युवा कवि। ‘डगर की रेत’ और ‘औरत की जानिब’ कविता संग्रह प्रकाशित। संप्रति अध्यापन।
गांधारी
आंखें होते हुए भी उनपर पट्टी बांधकर
गांधारी! तुमने पति-भक्ति का धर्म निभाया
तुम बन सकती थी अंधे पति धृतराष्ट्र की आंखें
लेकिन नहीं बनी
शायद उस समय किसी पुरुष की आंखें बनना
ज्यादा मुश्किल था
आसान था अंधी बन जाना
आखिर आंखों पर पट्टी बांधकर भी देखना पड़ा
गांधारी तुम्हें सौ पुत्रों की मौत
जिसे तुमने सपने में भी देखना नहीं चाहा था
नहीं बचा पाई प्रिय दुर्योधन को
आंखों में समाए सतीत्व की शक्ति से
नहीं बेध पाई वह
दुर्योधन की कमर पर बंधे झीने आवरण को
पाली गई कहानियों में
गढ़ी जाती हैं वे स्त्रियां
जिनकी भक्ति से बनती हैं रूढ़ियां।
संपर्क : 1589 बी. हुसेनाबाद जौनपुर उ. प्र.मो.न. 8840020424
कविता ‘गांधारी’ महाभारत कालीन स्त्रियों की सामाजिक पिछड़ेपन की स्थिति पर गंभीर सवाल खड़ा करती है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं मात्र शोषण और भोग्या के रूप में प्रयुक्त होती थी न कि अर्द्धांगिनी या सुख-दुःख के सहयात्री के रूप में। कविता में प्रयुक्त पंक्ति – ‘शायद उस समय किसी पुरुष की आँखें बनना ज्यादा मुश्किल था, आसान था अंधी बन जाना’ स्त्रियों की इसी बेबसी, लाचारी और दारुणिक परिस्थितियों की गवाही दे रहा है।
तत्कालीन दौर में महिलाओं की परवशता और गुलामी इस कदर थी कि वे न तो पैदा होती थी और न ही बनती थी बजाय इसके वे गढ़ी जाती थी; कविता इसकी तस्दीक करती है।