पत्रकारिता और जनसंचार के क्षेत्र में विपुल कार्य।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के पाठ्यक्रम समन्वयक।हालिया प्रकाशित पुस्तकें, ‘कजरी लोक गायन’ और ‘संचार, शोध और मीडिया’।
कहानी सुकेश और शुचि की है।दोनों अपने समय से जूझते हुए जिंदगी को बेहतर बनाने में लगे रहते हैं।सुकेश लेखक है और किसी डिग्री कॉलेज में गेस्ट फैकल्टी है।कहने को गेस्ट फैकल्टी है, पर कॉलेज में पूरा समय देना पड़ता है।लोग यही समझते हैं कि वह स्थायी प्रोफेसर है।सुकेश इस बात का आनंद तो उठाता है, लेकिन कई जगहों पर वह अपनी स्थिति बताने से भी नहीं चूकता।अच्छा वक्ता है, सो उसे कई जगहों पर व्याख्यान या भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता रहता है।आज भी वह कॉलेज के बाद एक व्याख्यान से घर लौटा है…
‘अरे वाह, ये बांस का पौधा आपको कहां मिला?’
‘मिल गया।’
‘फिर भी’
‘अरे व्याख्यान के बाद इस बार स्मृति चिह्न के बजाय आयोजकों ने यह थमा दिया।गनीमत है कि इस बार शाल नहीं उढ़ाया, वरना तुम्हें अपना पुराना डायलॉग मारने को मिल जाता कि शाल की दुकान खोल लो।व्याख्यान से ज्यादा कमा लोगे।’
‘ठीक ही किया आयोजकों ने।मैं तो बहुत दिनों से इस पौधे के इंतजार में थी।’
‘इंतजार में थी? अरे मुझसे कहतीं बाजार से ला देता।आजकल हर गिफ्ट की दुकान में मिलने लगा है।’
‘बाजार से लेना होता तो मैं कब का ला चुकी होती।तुमसे थोड़े ही कहती।’
‘ऐसा?’
‘और नहीं तो क्या।अरे इस पौधे को खरीद कर नहीं लगाते।कोई उपहार में दे, तभी फलता है।’
‘फलता है? माने…’
‘मायने मैं बाद में समझाऊंगी।पहले आप कपड़े बदल लो।मैं चाय लेकर आ रही हूँ।’
सुकेश को लगा कि चलो शुचि को याद तो आई कि पति पूरे आठ घंटे बाद घर लौटा है और उसे चाय भी पीनी है।वैसे उसे यह तो जानना ही है कि बांस के पौधे को पाकर शुचि इतना खुश क्यों हो गई है।यह तो पता है कि इधर वह उन चीजों को लेकर बड़ी ही संजीदा है, जिनका सीधा संबंध जिंदगी को बेहतर बनाने से होता है।हो न हो बांस के पौधे का भी इसी से रिश्ता होगा।सुकेश ने कपड़े बदले और मुंह-हाथ धोकर कुर्सी पर बैठ गया।अचानक उसे कुछ सूझा और उसने मोबाइल निकालकर बांस के पौधे को सर्च करना शुरू कर दिया।सुकेश सही था।यह फेंगशुई परिवार का ही हिस्सा है।इसको घर पर लगाने से सुख, शांति और समृद्धि आती है।
‘लो चाय।आते ही मोबाइल पर मत जुट जाया करो।’ शुचि की आवाज पर सुकेश ने मोबाइल से निगाह उठाई और उसकी ओर मुस्कराते हुए चाय का कप उठा लिया।
‘बहुत मुस्करा रहे हो।ऐसा क्या दिख गया मोबाइल पर।’
‘सही पकड़ी हो, मोबाइल पर दिख गया कि बांस के पौधे को पाकर तुम इतना क्यों प्रसन्न हो।’
‘अच्छा! तो बताओ बांस के पौधे के बारे में क्या कहते हैं तुम्हारे गूगल देवता।’
‘पहले तुम बताओ कि तुम क्या जानती हो इसके बारे में।’
‘मैं तो बहुत नहीं जानती।हां, उस दिन किटी पार्टी में चर्चा चल रही थी कि इसको घर में रखने से पैसा आता है।लेकिन यह फलता तभी है, जब यह उपहार में मिले और वह भी बिना मांगे।’
‘वैसे तुम कुछ-कुछ सही ही जानती हो।यह फेंगशुई के परिवार में शामिल है।इससे पैसा ही नहीं आता, शांति भी आती है।वैसे एक बात कहूं, बुरा नहीं मानना।इन सब टोटकों से कुछ होता- हवाता नहीं है।अपनी मेहनत और भगवान पर भरोसा रखो, सब अच्छा ही होगा।’
‘तो मैं कहां आपको मेहनत न करने की सलाह दे रही हूँ।बस इसे घर पर लगाने की इच्छा थी, सो ईश्वर ने आज पूरी कर दी।अब देखो न, यह भी तो ईश्वर की ही मर्जी है कि मैंने सोचा और उन्होंने इसे मेरे घर भेज दिया।बस माध्यम तुम बने हो।’
