पत्रकारिता और जनसंचार के क्षेत्र में विपुल कार्य।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के पाठ्यक्रम समन्वयक।हालिया प्रकाशित पुस्तकें, ‘कजरी लोक गायनऔर संचार, शोध और मीडिया

दीनू सिर पर खटिया लादे तेज कदमों से घर की ओर बढ़ा चला जा रहा है। सोचा था कि सूरज चढ़ने से पहले घर पहुंच जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं। अब इक्का-दुक्का, जो लोग भी मिल रहे हैं, पहले सिर पर लदी खटिया को गौर से देख रहे हैं, फिर दीनू की तेज चाल को। खटिया है ही ऐसी। पलंगनुमा। नक्कासीदार पावे और ऊंचा उठा सिरहाना-पैताना। बस, यही नहीं चाहता था दीनू कि उसकी इस खटिया पर किसी की नजर लगे। यही वजह है कि पूरा गांव जाग जाए, इससे पहले वह घर पहुंच जाना चाहता है, ताकि उसके सिर पर लदी खटिया को देखकर कोई रोके-टोके नहीं। रास्ते में तो वह बच गया, लेकिन घर पहुंचते ही उसकी पत्नी ने उसे रोकते हुए टोक ही दिया-

‘क रे, ई का लाद ले आवा।’

‘दिखत नय न का। खटिया है खटिया।’

‘ऊ तो दिख रहा है। पर तैं एका पाए कहां।’

‘ठाकुर साहब दिए हैं।’

‘काहे?’

‘पहले एका उतरवा, तब बताई थी कि काहे’। दीनू ने झल्लाते हुए कहा।

रामरत्ती ने भी चुपचाप खटिया जमीन पर उतरवाने में ही भलाई समझी। खटिया जमीन पर खड़ी करके दीनू उकड़ू बैठ गया।

‘ठाकुर की खटिया है। खटिया का है… पलंग है पलंग। देखे न होबो कबहिन।’

‘तू देखे रहा का?’

‘हमरे तो बाप-दादा-महतारी जमीन पर ही सोवत रहें। और, हम भी। खटिया-बिछौना कउनो के नसीब में नय रहा।’ दीनू ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहा।

‘तो का हम धन्ना सेठ के यहां के हैं का। हमहुं लोग जमीनय के मनई हैं। कथरी-उथरी माई सी देत रहीं, वही जमीन में बिछाय के सब सोए जात रहें।’ रामरत्ती ने थोड़ी रुखाई से दीनू की बात का जवाब देते हुए कहा। ‘पर ई बताओ इतना सुंदर खटिया तोहका ठाकुर दे काहे दीन?’

‘आज ऊ बहुत खुश रहें। कहिन, दीनू ये पलंग तुम्हारी। एका तुम घर ले जाओ, मस्त रहो।’

‘पूछयो नय कि काहे?’

‘अब ठाकुर से जबान नय लड़ाइत हम।’

‘फिर भी…’

‘दाई बतावत रही कि ई वाली खटिया ठाकुर को पोसात नय रही।’ दीनू छिपा ले जाता है कि पोसात नय रही वाली बात खुद ठाकुर साहब ने कही थी।

‘पोसात नय रही!’ इस बार रामरत्ती की आवाज में तेजी आ गई। वह खड़ी होकर कमर पर हाथ धर के दीनू को तरेरती हुई बोली- ‘उन्हें पोसात नय रही और तू ले आया। तोका पोसाय जाई का?’

