वरिष्ठ कथाकार। दो खंड–काव्य। ‘नचिकेता’ तथा ‘तनवीशयामा’ और दो कहानी संग्रह ‘करमजरुआ’ तथा ‘नैनाजोगिन’ प्रकाशित।
सावन का अंजोरिया उस सावन आकाश से टपका तो सीधा लौंगी भूइयां के घर आ समाया!
बंगेठा पहाड़ी के मस्तूल पर ‘झाड़-बिरीछ’ के भीतर से लुक-छिप चमकते भोरुक्का को कुछ देर तक निहार लेने के बाद लौंगी की मां ने बगल में पसरे अपने मरद को झकझोर कर उठाया और कहा, ‘देख लौंगी के बाऊ, बंगेठा पहाड़ पर कैसी तेज-तेज ढिबरी जलत है, और हम दूनों जनें हियां अपन आंगन में रात भर अन्हरिया ओढ़के अजगर लेखा पड़ल हैं!… हाय री म्हारी किस्मत, सब दिन घोंघे बनाए औ सितुए खाए!’
‘अन्हरिया, अजगर और हाय’ के धक्के खाते ही औचक उठ बैठा था लौंगी का बाऊ। घुप्प तो नहीं था, मगर भिनसार की भीनी-भीनी जोत में लौंगी की माई का मुखड़ा हिलते-डोलते पानी में परछाईं-सा दिख रहा था। भोरे-भोर बदरंग बनी, मुंह लटकाई लौंगी की माई!
चेतना आई तो चित्त जाग उठा। समझ गया कि जनम-जनम की दरिद्री आज मगज चढ़ के रगड़ मचा रही है। मगर ‘हाय री म्हारी ही किस्मत’ कैसे? यह तो पूरा गांव ही दरिद्रों का दालान है। पंचम साह को छोड़ दो तो और किसी की तोंद पर छंटाक भर का भी गोश्त जमा दिखता है क्या? और, पंचम साह भी कौन-सा धन्ना-सेठ! नून-तेल-तंबाखू, धनिया-मिरिच-जीरा, गांजा-बीड़ी-सुलफा से लेकर लुंगी-गंजी-कफन सब बांके बाजार से लेकर आता है और मय बाल-बच्चे दिन भर चूतड़ रगड़-रगड़ के इनको बेचता है, तब जाकर दाल-भात-तरकारी खा पाता है! घर-घर देखा, एकै लेखा; तो किसी के भाग्य में लिखे का क्या और किसी की भी गुनाही कैसी? बोला, ‘लौंगी की माई, चमकने दे ढिबरी बंगेठा पहाड़ी पर। म्हारे घर की ललटेन तो म्हारे पास ही सगरी रात जोत बरखावत रही है। तबै तो हम डांगर-मांगर की पूंछ धारे दिनभर गुनगुनात रहै हूँ, चमके चंदा जे मुखड़ा तोहार गोरिया!…’
जन्नी (औरत) जात, सहे तो कब तक? मड़ुआ की रोटी और पोठिया मछली की चटनी। इससे बढ़कर कभी कुछ मिला हो, तब तो जो बात फूरे वही मिश्री की डली या गुड़ के गुलगुले! होली-दिवाली में घिसटुआ पूड़ी और कंदे की तरकारी, खूब हुआ तो ललका साग। तिलासंक्रांत तक में भी चूड़ा-दही, मुरही-लड्डू मुहाल! बरस-बरस लों भात-दाल का दरस नहीं। रसिया-खीर तो चेंगना-मेंगना के लिए बुझौबल ही। मरद लोग तो फिर भी दारु-ताड़ी के साथ कभी-कभार मांस-मछली का चखना चुभला लेता है, मगर जन्नी जात को यह भी नसीब नहीं। यहां तो बाप के घर से जो भी आई, देखते-देखते ही मुंह सुखाकर कंकाल की खोपड़ी हो गई।… ढाका-बंगाल भी जाता मरद तो साल-छौ महीने में मन भर चावल और पसेरी भर दाल तो लेकर घर आता ही। …करमजला …चमके चंदा-सा मुखड़ा …हुंह!
तलवा की आग धधक कर कपार चढ़ आई तो लौंगी की माई ठेहुना पर हाथ धरकर उठी और ढोरिया सांप बनी दिशा-मैदान के लिए सरसराते बाहर निकल भागी।
देखता रह गया था लौंगी का बाऊ, दूर तक, देर तक, तब तक जब तक कि चंदा-सा मुखड़ा बांस-बाड़ी में पैंठकर गुम नहीं हो गया था।… ‘भाग्य का रेख बदलता है लौंगी की माई! जौ-गेहूं-बूंट की दौनी करने तक ही किसान बैलों के मुंह पर जाबी (सुतली से बनी जाली) बांधता है, दाना छूटते ही किसान उसकी जाबी खोल देता है और बैल मस-मस करके अपना लादा भरने लगते हैं। म्हारा न सही तो न सही मगर एक न एक दिन म्हारे लौंगी के भाग्य की जाबी विष्नो जी खोल ही देवेेंगे, आंख पसार के रक्खो। हां, इसके वास्ते उसके कंधों पर मुन्ही-छिटका डाल के उसको गिरह्थ (गृहस्थ) तो बनाना ही पड़ेगा। गिरह्थी का गिआन सब गिआन पर भारी पड़ता है लौंगी की माई!…’
और, सब ज्ञान पर भारी पड़ने वाला यह ज्ञान लिए ही रमरतिया सावन की उस रात अंजोरिया बनके लौंगी के अंगना उतरी थी।
सच का अंजोरिया है यह रमरतिया। कद्दू के कोंपल की तरह कोमल, किसलय की तरह चकमक, तितली की तरह रंगीन, जौ की बालियों की तरह धारदार और महुआ की तरह मादक!
