युवा अध्येता। ‘भूमंडलीकरण की कहानियाँ’ और ‘हिंदी काव्य’ नामक संपादित पुस्तक प्रकाशित। पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च के अंतर्गत ‘इक्कीसवीं सदी में भोजपुरी भाषी लोक जीवन’ पर शोधरत। ‘धवल’ उपनाम से कविताएं भी लिखते हैं।

हिंदी की बात होगी तो हिंदी प्रदेश की बोलियां भी सामने आएंगी। हिंदी के अनेक लेखक और विचारक किसी न किसी बोली से संबंधित हैं। उन बोलियों की अपनी भूमिका है और महत्ता भी। दरअसल, बोलियों से अर्जित शब्दों ने हिंदी की ग्राह्यता को बढ़ाया है। यह अफसोसजनक है कि भारत की अनेक बोलियों की तरह हिंदी प्रदेश की बोलियां भी या तो हाशिये पर हैं या उन्हें सायास छोड़ा जा रहा है।

बोलियों की परिभाषा पर जाने का अर्थ है उन्हें भाषा की बनिस्बत छोटा समझना। बोलियों को छोटा समझने की भूल ही उन्हें हाशिये पर धकेल रही है। बोलियों को कमतर समझने वाले प्रायः इस बात को भूल जाते हैं कि हिंदी की जो वैश्विक महत्ता कायम हो रही है, उसमें हिंदी प्रदेश की बोलियों का बड़ा योग है।

गौरतलब है कि 14-15 वीं शताब्दी तक आज की हिंदी एक ‘बोली’ थी, जिसे खड़ी बोली कहा जाता था। उस दौर में भाषाई दृष्टि से काव्य और गद्य का जो रूप सर्वाधिक प्रचलन में था वह ब्रजभाषा थी। ब्रजभाषा, ब्रज क्षेत्र की बोली होते हुए भी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। बोलियां तकनीकी दृष्टि से भाषा का दर्जा पा तो जाती हैं, लेकिन मुख्य धारा से इतर की बोलियों और भाषाओं की स्थिति आज बेहद चिंताजनक है।

भाषाविद गणेश देवी का कहना है कि दुनिया की 6,000 भाषाओं में से 4,000 भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है जिनमें से दस फीसदी भाषाएं भारत में बोली जाती हैं। उन्होंने कहा कि दूसरे शब्दों में, हमारी कुल 780 भाषाओं में से 400 भारतीय भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं। ‘डाउन टु अर्थ’ पत्रिका के वेबपोर्टल पर 29 जून 2021 को ‘भाषाओं का सिमटता संसार, हर साढ़े तीन माह में मर रही है एक भाषा’ शीर्षक से प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल अप्रैल में जब सारा देश लॉकडाउन की जद में था, तभी एक भाषा की गुमनाम मौत हो गई। ‘सारे’ नामक इस भाषा को बोलने वाली आखिरी महिला लीचो 4 अप्रैल 2020 को इस दुनिया से विदा हो गई। वह करीब 50 वर्ष की थी। लीचो अंडमान के दक्षिणी द्वीप में रहने वाली महान (ग्रेट) अंडमानी जनजाति समूह से ताल्लुक रखती थी।… लीचो की मृत्यु के साथ ही उनकी मातृभाषा का गौरव और उसमें संरक्षित पारंपरिक ज्ञान भी दफ्न हो गया। निश्चय ही आज ऐसी भी अनेक बोलियां हैं जिनको बोलने वालों की संख्या लाखों-करोड़ों में है।

अगर बोलियों को छोड़ दिया गया होता तो आज़ादी की लड़ाई में धार न आती। बोलियों की शक्ति को हमारे पुरखे रचनाकारों ने बखूबी समझा था। कबीर के दोहों में तो बोलियों का ही मिश्रण है। वह मैथिली की शक्ति थी कि विद्यापति की मैथिली भाषा की रचनाओं में एक अलग ही चमक दिखाई देती है। रामचरितमानस जैसी सर्वाधिक पढ़ी जानी वाली रचना हिंदी में नहीं, हिंदी प्रदेश की एक बोली अवधी में है। भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी में बोलकर, लिखकर वैश्विक ख्याति अर्जित की है। ईसुरी के बुंदेली गीत आज भी बुंदेलखंडी समाज की धड़कन हैं। हिंदी प्रदेश की बोलियों की महत्ता हर बोली और बानी में संरक्षित है, जिनकी पड़ताल भारतीय समाज की बहुलता को संरक्षित करने जैसा है।

हिंदी प्रदेश की बोलियों के संदर्भ में यह बात बहुत ही महत्व का है कि हिंदी प्रदेश की बोलियों ने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इन बोलियों में आज भी खजाना है, ज्ञान की लोक परंपराओं, लोकोक्तियों और मुहावरों का। हिंदी प्रदेश की बोलियां, उन बोलियों में संरक्षित दंत कथाएं, गीतों और कहावतों में न केवल उस बोली की महत्ता को रोचक ढंग से ज़ाहिर करती हैं, बल्कि उन बोलियों के समाज की खामियां और मजबूती भी सामने लाती हैं।