‘हां… पोसाई। एका धोय-धाय के हम लेटबय। पोसाई। खानदान भर में हम पहिला आदमी बनब जो अइसन खटिया में लेटी। एकर पावा-पैताना देख… कउनो शाही पलंग से कम नय लगत है।’ दीनू कहते-कहते उठा और खटिया धोने लगा।

रामरत्ती पति की इच्छा के विरुद्ध नहीं जाना चाहती थी। उसे पता था कि दीनू जब जिद पकड़ लेता है, तो किसी की नहीं सुनता। वैसे भी अभाव में जीते-जीते दीनू के साथ-साथ वह भी थक गई है। दीनू की जमादारी से जो कुछ मिलता है, उससे ही घर चलता है। आल-औलाद नहीं है, वरना जीना दूभर हो जाता। इतनी महंगाई में खुद का जीना तो मुश्किल है, बच्चे कहां से पाल पाते दीनू और रामरत्ती। भगवान जो करता है अच्छे के लिए करता है, बस यही सोचकर दोनों जीवन बिता रहे हैं।

दीनू बगल के गांव के ठाकुर साहब के यहां साफ-सफाई का काम करने जाता है। ठाकुर जगमोहन उसे बहुत मानते हैं। अकेले रहते हैं। ठकुराइन दो साल पहले चल बसीं और लड़का कलेक्टर होकर राजस्थान में कहीं तैनात हो गया। बहू-बेटा उसी के साथ रहते हैं। ठाकुर जगमोहन पूजा-पाठ करके बुढ़ापा काट रहे हैं। शक्की भी हैं और अंधविश्वासी भी। दो साल पहले इस खटिया को बनवाए थे। शहर से साखू की लकड़ी आई थी और बढ़ई भी। शाही पलंग की तरह की इस खटिया पर दो-तीन महीना ही सोए कि बीमार पड़ गए। लंबे चले इलाज के बाद ठीक हुए तो सारा दोष खटिया की अशुभता पर मढ़ दिया। वैसे खटिया में दोष होने की बात उन्हें उनके यहां खाना बनाने वाले ने सुझाई थी, लेकिन उन्होंने इसे यह कहते तत्काल स्वीकार कर लिया था।

उन्हें तो पहले ही दिन से शक था कि हो न हो दोष खटिया का ही है। बस, तभी से खटिया को घर से बाहर करने की सोच रहे थे। आंगन के एक कोने पर पड़ी खटिया उस दिन दीनू की आंख में खटक गई। पूछ बैठाएका काहे बाहर रखें हैं साहेब। ई तो अभी एकदम पुख्ता हवे।

बस अइसन। पोसाय नय रही है।

दीनू को पोसाय नय रही है शब्द कुछ जंचा नहीं। वह गौर से खटिया देखने लगा। दीनू को खटिया निहारते देख ठाकुर साहब बोलेतोहका ले को होय तो ले जाओ।

दीनू को तो ऐसा लगा कि जैसे बिन मांगे ही उसकी मुराद पूरी हो गई। और, खटिया अब दीनू के घर पर है।

दीनू और रामरत्ती बड़ी देर से यही तय करते रहे कि खटिया कहां बिछाई जाए।

‘डेढ़ बीता की कोठरी, चाहे इधर रखो चाहे उधर।’ रामरत्ती ने ताना मारते हुए कहा तो दीनू बिलबिला कर रह गया।

‘तोर मायके वाले तो नंगे-बुच्चे रहेन। बिछौना तक तो गत का दिहिन नय। तू का जाने खटिया का सुख का होत हय।’ दीनू का जवाबी ताना निशाने पर लगा और रामरत्ती मुंह बिचका कर रह गई।

खैर बड़ी मशक्कत के बाद तय हो गया कि कोठरी में खटिया कहां बिछेगी। खटिया ऊंची थी सो बक्सा और दो-तीन गठरी भी खटिया के नीचे रख दी गईं।

खटिया बिछते ही दीनू लपक के उस पर लेट गया। रामरत्ती को मुस्कुराता देख बोला-

‘अइसा लग रहा है कि जइसे हम ठाकुर होय गए हैं।’

‘धत रे। ई सब न सोचो। अपनी ही नजर लग जाई।’ रामरत्ती ने सिर पर पल्लू चढ़ाते हुए हिदायत दी।