उसकी डोली उतारते ही निहाल हो उठे थे लौंगी के माय-बाप। औरतों की जंघा-जोड़ चर्चाओं में तब उसके नाज-नखरे, भाव-भंगिमा, हास-विलास की कानाफूसी चलती थी। लड्डू तो मन ही मन लौंगी ही फोड़ रहा था मगर चाल-ढाल उसके यार-दोस्तों की बदल रही थी। …बिरसा उसके भाग्य पर जलने लगा था, खोखबा जहां-तहां लुक-छिप कर लार टपकाता, बिसुन्मा लट्टू की तरह रमरतिया की परछाईं का चक्कर काटता तो परगसबा को समझो तो उसकी दुआरी का कुत्ता ही हो गया, जब देखो तब उसकी अगोरी में ही दिखता।
इन परिवर्तनों को देखते-बूझते लौंगी एक बारगी जवान हो गया- पट्ठा जवान! बरगद के धड़-सी हृष्ट-पुष्ट छाती, कटहल की कठोर शाखों-सी बाहें, गंहूं की बालियों की तरह कंटीली घनी मूंछें, महुए की फलीवाली कसी-कसी भौंहें और पहाड़ी माटी की तरह लाल-लाल चेहरा। जवानी खिलती है तो रूप इस तरह ही मोहक और मादक हो जाता है।
लौंगी की जवानी मादक खूब हुई, मगर मदहोश कभी नहीं। कैसे हो जाती? न तो उसने कभी ताड़ी-दारु छुआ और न ही गांजा-सुलफा। खैनी-बीड़ी की बात अलग। इस गांव के लिए खैनी-बीड़ी कोई नशा नहीं है, रिवाज है, बाप-दादों के जमाने से चली आ रही। किसी का आतिथ्य करना हो तो खैनी-बीड़ी – खुशी में भी, मातामपुर्शी के लिए भी। शादी-ब्याह से लेकर मरनी-हरनी की पंचायत तक में। …काम के बोझ से दिमाग का अंजन फेल हो जाए, दुख-दरिद्री से घबराकर मन बौला होने लगे, भूख की मारे पेट की अतड़ी अपना ही मांस चबा लेने पर आमादा हो उठे… लाख दुखों की एक ही दवा – खैनी-बीड़ी! पल दो पल की चैन तो दे ही देती है यह, फिर लौंगी को भी इससे कैसा परहेज!… परहेज नहीं तो सुरूर भी नहीं।
उसका सुरूर है रमरतिया की सीपी-सी आंखें, सूए-सी नाक, भारी-भारी नितंब और कसी-कसी देह। जब से आई है, लौंगी बस इस सुरूर में ही खोया रहता है। गरचे कि वह इस गांव में ऐसी अकेली ही नहीं आई है। और भी कई-कई आई हैं। कुछ तो इससे बीस भी कि आंख खोल के देख लो तो फटी कि फटी ही रह जाएं। मगर इनमें से किसका रंग गुलाबी का गुलाबी बना रहा? किसी का नहीं। ज्वार-बाजरा-कंगनी-मड़ुआ की रोटी, मूस और प्याज-लहसुन का चोखा! खून सुखा-सुखा कर सब काली-पीली पड़ गईं। रमरतिया का भी क्या ठिकाना, चार दिन की चांदनी! आज ढिबरी की जोत, तेल सूखते ही कालिख की फुल्ली!…
‘नहीं, नहीं बनने दूंगा इसे कालिख की फुल्ली! बेसाह (विवाह) कर लाया हूँ इसे। पति का काम पत्नी का रूप-जोवान को भोगना भर नहीं, उसको हुलसाए रखना भी है। वैसा जैसा कि बांके बाजार का बाबू पाल-पोस कर रखता है अपनी जोरू को। दिन भर अपना चूतड़ घीसता रहेगा गद्दी पर, कुछ नहीं जूरेगा तो लदनी लाद लेगा, कोल्हू पेर लेगा, छगड़ा जोत लेगा या दुआरी-दुआरी डोरियता हुआ टिकुली-कंघी-सेंदूर बेच लेगा मगर जोरू को बना-ठना के घर के भीतर ही रखेगा। मरद होता है चल संपत्ति। चल माने चलते रहनेवाला, जैसे कि बैल! औरत होती है थिर। घर बैठने वाली घर की लक्ष्मी। …रतिया भी मेरे घर में लक्ष्मी ही बन के रहेगी, लौंगी को चाहें पहाड़ सर करना पड़े कि धरती फोड़ना…।
रमरतिया के रूप-गुणों वाले अनमोल खजाने की सुरक्षा में लौंगी ने अपनी चिंता की नाव को विचारों के गहरे महासमुद्र में उतार दिया। हर रोज, क्या दिन-क्या रात, नाव समुद्र की धार चढ़कर हिचकोले खाती डूबने-उतराने लगी। पहले सिर्फ रमरतिया ही इस नाव पर सवार थी, धीरे-धीरे गांव भर के उसके जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी, जौत-जयधि सब आ चढ़े। सबकी चेतना एक, सबकी मनसा बराबर। बंगेठा जंगल का पानी हर बरसात पहाड़ से उतरकर कोठिलवा गांव आता तो जरूर है, मगर टिकने की बजाय गांव को ही बहाता-डुबोता बह कर नीचे निकल जाता है। डूब जाती है गांव की आस, डूब जाते हैं सबके अरमान! टिक जाता पानी तो हुलस जाती आस, लहक उठते अरमान। मुदा, वदी का लेखा मेटे कौन? न देश का राजा, न राजा के अमला-फमला। नेता तो काले कब्बों की संतान ही ठहरे, काव-काव उचरते आएंगे और बोटियां निछोड़ के दूर-देस चले जाएंगे। …हाय री किस्मत…!
‘हाय री किस्मत, हाय री किस्मत’ बकते–बकते बाबा गए, बाऊ गए, अब क्या मैं भी चला जाऊं?’ लौंगी की धौंकनी बढ़ जाती है तो छाती पर हाथ धरकर आंखें आसमान में टिका लेता है। अपनी दोनों मुट्ठियां कसकर मीचता है। आखें खोलकर सपने देखता है। राह चलते बड़बड़ाता है, कांख के नीचे लाठी दबाए इंद्र को ललकारता है, बंगेठा पार क्षितिज तक की दूरी को मन ही मन साधता है और फिर न जाने क्या सोचकर अपना गैंती–फाबड़ा पिजाने चल देता है। गांववालों के लिए कुछ दिनों से क्षरमत्तु (अधपगला) होने लगा है वह। किसी के टोकने पर कुछ बोलता नहीं। हहाकार हँसता है और गंभीर होकर कहीं डूब जाता है, ‘अपने पंजों के बूते मैं इस गांव का भाग्य–रेख बदल दूंगा …दुख–हरता, सुख–करता बनूंगा मैं…।’
भाग्य का आदमी के साथ छेड़खानी का रिश्ता है। आदमी छेड़ता है तो भाग्य बदलता है, मगर सिद्धि की ऊंचाई तक पहुंचने के पहले दुनिया इस छेड़छाड़ को ही पागलपन कहती है। गोया, लौंगी भी पागल ही होने लगा है।
छेड़छाड़ आदमी ही नहीं, प्रकृति भी करती है। तुरीयावस्था में पड़े लौंगी को छेड़ने के लिए इस साल की बरसात आ धमकी। सावन लौंगी का सबसे प्यारा महीना। इसके दो कारण, पहला तो यह कि इस महीने ही लाल-लाल राता में टेसू का दहकता फूल बनकर रमरतिया उसके अंग लगी थी और दूसरा कि पानी की फुहार छूटते ही हवा का झोंका तन-मन को तर-बतर कर देता है। रीत रही उमस से बचने के लिए तब लौंगी डाकथान के चबूतरे पर नीम-बरगद की छाया में गमछी बिछाकर घोलटाया रहता है और घर की ओर कान पात कर खटोला पर पैर झुलाते बैठी रमरतिया के गीत सुनता है, ‘सखिया पड़े सावन की झींसी, सैयां संग खेलूं पचीसी ना..।’
मगर, उस दिन ठंढी हवा का झोंका आया तो नीम-करील-करौंदे की झुरमुट में सुस्ताते लौंगी को न तो ठंढई ने रोका और न ही उसका मन रमरतिया के साथ पचीसी खेलने के लिए जागा। सीधा झुरमुट के बाहर निकला वह और अपनी दीठ आकाश में जमा दी। दूर, बहुत दूर से भागे आ रहे काले-घने बादल। आकाश के जंगल में हाथी ही हाथी। कहीं-कहीं तो तीन-तीन सूंडों वाला अरावत (ऐरावत) ही! …तो, आज इंदर महाराज चले हैं म्हारे बंगेठा की सैर पर। रोहणी के निकलते ही मेघ। अति शुभ! मोरी (धान का बिचड़ा) बित्ते भर का हो गया है, लह-लह। बस पानी झरने की देर। ‘सावन बरसे धान हुहाय, घर बैठे किसान इतराय।’ जय हो घाघ-घाघिन की! कैसी मस्त कविताई की है!’
