वरिष्ठ कथाकार, कवि एवं समीक्षक। दो कहानी संग्रह एवं दो काव्य संकलन प्रकाशित। कई विशिष्ट सकलनों में रचनाएं

पूरब की छाती कूटकर सूरज जेल की मुंडेर चढ़ आया था। लाल-लाल अंगारों से दिशाओं को दहकाता दर्पशाली सूरज जेल की मुंडेर वहां चढ़ा था जहां औंधे कटोरे-सी छत के नीचे गार्ड-पोस्ट के सिपाही अपनी बंदूकों के बैरल समकोण पर साध कर सावधान की मुद्रा में औंघाते  खड़े रहते हैं।

यह घड़ी पचासा नंबर 1 की होती है, जब चाय-बिस्किट-दलिया खाकर कैदी संख्या 786 ब-कलम-ए-ख़ुद बौधा मांझी अपनी हांडी (टीम) के दूसरे कैदियों के साथ जेल की जमीन पर साग-सब्जियां उगाने का जतन करता होता है। और, सूरज ठीक इसी समय यहां के शूरमा सिपाहियों को कदम ताल करवाने नित दिन आता है।

सूरज आता है तो आए, बौधा को अब उसके गुमान की हरगिज़ परवाह नहीं। वह यहां का कोई मेहमान नहीं, बलात्कार और मर्डर का दोषी होकर यहां का ताउम्र वासी है। ऐसे में अदना-बदना सूरज तो क्या किसी खाकी वर्दी का भी कोई गुमान नहीं सहता वह। उसे किसी का डर नहीं। वर्दी के ऊपर अकड़ी फरसे वाली मूंछों का भी नहीं, और, न ही किसी लाल-मटमैले टरबन या टोपी का। इनकी हक़ीकत जान चुका है वह कि हरेक ख़ाकी के पीछे पांच-छह फीट का एक सोख्ता होता है जो विधान सोखता है, क़ानून सोखता है, उसूल सोखता है, ईमान सोखता है और सोखते-सोखते अपनी जमीर भी सोख जाता है। ठीक इस सूरज की तरह जो चुचुआते बादलों को देखकर अपनी लार टपकाता हुआ पनसोखा बन जाता है। रंगरेजों के माया लोक का बहरूपिया, जो अपनी हवस के लिए रंगों की मौलिकता विदीर्ण करना जानता है, इस मुल्क के घसियारे हाकिमों की तरह या अपनी आत्मा को घर के पिंजड़े में बंद करके अदालत में बैठे मुंसिफों की तरह या फिर टारगेट भेदने का भ्रम लिए माटी के किसी महादेव को नछोड़ते पुलिस ऑफिसरों की तरह।

सूरज अपनी पूरी सज-धज में बांके बिहारी बनकर कैदियों की झड़ती चेकिंग में आया है, आदतन। बौधा को ऐसी किसी भी चेकिंग से आजतक कभी कोई मितली नहीं आई थी, आज आ गई!

आज आ गई कि इस सूरज से ही उधार का दर्प लेकर जेल के ग्राउंड पर एक नई मोमबत्ती हवा में बलखाती-लहराती उसकी ओर आती दिख गई है। यह नई है, वर्फ में ढली झकाझक कद-काठी वाली, जीभ की ज्वाला से सबको छनकाती-धकियाती।… मुल्ला नया है तो प्याज के छिलके भी कुछ ज्यादा ही उतारेगा। कोई नहीं, चलता है यह। प्याज छिल-छिल कर ही तो वह बताएगा कि संभलने वाले संभल जाओ, नहीं तो चमड़ी उधेड़ते देर नहीं लगने की। लेकिन, यह जेल है भइया, किसी ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे की खाला का घर नहीं! जेल होता ही है चतुर-चालाक-धारदार-पानीदार प्राणियों का आरामगाह। सब समझ गए कि जेल में एक नए साईस की एंट्री हुई है जो अपने घोड़ों से जान-पहचान के लिए अस्तबल का चक्कर काट रहा है।… बक्काल कहीं का !

बक्काल नया है तो इसका आकार, विकार, रूप, गंध, सब नया ही होगा। परखने के लिए कोई आखें मिचमिचाकर, कुछ अपनी नाकें सिकोड़कर तो कोई होठ बुदबुदाकर उससे अपनी आत्मीयता जता देना चाहता है, बौधा भी। लेकिन, बौधा के लिए उसे देख पाना सहज नहीं हो  रहा। बिना सोचे ही वह एक बबंडर बन जाता है और गोल-गोल चक्कर काटते हुए भुतखेड़ी पर उतर आता है। इस भूत को जेल की दीवार पर न जाने क्या दिख गया है कि वह दीवार से सट कर अपने पैंट की जीप सटासट खोलता है और वहां की भीत गीला करने लग जाता है। नहीं, गीला भर नहीं कर रहा वह, अपने औजार को पूरे मनोयोग से साधकर कुछ उकेर रहा है। उकेर रहा है और बुदबुदा-बुदबुदाकर किसी मंत्र का संपुट उच्चार रहा है ‘आदमखोर’ …।

बक्काल आते-आते यह अटपटे घोड़े की तरह खुर टपटपाता हुआ उसके पास पहुँच जाता है। सूरज जेल की दीवार पर अब भी उटंगा हुआ सब निहार रहा है, तीस डिग्री के कोण पर टंग करके। भीत पर जिस ऑब्जेक्ट की छाया बन रही है, उसके दीवार के और निकट सट आने से छाया ज़्यादा ही चौड़ी और साफ हो जाती है और तब संपुट का वह शब्द भी स्पष्ट पढ़ा जा रहा है- ‘आदमखोर’!

अपनी ही छाया को कौन नहीं जाने, कैसे नहीं पहचाने? पहचान गया यह नया-नया दाखिल ऑफिसर भी और अपनी ही पीठ पर अंकित शब्द आंख-कान खोलकर पढ़ भी गया-‘आदमखोर’!