थोड़े ही दिन में खटिया पर बिछाने के लिए दरी और चादर का जुगाड़ रामरत्ती ने कर लिया। ‘आखिर वो भी तो काम पर जाती है। उसका भी तो फर्ज बनता है।’ यही सोच कर एक घर से पुरानी दरी और दूसरे से चादर मांग लाई। बेलबूटेदार चादर से ढकी खटिया ने कोठरी में मानों जान डाल दी। अब तो रोज कोठरी लीप-पोतकर साफ-सुथरा करने लगी रामरत्ती। अड़ोस-पड़ोस की औरतें भी कहने लगी हैं कि- ‘ए रामरत्ती, तोहार कोठरी तो सज गई है रे।’ बस इतने पर ही रामरत्ती सकुचा जाती है और मन ही मन कई देवी-देवता का नाम ले डालती है, ताकि किसी की नजर न लग जाए। वैसे जबसे खटिया आई है, तबसे रामरत्ती ने कोठरी के दरवाजे पर नींबू-मिरचा टांग दिया है।

दीनू तो खटिया पर सोकर ही अपने को धन्य मान बैठा है। उसे लगता है कि उसके जीवन भर की मुराद पूरी हो गई। रामरत्ती जब कहती है कि ‘खटिया भर जीवन थोड़ी है’ तो दीनू भड़क जाता है- ‘ज्यादा ज्ञान न बघारो। औकात में रहो। मालिक का रहम है कि ई खटिया मिल गई। अब अउर कुछ न चाही।’

दो महीना ही बीता था कि दीनू की तबीयत खराब रहने लगी। रामरत्ती मन ही मन सारा दोष खटिया को ही देती पर दीनू के डर से कुछ कह न पाती। उसे लगता कि सारा टोटका खटिया में है। तभी तो ठाकुर को नहीं पोसायी और अब… भगवान से यही मनाती रहती है कि दीनू सही सलामत रहे। उसे कुछ न होय।

आखिर वही हुआ, जिसका डर रामरत्ती को सता रहा था। दीनू ने खटिया पकड़ ही लिया। चलना-फिरना तो दूर उठना-बैठना मुहाल हो गया। रामरत्ती बहुत समझाती है कि खटिया का मोह छोड़ दे। यही मुंहजरोनी सारी बीमारी की जड़ है। लेकिन दीनू है कि मानता ही नहीं। रामरत्ती के कहते ही खटिया की पाटी कस के पकड़ लेता है, ताकि रामरत्ती उसे खटिया से न उतार पाए।

घर का खर्च और दीनू की बीमारी। रामरत्ती की भाग-दौड़ बढ़ गई। जगमोहन ठाकुर के यहां से आदमी आया था दीनू को पूछने। बीमारी की बात सुनकर ठाकुर साहब ने पांच सौ रुपया भिजवाया, पर उतने में होता क्या है आजकल। खैर, रुपया भिजवाया यही क्या कम है। रामरत्ती इसके लिए तो उन्हें धन्यवाद देती है पर अगले ही पल टोटका वाली खाट दीनू को देने के लिए कोस भी देती है- ‘तोहार भला न होई ठाकुर, अगर हमरे आदमी को कुछ होय गवा तो।’ दीनू को इस तरह ठाकुर को कोसना अच्छा नहीं लगता। वह रामरत्ती को समझाता है कि ‘इसमें उनका कोई दोष नहीं। खटिया तो हम खुद मांगे थे। बीमारी तो इत्ते दिन बाद हुई। टोटका वाली खाट होती तो बीमार तुरंत न पड़ जाते।’

महीना भर बीत गए। दीनू की सेहत गिरती ही जा रही थी, पर जिद के कारण वह खटिया पर ही लेटा रहता। समझा-समझा कर थक गई रामरत्ती ने भी सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया।