मस्ती में नाचता-इतराता लौंगी घर की ओर भागा। जंगल से घास की गठरी उठाए रमरतिया भी अभी-अभी ही घर आई थी और अलौंत ब्यायी ‘संवरी’ के आगे हरी-हरी घास डाले जा रही थी। बथान चढ़ते ही टोका लौंगी ने, ‘सब संवरी को ही मत खिला रतिया! कुछ म्हारे नंदी को भी डाल। देख, कैसे टुकुर-टुकुर देखे जा रहा है। इंदर महाराज भी फेरे डाल ही रहे हैं। पानी बरसा तो यह नंदी ही काम आवेगा।’
रमरतिया ने दूसरे खूंटे पर बंधे बैल को देखा। बैल मूर्ति की तरह गर्दन झुकाए घास की आस में लार टपकाए जा रहा था। रमरतिया को दया आ गई तो एक पुल्ला घास उसके आगे फेंकते हुए लौंगी से बोली, ‘ले, पवा दिया तेरे नंदी को भी। अब तो खुश। जी भर गया न तेरा भी?’
‘ना रतिया, ना। जब से तू आई है पेट तो नित दिन भर रहा है, मगर जी एक भी दिन नहीं भरा। दो से चार हो गए हैं तो समझो कि घर भी भर गया, मुदा जी कब भरा? भर जाता तो कांख तले फूंस की बिंडी दबाए जंगल नहीं सिधार जाता?’
‘ऐसे कैसे सिधार जाता? सिधार जाने देती तब तो? पंचों के सामने सुपती-मौनी से लावा छींट-छींट कर सात जनम ले साथ-साथ जीने-मरने की सौं खाय हो, अब कहे हो जंगल न सिधार जाओ? जाने देब तबतो? बोल तो शुभ बोल नैय तो मत बोल!’ कमर पर हाथ धरकर हवा में पंजा लहराते साक्षात रुद्राणी बन गई रमरतिया।
जाने कहां से रमरतिया की आंखों में आंसू छलछला आए तो देखते ही लौंगी की मसखरी हवा-हवाई हो गई। सिर झुकाए बोला, ‘धत्त तेरे की पगली! यह भी कहने की बात है री भलामानस। कसम भी याद है और वचन भी याद है। वह तो पछुआ बयार का असर है कि तू सामने पड़ी और मन डोल गया। ऊपर देख, मेघ कैसे उमड़-घुमड़ के मोर-मोरनी बने जा रहा है और जरा-सी बात पर तू आतप मचाय रही है? जरा मेरे मन की भी तो सोच।’
‘सोच ली तेरे मन की, मुदा यह टैम मोर-मोरनी बनने का है नहीं। भारी गरमी के बाद हवा सरसराई है। आसमान काला भुच्च हो रहा है। आंधी-पानी दोनों आबैगें। चेंगना-मेंगना जंगल दिशा गए हुए हैं। डाकथान चढ़के दोनों की हांक लगाय लो।’
हंकार लगाने की जरूरत पड़ी ही नहीं, दौड़ते-भागते बच्चे घर आ गए। पीछे-पीछे पानी की मोटी-मोटी बूंदें भी तड़तड़ा कर बरस पड़ीं।
लौंगी कुछ देर अपने ओसारे में ठिठका रहा। फिर कपड़े उतार कर दुआर के बाहर बीच गली में खड़े-खड़े भींजने लगा। बच्चे ताली पीट-पीट कर हँसते रहे। तन की तपिश जाते ही वह भींगे बदन ही घर के अंदर आया और कंधे पर फावड़ा, कुदाल, टोकरी उठाए बाहर निकला, ‘लगता है पानी अच्छा पड़ेगा। पड़ गया तो ठीक ही है, मोरी तैयार है, कल ही रोपनी कर दूंगा।’
‘पागल मत बनो। आकाश भूरा-भूरा हो रह्यो है। आंधी आबैगी, कौन जाने कि ठनका ही गिरे! पहलौठ बारिस में सम्हल के रहने का। कोई नहीं निकल रहा, तू भी मत जा आज।’
शुभग्रहों की अनुकूलता। सावन का पहला दिन और बारिश की पहली खेप। अरमानों के पंख और हहाकर दैवी योग बरसाता आसमान। कैसे रुकता लौंगी! नहीं रुका। सरपट भागा अपने खेत की ओर। बिजली भरदम कौंधती रही, ठनका ठनकता रहा, बादल फट कर गिरते रहे। लौंगी के सपने नहाते रहे, फावड़ा चलता रहा, मेड़ बंधते रहे। काम पूरा हो गया तो वह इस मेड़ पर ही थूसड़ कर बैठ गया और चारों ओर नजरें घुमा-घुमा कर अपने खेत को देखता रहा- खेत लबालब! फिर, उठा और हसरतों, अरमानों, उम्मीदों और उमंगों को अपनी पलकों पर बिठा कर मगन मन घर के लिए चल दिया।
‘कल ही धनरोपा हो जाएगा रतिया! लगता है कि इंदर महाराज मेहरबान हैं, खेत लबालब भर जाएगा।’
दूसरे दिन अल्ल सुबह जागा। मवेशियों की नाद में सानी डाली, खली-भूसा से भरकर। एक बैल अपना, एक बैल चाचा का। चाचा खेत सहोरने नहीं गए तो उनका खेत खाली ही रह गया। खेती-बाड़ी में आसकत (शिथिलता) ठीक नहीं। …हल की नास-फाल बांधकर रात में ही ठीक कर ली थी उसने।
पगहा खोल कर बैलों को पुचकारा, उनके कंधों पर पाल डाला, अपने कांधे पर हल उठाया और बच्चों को फावड़ा-गैती-टोकरी लेकर पीछे-पीछे आने की हिदायत देकर धीरे से बैलों की पूंछ उमेठ दी। बैल तो इस इशारे के इंतजार में थे ही, इशारा मिलते ही पूंछ उठाकर भागे तो सीधा अपने खेत आकर ही रुके।
मगर यह क्या! भाग्य ने फिर वही छल किया! खेत में एक बूंद भी पानी नहीं। भीतर से उछलकर कलेजा बाहर को हो आया। हे भगवान! माथे का लोथ हथेलियों पर उठाए वह वहीं धड़ाम हो गया! बैल टुकुर-टुकुर मालिक को देखते रह गए।