कहते हैं, मंत्रों के संपुट से प्राणियों की तंत्रिकाएं जाग्रत हो जाती हैं। जाग्रत तंत्रिकाओं से आदमी का भूलाबिसरा सब याद आने लगता है। वह भी जिसे वह भूलकर भी कभी याद करना नहीं चाहता। किसी भी पुलिस वाले में यदि थोड़ी भी पुलिसिया शान बची होगी तो कायदे से वह ऐसी बदतमीज़ी बर्दास्त ही नहीं कर सकता, परंतु न जाने क्यों, मोमबत्ती की यह लौ जो दहक कर ज्वाला बनने जा रही थी, किसी अदृश्य प्रपात के नीचे पड़ते ही शून्ठी तक नहीं रही।

अतीत और अदृश्य के घाल-मेल से बना अस्तित्व ऐसा ही होता है। कैदी अदना होता तो उसकी अंधेरगर्दी को कब का मिटा दिया गया होता, नहीं मिटाया जा सका तो सीधा अर्थ है कि उसका यह अस्तित्व इस लोक से ऊपर का है या फिर दुनिया के थपेड़े सह-सह कर यह  एक विशाल चट्टान बन गया है जिसे मिटाना तो दूर, उससे टकराने तक की हिम्मत भी कोई मोमिन कैसे जुटा सकता! टकराने से पहले ही मोमबत्ती पिघल कर नाली बन गई और जिस रास्ते आई थी उस रास्ते ही निकल गई। आने का पता तो चल गया था, परंतु गया कब और कैसे, कोई नहीं जान पाया। अचरज था यह!

अचरज सांघातिक होता है और संघात मन को ऊहापोह में डाल देता है। ऊहापोह में पड़कर बौधा उदास हो गया। वर्षों बाद आज उदास था बौधा। परंतु क्यों?… गैर कह कर भी किसी को याद कर लेने की स्थिति में जिसे उसकी बदी ने नहीं छोड़ा वह उदास भी हो तो किसके लिए? उसके लिए खुशियां कैसी और उदासी कौन-सी?

लेकिन, बौधा उदास है, यानी हांड़ी का मेठ उदास है। मेंठ उदास है तो हांडी के सब उदास हैं। ऐसी उदासी ठीक नहीं। जंगल की आग बन कर यह पूरे जेल को ही उदास कर देगी। कुछ करना होगा। कुछ करने के लिए पूरी हांडी देखते-देखते ही शीतल बयार बनकर कैदी नंबर 786 के बैरक में उतर आई और पुचकार-मनुहार की फुहार के साथ पूछने लगी, ‘क्या हुआ सरदार?’

ऐसी आत्मीयता पाकर तो कोई मौनी बाबा भी अपना ब्रत तोड़ ले, फिर यह कैदी कैसे चुप रहता। बोलना चाहता है, परंतु जीभ ही तालू से चिपक गई हो जैसे! मेंबरों ने इससे पहले अपने इस सरदार को कभी सोख्ता बनते नहीं देखा था। आज देखते ही इसे लबालब कर देने के लिए सभी उसपर कंठ भर-भर के अमृत बरसाने लगे। हलफ़ तर हुआ। तालू आर्द्र हुआ। जीभ कड़वी होकर कठिया तो गई थी मगर डोल गई और कातर बनी बोली- ‘आदमखोर!…’

‘आदमखोर’ कोई छूंछा शब्द भर नहीं था, दुनिया भर के संत्रास, घात, परिहास, खग्रास सब समाए थे इसमें इसलिए कानों के भीतर इसके हेलते ही सबों के पैर से सिर तक जेल की पगली घंटी बज उठी। कैदियों ने इस पगली घंटी के टन-टनाने का अर्थ जानना चाहा। आंखें एक-दूसरे को हिड़ोल-हिड़ोल कर अर्थ खोजने लगीं। अर्थ गुम हो गया था, आंखें बिस्फारित रह गईं। अर्थ खो चुके शब्द अनहद होते हैं, अनहद को कोई पागल या फ़कीर ही समझ सकता है।  सरदार पागल था या फ़कीर यह तो वही जाने, मगर एक साथ इतने मर्म को मींचकर ऐसी पगली घंटी बजी ही क्यों, जानने के लिए सभी पगला उठे।

कहा जाता है कि पागलों की दुनिया में संकेतों की भाषा ही आपसी बोल-चाल और समझने-समझाने की भाषा होती है, इसीलिए पगली घंटी का अर्थ समझाने के लिए बौधा ने एक ताखे की ओर इशारा किया। ताखा जेल की दीवार पर ठीक उस जगह के ऊपर था जहां उसने अपने पेशाब से चिराग जला कर किसी की अहमन्यता को कुछ ही देर पहले भस्म किया था। उस ताखे पर कबूतरों का एक जोड़ा था। लोगों ने देखा कि जोड़ा दिन-दुनिया से बेपरवाह अपने प्यार में मग्न है। एक चील आंधी-सा शोर बरपाता उनपर झपटता है। मादा कबूतर कांप कर सूखने लगती है। नर कबूतर चील की चोंच से टकराता है। टक्कर खाने से चील का जबड़ा ढीला पड़ जाता है और मादा कबूतर पंख फड़फड़ाती धरती पर आ गिरती है। धरती पर बाबा (जेल की कैंटीन का इंचार्ज) का बिलाव बैठा दांत पिजा रहा है जो मादा कबूतर के पास आते ही पगला जाता है। वह उसे दबोच कर पास की झाड़ी में घसीट ले जाता है। लोगों ने देखा, नर कबूतर त्रास के मारे पानी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते बेहोश गिर पड़ा है और बिलाव इत्मीनान से झाड़ी से निकलकर अपना मुंह पोछते, सीना चौड़ा किए कूल्हा मटकाते अपने पालनहार की ओर जा रहा है।

दृश्य कारुणिक था। आदमी का स्वभाव है कि घटना त्रासद ही क्यों न हो, अपनी विगलित संवेदना बहा-बहा कर भी वह मजे ही लूटता है। लोगबाग चुपचाप एक-दूसरे का मुंह जोहते मजे लूट रहे थे। एकाध ने हिम्मत जुटाई और बिलाव को मज़ा चखाने के लिए मुट्ठी बांधकर उसकी तरफ लपके। देखा, बिलाव आराम से अपने पालनहार के क़दमों में आ पड़ा है। बिलाव का पालनहार ही सभी कैदियों का पोषणहार था, इसलिए वहां पहुंचते ही उनकी मुट्ठियां खुल गईं और गर्दन लटकाए वे उलटे पांव वापस आ गए!