उस दिन पूरे गांव में चहल-पहल थी। पता चला कि दीनू के अपने गांव के ठाकुर की बिटिया की शादी है सो पूरे गांव को सजाया जा रहा है। बारात की अगवानी के लिए रास्ता साफ हो रहा है। बड़े-बड़े पंडाल लगाए जा रहे हैं। कुलआ के खेत में खाना बनेगा तो बगल के खेत में खिलाया जाएगा। ठाकुर के अपने खेत में बारात के सोने का इंतजाम हो रहा है। इसके लिए पूरे गांव से खटिया इकट्ठी हो रही है।

‘खटिया इकट्ठी होय रही है।’ यह सुनते ही रामरत्ती की आंखों में चमक आ गई। उसे लगा कि टोटका वाली खटिया से मुक्ति पाने का समय आ गया है। बस यही सोच कर वह निकल पड़ी ठाकुर के गुर्गों की टोली को खोजने, जो घर-घर जाकर खटिया इकट्ठा कर रहे हैं। थोड़ी ही दूरी पर उसे टोली मिल भी जाती है। ‘हमहुं के पास खटिया है। ले लेयो ओका, ताकि बिटिया की शादी के थोड़ा पुण्य हमहुं के मिल जाए।’ रामरत्ती घूंघट काढ़ के गुर्गों से विनती करती है।

‘हां-हां काहे नहीं। चला, घर पहुंचा। हम लोग आवत हई।’

रामरत्ती की तो बांछे खिल गई। तेज कदमों से वह घर पहुंच गई। रामरत्ती की आहट पाकर दीनू ने अपनी मरियल सी आवाज में पूछा- ‘कहां चली गई रही हो। एत्ता आवाज दिया। पानी पिलाय देयो।’

रामरत्ती ने दीनू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘तोहार दवा ले गए रहे। अबकी ऐसी दवा मिली है कि तू दुई दिन में ठीक हो जाबो।’ दीनू मुस्कुराकर रह गया।

रामरत्ती दीनू को पानी पिलाकर ठाकुर के गुर्गों का इंतजार करने लगी। ‘ससुरे कहां अटक गए। आए जातें तो एक बड़ा काम निपट जाता।’ रामरत्ती को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। खटियारे उसके दरवाजे पर आ ही पहुंचे।

‘क रे दिनुआ कहां है। ला खटिया दे।’ की गुहार सुनते ही रामरत्ती ने कोठरी का दरवाजा खोल दिया। गुर्गे अंदर आ गए।

इससे पहले की दीनू कुछ पूछता, रामरत्ती ने थोड़ी तेज आवाज में उससे कहाई सब ठाकुर साहब के यहां से आए हैं। उनकर बिटिया की शादी है। बारात के खातिर गांव भर से खटिया इकट्ठी होय रही है। हमहुं को खटिया दे पड़ी। पुण्य मिली हो।

इतना सुनते ही मानो दीनू पर पहाड़ टूट पड़ा। वह खटिया की पाटी पकड़कर चिल्लाने लगा। हम बीमार हैं। इहै पर सोइत है। हम आपन खटिया न देबय। हम न देबय। चले जाओ सब कोई।

गुर्गे दो कदम पीछे हट गए। दीनू लगातार रो-रोकर चिल्लाए जा रहा था। रामरत्ती ने सिर के पल्लू को दांत में फंसा लिया। मन ही मन गुर्गों को कोसने लगी- ‘साले बेदम हैं। ई नय कि एका पलट के खटिया ले जाएं।’ वह मन ही मन बड़बड़ाने लगी- ‘पलट दे रे, पलट दे’।