यह कहते हुए शुचि का आत्मविश्वास कुछ बढ़ा हुआ देखकर सुकेश को अच्छा लगा।वह सोचने लगा कि जो हमेशा नकारात्मक बातें करती रहती है, वह अचानक अच्छा सोचने लगे तो इसमें इस पौधे का कमाल हो सकता है।मन ही मन उसने कहा कि ‘जय हो फेंगशुई की’।
रात को सोने से पहले ही बांस के पौधे की जगह तय हो गई।तय क्या हुई शुचि ने घोषित कर दी कि ‘मैं इसे सेंटर टेबल पर रख रही हूँ।कोई इसे यहां से हटाएगा नहीं।’
टेबल पर रखने के बाद कई एंगल से शुचि ने उसे निहार कर देखा।निहारने का कारण उसके सुंदर लगने से रहा होगा या फिर पैसा आने की आशाओं को संजोने से या फिर दोनों से ही।बहरहाल शुचि ने सोने से पहले एक बार फिर सुकेश को उस पौधे के लिए धन्यवाद कहा।
सुकेश को डर लग रहा था कि कहीं शुचि इस पौधे को लेकर अधिक उम्मीदें न बांध ले।वैसे जब से मकान बिका है और दोनों किराए के मकान में आए हैं, शुचि को पैसे न होने का गम सताए रहता है।रात दिन स्वेटर बनाती रहती है।कोई लंबा ऑर्डर मिल जाता है तो शुचि की उंगलियां तेजी से चलने लगती है।सुकेश को पता है कि स्वेटर से मिलने वाले पैसों से बहुत भला तो नहीं हो सकता, लेकिन एक तो शुचि का मन लगा रहता है और फिर न से बेहतर है कि कुछ तो हाथ आ ही रहा है।सच तो यह है कि इस तरह से काम में मन न लगा होता तो डिप्रेशन में जाने का खतरा भी था।यही सब सोचते-सोचते सुकेश की भी आंख लग गई।
सुबह होते ही शुचि ने सबसे पहले बांस के पौधे को कुछ यूं निहारा, मानो यह पूछ रही हो कि पैसे कब बरसाओगे जनाब।
फ्रेश होते ही उसे ध्यान आया कि आज शनिवार है सो काम की जल्दी भी नहीं है।सुकेश भी देर से उठेंगे।तो क्यों न गूगल पर इस पौधे के करिश्मे पढ़े जाएं।बस फिर क्या था… शुचि ने गूगल पर बांस के पौधे को सर्च कर ही लिया।पहले तारीफें पढ़ीं और फिर इसे लगाने और ध्यान रखने की तरकीबें।एकाएक उसकी नजर में ऐसी बात आई कि वह चौंक पड़ी।यह जानकारी थी बांस के पौधे से जुड़े वास्तु की।यानी इसे कहां रखें, कैसे रखें और कितना रखें।अभी पढ़ना शुरू ही किया था कि सुकेश भी फ्रेश होकर आ गए और चाय की डिमांड रख दी।शुचि ने वहीं मोबाइल छोड़ा और चली गई चाय बनाने।
शुचि को बांस के पौधे का वास्तु पढ़ने और समझने की जल्दी थी सो जल्दी से चाय बनाकर ले आई और फिर जुट गई मोबाइल पर निकली जानकारी पढ़ने।
अचानक उसने अखबार पढ़ने में मस्त सुकेश से कहा, ‘सुनिए, बांस के पौधे के वास्तु को समझना बहुत जरूरी है, वरना इसके उल्टे परिणाम मिलने लगते हैं।’
‘उल्टे परिणाम? जैसे…’
‘आप इसे पढ़िए न, पूरा समझ में आ जाएगा।’
‘अरे यार, तुम पढ़कर बताओ न।’
‘अच्छा तो सुनो, इसमें लिखा है कि वास्तु के अनुसार बांस का पौधा न रखने से पैसे की हानि होने लगती है।घर की सुख शांति छिन जाती है।वगैरह-वगैरह।’
‘यह बताया है कि नहीं कि कहां रखें और कैसे रखें या फिर केवल डराया ही है।’ सुकेश ने व्यंग्यात्मक अंदाज में पूछा।
‘अब तुम्हें मजाक सूझ रहा है।बताया है, यह भी बताया है… इसे दक्षिण-पूर्व दिशा में रखना है।’
‘यह तो सरल है।रख दो।’
‘उधर की तरफ तो बाथरूम है।’
‘तो क्या हुआ।बाथरूम में रख दो।’
‘फालतू की बात मत करो।’ फिर कुछ सोचते हुए शुचि ने कहा कि ‘मैं इसे किचेन में रख लूंगी।वहां दक्षिण-पूर्व दिशा की तरफ एक आलमारी भी है।’
इतना कहकर शुचि ने बांस के पौधे को उठाया और किचेन में उसी आलमारी में जगह बनाकर रख आई।दरअसल वह किसी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी।