उनके आते ही उनकी बाट जोहतीं आंखें एक साथ कुनमुनाईं। प्रश्न अब भी हस्वे-मामूल खड़ा था। हल जानने के लिए लोग बेताव हो गए। परंतु, यह पागलों की दुनिया थी, जिसमें मसले तो होते हैं, मसलों के हल नहीं।

हल था तो सिर्फ इन पागलों के उस प्रमुख के पास जो अब भी न जाने क्यों शवों की सिद्धि के लिए मसान का अवधूत बना हुआ था। बोला, ‘तुम लोगों ने तन की आंखें तो खोल रखी हैं परंतु मन की आंखें पूरी तरह मूंद छोड़ी हैं। मन की आखें खुली हों तो दुनिया की फितरत समझना कठिन नहीं होता। तब मैंने भी मूंद ही रखी थी, अब यहां पहुंचते ही सभी चेहरे साफ दिखने भी लगे हैं तो क्या फायदा?’

बातें अगर रहस्यमयी हों और दिमाग के ऊपर-ऊपर ही निकल जाएं, तो ऐसी बातों को सुनने-समझने का भी क्या फायदा? सभी अपने-अपने बैरक को लौट गए।

पचासा नंबर 2 की घंटी बज गई। सभी अपना प्लेट उठाए, मग संभाले लपके-झपके कैंटीन की ओर भागे। रोटी तो रोज की जरूरत है। घर हो या जेल, छोड़ी नहीं जा सकती, कोई नहीं छोड़ता। सभी अपने हिस्से की रोटी थामने बाबा के सामने लाइन में खड़े हो लिए। हाजरी लगती गई, रोटी बंटती गई। गिनने को कोई नहीं बचा तो बाबा ने कंठ खोलकर पुकारा, ‘कैदी नंबर 786?…’

जवाब में पूरी हांडी गूंज गई, ‘बिस्मिल्लाह अल रहमान अल रहीम!… यानी हमारी हांडी में इससे पाक कोई दूसरा इस्म-ए-शरीफ़ नहीं, पुकार लो नाम और सुधार लो आकवत।’

‘जानता हूँ, जानता हूँ, सुधार भी लूंगा।… पहले तुम सब तो सिधार जाओ यहां से।’ समय का मिजाज़ टटोल कर जवाब जानते हुए भी बाबा चुप रहा और कैदियों के छंटते ही एक टिफिन में रसोई भरकर अपना आकवत सुधारने कैदी नंबर 786 के बैरक में दाखिल हो आया।

अपने बैरक में बौधा अब भी दीवार में दीठ चुभाए मौनी बाबा बना गुमशुम ही बैठा था। दीवार पर  कीड़े-मकोड़ों के अभ्यास से आड़ी-तिरछी लकीरों के जाल उत्कीर्ण थे- ख़ुशी, गम, पीड़ा, अवसाद, प्रमाद की उबासियां भरीं अनगिन लकीरों की जाल!…

…उस दिन भइया का जनमदिन था। गाय भी बाछी बिआई थी और सुनयना को मिडिल पास हो जाने की पर्ची मिली थी। बाबू दोपहरी ही बैलों को बमकाते-रिरियाते बहियार जोतकर घर भाग आए थे। मइया ‘धुस्का’ बनाई थी। भइया टेटियाता हुआ अपनी सायकिल की दुकान पर पहिया पीट रहा था, जनमदिन जो था, बिना खुशामद कराए घर कैसे आ जाता! खुशामद करने जाता भी कौन? मैं ही गया, साथ में धुस्का बांधकर। गरम-गरम धुस्का से निकलती उरद दाल की खुशबू! नाक से लगी नहीं कि बैलों की तरह नथूने फुलाए मेरे पीछे भागा। रास्ते से साल के ढेर सारे पत्ते हसोंतते हम घर आए, मइया ने कहा था, पतपुड़ा मीट (मीट को चावल के साथ मिलाकर साल के पत्तों में लपेटकर बनाया जाने वाला व्यंजन) बनाने वास्ते। मइया लाल-लाल मट्ठा किचरी (सूती साड़ी) पहिनकर अमलतास हो गई थी। बाबू भात-दाल खाकर धोती-कमीज़ चढ़ा चुके थे, हटिया जाने के लिए।…

…शाम को मइया लाठुचा के घर गई, उनकी बेटी सुनयना को भइया के जनमदिन पर न्योतने। रात के खाने में पतपुड़ा मीट और रुगड़ा की तरकारी बनी थी। सुनयना को पतपुड़ा मीट नहीं सोहाता, लाठु मंडल की बेटी जो ठहरी, दूध-छांछ की धोई, घी-मक्खन में लिपटी। आते ही उसने छठी जमात की पर्ची दिखलाई। अच्छे नंबर थे। मैं खुश हुआ, उसे मैं ही पढ़ाता था।…मइया ने उसे धुस्का खिलाई।… भर पेट खाई थी, कूदते-फांदते-उद्धम मचाते। …फिर मैं उसे लेकर लोथा साह की दुकान गया, उसे लेमनचूस दिलाने। लेमनचूस लेकर वह अपने घर को भागी। मैं भी बगटूट भागा था देवीस्थान की ओर, कि दूसरे ही दिन…!

बौधा का सिर उसकी ही हथेलियों पर लदे-लदे माटी की लोथ बन गया!…

लोथ के सामने बाबा खड़ा था, हाथ में टिफ़िन थामे। स्नेहपूर्वक अपने प्रिय कैदी को ताकते।

टिफ़िन फर्श पर रखकर बहुत हलकी मुस्कान से पूछा, ‘आज उस नए ऑफिसर को देखकर तुमने जेल की दीवार पर पेशाब क्यों किया?’

‘दीवार पर नहीं, ठेंठ उसकी पीठ पर किया था बाबा, क्योंकि मेरे जानते वह आदमी मूत चाटने का आदी है।’

‘मूत चाटने का?’