घर आया तो रमरतिया को देखते ही आंसुओं की धार फूट पड़ी। रमरतिया की आखों के आगे भी तिरमिरे उड़ने लगे। तमतमा उठी वह, ‘ई तो इह गांव में हर साल होता है जी। आज कोय अनखा तो हुयो नहीं कि ककड़ी लेखा फटे जात ओ? अब लों जो नहीं मरयो तो ई साल धान नय होने ते मर जाओगो जो जन्नी जात तरे लोर बहा रहे ओ? ई दरद तों हियां सब कोय का अय, औ’ सब दिनन का बी अय। …उठो। जायके मुंह-हाथ धोय लो औ’ टुकड़ा-तिकड़ा जो भावे, खाय के आराम करो।’
आत्मिक सुख के आगे भौतिक दुख की कोई मुराद नहीं। रमरतिया की बात से लौंगी के आहत मन को अपार शांति मिली। सच ही अर्धांगिनी दुख-सुख की साथिन होती है। …ठेहुना पर हथेलियों को साध कर एक लंबी आह खींचते हुए उठा और कंधे पर गमछा डाल कर नीम पेड़ के नीचे जाकर पटा गया।
मन अगर रीता हो और इस खाली जगह में समाकर किसी जिद्द ने अपना बसेरा बना लिया हो तो क्या इंसान और क्या हैवान, दोनों की करतूतों का भान भगवान को भी नहीं होता। बड़ा निरंकुश होता है इस सूने मन का स्वाभिमान…। पड़े-पड़े उसने ऊपर उड़ रहे बादलों को धिक्कारा, बादलों पर सवार गुमनाम देवताओं को ललकारा, बादलों के उस पार जा छिपे अपने कुल के देवताओं और प्रेतात्माओं को साक्षी बनाया और मन ही मन ठान लिया कि जब तक पहाड़ से पानी उतारकर कर वह इस गांव की प्यासी जमीन को तृप्त नहीं कर देगा तब तक इस धरती से उसकी काठी उठेगी नहीं, यमराज को चाहे कितने ही दिनों की प्रतीक्षा क्यों न करनी पड़े! और, जब वह उठेगा तो उसका पिंड-दान उसके बच्चे अपने खेत के चावल की खीर से ही करेंगे। …किसी भागीरथ के नए अवतार का निश्चय था यह, किसी नचिकेता की ललकार की अनुगूंज थी यह, एक आत्मनिष्ठ पागल का संकल्प था यह।
जैसे-तैसे करके उस साल का वर्षा ऋतु बीत गया। पूर्वा निकलते ही एक दिन लौंगी भोरे-भोर उठा, नहाया-धोया, घर की पिंडी के आगे शीश नवाया और गैंती-टोकरी उठाकर गौरी गनेस सुमिरते घर के बाहर हो गया। कहां गया, कोई अता-पता नहीं। बच्चे-बीबी दिन भर हैरान!
शाम को घर लौटा तो दिन भर का चक्करघिन्नी बना परिवार टूट पड़ा उसपर। ‘कहां गैल रह, बिन बतौले? तापर कि चपड़ा-कुदाल लय के? ऐसन कौन काम आन पड़ल कि खटिया से उठल और फुर्र-सा उड़ गयल? सोचल भी नाहीं कि बाल-बच्चा बौला लेखा कहां-कहां खोज मचा रहल होहियन!’
‘काम पर ही तो गया था रतिया! मगर कौन काम पर, अभी मत पूछ। तोला-मासा भी काम संवर जाय तो बता दूंगा। अभी तो बस सिरगनेस ही करने गया था, करके आ गया। …भूख लगी है, कुछ हो तो ले आव, पेट चरमरा रहा है।’
रतिया न गुसाई, न मुसकाई। एक गहरी आह भरकर उड़ती-उड़ती निगाह से उसे देखा और भनभनाते हुए भंसा से रोटी-तरकारी उठा ले आई।
रात आते-आते रमरतिया का गुस्सा ठंढा पड़ गया। लौंगी भी अपने बदन पर तेल मालिश करके हाथ-गोड़ सीधा कर चुका था। बच्चे सोने के जतन में जुट गए थे। ढिबरी जल रही थी। ढिबरी की रौशनी में लौंगी ने रमरतिया का मुंह ध्यान से देखा। वह धूप जले फूल की तरह मुरझाई हुई थी। गाल आंसुओं से भींगे हुए…। लौंगी उसके और नजदीक आया, लगभग सटता हुआ और उसके गालों पर आहिस्ता-आहिस्ता अपनी उंगलियां फेरने लगा। रमरतिया निश्चल ज्यों कि त्यों पड़ी रही। लौंगी कुछ धीमा पड़ते हुए झीने सुर में बोला, ‘तू अब बी गुस्से में है, रतिया?’
‘नहीं, मगर बिन बताए तू इह तरह गुम हो गयो, मय बाल-बच्चे हम दिन भर चार कोस की चक्कर काटती रही, थक-हार के डीहवाल के आगे कपार पीटन लगी, तो तू ही बताओ कि हमके की करबा के चाहीं- गुस्सा ई तो?’
‘जायज कह रही हो रतिया, सौ फीसदी जायज। मुदा हम भी कहीं अकारथ नहीं गए थे। एक शुभ कारज पर गए थे। बिन बताए निकस पड़े, यह गुनाह किया, मानता हूँ। मुदा जाते समय कोई टोक देवे है तो सगुन बिगड़ जाबे है, इस बास्ते ही चुपचाप निकस गया।’
‘कौन काम? अब तो तोहार सगुन ना बिगड़ी, बता द।’
‘बहुत दिनन से मोर सरधा रहे कि तू, तोहार बच्चा, और हमार ई गांव के सब कोय दूसर गांव के लोगन तरी जीवें। मड़ुआ, मकई छोड़ के सुमन अनाज उगावैं, खाबैं। मुदा आज तक हमार भाग में ई हुआ नहीं। औब्ब्ल तो कभी ठीक से पानिए नहीं पड़ता है और अरसात-बरसात में पड़ भी जाता है तो बगेंठा जंगल से धार लेके मोसल्लम बह जाता है। मुट्ठी बंधी की बंधी रह जाती है और रेत चू के निकल लेता है।’
‘मगर ई तो हई गांव जे जनम–जनम जे रिवाज है। एकरा खातिर तू का करबा?’
