार्थ की प्राप्ति है और पत्नी को सहधर्मचारिणी संबोधित किया गया है, ‘वह, जो धार्मिक और सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति में सहायिका है।’ ठीक उसी प्रकार व्यापक स्तर पर समुदाय के संदर्भ में जाति-व्यवस्था की अभिकल्पना विभाजन के लिए नहीं, एकता के लिए की गई है। विभिन्न वर्गों की अपेक्षा विभिन्न जातियों के मनुष्य अधिक समान धरातल पर होते हैं। एक औद्योगिक लोकतंत्र और जहां लौकिक व धर्मनिरपेक्ष शिक्षा व्यवस्था प्रभावशाली है, वहां मानव-समूह अमोघ रूप से विभाजित हैं। इसीलिए जितनी अच्छी तरह से एक शूद्र और ब्राह्मण, एक दूसरे को समझ लेते हैं, वैसे एक पश्चिमी प्रोफेसर और बेलदार (एक-दूसरे को) नहीं समझते। यह टिप्पणी एकदम सही की गई है, ‘हिंदू समाज के हाशिए पर लटका हुआ सर्वाधिक निम्न चांडाल एक अर्थ में ब्राह्मण आदर्शों का उतना ही बड़ा अनुयायी है, जितना कोई पुरोहित।’

मैं यह अभिमत प्रकट कर चुका हूँ कि विश्व को देने के लिए भारत के पास अपने धार्मिक दर्शन और सामाजिक समस्याओं के समाधान में दर्शन के कार्यान्वयन से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं है। वर्तमान संकट तथा पूर्व और पश्चिम के संबंध के विषय में संक्षेप में कुछ कहा जा सकता है। हमें सबसे पहले समझ लेना होगा कि भारत में सहयोगिता-आधारित समाज पतन की अवस्था में दिखाई दे रहा है। पश्चिमी समाज कभी भी गहन रूप में व्यवस्थित समाज नहीं बन सका था, परंतु जितना भी व्यवस्थित था, वह भारत के पहले ही बिखराव की दिशा में बढ़ चुका है। लेकिन हम आशा कर सकते हैं कि यूरोप सबसे पहले औद्योगिक-प्रतिस्पर्धा में डूब कर, उबरने वालों में प्रथम होगा। भावी सहयोग के बीज काफी पहले बोए जा चुके हैं। हम पुनर्निर्माण की दिशा में सचेतन और शायद अचेतन भी, प्रयास बहुत साफ-साफ देख सकते हैं।

इस बीच एशिया का बढ़ाव अपकर्ष की दिशा में है। क्योंकि सहयोगिता के स्थान पर प्रतिस्पर्धा-केंद्रित सामाजिक परिवर्तन को आजकल प्रगति कहा जाने लगा है और यह राजनैतिक प्रभुता की सर्वाधिक पुनर्प्राप्ति का वादा दिखाई देता है। यह आंशिक रूप में उद्योगपतियों द्वारा किए जाने वाले ध्वंसात्मक शोषण का परिणाम है। नव युग के मसीहा कहे जा सकने वाले यूरोपीय विद्वान भी अकेले यूरोप में घटने वाले विकास के विषय में सोचने को सहमत होंगे। लेकिन यह स्पष्ट रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए कि आधुनिक विश्व धीमे संचार वाला पुरातन विश्व नहीं रह गया है। आज भारत अथवा जापान में जो कुछ घटता है, उसके त्वरित आध्यात्मिक एवं आर्थिक परिणाम यूरोप और अमेरिका में दिखाई देते हैं। किसी का यह कहना कि पूर्व पूर्व है और पश्चिम पश्चिम, रेत में सिर छिपाना है। जब तक पूर्व अपनी अहस्तक्षेप वाली बाज़ार व्यवस्था के पूर्ण चित्ताकर्षक और अनूठे सिद्धांत के प्रति मोहांध रहेगा तब तक पश्चिम में किसी भी उच्चतर समाज व्यवस्था की स्थापना असंभव ही बनी रहेगी।

इस प्रकार एशिया की तेजी से हो रही अधोगति, जो पहचान में आने लगी है, मानवता के भविष्य और पश्चिमी सामाजिक आदर्शवाद के भविष्य के लिए अपशकुन है। चाहे उपेक्षा भाव के कारण हो या चाहे एशिया के तिरस्कार के कारण, यदि रचनात्मक यूरोपियन चिंतन पौर्वात्य दार्शनिकों का सहयोग लेना छोड़ देता है, तो एक ऐसा समय आएगा जब यूरोप औद्योगिकतावाद से लड़ने में असमर्थ हो जाएगा; क्योंकि यह शत्रु एशिया में मोर्चेबंदी कर लेगा। अंग्रेज़ी उपनिवेशों और अमेरिका के लिए सस्ती एशियाई श्रम-शक्ति के विरुद्ध प्रवासन-कानूनों के द्वारा अपनी रक्षा करना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि यह केवल अस्थायी समाधान भर है। इसके न्याय विरोधी होने के साथ-साथ, इससे भलाई के बदले नुकसान की अधिक संभावना है।