‘हाँ।’ जवाब में कोई प्रकंप नहीं था।

‘परंतु, कैसे? यह मिथ्या आरोप ही है।’ पुलिसिया ज़मीर कुलबुलाने लगी।

‘कैसे की छोड़ो। कैसे के लिए मुंसिफ़ों की तरह तुम्हें भी सबूत ही चाहिए। मन का माना सच्चा तो हो सकता है परंतु ‘सत्य’ बनने के लिए इसे सबूत चाहिए होता है। सबूत नहीं हो तो इसकी हैसियत भ्रम बन कर रह जाती है। और, सबूत कभी भी सर्वव्यापी नहीं होता, इसे जुटाना पड़ता है, जो इतना आसान नहीं। इस कारण ही सबूत अपराधी और मुंसिफ़ दोनों के लिए समान तौर पर आत्मीय होते हैं। इसलिए बाबा, कैसे की छोड़ो। मन माने तो मेरी बात को सच्चा जानकार स्वीकार कर लो, नहीं तो अधिकारी हो, जेल मैन्युअल में आज के मेरे किये की सज़ा जरूर होगी, दे डालो।’

बाबा बौधा का दोस्त बन चुका था। दोस्ती अपने दोस्त पर विश्वास नहीं करने की इज़ाज़त हरगिज़ नहीं देती। परंतु, विश्वास भी रंजना का पिछलग्गू तो होता ही है इसलिए अब एक दूसरा प्रश्न खड़ा हो गया। वह अधिकारी मूत चाटने का आदी है या विष्ठा चखने का, यह एक अलहदा सवाल है। होते हैं, कई लोग होते हैं जिनका आहारव्यवहार ऐसा ही होता है। मगर, ऐसी शर्मनाक हरकत करते हुए तुम्हें तो लाज आनी चाहिए थी?’ बाबा का तपाक बढ़ा हुआ था।

‘गधे, घोड़े या हथिनी की लाज से बड़ी लाज और किसकी होती है बाबा? लेकिन, उनकी खुली लाज से न दुनिया लजाती है और न वे स्वयं ही। क्योंकि, जनमने से मरने तक वे अपनी लाज को अपनी निर्वस्त्र देह पर निःसंकोच ढोए फिरते हैं। सिर्फ आदमी ही है कि मां की कोख से निकलते ही उसकी लाज ढंक दी जाती है, जिंदगी भर ढंकी रहने के लिए। यह आदमियों का रिवाज है। लेकिन, यह रिवाज अगर एक बार बलात तोड़ दिया जाता है तो फिर वह आदमी आदमी कहां रह जाता? नहीं रह जाता है। तब वह मानुष होकर भी वेश्या, नागा, दिगंबर, फाहशा या हरजाई हो जाता है।…

…रहा सवाल कि मुझे लाज क्यों नहीं आई। तो जान लो कि मेरी लाज उस वक्त ही जाती रही जिस वक्त तुम्हारे इसी ऑफिसर ने मुझे धरती पर पटकवा कर सभी के सामने बूट से मेरी लाज मसलवा दिया था और मैं मछली की तरह तड़पने लगा था।… उस दिन मेरे गांव का एक भी मर्द अपने वज़ूद में मर्द नहीं रह गया था।… डंडों और बंदूक की जोर पर अठारह से पचीस वर्ष के सभी नरों को ढोर-डांगरों की तरह स्कूल के मैदान में हांक लाया गया, बिलकुल नंगा कर के। तन पर रेशा तो क्या, एक पत्ता तक नहीं। बाप के सामने बेटा, बेटा के सामने बाप। औरतें अपनी छाती मुट्ठियों में भींचकर दीवार की ओंट में दुबकी जा रही थीं, कहीं कलेजा ही बाहर को न निकल पड़े।… बर्दी चाबुक फटकार रही थी एक अदद हिनहिनाते घोड़े को अपनी ज़द में लेकर यह बताने के लिए कि उन्होंने बिना समय गवाए अपना काम पूरा कर दिखाया।… यह थानेदार उस इलाके में अपनी मुस्तैदी के दिन से ही अपनी रहम मिजाज़ी और नेकनियती के लिए हर दिल अज़ीज़ बना हुआ था।…और उस दिन?… उस दिन की तो पूछो ही मत। रात में घटना घटी और सूरज निकलते न निकलते पूरे गांव में हंगामा बरप गया कि लाठुचा की बेटी के साथ अमानुषिक अत्याचार हो गया! सुनयना के मां-बाप कुछ समझ पाते कि उससे भी पहले इस तेज तुरंग ने पूरे गांव को समझा दिया कि रात के अंधेरे में किसी राक्षस ने इस नन्हीं-सी जान को अपनी हबस का शिकार बनाया और तड़पते हुए गोश्त ने समर्पण नहीं किया होगा तो उसे ठंडा करके लोथड़ा बना दिया।…

…कहानी बन गई थी, अब  एक पात्र जुटाकर आवाम के हवाले कर देना था।… अधिकारी की पुतली चमकी और उसके गुर्गे लोगों पर टूट पड़े। एक सिपाही बाज़ बनकर मुझ पर झपटा ओर मुझे पटक कर मेरे शिश्न को अपनी बूट से मसलता हुआ बुदबुदाया, ‘बोल कि तुमने ही यह कुकर्म किया है।’…

…दर्द से बिलबिलाती मेरी आखें आश्चर्य से फटी ही थी कि जोर का एक घुस्सा मेरी आंखों पर पड़ा और अफड़ता हुआ मैं चिल्ला पड़ा, ‘हाँ, मैंने ही किया है मेरे माई-बाप, मैंने ही किया है, मेरे प्राण बख्श देओ।’…

…मेरा चिल्लाना सबों ने सुना। सुनते ही एक सन्नाटा पसर गया। राज खुल गए थे। सिपाहियों की शामत टल गई। मैं और मेरे परिवार के लोग थूक और घृणा में डूब-डूब कर धरती के भीतर गड़ने लगे। तुम्हारे उस अधिकारी की सूखती बांछें खिल गईं और अपनी लाज को मटियामेट कर दिए जाने की अपनी ही कहानी तुम्हें सुनाने मै यहां आ गया।…इसके आगे की क्या सुनाऊं, बता बाबा?’