हिंदी प्रदेश की बोलियां और उनका समाज विषयक परिचर्चा हेतु कुछ प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढते हुए हम सब हिंदी भाषा के महनीय प्रभावों के बीच हिंदी प्रदेश की बोलियों के सवाल की सार्थकता को भी समझ सकेंगे।

सवाल

(1)हिंदी की बोलियों पर भूमंडलीकरण का असर क्या और कितना है?
(2)हिंदी प्रदेश में हिंदी भाषा और हिंदी की बोलियों के बीच संबंध और द्वंद्व क्या है?
(3)हिंदी प्रदेश की बोलियों की सामाजिकी कैसी है, बोलियां भौतिक- बौद्धिक उन्नति में किस तरह सहायक हो सकती हैं?
(4)हिंदी की बोलियों की महत्ता और आज के समय में उपादेयता को आप किस तरह देखते हैं?
(5)हिंदी की बोलियों को किस तरह सुरक्षित और संरक्षित किया जाए?
(6)हिंदी से इतर अपनी प्राथमिक मातृभाषा के अनुभव, उस भाषा के चर्चित साहित्य और मौजूदा स्थिति के बारे में कुछ बताएं।

 

बोलियों को बचाने का मतलब है अपनी भाषायी सभ्यता को बचाना

  भगवानदास मोरवाल
सुपरिचित कथा लेखक एवं अध्येता। अद्यतन पुस्तक कहानी अब तक’ (दो खण्ड) और चुनी हुई कहानियां

 

(1)मेरा मानना है कि भूमंडलीकरण का सबसे ज्यादा असर या उसकी चोट, हर उस अस्मितावादी स्थानीयता को प्रभावित कर रही है, जो किसी भी समाज की सबसे बड़ी ताकत होती है। मेरा स्पष्ट मत है कि भारत की सबसे बड़ी ताकतों में से उसकी एक ताकत है, उसकी उप भाषाएं अर्थात बोलियां। वे बोलियां, जिन्होंने हिंदी भाषा और उसके साहित्य को सबसे अधिक समृद्ध किया है। ब्रज और अवधी जैसी बोलियां इसका प्रमाण हैं। मगर भूमंडलीकरण के नाम पर जिस तरह पश्चिमी और साम्राज्यवादी शक्तियां अपने उत्पादनों को खपाने के लिए उनका प्रचार बोलियां विहीन नगरीय हिंदी में कर रहे हैं, उससे हमारी बोलियां निश्चित रूप से वैश्विक पटल पर हाशिए पर जाने को मजबूर हैं। उत्तर भारत में अकेले हिंदी की 18 से अधिक बोलियां हैं। आपने कभी पश्चिमी देशों के उत्पादनों का प्रचार इन बोलियों में होता हुआ देखा है? जो होता भी है वह उस हिंदी में होता है, जो कायदे से एक आम भारतीय नागरिक की नहीं, महानगरों और बड़े शहरों की भाषा है। एक तरह से यह हिंदी के नाम पर नकली और एक हद तक गढ़ी हुई भाषा है न कि व्यवहार की भाषा है। दूसरी ओर, हिंदी की आड़ में हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। सबसे मजेदार यह है कि हिंदी और भूमंडलीकरण के नाम पर बोलियां विहीन इस हिंग्लिश का खुलेआम वह लोग समर्थन कर रहे हैं, जो इसी हिंदी की कमाई खा रहे हैं। हमारी बोलियों को आज यदि सबसे बड़ा खतरा है तो इन्हीं आधुनिक उपनिवेशिक भाषा के हिंदीखोरों से है।

(2)मुझे लगता है कि हिंदी भाषा और बोलियों का आपस में कई तरह और स्तरों पर द्वंद्व है। एक तरह से मैं इसे नव-सांस्कृतिक द्वंद्व कहूंगा। सांस्कृतिक द्वंद्व से मेरा तात्पर्य एक तरह से नगरीय अर्थात शहरी और ग्रामीण सभ्यता से है। मैंने यह अनुभव किया है कि हिंदी भाषा में जो ताजगी और मौलिक अनुभव बोलियों तथा लोकाचार से पगे लेखन में नजर आते हैं, वह शहरी लेखन में दिखाई नहीं देता है। हिंदी भाषा और उसकी बोलियों का द्वंद्व भी यही है। इसीलिए बोलियों से सराबोर रचनात्मक लेखन को शहरी लेखकों द्वारा हिकारत की नजर से देखा जाता है। आपको याद होगा कि एक समय रेणु के ‘मैला आंचल’ को इसी हिकारत के चलते आंचलिक उपन्यास कहकर प्रचारित किया गया था।