अभी पौधे को वास्तु के हिसाब से ठिकाना मिले कुछ ही देर हुई थी कि सुकेश का फोन बजा।बातचीत के बाद सुकेश ने बताया कि शहर के एक नामी कॉलेज में उसे कल इतवार के दिन एक व्याख्यान के लिए जाना है।व्याख्यान यानी पैसा मिलना तय।
बस फिर क्या था, शुचि को तो भरोसा हो गया कि बांस के पौधे ने काम करना शुरू कर दिया है।खुश होकर सुकेश से कहा- ‘देखा… सही दिशा में पहुंचते ही बांस के पौधे ने कमाल दिखाना शुरू कर दिया।’
‘लेकिन इन लोगों ने तो मुझे एक महीने पहले भी बुलाया था, तब तो कोई बांस का पौधा नहीं था हमारे पास।’ सुकेश ने मुस्कराते हुए कहा।
‘तो क्या हुआ, अब है न।अब सारे कमाल इसी के होने से होंगे।’
सुकेश ने शुचि की खुशी में खलल डालना उचित नहीं समझा।चुपचाप फिर से अखबार में निगाहें गड़ा लीं।उसे यह तो अहसास हो गया था कि शुचि इस समय बांस के पौधे के औरे की गिरफ्त में आ गई है।खैर…।
शुचि ने अपनी बड़ी बहन को व्हाट्सप पर यह बता दिया कि उसके घर बांस का पौधा आ गया है, और वह भी उपहार के रूप में।जवाब में बहन ने उसे बधाई का मैसेज भेज दिया और कहा ‘फोटो भेजो’।फोटो भी भेज दी गई।जवाब में ‘सुंदर’ का मैसेज आ गया।और इधर से जवाब गया ‘धन्यवाद’।
एकाएक शुचि को कुछ ध्यान आया और वह गूगल में फिर कुछ सर्च करने लगी।थोड़ी ही देर में उसे वह मिल गया, जिसकी उसे दरकार थी।वह दाढ़ी बना रहे सुकेश के पास पहुंची।सुकेश को समझते देर न लगी कि जरूर फिर कुछ नई जानकारी दी है गूगल देवता ने।
‘क्या हुआ, फिर कुछ मिला क्या?’ सुकेश ने मजाकिया लहजे में कहा।
‘हां यार, एक गड़बड़ हो गई।लिखा है कि भूलकर भी बांस का पौधा किचेन में नहीं रखना है।’
‘तो हटा दो वहां से।’
‘हटा दिया और फिर रख दिया है सेंटर टेबल पर।’
‘तो फिर वास्तु की दिशा…’
‘वही तो, मदद करो कुछ, आइडिया लगाओ।’
‘दाढ़ी बना लूं तो मैं पढ़ता हूँ तुम्हारे इस बांस के पौधे का वास्तु शास्त्र।तब देता हूँ कुछ आइडिया।’
दाढ़ी बनाने के बाद सुकेश ने भी गूगल ज्ञान को बांचा और तय किया कि ड्राइंग रूम की दक्षिण-पूर्व दिशा पर एक कार्निश लगवा देते हैं और उस पर रख देते हैं इस सौभाग्यवर्धक बांस के पौधे को।शुचि ने जिद पकड़ ली कि अभी ही ले आइए कार्निश।सुकेश की कुछ न चली।पास के ही हार्डवेयर की दुकान पर मिलती हैं ऐसी चीजें सो सुकेश तुरंत ले भी आया।हालांकि कार्निश दो सौ रुपए की है, सुनकर शुचि को थोड़ा खराब लगा।लेकिन, सुनहरे भविष्य के लिए इतना खर्चा तो करना ही पड़ेगा, सोचकर वह सिर्फ मुस्कराकर सुकेश का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती रही।देखते ही देखते ड्राइंग रूम की दक्षिण-पूर्व दीवार पर कार्निश लग गई और बांस का पौधा वहां स्थापित हो ही गया।
सब कुछ सेट हो जाने के बाद सुकेश ने शुचि को छेड़ते हुए कहा, ‘तो फिर यह तय हुआ कि कल के व्याख्यान के आमंत्रण में इस बांस के पौधे का कोई योगदान नहीं है।’
‘बहुत इंट्लैक्चुअल बनने की कोशिश न करो।इसी का योगदान है।किचेन में तो यह आधे घंटे ही रहा।घर पर तो कल शाम से है।इसी का फल है व्याख्यान का आमंत्रण।’
सुकेश हँसा और नहाने चला गया और शुचि लंच की तैयारी करने।
शाम की चाय दोनों ड्राइंग रूम में पी रहे थे।अचानक दीवार पर टंगे बांस के पौधे को देखते–देखते शुचि को फिर कुछ ख्याल आया और वह मोबाइल उठाकर कुछ देखने लगी।सुकेश को समझने में देर नहीं लगी कि मोहतरमा फिर कुछ सर्च कर रही हैं।सुकेश का अनुमान सच था।दो ही मिनट बाद शुचि ने दुखी स्वर में कहा–
‘यार फिर गड़बड़ हो गई।’
‘अब क्या हुआ?