‘करूंगा रतिया, करूंगा, गर तू जो साथ दो। पहाड़ का पानी ऐसे बांधूंगा जैसे रास डाल के किसी बिगड़ल बैल को बांध देता हूँ। और, फिर पहाड़ से उतार के उस पानी को अपने गांव तक लाऊंगा, अपने खेत तक, सबके खेत के बास्ते। …लहलहा उठेंगे खेत, धान और गेंहूं से भर जावेगी कोठी। हां, ई काम एक दिन में नहीं होएगा मगर एक दिन जरूर हो जावेगा…।’
लौंगी के एक-एक शब्द उसके विश्वास के गहरे कुएं से लावा बनकर निकल रहे थे। रमरतिया ने आज के पहले उसे इस हद तक उत्साहित होते नहीं देखा था। उसकी नाभि से उठ कर उसकी आवाज आज अंधड़ की तरह प्रचंड गति भर रही थी। सुन-सुन कर रमरतिया की इड़ा-पिंगला झनझनाने लगी, फिर भी उसे उसके कहने में रंच मात्र का भी मिथ्याभास नहीं मिला। एक अविश्वसनीय होनी के हो जाने का विश्वास था यह। अपनी ही छाती में नेजा भोंक कर दूसरों की आत्मा तृप्त कर देने का संकल्प था यह…।
नया उत्साह, जिद्दी प्रेरणा! पहाड़ से गंगा को अपने गांव उतार लाने की इस संकल्प-सिद्धि के लिए वह नित दिन अल्लसुबह उठता, रात की बासी रोटी और नून-प्याज को गमछी में बांधकर कलेवे की पोटली बनता, कंधे पर गैंती-टोकरी धरता और चल देता बंगेठा जंगल की ओर। पूरे दिन भर बस पत्थल ही कूटता और शाम होते घर-मुंहा सहेर (मवेशियों का झुंड) के पीछे-पीछे डोरियाता हुआ घर लौट आता । रमरतिया रोज पूछती, ‘कुछ हुआ?’, जवाब देता, ‘हो जाएगा।’
‘हुआ’ और ‘हो जाएगा’ का फर्क करनी और कथनी के बीच का फर्क होता है। ‘करनी’ हुआ होती है, ‘कथनी’ हो जाने का बखान करती है। ‘करनी’ आश्वस्ति है, ‘कथनी’ भ्रम भी हो सकती है। भ्रम ही इस संसार का माया जाल है जिसमें रमरतिया ही नहीं, पूरी दुनिया भरमती रहती है।
‘हो जाएगा-हो जाएगा’ कहते-कहते चौमासा निकल गया। जब हो जाने को लेकर तिल भर का विश्वास भी नहीं रहा तो अपनी ही जान और अपना ही खून लौंगी से मुंह फेरने लगे। ‘बाप बैल होता है और बेटा किसान। बैल पर किसान का हक होता है, किसान का पेट भरने के लिए श्रम करना बैल का कर्तव्य है। …अपनी ही औलाद की भूख-प्यास को परे करके बाप महीनों से दुनिया भर की फिक्रमंदी उठाए घर के लिए बोझ होने लगा है तो ऐसा बाप रहे कि जाए ! …कहां तो धान और गेंहूं से कोठियां भर देने की बात करता था, बांके बाजार जा करके अनाज के बदले बिछिया और नथुनी गढ़वाने के सपने दिखाता था और कहां अब पहाड़ तोड़ने और जंगल खोदने की झक्ख लिए दिन-रात पागल बना फिर रहा है। घर में भूंगी भांग तक नहीं बची और दिमाग पर चढ़ आया है ताल-तलैया!’
रमरतिया पानी भरने जाती तो कुएं की जगत पर बैठी पनिहारिनों या कमर और माथे पर मट्टी के घड़े उठाई मटकती लुगाइयों के बीच सिर्फ लौंगी ही चर्चा में होता। कोई कहती सनकी है, कोई कहती कूढ़-मग्ग्ज है, कोई अधपगला कहती तो कुछ ऐसी भी थीं जो उसपर तरस खाते हुए कहतीं कि है तो दिल का भला, सब दिन सबके भले का ही सोचता रहा, आज भी सोच ही रहा है। परंतु, धुएं की रांड गांव की सबसे जवान सबकी सासू मां सूखनी कहती, ‘मैं तो लौंगी को अपने गौना से ही देखती आ रही हूँ, है तो बेहद होशियार और परमारथी भी मगर मेरी मानो तो इन दिनों उसके सिर पर शैतान की छाया मंडराने लगी है! बंगेठा का जंगल तो है ही भूत-पिशाच, डाकिन-शाकिनों का अड्डा। यहां दिन दहाड़े नंग-धड़ंग प्रेत नाचते-विचरते रहते हैं, कौन नहीं जानता? बगुलबा की माई कहां की सीख है? परसाल शुकरहट की नौमी को जोसी बाबा भरी सांझ माथा पर दीआ धरके उसको नंगे नाचते नहीं देखे थे…?’
सब की सब औरतें पेट से ही ज्ञान लेकर पैदा हुई मिसालें थीं और तरह-तरह के बारीक ज्ञान बघार रही थीं। बेचारी रमरतिया सबकी सुनती और चुपचाप रहती, कभी आंसू चुआकर तो कभी सर झुकाकर। जब दैव ने यह दिन दिखा ही दिया तो किसी और का क्या? ताना मारें या बदकलामी करें! मगर, इन तमाम बातों में सासू मां की बात, कि लौंगी के सिर पर कोई शैतान सवार हो गया है, सबसे जायज लगती।
जो उसे सबसे जायज लगी, उसके मतलब और समाधान जानने के लिए वह सूखनी चाची के घर जाकर उसके माथे की जूं हेरने (निकालने) लगी। सूखनी चाची सब कुछ सुनकर भी बहुत देर तक चुपचाप रही। चाची चुप रही और बहू जूं बीनती रही। जब जूं नहीं रहे या बीनते-बीनते बहू का सब्र ही जवाब देने लगा तो चाची बोली, ‘कनिया! यह तो पूरा गांव महसूस कर रहा है कि लौंगी हाल-साल से कुछ उलूल-जलूल करने लगा है। ऐसा नहीं था वह मगर अब हो जरूर गया है। …घर का बेटा है तो कुछ इधर-उधर की कहूं तो आकवत बिगड़े। चार दिन की जिनगी बेटा, किसी की रोयां जलाने का क्या फायदा? मगर मेरी मानो तो वह किसी गंदी छाया की चपेट में है जरूर, नहीं तो दिमाग का सही आदमी गैंती से पहाड़ सर करके नदी-नाला बना लेने का ऐसा झक्ख पालेगा क्या? …उसकी चाल-ढाल देखकर लगता है कि अभी कोई छोटा-मोटा प्रेत उसको काबू में करके उससे मनचाही करबा रहा है। मगर, गर जो कोय ब्रह्म-पिशाच के पल्ले वह पड़ा तो समझो कि उसका तो सब कुछ स्वाहा करके ही छोड़ेगा! फिर तो लौंगी को अपने हाथ से निकला ही समझ लेना।’
दहल गई रमरतिया। चाची की बोली बंदूक की गोली की तरह उसके कलेजे में आ धंसी। न निगले का और न ही उगलने का। ‘गेंठी बांधकर जिसके पीछे-पीछे बाप का घर छोड़कर उसकी होने को आ गई, भरी जवानी उसने ही दगा दे दिया! दो बच्चे घर में निठल्ले बैठे हैं, अभी आंखें भी नहीं फूटीं उनकी, तीसरे को पेट में साज कर ढोए फिर रही हूँ कि ऐन बखत पर बज्जर पड़ गया, हे विशुन महाराज!’ कांपते हुए पूछी, ‘मोर तो किसमतबे दगा दे गई चाची, अब तूही बताब कि का करीं?’