बोलियां आज अस्मितावाद का मुख्य हथियार बनकर रह गई हैं। मुझे लगता है कि हिंदी भाषा और बोलियों का सबसे बड़ा द्वंद्व है हमारा श्रेष्ठता बोध। इस श्रेष्ठता बोध का आलम आज यह है कि ‘अपनी ही’ बोली को हम श्रेष्ठ मानने लगे हैं। एक समय ब्रज और अवधी को बोलियों का नहीं, भाषा का दर्जा प्राप्त था। हिंदी के नाम पर ब्रजभाषा में तो लगभग दो सौ साल तक साहित्य रचा गया और वह हिंदी साहित्य की मुख्य धारा का साहित्य माना और कहा जाता था। यही स्थिति कमोबेश अवधी की थी, लेकिन आज ये दोनों उप भाषाएं कहां हैं? भले ही बोलने वाले आज इन दोनों बोलियों के लाखों की संख्या में हैं, किंतु साहित्य इनमें कितना रचा जा रहा है, हम सब जानते हैं।

हिंदी भाषा और बोलियों के बीच का यही द्वंद्व और श्रेष्ठता बोध, बोलियों का सबसे बड़ा अहित कर रहे हैं। एक और द्वंद्व जो देखने में आता है वह है एक ही बोली के अनेक रूप और उन्हें लेकर आपसी असहमतियां। राजस्थानी और मेरी मेवाती इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। मैंने देखा है कि जब-जब राजस्थानी को भाषा के रूप में आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उठती है, राजस्थान के ही अलग-अलग हिस्सों से भाषाविदों के मतभेद शुरू हो जाते हैं। क्योंकि राजस्थानी, राजस्थान के अलग हिस्सों में मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, हाड़ौती, तोरावटी के रूप में बोली जाती है। यही स्थिति मेवाती सहित कई बोलियों की है। ये भी कई रूपों में बोली जाती हैं। दरअसल, उत्तर भारत की अधिकतर बोलियों की अपनी कोई लिपि नहीं है। अधिकतर बोलियां नागरी लिपि में ही लिखी जाती हैं। इसलिए कई बार यह प्रश्न भी उठता है कि जिसकी कोई लिपि नहीं है, क्या उसे भाषा कहना उचित होगा? मेरा यह स्पष्ट मत है कि किसी भी बोली अथवा भाषा का अस्तित्व उसके साहित्यिक उपयोग पर निर्भर करता है।

(3)हिंदी पट्टी की बोलियों की सामाजिकी को समझने के लिए हमें इसके समाजशास्त्रीय पक्षों पर दृष्टि डालनी होगी। मेरा मानना है कि किसी भी बोली की सामाजिकी उस समाज के लोक-व्यवहार और लोक-विश्वासों से तय होती है। वहां की भौगोलिक बनावट और परिस्थितियों से निर्मित होती है। आपकी बोली या कहिए भाषा में वहां के स्थानीय शब्दों की अधिकता होगी। स्थानीयता का सीधा प्रवेश पहले बोलियों और फिर हमारी भाषाओं में होने लगता है। आज जैसे-जैसे हमारे जीवन से पारंपरिक दैनिक उपयोग की वस्तुओं का चलन बाहर हो रहा है, हमारे मुहावरे और लोकोक्तियां भी विलुप्त होते जा रहे हैं। दरअसल, बोलियों में प्रयुक्त होने वाले देशज शब्दों की बड़ी भूमिका शब्दों के अंतर और उसके अर्थों को भी स्पष्ट करने की होती है।

जब-जब हम अपने लोक-व्यवहारों की बात करते हैं तो उसमें हमारी संस्कृति, परंपरा, सुख-दुख और जीवन जीने के सूत्र भी छिपे होते हैं और इन्हीं सूत्रों से भाषा सशक्त बनती है। किसी भी समाज को उसकी बोली और उसके लोक-व्यवहार से ही समझा जा सकता है। उसकी लोक-भाषा में उपयुक्त होने वाले शब्दों की ध्वनियां आपको उस समाज की गहराई में ले जाते हैं। इसलिए बोलियों की महत्ता केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, अपितु मानव-विज्ञान और समाजशास्त्र की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

इसलिए हिंदी पट्टी की बोलियों की सामाजिकी को समझने के लिए वहां के मानव-व्यवहार और समाजशास्त्र को समझना जरूरी है। उत्तर भारत का समाज सबसे अधिक अपनी बोलियों पर ही निर्भर रहा है। इसीलिए, हिंदी प्रदेश की बोलियों की सामाजिकी बहुपरतीय है।

(4)कोई भी बोली एक दिन में नहीं बनती है। बोली आदिम सभ्यता की यह उन प्रारंभिक क्रियाओं में से एक है जिससे मनुष्य की विकास-प्रक्रिया का पता लगाया जा सकता है। क्योंकि भाषा से पहले मनुष्य ने सबसे पहले अपनी बोली का आविष्कार किया होगा। आदमी का पहला पहचान-पत्र उसकी बोली ही है। ऐसा क्यों होता है कि जब दो पूर्वी उत्तर प्रदेश के, दो बिहार के, दो हरियाणा के, दो मालवा के, दो बुंदेलखंड के व्यक्ति सालों बाद मिलते हैं, तो वे आपस में अपनी बोली में ही बात करते मिलेंगे। एक तरह से बोली अपने आपको अभिव्यक्त करने का स्वाभाविक माध्यम है।