यूरोप के राष्ट्रवादी आदर्श का मुख्य तत्व है-प्रत्येक राष्ट्र अपने ढंग की शासन-प्रणाली का चुनाव कर ले और अपने ढंग का जीवन जिए। इसकी उपलब्धि तब तक संभव नहीं होगी जब तक कि यूरोपियन राष्ट्र एशिया में अपना आधिपत्य बनाए रखते हैं या फिर ऐसी इच्छा पाले रहते हैं।

यदि एशिया यूरोप के साथ नहीं रहा, तो फिर वह उसके विरुद्ध होगा और तब आदर्शवादी यूरोप और सारवान (संसाधन संपन्न) एशिया के मध्य भीषण आर्थिक अथवा सशस्त्र भी, संघर्ष उठ खड़ा हो सकता है।

एशिया की खोज मुश्किल से अभी प्रारंभ ही हुई है। हम एशियाई चिंतन के उस ऋण को स्वीकार नहीं करते जिसका यूरोप पहले से ही देनदार है। दूसरी ओर यूरोप ने आधुनिक काल में एशिया को भारी जख्म दिए हैं। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि यदि यूरोप द्वारा फैलाने के सीधे प्रयास न किए जाते तो एशिया में ‘सभ्यता’ का वायरस नहीं फैलता। बल्कि मैं इसके विपरीत सोचता हूँ। इसके बावजूद इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि वे भी ऋणी हैं जो एशियाई समाज को धर्म के आधार पर लाकर उसका अवमूल्यन करने में अप्रत्यक्ष कारक बने हैं।

एशिया का ‘निर्मल परिवेश’ अतीत का सपना भर नहीं है। वहां आदर्शवाद है और भारत में आदर्शवादी हैं। ये उन लोगों में भी हैं, जो कलुषित शिक्षा द्वारा इस आधी शताब्दी में भ्रष्ट बना दिए गए हैं। फिर भी हम उन्नति की मरीचिका के भुलावे में नहीं आए हैं, बल्कि अपने कुछ यूरोपीय सहधर्मियों की भांति आकांक्षा रखते हैं कि  ‘जब संपूर्ण विश्व पुन: सीख लेगा कि मानव-जीवन का लक्ष्य भौतिक पदार्थों और सुविधाओं के पीछे भागने में नष्ट कर देना नहीं है, बल्कि मनुष्य के भीतर छिपी मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के विकास में उनका उपयोग करने में है।

यूरोप के द्वारा कार्यान्वित किए जाने वाले सभी भावनात्मक उपक्रमों में एशिया का सहयोग लेकर उसका ऋण इसके असीमित लाभों सहित चुकता हो सकता है। इसमें इस पुराने विचार को छोड़ना शामिल है कि पश्चिम का उद्देश्य पूर्व को सभ्य बनाना है। वैसे भी, ट्यूटॉनिक और कुल्तूर का यह साम्राज्यवादी विचार एक सीमा तक पहले ही अपनी साख गंवा चुका है। विश्व की समान सभ्यता के लिए समान समस्याओं की पहचान, और उनके समाधान में परस्पर सहयोग आवश्यक है। यदि प्रश्न किया जाए कि विश्व-सभ्यता को व्यवहार्य बनाने में सहायता के लिए भारत कौन-सी आभ्यंतरिक समृद्धियां उपलब्ध करा सकता है तो भारत के दृष्टिकोण से निश्चित रूप से इसका उत्तर उसके धर्मों, उसके दर्शन, और व्यावहारिक जीवन में निरंतर व्यवहृत उसके तात्विक सिद्धांत में उपलब्ध होगा। (अंश)

 

आनंद के. कुमारस्वामी

(1877-1947) श्रीलंकाई इतिहासकार, कला विशेषज्ञ और भारतविद हैं। वे रवींद्रनाथ टैगोर के मित्र थे। स्वदेशी आंदोलन में भी उन्होंने  हिस्सा लिया था। उन्होंने तुलनात्मक अध्ययन में एक बड़ा योगदान दिया। वे परंपरावादी थे और संस्कृति की निरंतरता और एशियाई श्रेष्ठता पर जोर दिया। उन्होंने पूर्व और पश्चिम के बीच एक पुल बनाना चाहा। वे हिंदू और बौद्ध धर्म के बीच भी संबंध देखते थे। उनकी पुस्तकें हैंद डांस ऑफ शिवा’, ‘मिथ्स ऑफ हिंदूज एंड बुद्धिस्ट्स’, ‘क्रिश्चियन एंड ऑरिएंटल फिलोसफी ऑफ आर्टआदि।

 

देवराज
मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अध्यापन। पूर्वोत्तर भारत की भाषाओं, साहित्य और संस्कृति के अध्ययन में विशेष रुचि। कविता, समालोचना, लोक साहित्य और अनुवाद की कई पुस्तकें प्रकाशित।

सी112, अलकनंदा अपार्टमेण्ट्स, रामपुरी, पो. चंदेरनगर201011, गाजियाबाद  मो. 7599045113