बाबा कुछ देर चुप रहा, कहीं खोया सा। या, कुछ खोजता-सा। फिर एक दीर्घ उच्छ्वास के साथ बोला , ‘पुलिस थ्योरी तो गढ़ती है, पुलिस वाला होने के नाते इसे स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं है। परंतु, वह ऐसा तब करती है जब उसके सामने कोई बहुत बड़ी लाचारी हो। यह तो एक साधारण-सी घटना है जो भारतीय समाज में अक्सर ही बदस्तूर घटती रहती है और कभी-कभार उन्मादी होकर तूफ़ान भी खड़ा करती है। उन्माद और तूफ़ान दोनों के स्वाभाव हैं कि ये ज्वालामुखी बनकर फटते हैं और ग्लेसिअर-सा जम कर पिघल भी जाते हैं। पुलिस का भी स्वभाव है कि वह बड़े ही आत्मीय ढंग से इनसे निपटती है, क्योंकि उसके लिए ये या तो चौंका-चूल्हा चलाए रखने का मुद्दा है या फिर अपना खून गरम रखने के लिए कबूतर और बाज़ का एक खेल। खेलो, पकाओ, खाओ!…

बाबा कुछ और कहता, परंतु उसकी बातों से बौधा भुजंग बनकर ऐंठने लगा था, ‘वनमानुष की औलाद!… रीछों के नाती! इनकी जुबान पर ही संत्रास के लहू चढ़े होते हैं। वह दारोगा अकेला ही आदमखोर नहीं है, उसकी संपूर्ण जाति ही ज़र्दरु- मांस खाने का आदी है।’ मगर कंठ खोलकर कुछ बोल नहीं पाया। जानता है कि बाबा इंसान होकर भी पुलिस वाला तो है ही। अब वह उसका दोस्त बन गया है तो बन गया है। ज़मीर तो उसकी पुलिसिया ही है, जो जाग गई तो पल भर में वह उसे घसीट कर ‘पेटी’ पर पहुंचा देगा और उसकी हड्डी-पसली का चूरमा बनाकर अपने मन के चटखारे भरेगा।  

बाबा को भी अपनी गलती का एहसास हुआ। आदमी का हैवान लाख तुरंग चढ़कर आंधी औंटता रहे, मरते दम तक उसका इंसान भी कहीं न कहीं का एक कोना पकड़े होता है जो समयसमय पर सुलग उसे आदमी बनाए रखता है। बाबा के आदमी को इस कहानी में उस चिड़िया के झुलस जाने की बू मिली जो आसमान छू लेने के भ्रम में उड़तेउड़ते जंगल की आग में गिर पड़ी है और अब एक गहरा रहस्य बनकर निःशेष है।

रहस्य उस बला को कहते हैं जिसमें सचाई, झूठ, इंकार, विद्रोह, विकर्षण, कुछ भी हो सकता है, परंतु जब तक ढूंढो नहीं, हाथ कुछ नहीं लगता। भेद गहरा होता जाता है तो उसकी निजी सचाई का भी अपवर्तन होता है और वह दबाव, प्रभाव, लालच और वंचना बन जाता है। बाबा इसे ढूंढने के लिए इस रहस्य के समुद्र का गोताखोर बनेगा, बिना समय गंवाए।

परंतु समुद्र का उद्गम तो हर हाल में यह बौधा ही है न, इससे बेहतर कौन जानता होगा?

और बौधा है कि वह जेल के इस कुएं में ही पड़ा रहकर बाकी का जीवन गुजार लेने को अपनी नियति मान बैठा है। इसका मौन भंग कराना होगा, इसके अंतस में घुसकर। अंतस का रास्ता मुंह से होकर जाता है, ग्रास के पीछे-पीछे।

बाबा बोला, ‘कुछ खा लो। भूखे हो, दिख रहा है। अपने लिए न सही तो मेरे लिए ही। लो खाओ।’

बौधा ने टिफिन खींचकर ढक्कन खोला। ढक्कन के खुलते ही मन के कपाट दो फांट हो गए और भीतर की बासी हवा परनालों की गंध से मुक्ति के लिए शुचिता का वातायन खोजने लगी।

इस वातायन में ही झाकते हुए बाबा ने खरोंचा,  ‘सब तो ठीक है परंतु, उस दारोगा को लेकर तुम इतने आक्रोश में क्यों हो? उसने ऐसा क्या किया है?’

उसने जो किया वह भी पुलिस के चूल्हा-चौंका से हटकर कोई अमृत मंथन जैसी घटना नहीं है, बाबा!… लेमनचूस लेकर सुनयना जब मेढक की टांग चढ़कर उचकते हुए घर की ओर भागी थी तब यह आदमी ही था जो उसकी पिंडलियों के पीछे उल्का पिंड बना हुआ लपका था।

रहस्य का एक छोर बाबा की मुट्ठी में आ गया था। लेकिन इससे आगे की कोई थाह देने के पहले बौधा का कंठ रुंध गया। दूसरे छोर तक पहुंचने के लिए गहरे पानी पैठना होगा।

निकल गया बाबा समुद्र मथने। जेल-अधीक्षक ही सबसे बड़ी मथानी है, वही इस रहस्य का रेशा-रेशा जानता है। कहानी दिलचस्प मालूम हो रही है।… किसी के तकदीर की तड़प और पीड़ा जब फसाना बन जाती है तो दुनिया-जहां उसे डूब-डूब कर सुनना चाहती है, बारिश की फुहारों में नंगे बदन भींग कर अपनी ही तपिश मिटाने के लिए। अपनी ही तपिश से उद्वेलित बाबा नंगे मन जेल सुप्रिंटेंडेंट के पास आ गया। और कैदी नंबर 786 का नाम लेते ही पाया कि यह अधिकारी तो उस कैदी का पहले से ही मुरीद बना बैठा है।