भाषा की बनिस्बत बोलियों की निर्द्वंद्वता ही उसकी सबसे बड़ी विशेषता और पहचान है। इसलिए हमारी बोलियों की सबसे बड़ी महत्ता यह है कि वह हमारी पहचान है। हमारी शिनाख्त कराती है वह। और उपादेयता यह है कि वे हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अहसास दिलाती रहती हैं। इसीलिए सबसे अधिक वही कृति अथवा रचना सुहाती है, जिसके पात्र हमें अपने पात्र लगते हैं। जो हमारी बोली-बानी में संवाद करते हैं। अगर रेणु ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ नहीं लिखते; राही मासूम रज़ा ‘आधा गांव’ नहीं लिखते; अब्दुल बिस्मिल्लाह ‘बीनी-बीनी झीनी चदरिया’ नहीं लिखते, शानी ‘काला जल’ नहीं लिखते, कृष्णा सोबती ‘ज़िंदगीनामा’, ‘मित्रो मरजानी’ नहीं लिखतीं या फिर भगवानदास मोरवाल ‘काला पहाड़’, ‘बाबल तेरा देस में’ और ‘हलाला’ नहीं लिखता, तब हमें कैसे पता चलता कि पूर्णिया, गंगौली, बनारस के जुलाहों के बीच, बस्तर, पंजाब और मेरे मेवात में कौन-सी बोली, बोली जाती है। हिंदी में ऐसी असंख्य रचनाएं आपको पढ़ने को मिल जाएंगी, जो अपने संवादों के माध्यम से अपने-अपने समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं।

बोलियों की उपादेयता साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद अहम है। क्योंकि बोलियां भाषा ही वह पहली टकसाल है, जिससे भाषा को नया रूप, नया जीवन, उसकी चमक और उसकी खनक प्राप्त होती है। बिना बोलियों के हिंदी का कोई अस्तित्व नहीं है। बोलियों के अस्तित्व को नकारने का अर्थ है- भाषायी सभ्यता और उसके अस्तित्व को नकारना। कला, साहित्य, संस्कृति एवं बोली या भाषा किसी धर्म या मजहब के नहीं होते अपितु ये पूरे समाज के होते हैं। किसी विचारधारा विशेष के संप्रदाय या वर्ग की बपौती नहीं होते, बल्कि ये हमारी सामूहिक चेतना से निर्मित विभिन्न अनुशासनों से उपजे अभिव्यक्ति के माध्यम हैं।

(5)मेरा मानना है कि कला, साहित्य, संस्कृति एवं भाषाओं को बचाने की प्रमुख भूमिका और उत्तरदायित्व सरकार की होती है। बिना राज्याश्रय के कोई भी कला, साहित्य या भाषा अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह पाती है। अक्सर देखा गया है कि हमारी अकादमियों और दूसरे संस्थानों, जिनके ऊपर भाषाओं के संवर्द्धन की ज़िम्मेदारी होती है, उनसे जुड़े भाषाविदों और लेखकों का ज़ोर हिंदी भाषा के नाम पर निबंधीय या कहिए नगरीय भाषा में रचित साहित्यिक कृतियों को प्रचारित-प्रसारित करने पर अधिक रहता है। यदि संयोगवश किसी बोली विशेष के संवादों वाली कृति किसी सरकारी, अर्द्ध सरकारी, बल्कि निजी प्रयासों से संचालित संस्थानों में पुरस्कार के लिए आ भी जाती है, तो उसे आंचलिकता के नाम पर, अथवा उनमें प्रयुक्त कुछ तथाकथित अश्लील शब्दों के नाम पर या तो खारिज कर दिया जाता है या वे श्रेष्ठता भाव व उपेक्षा का शिकार होकर रह जाती हैं। जबकि हमारी भाषायी अकादमियों को ऐसी कृतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए, जो किसी अंचल विशेष पर केंद्रित होने के साथ-साथ वहां की बोली का भी प्रतिनिधित्व करती हों। अपनी-अपनी बोलियों को मात्र भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने से उनका भला नहीं होने वाला।

असल बात यह है कि बोलियां बची रहेंगी तो हमारी भाषा बची रहेगी। हमारी भाषाएं-उपभाषाएं बची रहेंगी तो हमारा साहित्य और उसे पढ़ने वाले बचे रहेंगे। बोलियों को बचाने का अर्थ है-अपने अतीत और अपनी विरासत को बचाना। बोलियों के संरक्षण का मतलब है भाषायी सभ्यता को संरक्षित करना। मुझे खुशी है कि मैंने हिंदी के विशाल पाठक वर्ग को अपनी बोली मेवाती से परिचित कराया और इस परिचय का अर्थ है मेवात की संस्कृति से परिचित कराना।