‘सबसे पहले तो दुआर के ऊपर एक काली हाड़ी लटका दो और उसके नीचे रेंगनी का एक छोटा पौधा गाड़ दो। इससे तुम्हारा घर-परिवार बुरी नजर से बचेगा। फिर काले कपड़े में रेत और एक दाना हींग भरकर छोटी-छोटी पोटली बना करके इसके ऊपर लहसुन के दो-दो दाने राकस के दांत की तरह पीरो लो, और एक-एक पोटली सबकी कमर में बांध दो। हो सके तो एक लौंगी के कमर पर भी बाँध दो मगर उसका प्रेत उसको ऐसा करने देगा नहीं।’
‘तो, उनके खातिर का करों माई? असल मामला तो उनखे न फंस गया है?’
‘उसके लिए तुमको एक ओझा बताती हूँ…। बंगेठा पहाड़ पर डांट काली के मंदिर के पीछे वह एक चौखड़ा बनाके रहता है। भरी जवानी घर-दुआर का मोह-माया त्याग करके श्मसान की सिद्धि करने निकल गया था। देखने में अब भी पूरा धाकड़ ही समझो और बात का भी रसीला। एक दासी भी साथ में रक्खे है, मगर है पक्का सीख! मांस-मछली, दारु-ताड़ी सब खाता-पीता है, धुत्त अघोरी…! बांके बाजार के कई-कई सेठ-सेठानी उससे अपना झाड़-फूंक करवाते रहते हैं। मेरी मानो तो तू सीधे उसके पास ही जाओ और साध लो उसको।’
किसी को साध लेना दिल के लिए जितना सम्मोहक है, दिमाग के लिए उतना ही कटू और प्रक्षोभक भी। इस नई साध की युक्तियां सोचते-विचारते पूरी रात कट गई। अपना धीरज तो साथ छोड़ ही चुका था, मगरमच्छ की तरह मुंह फाड़े दिन निकला तो रमरतिया बंगेठा के जंगल की तरफ अपना मुंह करके भागी। भागते-हांफते सिर चकराने को हुआ तभी उसका अपना ‘पगला’ दिख गया। कील-करील-आक-नीम की पिशाची छाया में दनादन गैती मारते पगला लौंगी! लात-लताड़ खा कर आठ-दस दिन पहिले घर से निकला था सो आज तक लौटकर घर की चौखट नहीं चढ़ा। कौवा-कुकुर बने कुछ लोग उसकी यह भूतखेड़ी देख भी रहे थे…। पहाड़ से निकाला हुआ एक लंबा-सा नाला भी दिख गया उसे…।
नाला देखते ही रमरतिया की आंखें फटने लगीं। एक अकेला आदमी अपने ही बूते पहाड़ कैसे काट सकता है! सरकार बहादुर हजार बेलने बेल कर भी गांव में तरीके की एक नाली नहीं बना पाती, पर यहां तो हमारा मरद एक पहाड़ ही ढहाए जा रहा है…! भूतखेड़ी ही है यह, अनहोनी! ब्रह्मपिशाच की लीला! पागल बना दिया म्हारे लौंगी को। हे बिशुन रक्षा करो…!’
रतिया की आखें मुंद गईं। मुंदी आंखों में सपने आते हैं। लौंगी का सपना रमरतिया की आंखों में उतरने लगा। ‘देख रतिया, पहाड़ अब सर होने लगा है। देख, कैसा बंधता जा रहा है यह। …देख, अपनी खुली आंखों से देख, नाला बनने लगा कि नहीं? …इंदर बरसेंगे तो नाला भरेगा। गांव में तालाब होगा, आहर होंगे, पोखरे होंगे। अगली बरसात सब लबालब हो जाएंगे। आहर का पानी बह कर खेतों में जाएगा। खेत लहलहा कर हिलोर उठेंगे…।’
भाग्य का बिहँसना देखते ही रमरतिया की आखें खुल गईं। आंखें खुलते ही यथार्थ का कंकाल दांत किटकिटाने लगा। दांत किटकिटाते ही भूत-भविष्य सब थर्रा उठे । …उसे उस अनजान शक्ति पर क्रोध हुआ जिसने प्रेरित करके उसके पति को इस असंभव काम में झोंक रखा है। उसे अपने पति पर दया आई जो कई-कई दिनों से भूखे-प्यासे रहकर इस काम पर भूत की तरह पिला हुआ है। उसे उस निर्माण पर स्नेह आया जो उसके पति के संकल्प का प्रतिफल बनके सारी दुनिया के सामने उजागर होने जा रहा है। मिलाजुला कर उसके भीतर एक भयानक बवंडर-सा उठा जो उसे अपने अतिरेकी पति की दुष्ट आत्माओं से रक्षा के लिए सासू मां के बताए ओझा की ओर ले उड़ा…।
…मिल गया ओझा! खुश हो गई रतिया उस अश्वत्थ वृक्ष को पाकर जिसकी छाया मिलते ही सारी दुश्वारियां एक झोंके में ही मिट जाएंगी। वांक्षित को पाकर एकबारगी ही नार से गुलनार हो गई रमरतिया…! खुबसूरत, नौजवान, रंग जामुनी, नाक-नक्श भैरू बाबा की तरह गोल-मटोल, मुंह हँसी का फौब्बारा! …सम्मोहक! बिशुन जी की तरह ही भोला-भाला यह ओझा!