छेड़ते ही वह अधिकारी इंसान की जुबान लेकर उस रात की सारी हैवानियत खोल देने के लिए खुद ही उतावला  हो गया। बोला, ‘चुनाव सिर पर था। क्षेत्र मुख्यमंत्री जी का है। आग लग चुकी थी। विपक्ष पेट्रोल का कनस्टर लिए खड़ा था। जो परले दर्जे का शातिर नहीं वह अहले दर्जे का मुख्यमंत्री भी नहीं हो सकता। पक्ष-विपक्ष के अनगिन कमीनों और शातिरों को साधकर ही कोई इस ऊंचे ओहदे का स्वामी बनता है। इसलिए प्रशासन को नीति-अनीति से ऊपर उठकर हर हाल में इस आग पर काबू पाने की सख्त हिदायत दी गई। तोशखाना खोल दिया गया।… घर में न समा सकने लायक लक्ष्मी झम-झमाती हुई पीड़िता के दरवाज़े आ लगी तो कुनमुनाते-कुनमुनाते उसके माँ-बाप ने उससे अपने अकबार भर लिए। बेटी-विदाई की भरपाई से परिवार को तोष मिला। परिवार के संताप हरते ही राजनीति की काली-पीली आंधी, जो विपक्ष की सह पर विकराल बनी हुई थी, थोड़ी ढीली पड़ गई। फिर भी उसे पूरी तरह शांत कर देने के लिए जरूरी था कि असली व्यभिचारी मिले न मिले, एक मोहरा तो हत्थे चढ़ ही जाना चाहिए। ग्रह, नक्षत्र, समय और स्थिति की अनुकूलता में उस पीड़िता का दोस्त बौधा से बेहतर और विश्वसनीय मोहरा कोई दूसरा हो नहीं सकता था, इसलिए ही तुम्हारा बौधा कैदी नंबर 786 बनकर यहां अलख-अल्लाह है।’

‘तो क्या बौधा सच ही निर्दोष है?’

‘वह निर्दोष है या दोषी, यह तय करने वाला मैं कौन होता हूँ? तुम भी जानते हो कि ऐसे मुद्दे उस मंदिर में तय होते हैं जहां अपनी आखों पर पट्टी बांधे बैठा गुनाहों का देवता हाथों में तराजू थामे सबूतों के बटखरों से गुनाहों का पिंड परखता होता है। इस मंदिर के भीतर स्थापित देवता राज पोषित होते हैं जिनकी अक्लिय्यत, अक़ीदत, चेतना और प्रज्ञा राजा की किताबों से अनुशासित होती हैं और जिनकी सारी बुद्धि सबूतों और साक्ष्यों की परिधि पर ही घूमती रहती है। उनके कान लंबे और खुले तो होते हैं परंतु वे इंसानों के बोल-वचन सुन-समझ नहीं पाते। वे उनके बोल-वचन ज़रूर सुन-समझ लेते हैं जो इंसानों के मुखौटों में कौवे, कुकुर, गधे, भेड़िये या सियार कुछ भी होते हैं और ‘मीलार्ड-मीलार्ड’ उच्चार कर उन्हें समझाते होते हैं। इस समझ से छनकर जो सार तत्व आदमी के हाथ लगता है वह लोक विश्वास में अंतिम सत्य होता है। और इस सत्य के आधार पर ही कोई निर्दोष होता है तो कोई दोषी, तुम्हारा बौधा भी।’

चक्कर खा गया बाबा। जिन पर तकिया था वही पत्ते हवा करने लगे’! जिस साहेब पर भरोसा किया वही नागछतरी बनकर फूंक मारे जा रहा है। तो, अब किस गली की खाक छानूं कि मन को चैन आए? कोई गली नहीं सूझी तो उस नागछतरी को ही पकड़ कर फिर से वहीं बैठ गया वह। बोला, ‘बुझौबल मत बुझाओ साहेब! तुम्हें ही गुरु मान के पूछ रहा हूँ तो सब कुछ साफसाफ और सचसच बताओ कि इस राज का असली फांस है क्या?’

हँसने लगा अधीक्षक। हँसते-हँसते ही बोला, ‘न मैं गुरु, न कोई चेला। हम दोनों ही राज धरम से बंधे हैं इसलिए अपने ही मालिक की बखिया नहीं उधेड़ सकते। तुम्हीं बताओ, जिस तंत्र से हम हवा, पानी, भोजन, ऐश, आराम, प्रतिष्ठा, दंभ और प्रगल्भता पा रहे हैं उसके ही खिलाफ हम विष वमन कर सकते हैं क्या? नहीं न? तो ऐसे में हमें अपने होंठ सिल कर ही रखने होंगे।… एक पते की बात तुम्हें और बताता हूँ। मकड़ी को कभी जाला बुनते देखा है? वह जाला बुनती तो है अपनी ही सुरक्षा के लिए परंतु, ग्रह-नक्षत्रों की प्रतिकूलता में वह उस जाले में ही फंसकर अपने प्राण भी गवां देती है। लोक विश्वास में इसे प्राकृतिक न्याय माना जाता है जो बड़े से बड़े न्यायधीशों के दिए हुए न्याय से भी बढ़कर होता है और परिवर्तनकारी भी। और, जिस कारण ही यह दुनिया लाख खराब होकर भी इंसानों के रहने के लिए बहिश्त ही बनी होती है।’

‘फिर बौधा को लेकर आपकी क्या राय बनती है?’

‘बौधा यदि सच ही निर्दोष होगा तो उसे ऊपर वाले का न्याय भी हासिल होकर रहेगा। हाई कोर्ट में मामला चल रहा है और जल्द ही एक नया फैसला लिखा जाने वाला है। आंखें पसार कर रख, सब दिख जाएगा।…’

‘…फैसला आ गया। सबूतों और साक्ष्यों के हिंडोले चढ़कर ही आया। ‘मीलोर्ड, मीलोर्ड’ वाले आप्त वचन सुनकर ही आया। ग्रह-नक्षत्र-तारों की भृकुटियां बदल गईं तो पूरी तरह बदल कर ही आया। कैसे? यह सुनने वाली बात है, सुन लीजिए।…’