(6)मेरी प्राथमिक मातृभाषा या कहिए बोलचाल की भाषा अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ की तरह मिलीजुली मेवाती है। मिलीजुली से तात्पर्य है वह मेवाती, जिस पर ब्रज का असर है और जिसे ‘कठोर मेवाती’ कहा जाता है। यह वह मेवाती है, जिसे ब्रज से सटे मेवात के लोग बोलते हैं। एक बात आपको बता दूं कि ब्रज और मेवात सांस्कृतिक रूप से तो एक हैं ही, बल्कि भौगोलिक रूप से भी ये दोनों क्षेत्र आपस में एक तरह से गुथे हुए हैं। मेरा ननिहाल एक ऐसे कस्बे में है, जिसे ब्रज के निवासी ब्रज का और मेवात के निवासी मेवात का कस्बा मानते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि हमारे परिवार में हम जो बोली बोलते थे, उसमें मेरी मां की बोली ब्रज भी मिश्रित होती थी। आपको मेवात में ऐसा बहुधा देखने को मिलेगा, क्योंकि ब्रज और मेवात की आपस में इस तरह की असंख्य रिश्तेदारियाँ हैं।

मेरे उपन्यास ‘ख़ानज़ादा’ में ही नहीं बल्कि ‘काला पहाड़’, ‘बाबल तेरा देस में’, ‘हलाला’ और ‘काँस’ उपन्यास जोकि मेवात की पृष्ठभूमि पर कंद्रित हैं, उनके पात्रों के संवाद मेवाती बोली में हैं। इतना ही नहीं, लेखकीय भाषा में भी मेवाती के अनेक शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। अपने प्रथम उपन्यास ‘काला पहाड़’ से पहले मेवाती बोली के संवादों का अपनी कुछ उन कहानियों, जैसे ‘भूकंप’, ‘महराब’, ‘अस्सी मॉडल उ़र्फ सूबेदार’ ‘लेकिन’ और ‘रंग अबीर’, जिनकी पृष्ठभूमि मेवात थी, में प्रयुक्त कर चुका हूँ। हिंदी भाषा के कितने-कितने रूप और कितनी छटाएं हो सकती हैं, इसे वह व्याकरणबद्ध एकरस नगरीय भाषा-भाषी नहीं समझ सकता, जो अपनी मृतप्राय, अभिजात और चिकनी पदावली में खुद भी लाचारी का अनुभव करने लगा है। हिंदी भाषा की बेधक मार्मिकता उसकी बोलियों में है।

अब रही बात मेवाती और मेरे द्वारा रचित साहित्य की मौजूदा स्थिति की, तो मुझे यह देखकर बड़ी निराशा होती है कि मेवाती तो मेवाती, मेरे राज्य की प्रमुख बोली हरियाणवी में रचे जाने वाले साहित्य की भी मौजूदा स्थिति बेहद निराशाजनक है। अपने मेवात से भविष्य में दूर-दूर तक मुझे कोई ऐसा लेखक दिखाई नहीं देता, जिसे मैं अपना वारिस कह सकूं। फिल्मों और तथाकथित वेब सीरिज में भी जिस मेवात और हरियाणा तथा इनके पात्रों को दिखाया जाता है, उनकी छवि भी हास्यास्पद और एकदम नकारात्मक होती है। मेवात के साथ एक दुराग्रह यह जोड़ दिया गया है कि यह क्षेत्र हर दृष्टि से एकदम नकारा है। एक तरह से इस क्षेत्र को सांप्रदायिकता की एक नई प्रयोगशाला के रूप में पेश करने की कोशिश की जा रही है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है।

WZ-745G, दादा देव रोड, नज़दीक बाटा चौक, पालम, नई दिल्ली-110045 मो. 9971817173

 

बोलियों को ज्योंज्यों त्यागते जा रहे हैं, जीवन की कृत्रिमता बढ़ती जा रही है

  अष्टभुजा शुक्ल
वरिष्ठ कवि और लेखक। साहित्यिक गतिविधियों के साथ अध्यापन कार्य से भी जुड़े हैं। अब तक तीन काव्यसंग्रह पदकुपद’, ‘चैत के बादलऔर दुःस्वप्न भी आते हैं। एक ललितनिबंधसंग्रह मिठउआ

 

वास्तव में भूमंडलीकरण बाज़ार द्वारा पोषित ऐसी संस्कृति है जो उपभोक्तावाद की पैरोकार है। भूमंडलीय संस्कृति का विभ्रम पैदा करने वाला यह पद वस्तुतः अपसंस्कृति या पश्चिम की एकरेखीय संस्कृति का मायाजाल है। हमें याद रहना चाहिए कि इसी भूमंडलीकरण के साथ एक बहुत लुभावना पद, विश्वग्राम या ग्लोबल विलेज का ईजाद किया गया था जो देखते ही देखते पटल से अदृश्य हो गया। भूमंडलीकरण के इस परिप्रेक्ष्य में भाषा, विभाषा या बोलियों पर विचार करते हुए हमें पूर्वोक्त संदर्भों को ओझल नहीं करना चाहिए। भूमंडलीकरण की आंधी में सांस्कृतिक उजाड़ को बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है।