‘क्या बताऊं, मैंने बेवकूफी कर ही दी।हड़बड़ी में पूरा पढ़ा नहीं।इसमें लिखा है कि बांस के पौधे को दीवार पर टांगकर रखने से घर में शांति नहीं रहती।’
‘लेकिन पिछले दो-तीन घंटे से तो पूरी शांति है।हमने तो आज किसी बात पर बहस भी नहीं की।तुमने आज कोई जिद भी नहीं की।’
‘मजाक मत करो, मैं बहुत परेशान हूँ।’
‘वही तो, परेशान क्यों हो रही हो।वैसे एक बात कहूं, जब से पौधा आया है तुम परेशान हो।’
‘फिर वही खिल्ली उड़ाने का काम।’
‘नहीं यार, मैं तुम्हें समझाने का प्रयास कर रहा हूँ।पौधे अगर हमारी तकदीर बनाने लगे तो हमें काम-धाम छोड़कर ऐसे पौधे ही लगाते रहना चाहिए।’
‘शुचि उठी और लपककर कार्निश पर रखे बांस के पौधे को उतारकर एकबार फिर टेबल पर रख दिया।’
‘अरे, इतनी जल्दी क्या है?’
‘मैं नहीं चाहती कि घर में अशांति हो।तुम जिस तरह से बात कर रहे हो, वह अशांति फैलाने वाला अंदाज है।’
‘गए दो सौ रुपए पानी में।चौबे चल थे छब्बे बनने, घट कर हो गए दूबे।’
‘मतलब..’
‘मतलब समझना नहीं चाह रही हो।लाभ होने की बजाय घाटा।’
‘छोड़ो यह सब, कोई आइडिया सुझाओ।’
‘लाओ, इस बार गूगल ज्ञान को पूरी तरह प्राप्त करता हूँ।’ यह कहते हुए सुकेश ने मोबाइल उठा लिया।और एक बार फिर बांस के पौधे का वास्तु शास्त्र पढ़ने लगा।इस बार दोनों साथ-साथ पढ़ रहे थे।एकाएक सुकेश की निगाह एक लाइन पर पड़ गई।वह इसे जोर से पढ़ने लगा- ‘बांस का पौधा किसी को उपहार में देने से न केवल सौभाग्य बढ़ता है, बल्कि घर में समृद्धि भी आती है।’
‘शुचि ने अपनी निगाह मोबाइल स्क्रीन से हटा ली और कुछ सोचने लगी।’
‘क्या सोच रही हो ? ’
‘वही जो तुम सोचवाना चाह रहे हो।’
‘तो फिर इसे किसे देना है।’
‘देना तो नहीं चाह रही था, लेकिन घर के सौभाग्य और समृद्धि की खातिर इसे किसी को देना ही पड़ेगा।’
‘शाबाश! चलो मधु दीदी के यहां चलते हैं।बहुत दिनों से वह बुला भी रही हैं।रात का डिनर वहीं करेंगे।और उन्हें यह उपहार में दे देंगे।’
शुचि ने मुस्कराकर सुकेश के आइडिया पर अपनी सहमति दे दी।
कार्निश पर किताबें रख दी गईं और बांस के पौधे को एक सुंदर कागज के थैले में रखकर उसकी विदाई की तैयारी कर दी गई।
घर से निकलते हुए शुचि ने पौधे को हाथ में लिया और मन में ही बोल पड़ी- ‘चौबीस घंटे के साथ में तुमने बहुत कुछ सिखा दिया।थैंक्स यार…’
संपर्क : ९८४/६ए, मीरापुर (इमली की ढाल, तिकोना पार्क के निकट) प्रयागराज– २११००३
बहुत सुंदर
वाह! बहुत रोचक!
Bahut Aacha sir
Very nice and very interesting story
Aaj hi sir ne btaya apni is kahani k bare m …aj m jeena aur use is trh observe kr k likhna …kmaal h
बहुत ही रोचक कहानी!बहुत बढ़िया!