…मामले को जल्दी से जल्दी निपटाने का दबाव तो था ही। लिहाजा जितने भी अमला थे सब के सब हड़बड़ी मचाए हुए थे। जानी हुई बात है कि हड़बड़ी में गड़बड़ी हो ही जाती है, तो, हो ही गई। गड़बड़ी यह हुई कि फ़ोरेंसिक लेबोरेट्री में भेजा गया स्राव का नमूना तो उस अभागी बच्ची की जांघों और योनि से ही लेकर भेजा गया परंतु मौज़ ऊपरवाले की कि जो अंडरवियर भेजे गए उनमें से एक तो बौधा का था, दूसरा किसका यह जिनको जानना चाहिए था, उनमें से यदि कोई जानता भी होगा, तो मुंह नहीं खोल पाया। एक मुंह जो खुलना चाहता था, या अब भी रह-रह कर खुल जाने को आकुल-व्याकुल है, वह बौधा का ही है। परंतु, सांप का फन ही कुचल दिया गया हो तो वह क्या मुंह खोले, और, कैसे तो सांस खींचे? हां, दोनों अंडरवियर में एक समानता यह थी कि दोनों ही ‘व्ही.आई.पी,’ ब्रांड के थे। थे तो थे, इससे क्या लेना-देना? लेने-देने वाली बात यह हुई कि अंडरवियर का यह कॉमन ब्रांड फोरेंसिक लेबोरेट्री में पहुंच कर ऐसा कॉमन भी नहीं रह गया।… इस गहरे राज की फांस यही बना। जो रिपोर्ट बनी उसमें एक अंडरवियर का डी.एन.ए. प्रोफाइल तो बौधा के ब्लड-सैंपल से मैच कर रहा था, लेकिन दूसरे का प्रोफाइल बौधा से बिलकुल ही नहीं मिल रहा था। जबकि, उस स्राव से यह पूरी तरह मिल रहा था जो पीड़िता के अंगों से लिया गया था। बात जो इतनी मशक्कत से बना ली गई थी, यहां पहुंच कर ही बिगड़ गई और तब गहन अन्वेषण के बाद यह फैसला आया कि निचली अदालत का सज़ायाफ्ता मुज़रिम बेगुनाह है इसलिए उसे बाइज्ज़त बरी कर दिया जाता है।

तो फिर गुनाह किया किसने?… ढांक के फिर वही तीन पात!… जब सबूत ही नहीं तो गुनाहगार कौन? कौन को जानने वाला जिस्म फ़ना हो गया। एक उल्का पिंड जो उस शाम उस जिस्म के फ़ना होने से पहले लोथा साव की दुकान के सामने वाली ढूह पर कुत्ते की तरह अपना पांव उठाए अपना तनाव हल्का कर रहा था, उसका अंडरवियर ‘व्ही. आई. पी.’ ब्रांड का ही था, इसे देवीस्थान की राह लपकते बौधा ने अपनी खुली आखों से खुद देखा है। परंतु किसी की दीठ का देखा सब के मन का पतियाया भी हो जाए, यह तो संभव ही नहीं।

अदालत का रिलीज़ आर्डर हुलसता हुआ कोई आदालत से लेकर जेल तक आए और जेल के फाटक पर खड़ा होकर बौधा के निकलने का इंतज़ार करे, ऐसा भाग्य इस पातकी का कहां? हांडी के कुछ लोग भागे-भाए उसके पास जरूर बताने आए कि उसका रिलीज़ आर्डर आया है जिसे लेकर बड़े साहेब खुद उसके पास आने वाले हैं। मगर कानों की सुनी और आंखों की देखी हृदय में तभी समाती है जब मन के भीतर घुमड़ते बबंडर का उत्पात भी शांत हो।

जो बेचारा अपनों की ही तोहमतों से छलनी होकर अपनी अस्मत गंवाए बैठा है, उस पर क्या गुजरता है, इसे कोई द्रौपदी बनकर ही जाने तो जाने। वे लोग क्या जानें जो किसी असहाय को सरे आम नंगे कर के उसकी देह पर भुजंग-साधना के लिए लालायित हों? बौधा का घर-परिवार, जमीन-ज़ायदाद सब प्रपंच की काली जिह्वा पर चढ़कर स्वाहा हो चुके हैं। जाति-दीयाद से उसका संबंध टूट चुका है। बदनामी के काले साए में लिपटी उसकी क्वारी बहन अपने ही तार-तार आस्तीन में मुंह छुपाए किसी कोने में दुबकी सिसक रही है, बलात्कारी की बहन को कौन पूछे? ऐसे में बौधा जेल छोड़कर जाए भी तो जाए कहां?…

…बड़े साहब को आना था तो आ गए खुशख़बरी लेकर! उन्हें क्या पता कि शहद, घी, मिश्री या नीम आयुर्वेद की किताब में भले ही अमृत होने की प्रतिष्ठा प्राप्त किए हुए हों, परंतु कुत्ता, मक्खी, गधा और कौवे जैसे कुछ अभागे भी हैं जिनकी जीभ चढ़ते ही ये विष हो जाते हैं। यह बौधा तो इन उपेक्षितों से भी बढ़कर उपेक्षित और पतित घोषित है, फिर जेल से मुक्ति का सुधा-रस वह चाटे भी तो कैसे?

जीभ कठिया गई। नाक सामने खड़े अधीक्षक के पैर सूंघने लगी। आखें अचानक ही फट पड़ीं, विषण्ण बादलों की तरह। बस एक ही आरजू, ‘चाहो तो फांसी चढ़ा दो, मगर उन फुज्जार के हवाले मत करो जिन्होंने मेरी जिंदगी नरक बना दी, भाई-बहन के पाक-साफ रिश्ते को गज़ालत की बू से भर दी।’

परंतु, जो क़ानून में ही नहीं उसे कोई कानूनगो साधे भी तो कैसे? अधीक्षक बोला, ‘देखो, कोर्ट ने तुम्हारे गुनाहों को धो डाला है और तुम्हें ख़ुशी-ख़ुशी घर जाने की इज़ाज़त दे दी है तो तुम्हें भी यहां से जाना ही होगा।’

‘अब घर या परिवार रहा कहां कि वहां जाऊं? परिवार कहां बिलट रहा है, पता नहीं। गांव जाऊं तो गांव वाले मेरी माटी पर मूतने में भी अपनी हीनता ही मानेंगे। अब एक ही ठौर है, वह हाकिम जिसने बिला वज़ह मुझे यहां पहुंचा दिया है। उस ठौर ही, उनके ही टुकड़ा-टिकड़ा पर, उनकी ही सेवा टहल करता-करता मर जाऊंगा साहेब! वहीं भेज दो, मेहरबानी होगी!’