जाहिर सी बात है कि संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण कारक है भाषा। और किसी भी भाषा के ढांचे को जब तक स्थानीय बोलियों का रंग-ढंग, लहजा, रस, गंध नहीं मिलता तब तक वह निष्प्राण होती है। खासतौर से भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी समाज में। तथाकथित इस भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने हमारी स्थानीयताओं को जिस तेजी से विकृत किया है, उससे हमारे खानपान से लेकर जीवन व्यवहार और सामाजिक संबंधों पर गहरा असर पड़ा है। हमारी निजताएं और अपनापन उपभोक्तावाद के हवाले हो रहे हैं। संवाद के माध्यम आमूलचूल बदल रहे हैं, जिनसे भाषिक थोथापन साफ साफ नजर आ रहा है।

भूमंडलीकरण के साथ जुड़वां जन्मा, लेकिन उससे अधिक लुभावना पद, विश्वग्राम (ग्लोबल विलेज) ने असमय ही दम तोड़ दिया। इस विडंबना के परिप्रेक्ष्य में यदि हम उपर्युक्त विषय के बारे में विचार करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि अप्रासंगिक होकर, ‘विश्वग्राम’ जल्दी ही विचार विमर्श के नेपथ्य में क्यों चला गया। इन्हीं तथ्यों के आलोक में, भूमंडलीकरण के दौर में हमारी बोलियों पर पड़ने वाले प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है। दरअसल, उपभोक्तावादी संस्कृति की आंधी में केवल बोलियां ही नहीं, बल्कि भारतीय भाषाएं और संस्कृतियां भी बेजार हुई हैं। बोलियों पर भूमंडलीकरण का असर इस रूप में हुआ है कि एक ओर तो ग्रामीण समाज पर डोरे डालने के लिए उन्हें उपभोक्ता संस्कृति के लिए अनुकूलित करने के वास्ते बोलियों का बाजार गर्म किया गया है तो दूसरी ओर उन्हें विकृत करने की आसानी भी सुलभ हुई है।

जहां तक हिंदी भाषा और उसे समृद्ध करनेवाली बोलियों के बीच द्वंद्व का प्रश्न है तो इसे हम बोलियों की राजनीति के रूप में देख सकते हैं। आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए हलकान, एक पृथक भाषा के रूप में, दर्ज किए जाने की राजनीति ने बोलियों को बहुत कुछ हिंदी भाषा से विमुख कर दिया है। यद्यपि उनके अस्तित्व पर संकट भूमंडलीकरण का ही है, किंतु इसके लिए वे हिंदी को उत्तरदायी ठहराना चाहती हैं। इसीलिए वे हिंदी में समाविष्ट होने के बजाए अपनी अलग सत्ता कायम करने के लिए, एक तरह के क्षेत्रीयतावाद के संवर्द्धन में जुटी हुई हैं। यह बोलियों की प्रकृति के विपरीत, वर्चस्व का द्वंद्व है।

हिंदी प्रदेश की बोलियों की सामाजिकी परस्परावलंबित है। यद्यपि ये बोलियां अपने जलवायु, भिन्न भूगोल, संस्कृति और पारस्थितिकी के नाते एक दूसरे से किंचित भिन्न हैं, किंतु प्रादेशिक सीमांतों के अंतर्वर्ती संबंधों के कारण उनमें ऐक्य की भी अधिकाधिक संभावनाएं निहित हैं। बोलियों की परस्परता इस रूप में मौजूद है कि अवधी से भोजपुरी, भोजपुरी से छत्तीसगढ़ी, मैथिली से मगही, मगही से भोजपुरी समाज के रीति-रिवाज, खानपान, लहजे थोड़े बहुत अलग होते हुए भी सामाजिकी के लिहाज से नाभिनालबद्ध हैं। इसी तरह राजस्थान की भौगोलिक और परिवेशगत भिन्नताओं के कारण बोलियों की अनेकता के बावजूद सामाजिक ऐक्यता काफी कुछ गोचर होती है तो उत्तराखंड के कुमायूंनी और गढ़वाली के बावजूद एक किस्म का पहाड़ीपन समाज को अधिक पड़ोसी कायम करता है। कुल मिलाकर इसे इस तरह चिह्नित किया जा सकता है कि भिन्न-भिन्न बोलियों के किंचित भिन्न समाजों की संस्कृति एक सामासिक संस्कृति का विनिर्माण करती है, जिसे डॉक्टर रामविलास शर्मा के शब्दों में हम, ‘हिंदी जाति की संस्कृति’ कह सकते हैं।

बोलियां किसी भी भाषा के ढांचे में धमनियों और मज्जा की भांति विन्यस्त होती हैं। जहां तक हिंदी का संबंध है, तो ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी आदि में रचा गया महत्वपूर्ण साहित्य, हिंदी भाषा की अनमोल धरोहर हैं। यहां तक कि ब्रजभाषा और अवधी में लिखे गए भक्तिकालीन साहित्य ने हिंदी को विश्वजनीन पहचान प्रदान की। इनके बिना हिंदी निष्प्राण है। बोलियों में निहित लोकगीतों में जनसाधारण के सुख, दुख, उल्लास और संघर्ष और स्थानीय परंपराएं मिलजुलकर जिस सांस्कृतिक शृंखला का निर्माण करती हैं, उनके बिना सामूहिकता न केवल छूछी और एकांगी रह जाती है, बल्कि मनुष्यता की समूची धरोहर से हम वंचित हो जाते हैं।