रामरत्ती हर कीमत पर आज टोटका वाली खटिया से मुक्ति पाना चाहती थी। उसकी नजर में अब यही एक दवा है, जो उसके पति को ठीक कर सकती है। यही वजह थी कि वह गुर्गे बिना खाट लिए पलटने ही वाले थे कि दीनू ने न जाने क्या कहा दिया कि टोली में से एक पलटा और रोते-बिलखते दीनू को जमीन पर उतार कर खटिया खड़ी कर दी। उसमें दो साथी लपक कर खटिया तक पहुंचे और उठाकर कोठरी के बाहर चल दिए। रामरत्ती की खुशी का तो ठिकाना न रहा। वह रोते-बिलखते दीनू तक पहुंची और उसका सिर गोद में रखकर उसे सांत्वना देने लगी- ‘जाए देओ हो। हम दूसर खटिया ले लेबय। दुखी न हो। ई वाली तुम्हें भी पोसात नय रही।’

‘पोसात नय रही’ सुन दीनू ने उसे घूरा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं। रामरत्ती ने किसी तरह उसे शांत कराया और बिछौना तरतीब से करके उसे लिटा दिया।

न जाने क्यों रामरत्ती को लग रहा था कि उसके सिर से बहुत बड़ा बोझ हट गया हो। ‘खटिया रही तो पलंगनुमा सुंदर सी, पर रही टोटका वाली। कोई जंतर-मंतर से बांधे रहा ओका। तबहिन तो न ठाकुर को पोसाई न हमरे दीनू को। भगवान ठीक करिन, जो ठाकुर के लोगन को भेज दिहिन।’ भीतर ही भीतर यह सब बड़बड़ाती रामरत्ती को दीनू पर तरस आ रहा था। ‘का करे बेचारा। खटिया पर सोवे का शौक है। कुछ भी करके एकर खतिर एक खटिया कहीं से ले अउबे, तो ई वाली खटिया का मोह खतम होय जाई।’

रामरत्ती को इस बात का भी डर सता रहा था कि शादी के बाद पूरे गांव की खटिया जब वापस होगी तो उसकी भी खटिया लौट आएगी। वह मन ही मन मनाने लगी कि ‘हे भगवान ऊ वाले ठाकुर की खटिया ई वाले ठाकुर को पसंद आ जाए और ई फरमान सुनाय दें कि अब ये खटिया हमारी हुई। अगर अइसा हो जाए तो हम कथा सुन लेब। हे भगवान दीनू की खातिर इत्ता सा चमत्कार कर देयो।’

गांव भर से इकट्ठा सारी खटिया ठाकुर साहब के खेत में लगा दी गई हैं। बारात यहीं पर विश्राम करेगी। सभी खटिया को झाड़ा-पोछा जा रहा है। शहर के टेंट वाले से गद्दा, जाजिम, तकिया, मसलन आया है। सब खटिया पर बिछाया-लगाया जाएगा। सौ से भी अधिक लोगों के आने की उम्मीद है। बात ठाकुर की है, सो इंतजाम भी पुख्ता हो रहा हैै।

थोड़ी ही देर में ठाकुर साहब मौका-मुआयना के लिए खेत में पहुंचे। ‘क रे सब ठीक चल रहा है न। कितनी खटिया आ गईं?’ कड़क आवाज में ठाकुर ने पूछा।

‘इहै कोई सत्तर हैं। ठीक-ठीक कहें तो अड़सठ। दो का जुगाड़ और होय जाई तो पूरी सत्तर होय जइहें।’ एक बोला।

‘ऊ तो ठीक हे। पर जुगाड़ कब होई, जब बारात दरवाजे लग जाई।’

‘होई-होई साहेब। लड़कवे गए हैं।’

अचानक ठाकुर साहब की नजर दीनू वाली खटिया पर पड़ी- ‘ई केकरी खाट है। बड़ी सुंदर है।’

‘दीनू जमादार की है साहेब।’

‘ओकर खाट है!’ कुछ आश्चर्य जताया ठाकुर ने।

‘हां, बगले के ठाकुर ओका दान में दिए रहें।’

‘अइसे कहो न। एका पावा-पैताना देख कर ही लग गया था कि यह किसी ठाकुर की खाट है।’ फिर कुछ सोचते और मुस्कुराते हुए ठाकुर ने कहा कि- ‘ई वाली खाट को धो-पोंछ के सबसे इधर लगायो। शनील का चादर मसलन लगायो। इस पर हम और समधी साहब बैठेंगे।’