‘बिलावज़ह तो तुम्हे किसी ने जेल नहीं भिजवाया न? वजहें मुराद थीं तो वजहों के उस देवता को अदालत का फरमान सुनाना ही था। अब वजहें नामुराद हो गईं तो नई वज़हों की बिना पर यह नया फैसला आ गया है। इसमें किसी का क्या दोष? इसलिए वे तुम्हें अपने पास क्यों रखेंगे और मैं तुम्हें उनके पास भेज भी कैसे सकता? हम दोनों ही लाचार हैं।…’

‘फिर उस महान हस्ती को ही मेरी सुपुर्दगी दे दो साहेब, जिसकी पलकें घूमते ही उस रोज  मेरे ऊपर अज़ाब के बादल टूट पड़े थे। वे ही तो तमाम क़ानून बनाने-बिगाड़ने वाले हैं, उन्हें किसका डर? उनके ही कदमों की शरणागति में मैं विधाता से अर्ज करता रहूंगा कि उस धर्मात्मा का नहाते भी बाल तक न टूटे प्रभु।’…

‘तुम जानते भी हो कि किसकी बात कर रहे हो? उनके दरबार में तुम्हारे जैसे मरगिलों के लिए कोई जगह नहीं। उनका दरबार तो पहले से ही दुनिया-जहान के मुस्टंडों से अंटा पड़ा होता है। ऐसे ही कोई किसी सूबे का सरदार नहीं बन जाता! बनने के लिए फौलाद का जिगर और बुलेट प्रूफ सीना होना चाहिए, और धूर्तता एवं विश्वासघात के फन में तो समझो कि ‘डोलोस-आपेट’ (छल के क्षेत्र में यूनानी देवता-देवी) के पक्के पुजारी ही।… मेरी शामत आई है क्या जो मैं तुम्हें उनकी शरणागति में लेकर जाऊं? बात समझो, वे भी लाचार हैं और मैं भी। हठ मत करो और न्याय का साथ दो।…’

‘ठीक कहा सरकार! तो फिर मुझे उस बहेलिया के जाले में ही डाल दो कि, जब उसका जी चाहे, मेरे ऊपर अपनें दांत किट-किटाकर और जबड़े किच-किचाकर अपना अफरा उतारता रहे। उसके पिंजरे में ही मैं यहां-सा भोग भोगता हुआ जी तो लूंगा साहेब।’…

‘तुम पागल हो रहे हो। ऐसा कर पाना भी संभव नहीं। बहेलिया लाचार थोड़े होता है कि  एक ही परिंदे से वह बार-बार अपना अफरा उतारता रहे। यहां भी मेरी लाचारी समझो और जेल से बाहर जाने का अपना ठिकाना ढूंढो।’

‘तो हे मेरे तारणहार! तुम इतनी-सी दया कर दो कि मुझे उस घाट ही पहुंचा दो जहां वह नन्ही-सी जान गई हुई है। वह अकेला ही जानती है कि मैं उसका सगा तो नहीं, परंतु सगा से भी बढ़कर भाई हूँ।… और, जो अपने पापी को भी अच्छी तरह जानती ही होगी, इसलिए मुझ बेगुनाह को अपने पास सुरक्षित पाकर वह खुश ही हो जाएगी। मैं भी इन फुज्जार से अपनी रूह अलग कर लूंगा जो किसी की रूह कंपा देने की कला में दुर्धर्ष तो होते हैं, परंतु जिनकी खुद की कालिख पुती आत्मा अपने काले कारनामों से कभी तृप्त नहीं होती।…’

बातें सिर्फ ज्ञान बघारने की हो तो बड़े से बड़े अज्ञानी भी भाड़े के हजार टट्टुओं पर सवार लाखों तर्क-जीवियों को अपने पक्ष में ला खड़ा कर दें। कोर्ट-कचहरी में और होता भी क्या है? मगर, कोई बात जब मर्म को छेदने पर आमादा हो जाती है तो सामने पड़ा आदमी मर्माहत होकर काठ हो जाता है।

काठ हो गया अधीक्षक भी। कठिनाई से अपना सीना पटोलता हुआ बोला, ‘देखो, मैं तुम्हें बीमार बता कर ज्यादा से ज्यादा चार-पांच दिनों तक हास्पिटल में रख सकता हूँ। इसके बाद की भइया तुम जानो और तुम्हारा काम जाने।’…

…परंतु, जो जानने वाली बात हुई वह यह कि जिस दारोगा ने उसके जीवन में अब तक के इतने सारे दर्द दिए थे, दो दिनों बाद वही दवा की पुड़िया लिए भागा-भागा जेल अधीक्षक के पास आ गया। पुड़िया खोला तो अधीक्षक ने देखा कि यह उच्चतम न्यायालय का फरमान है। कैदी नंबर 786 की रिहाई रद्द कर दी गई है। हाई कोर्ट के खिलाफ पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी और अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह कैदी उसी जेल में रहेगा।

अधीक्षक की आंखें फटी की फटी रह गईं। उसने कोर्ट आर्डर लाने वाले को घूरता हुआ पूछा, आप भी ‘व्ही.आई.पी’ ब्रांड का अंडरवियर पहनते हैं क्या?’

सवाल विष-बुझे तीर की तरह सीना चाक करते हुए उछला, लेकिन शातिर के सीने में दिल हो तब तो? वहां तो बस पत्थर ही पत्थर थे; बरछे ही बरछे! इसलिए, उसने अपने होंठ भींचते हुए कहा, ‘यह एक कामन ब्रांड है सर, जिसे बहुत सारे लोग पहनते हैं।’ और आहिस्ता से  बाहर हो लिया।…

मन की मुराद पूरी हुई तो बौधा अपने ठेहुने के बल धरती पर झुक आया। दोनों हाथ जोड़कर आंखें ऊपर उठाईं और मौन साधकर मन ही मन बुदबुदाया, ‘तेरा सौ-सौ शुक्रिया मालिक कि तुमने मुझे फुज्जर होने से बचा लिया। जब तक मैं जिंदा हूँ, यहीं रखना कि यहां से निकलूं तो अपना पाक-साफ दामन लेकर ही तुम्हारे दरबार में हाज़िर हो सकूँ। तुम्हें सब पता है, सबका पता है। बात दीगर है कि इंसान की रूह पर दाग़ हज़ार हों, कफ़न सबके स़फेद ही होते हैं।’

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