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति और तकनीकी के सूक्ष्मतम माध्यमों ने जिस तरह भाषा को बाजारू और ड्राइंगरूम कल्चर ने लोक समाज को लगातार पराया और निस्संग बनाया है, उससे समाज में अपनी बोलियों के प्रति एक प्रकार की हीनभावना उत्पन्न होती जा रही है। दूसरी ओर तथाकथित नागर और सभ्य समाज का अंग्रेजीपरस्त होते जाना भी एक गंभीर सांस्कृतिक संकट की तरह खड़ा हो रहा है।

मेरी व्यक्तिगत राय यह हो सकती है कि बोलियों का संरक्षण उनके बोलने वालों और प्रयोक्ताओं द्वारा उनके अधिकाधिक वाचिक संवाद से अधिक संभव है। यद्यपि उनके साहित्य का लिपिबद्ध किया जाना भी एक कारगर उपाय तो है, किंतु बोलियों को उनके उच्चारण के साथ लिपिबद्ध करना किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं।

वास्तव में देखा जाए तो आज भोजपुरी का बाजार सबसे ज्यादा चटका हुआ है। फिल्मों से लेकर लोकगीतों तक, कैसेटों से लेकर भक्ति के बाजार तक इसका दायरा बहुत व्यापक हो चुका है, किंतु यह तथ्य अत्यंत खेदजनक है कि भोजपुरी में भिखारी ठाकुर के, ‘विदेसिया’ जैसा मार्मिक और क्लासिक नाट्योत्सव रहने के बावजूद बाजार के दबाव ने भोजपुरी को अत्यंत सतही, फूहड़ और अश्लील बनाकर छोड़ा है। इसके लोक लुभावन गीतों ने हमारे समय की स्त्री अस्मिता और उसकी चेतना का अपमानित ढंग से चित्रण किया है। यह तथाकथित लोकसंस्कृति का फूहड़तम संस्करण है।

हम ज्यों-ज्यों अपनी मातृभाषा में निहित रंग, गंध, शब्द-संस्कृति और सौंदर्यबोध के कारकों को त्यागते जा रहे हैं वैसे-वैसे एक अनुकूलित और कृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। जीवन की बहुलताएं लुप्त होने से इंद्रधनुष किसी आखेट के अस्त्र में रूपांतरित होने लगा है। किसी भी भाषा का रसायन उसकी बोलियों की विविधता से, उनमें प्रयुक्त लोकोक्तियों, मुहावरों और जीवनानुभवों से, ध्वनि संकेतों से अपचित होकर ही समृद्ध होता है। हमारी मातृभाषा अवधी के सन्निकट, लेकिन भोजपुरी से थोड़ी दूर निर्धारित होती है। इसमें तुलसी, बलिभद्र पढ़ीस, त्रिलोचन जैसे कवि हुए हैं। लेकिन, दुखद तथ्य यह है कि इस बोली क्षेत्र के लोग इतने जाहिल, लथपथ, संज्ञाशून्य और तथाकथित आधुनिक बाजारू सभ्यता और विकास के इतने मारे हैं कि अपनी बोली और उसकी संस्कृति से लगभग निरपेक्ष हो चुके हैं। अवधीभाषियों की तुलना में भोजपुरीभाषी (भले ही उसे गर्दा और गंदा कर रहे हों) अभिनंदन के पात्र हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल नगर, (इटैली पांडेय), कैली रोड, पोस्ट – लबनापार-272002, बस्ती मो.8795594931

लोक साहित्य का दर्शन

ए.के. रामानुजन
(1929-1993) भारतीय साहित्य के एक प्रसिद्ध विद्वान

 

अब हम संक्षेप में इस मत की जांच करेंगे कि ‘महान परंपराएं’ बृहद भारतीय हैं, जबकि ‘लघु परंपराएं’ नहीं। हालांकि संस्कृत और प्राकृत का विस्तार बृहद भारतीय है; फिर भी उनका उद्गम आंचलिक है। यहां तक कि संस्कृत भी जो भौगोलिक सीमाओं से परे है, उच्चारण की विविधताएं लिए हुए है – जैसे कि बंगाली, मलयाली और बनारसी उच्चारण।’ तथाकथित ’लघु परंपराएं भी आवश्यक रूप से या आम तौर पर छोटी जगहों या बोलियों तक सीमित नहीं रहती हैं। कहावतें, पहेलियां, कथाएं, धुनें, अभिप्राय, गीत और नृत्य की शैलियां किसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहतीं, भले ही वे निरक्षर बोलियों में गुंथी हुई हों, भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे उन पौराणिक समाजों में बंद हैं, जिन्हें आत्मनिर्भर गांव समुदाय कहते हैं। यह सर्वविदित है कि लोक-वांगमय (सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अन्य रूपों की तरह) स्वतःप्रसारित होता है – यानी आबादियों के स्थानांतरित हुए बिना ही अकसर वह स्वयं यात्राएं करता है। एक लोकोक्ति, एक पहेली, एक चुटकला, एक कथा, एक नुस्खा या एक उपचार जब भी उसे कोई कहता है, वह आगे बढ़ता है। जब भी कोई द्विभाषी आदमी उसे कहता या सुनता है वह भाषा की सीमाएं तोड़ देता है।