‘जइसा हुकुम साहेब’।

ठाकुर साहब मूंछ पर हाथ फेरते हुए दूसरे इंतजाम की पड़ताल करने चले गए। धीरे-धीरे सभी खाटें साफ हो गईं। गद्दा-चादर-तकिया-मसलन से सज भी गईं। सबसे अलग सजी होने के कारण दीनू की खटिया दूर से ही दिख रही थी। एकदम सिंहासन की तरह।

गांव की औरतें खेत में सजी इन खटियों को देख-देखकर आह भर रही थीं। हर किसी के लिए यह सब अजूबे की तरह था। ‘ठाकुर का तो पैसा बोलता है। हम लोग थोड़ी न ऐसी सजावट करा सकते हैं।’ मन ही मन सब यही दोहरा कर खुद को सांत्वना देने में लगी थीं। अरे हां, दीनू की खाट को एक ने पहचान लिया। लाल शनील की चादर और मसलन से सजी खाट को वह आंखों में बसाकर चल दी रामरत्ती को बताने।

रामरत्ती भी दीनू की खाट को सजा-संवरा देखना चाहती थी, लेकिन टोटका वाली खाट के प्रति उसका प्रेम न जाग जाए, इसलिए वह उसकी बड़ाई सुनकर भी उसे देखने नहीं गई। और फिर, दुखी दीनू को आज वह अकेला छोड़ना भी नहीं चाहती थी। कोठरी का किवाड़ बंद कर वह दीनू के बगल में लेटकर सो गई।

पूरा गांव जगमग हो रहा है। ठीक सात बजे शहर से बारात भी आ गई। शहनाई की धुन के साथ फुलझड़ी, अनार और महताब की रोशनी बता गई कि गांव वालों बारात आ गई। गांव के कुछ ही लोगों को बुलउवा था। जिनको नहीं था, वे सब किवाड़ की ओट से बारात देख मगन हो लिए।

बरात का मुख्य स्वागत खेत में हुआ, जहां सजी-संवरी खाटों पर बैठने का इंतजाम है। ठाकुर साहब सबको माला पहना-पहना कर गले मिल रहे हैं। इत्र छिड़का जा रहा है। जिसका स्वागत हो गया वह अपनी जगह तलाश ले रहा है। स्वागत का शर्बत और मिठाई चलाई जा रही है। सब कुछ कितनी रौनक दे रहा है और सबसे ज्यादा रौनक तो दीनू की खटिया दे रही है, जिसके सामने दो हुक्के धर दिए गए हैं। एक ठाकुर साहब के लिए और दूसरा उनके समधी के लिए।

थोड़ी ही देर में ठाकुर साहब अपने समधी का हाथ पकड़े हुए- हँसते हुए खटिया तक आ ही गए। बड़े आदर से उन्होंने पहले अपने समधी को बैठाया और फिर स्वयं बैठ गए।

खटिया पर बैठते ही समधी साहब ने खटिया की तारीफ कर दी। ठाकुर साहब मुस्कुराए और मूंछों पर हाथ फेरते हुए हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। बोले कुछ भी नहीं।

खूब हँसी-मजाक चल रहा है। लोग एक-दूसरे से बतियाने और एक से बढ़कर एक आ रही खाने की चीजों का आनंद उठा रहे हैं। कुछ की बतरस में दीनू की सिंहासननुमा खटिया भी है, जिस पर ठाकुर साहब की अपने समधी के साथ उपस्थिति फब रही है। ठाकुर साहब बात-बात पर ठहाका लगा रहे हैं और सब उनका साथ दे रहे हैं।