रमरतिया ने विपदा सुनाई। ओझा ने संपूर्ण निवारण का वचन दिया। काली–कराली को प्रसन्न करने के लिए आवश्यक सामग्रियों की फेहरिस्त बताई, ‘पांव भर पीली सरसों, चार आहर की माटी, पुष्प, घी, दीप, लोवान, मिर्च की गुंडी (पाउडर) और कुछ फल।… तीन रात तक तंत्र–सिद्धि होगी, बिलकुल एकांत में। इजान को छोड़कर किसी की परछाई तक नहीं। इजान रमरतिया होगी तो उसे साधना के समय एकछिना वस्त्र धारण करके बैठना होगा। खाने में दोनों शाम मांस–भात और अर्घ्य के लिए दारू…!’
कैसी विडंबना है कि जो शुभ है वही अशुभ जान पड़ता है! ‘बाकी सब तो ठीक, मगर जवान औरत का पट्ठा पुरुष के साथ अकेले में रहना? वह भी दारूवाज के सामने एकछिना वस्तर में! ऊपर से मांस-भात-दारू। मांस-भात की वांछापूर्ति के लिए ही तो मेरा मरद बौड़म बन कर जंगल खोद रहा है। इतनी जुर्रत जो होती तो इसे ही अरजने का यह भूत उसपर सवार काहे को होता? औ’ दारु! जिसको कि उसने आज तलक मुँह पर नहीं धरा। बाप की किरिया में जात-पंचायत दो धार ताड़ी चुलाने को कहता रह गया मगर मेरा मरद टस से मस तक नहीं हुआ और हम उसी साधो मरद का दिमाग ठीक करवाने के लिए ई सब इस अघोरी के सामने परोस के रख देऊँ? दारू भी औ’ अपना तन भी…! कोई ओझा-गुनी नय है ई। ई अघोरी है, अघोरी! …बात करता है तो कनखी से निहारता है। गुंडा है। करमों की मारी हत्भागिनों की इज्जत से खेलता है। रंगीन मिजाज है यह। …लूटेरा है। बदनसीबी में फंसी औरतों पर पानी-भभूत फूंक कर उसका सब कुछ लूट लेता होगा।’…झटका खा कर एकबारगी ही खड़ी हो गई रमरतिया।
‘तो कब पधारूं मैं, बता?’ संसय में पड़कर पूछा ओझा ने।
‘जब कहब, आ जइयो।’
‘कब कहोगी?’
‘अच्छी तरे सोच लेब तब।’
‘मगर चौदस कल ई अय। डाकिन-शाकिन को मुट्ठी में करके उससे मनचाही करबा लेबे का मुहूरत…। सरेजाम जुटाबे में कोई परेशानी है तो, बताओ। हम सब जुटा देबेंगे, मगर मेरी मान ले, ई शुभ महूरत हाथ से मत जाबे दे।’
‘तू, कल ई खोज-खाज के अपने पास जुटा के रख लियो अपनी डाकिन-शाकिन। हम जब अपना महूरत अपने से सोंच-सांच के तय कर लेब तब तोहरा के बोलायब, तू आ जियो।’
‘तोरा नसीबे फूटा है कि नागिन तरी जहरीली बात बनाय रई ओ।’
‘फूटा नय होता तो आती ई काहे को तोरे पास ई तरी जहर पीने…?’
किसी की जुबान की सुनकर या किसी की आंखों को पढ़कर इंसान को परख लेने की हुनर पैदा नहीं होती, जन्मजात होती है। परख ली ओझा को तो उलटे पांव भागी रमरतिया। ‘जो होयगा घर में होयगा। औरत हौं तो मरद को सुधार लेबे का धीरज भी धरना होयगा। नय फंसना अय किसी के चंगुल में…।’
दो-चार दिन ही बीते होंगे कि एक दिन गोधूली की बेला में पशुओं के पीछे-पीछे लौंगी भी अपना घर आ गया। आया, और बिना हँसे, आवाज वगैर ऊंची-नीची किए पत्थर-सा चेहरा लटकाए पूछा, ‘घर का सब ठीक-ठाक तो? बाल-बुतुरु कहां गए? …तोहार तबीयत तो ठीक…?’ ढेर सारे सवाल! जैसे कि वह इस घर से गायब होकर नहीं गया था, देस गया था कमाने और कमा-कजा करके परिवार की फिक्रमंदी लिए लौटा है।
रमरतिया ने एक बार मुंह उठाकर उसे देखा तो रुई लगी आग की तरह लहक उठी! ‘बोल तो ऐसे रहा है जैसे बीघा भर खेत चास करके आ रहा हो। दूचिता जनानी और दू-दू गो बुतरू को टुअर-टापर तरी छोड़ के पहाड़ पीटने निकल गया था और अपना ही सीना कूट करके अभी-अभी घर लौटा है। चेहरा कैसा हो गया है, चीबी हुई केतारी की तरे!’ औरत है, आंखों का पानी पचा लेती है मगर आंचल का दूध बरसाए बिना जी कहां सकती!
इतने दिनों बाद घरवाली ने जब अपने आदमी का रूप देखा, बिगड़ा हुआ ही सही, तो देर तक फटी-फटी आंखों से देखती ही रही! ‘फकत म्हारी ही फिकर में तो ई हाल कर लिया है इसने अपना, कि इसके भी बाल-बच्चों को अच्छा खाने को मिले और बढियां पहनने को। आदमी की शक्ल लेकर जंगल गया था और अब भालू की शक्ल लेकर घर लौट आया है! धूर-गर्दे से सने बालों की लटकती जटा। लंबे नाखून। बेजान खाल और चमकते दांतों की जगह हरदी-सने दांत। कपड़े चीकट। पेट में दाना भी गया कि गाल का मांस ही चीबाता रह गया इतने दिनों तक, कौन जाने?’
सोच-सोचकर माथा चकराने लगा। ‘है तो म्हारा ही मरद, जो आज तक गलत नहीं हुआ सो आज कैसे हो सकता? म्हारी जान के लिए जिसने अपनी जान की परवा नहीं की उसकी परबा ई हाल में हम ना करूं तो हमसे पातक होयगा कौन?’ …सोच बदली तो मगज पर सवार लहर चट-सा गिर कर धूल में जा समाई, तलवा तक में रुकने की गुंजाइश नहीं! सच है कि बीबियाँ अपने शौहर के हौसले बुलंद करके ही जीती हैं!