अचानक ठहाकों पर ब्रेक लग गया। ठाकुर साहब छाती पकड़कर फड़फड़ाने लगे। सीने में जोर का दर्द उठा है। सांस लेने में तकलीफ हो रही है…। डाक्टर बुलाओ… नहीं-नहीं इन्हें उठाओ अस्पताल ले चलो… ठाकुर साहब… ठाकुर साहब… ठाकुर खटिया पर लुढ़क गए और जब तक कुछ समझ में आता ठाकुर साहब के प्राण-पखेरू साथ छोड़ उड़ गए।

ठहाकों की जगह रोने-पिटने ने ले ली …कोहराम मच गया… ये तो गजब हो गया… बिटिया मंडप में भी नहीं गई और बाप की मौत हो गई… बिटिया की डोली की जगह अब बाप की अर्थी उठी… हाय-हाय, गजब हो गया… ऐसा दिन कोई को न दिखाए भगवान।

दबी जुबान से लोग दामाद की अशुभता और बिटिया की बिदाई का पीछा ठीक न होने की भी बात कर रहे हैं। होनी को कौन टाल सकता है। जो होना था सो हो गया। अब क्या करना है। करना क्या है… सूतक लग गया… बारात लौटेगी… शादी अभी तो नहीं हो सकती।

धीरे-धीरे लोग घर को लौटने लगे। बारात भी लौट गई। बस समधी साहब अपने दो-चार साथियों के साथ अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए रुक गए।

सुबह होते ही पूरे गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई। लेकिन, गांव से थोड़ा अलग-अलग होने के कारण दीनू का पुरवा इससे अनजान ही रहा।

दूसरे दिन की सुबह रामरत्ती को यह खबर लगती, इससे पहले ही ठाकुर के गुर्गे खटिया लेकर आते दिखे। रामरत्ती भौचक्क होकर उन्हें देखने लगी। ‘…इत्ती जल्दी बारात बिदा हो गई…। लगत है ठाकुर को एकरा पोसाय नय वाली बात पता चल गई… लड़कीवा भाग तो नय गई… दहेज के चलते शादी टूट गई का…’ अभी कुछ और सोचती रामरत्ती कि उसके कान में आवाज सुनाई दी-

‘ले आपन खाट। ठाकुर के जान ले लिहिस।’

‘का कहयो?’

‘का कहयो का…, तोहार खटिया पर बैठते ही ठाकुर चल बसें, अउर का।’

‘आय दइया’ रामरत्ती धम्म से जमीन पर बैठ गई। सामने किसी शव की तरह खटिया पड़ी थी। रामरत्ती माथा पकड़े उसे निहार रही थी। उसे लग रहा था कि इतना खराब तो उसने कभी नहीं सोचा था। बड़ी देर तक सिर पकड़ कर बैठी रह गई रामरत्ती। उसे लग रहा था कि तोड़-ताड़ के खटिया गांव से बाहर फेंक आए, तभी इससे छुटकारा मिलेगा।

एकाएक रामरत्ती के शरीर में जैसे बिजली कौंधी। वह उठी और खटिया पर पानी डाल-डाल कर धोने लगी।

खटिया को धो-पोंछ के रामरत्ती उसे भीतर ले आई और चहकते हुए दीनू से बोली-

‘ले हो तोहार खटिया वापस आय गई। एकर टोटका भी खतम हो गवा। एकरा के कउनो के जान लेना रहा, ले लिहिस। ठाकुर एही पर बैठे-बैठे चल बसें। टोटका खतम। खाट टोटका खतम।’

बिजली की गति से उसने खटिया पर दरी-चादर बिछाया। फिर भगवान का फोटो धर कर उसे शुद्ध मान लिया। और फिर दीनू को सहारा देकर उठाया और खटिया पर लिटा दिया।

‘कैसा लग रहा है हो’

‘ठीकय लग रहा है री, पहिले से बेहतर।’

‘अब तू ठीक हो जाबो।’

‘लगत तो है।’

दीनू के चेहरे पर सुकून के भाव दिखते हैं और रामरत्ती उसके सुकून में अपनी खुशी पा लेती है।

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