रात हुई। मुद्दत के बाद सुख-चैन वाला निवाला सामने आया तो कब चट हो गया, पता ही नहीं चला! ढिबरी बुत गई तो अंधेरे में ही लौंगी रमरतिया को टकटकी लगाकर देखने लगा।
आंखों की सूई नेजा से भी ज्यादा तेज गड़ती है। गड़ी, तो रमरतिया अपने जाने-पहिचाने घर में ही अंधों की तरह दोनों हाथ से बाएं-दाएं छूते हुए ओसारे की ओर बढ़ती गई। अचानक उसे चौखट की ठोकर लगी । वह ‘आह’ निकालती, इसके पहले ही लौंगी बाज बना उसे अपने अकबार में भर लिया, ‘यह क्या कर रही हो रतिया, मैं इतना बुरा हो गया कि तुम घड़ी-आधघड़ी भी म्हारे साथ बैठ नहीं सकती? न बैठ सकती तो न सही, मुदा ई तरे पागल बनके गिरने-मरने की कौन दरकार? दोजानू हो, अपने बच्चे का तो खियाल कर लेओ।’
रमरतिया लौंगी के कान में अपना मुँह लगाकर बुक्का फाड़कर रो पड़ी। ‘दोजानू होने से तो अच्छा ओता जे पहले ही बेजान ओ गई ओती। म्हारे पत्ते पर एक ई तो ढेला पड़ा था, मुदा करम-गति से वह भी विलाने लगा। अब यह पत्ती हवा में उड़ जाए कि पानी में गले, किसी को क्या लेना-देना? तू तो ठहरा अपने ई धुन का पक्का, बोल का सच्चा औ’ जिद्द का मारा! जिस गांव के लिए तू ई तरह पगलाल हुबे ओ, ओही गांव मुज पर ताना मारता अय। तोको पगला, बौड़म, सनकी, मूरख का कुछ नहीं कहता अय। औ’ जब कहता अय तो हम चुपचाप अपनी अचरा में अपना मुंह छुपाय के सिसकी भरत अंय, माथा पीटत अंय!’
लौंगी चुपचाप सुनता रहा। सुनता रहा और मुस्कराता रहा। ‘कौन किसपर ताना मारता है और कौन किसका ताना सहता है, यह तो समय-समय की बात है रतिया। रही बात मेरे पगला होने की, तो जान लो कि बुद्धिचक्र में फंसा हुआ हर इंसान मेरे तरह पगला ही होता है और जब तक वह अपनी मंजिल पा न ले तब तक उसका मन उचित-अनुचित, कर्म-अकर्म, व्यवहार-अव्यवहार में उलझ कर फड़-फड़ाते भी रहता है । हां, जब मंजिल मिल जाती है तब यह दुनिया रास्ते का सब कुछ भुला देती है। कितना आसान है भुला देना और कितना कठिन है याद रखना।’ …मुस्कराता रहा और सोचता रहा मगर जुबान से जो बोला सो यह कि दुनिया की बात पर मत जा रतिया। इस बरसात जो हम इंदर को साध कर नहीं देखा दूँ, तो तू भी मुझे पगला ही कहना…। सिरगनेस हो चुका है। तीन डाबर बंध चुके हैं, डेढ़-दो सौ कदम नाला भी खोद दिया हूँ… बस, इस बरसात तक धीरज धरो।’
मान गई रमरतिया। मान गई कि ‘लीलार पर खिंचा तकदीर की ए पथरीली लकीरें लौंगी के अकेले की नहीं हैं, अधअंगनी (अर्धांगिनी) हूँ तो ये लकीरें मेरी भी हैं। नसीब खोटा तो दोनों का, तकदीर मोटी तो दोनों की। सत्कर्म कर रहा है। उस ओझा की तरे कुमार्गी नहीं है। शुद्ध-बुद्ध है। करम का फल मिल के रहेगा, आज नहीं तो कल। धीरज धरना होगा बीच धार में उसे अकेला झोड़ देना पाप है, साथ-साथ जीना औ’ साथ-साथ मरना होयेगा।’
अगले कोई आठ-नौ महीने के अविश्रांत श्रम से बंगेठा के जंगल में पहाड़ की तलहटी पर चार-पांच पोखरे बंध गए! लगभग आधा कोस की नहर भी खुद गई और अगले साल की बरसात आई तो ए पानी से भर भी गए!
लबालब पोखरे और उताल नहर को देखने की उछाह और उमंग में भरकर लोगों का कारवां जंगल में चहुंदिस उमड़ पड़ा! औरत-मर्द-बच्चों की तो छोड़िये, गांव भर के ढोर-डांगर भी बथान में आगे पड़े चारों का सूखा कतरा बथान में ही छोड़कर भागे। जंगल भर के कौवे-कोयल-तितिर-बटेर, सब के सब नहर के पानी में पंख पसार कर नहाने के लिए आतुर-बातुर हो उठे। हद तो तब हो गई जब जंगल के सियार-सियारनी भी नए-नवेले सोते का बहता पानी चखने के लिए चांद निकलने का इंतजार करने लगे, कि लोग-बाग अपने घर जाएं और वे पति-पत्नी पूरी रात हुड़दंग मचाएं!
मगर अचरज की बात है कि आदमी की कसौटी इंसानी मंसूबा नहीं, बेमानी वाली हैसियत है! भूखा-प्यासा जिद्दी लौंगी अपनी जान से भी प्यारी पत्नी और बच्चों को भूखा-प्यासा, रोते-कलपते छोड़कर जब पत्थल पर अपना सिर फोड़ रहा था तब लोगों ने उसे पागल कुत्ता, जंगली सूअर, कमअक्ल, सनकी, झक्खी, कुलबोरन और न जाने क्या-क्या नहीं कहा! अब जब उसका मंसूबा सबों पर भारी पड़ रहा है तो सबके बोल उलट गए हैं! अब वह कर्मवीर है, योद्धा पुरुष है, परमारथी है, तपस्वी है, सिद्ध है ‘कैनाल मैन’ है…!! जो भी हो, दुनिया जितनी चाहे, जितनी बार चाहे, अपनी मान्यता बदलती रहे, जो चाहे कहती रहे। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ जो नहीं बदलता, जो कहता नहीं सिर्फ करता आया है और ताउम्र करता ही रहेगा वह ही ‘लौंगी’ कहलाता है; कहलाता भी रहेगा!
प्रमाणित बात इतनी भर है कि बीते तीस वर्षों में वह अकेले अपने बूते ही पांच कोस से ज्यादा लंबी नहर और अपने गांव बंगेठा में अब तक आठ बांध बना चुका है, न किसी दूसरे की मदद, न किसी का सहयोग। सरकार तक का नहीं! उम्र पैंसठ पार की है, लेकिन हौसला वही है। निर्माण अभी भी चल रहा है, चलता रहेगा तब तक जब तक लौंगी की बाहों में जोर है, जब तक उसकी सांसें चल रही हैं…! मेरी जगह आज यहां दुष्यंत कुमार होते तो अपनी तबीयत का धनी इस कर्मयोगी की शौर्य-गाथा गाने के लिए इतनी जगह बर्बाद नहीं करते। एक बार अपने मिजाज पर वे फिर से उतर कर कहते, कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों..!
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