इसलिए भारत की भाषाओं और अंचलों के लोक-वांगमय का बड़ा भाग साझा है। भारतीय उपमहाद्वीप के दूरस्थ और अलग-अलग क्षेत्रों की साझा कहावतों, पहेलियों और कथाओं के संग्रह तैयार किए जा सकते हैं। हां, यह हो सकता है कि इन साझा कहावतों, पहेलियों और कथाओं का अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग अर्थ और उपयोग हों। मिसाल के तौर पर, ‘दीए तले अंधेरा’ कहावत कन्नड़ और कश्मीरी दोनों में है, जबकि दोनों भारत के दो छोरों पर हैं। कन्नड़ में (अन्य अर्थों के साथ-साथ) इसका अर्थ है, चरित्रवान आदमी का भी दीए की तरह अंधेरा पक्ष होता है। यानी उसमें प्रच्छन्न बुराइयां हो सकती हैं। मुझे बताया गया कि कश्मीरी में ‘दीए तले अंधेरा’ का (अन्य अर्थों के साथ- साथ) राजनीतिक अर्थ है। वह यह कि अच्छे राजा के बुरे अनुचर हो सकते हैं। अर्थ की भिन्नता से भिन्न संस्कृति की विशेषता उजागर होती है। बिंब या चरित्र या घटनाएं या तथाकथित संरचनाएं और आदिरूप भिन्न काल और भिन्न अंचलों में वही हो सकते हैं, पर उनका आशय बदल जाता है। भाषा के स्वरूप से अर्थ का अनुमान नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक प्रतीक का तात्पर्य उसके सांस्कृतिक मूल और संदर्भ पर निर्भर करता है। प्रत्येक प्रतीक को संदर्भ की जरूरत होती है, जिसमें कि उसका प्रयोग किया जाता है।

ऐसा लगता है कि लोक-वांगमय के विभिन्न रूपों का उद्गम और उनका प्रवाह तंग दायरे, अप्रेषणीय भूभाग और अत्यधिक स्थानीकृत बोलियों में होता है, परंतु न केवल वे अपने देश और सांस्कृतिक अंचल में गमन करते हैं, बल्कि वे अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क में भी हिस्सेदारी करते हैं। आर्चर टेलर की ‘इंग्लिश रिडल्स’ हमें सामयिक अंग्रेजी पहेलियों और उनके सदियों पुराने रूपभेदों के साथ-साथ अफ्रीका, भारत और अमेरीका के रूपभेदों से भी अवगत कराती है। जो कहानियां आज हम दक्षिण भारत के किसी देहाती बातपोश से सुनते हैं (यह मैं अपने अनुभव से जानता हूं) वे ठीक वे ही कहानियां हैं- घटना (अभिप्राय) – दर घटना जिन्हें अंग्रेजी भाषी दुनिया ‘ग्रीक इडिपस’ या शेक्सपियर लिखित ’किंग लियर’ के नाम से जानती है।

एक कहानी, जो यूरोप में अरस्तू के संबंध में सुनाई जाती है और भारत में एक भारतीय दार्शनिक के संबंध में, वह यों है- दार्शनिक एक गंवई सुथार से मिलता है। सुथार के पास एक पुराना और खूबसूरत चाकू है। दार्शनिक सुथार से पूछता है, ‘यह चाकू तुम्हारे पास कब से है?’ सुथार जवाब देता है, ‘यह कई पुश्तों से हमारे पास है। कई बार इसका हत्था बदलना पड़ा और कई बार इसमें पत्ती भी नई लगाई गई, पर चाकू वही है। इस तरह एक लोक-कथा जो अपने बातपोश के मुताबिक ढल जाती है – उसका ढांचा वही रहता है, जबकि उसके सारे सांस्कृतिक विवरण बदल जाते हैं। नई कहानी की रचना के लिए विभिन्न कहानियों के टुकड़ों को जोड़ भी दिया जाता है। यह नई कहानी अपने सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप एक नया सौंदर्य और नया नैतिक बोध व्यक्त करती है। यही कहानी जब अलग समय और स्थान पर सुनाई जाती है तो उसमें कई नवीन और प्रासंगिक चीजें जुड़ जाती हैं, पर कथानक वही रहता है। यह अपरिवर्तनशीलता, या कहें कि आदिरूप की पुन:सृष्टि ही गल्प है, पहचान है, सुविधा है।

 

भाषाओं और बोलियों को अब अस्मिता से जोड़ा जा रहा है

  माधव हाड़ा
सुपरिचित आलोचक। चर्चित कृति पचरंग चोला पहर सखी री। अद्यतन पुस्तक वैदहि ओखद जाणैमीरां और पश्चिमी ज्ञान मीमांसा

 

भाषाओं और बोलियों पर भूमंडलीकरण का बहुत गहरा प्रभाव है। भूमंडलीकरण में वे ही भाषाएं और बोलियां जीवित रहेंगी, जिनके व्यवहार का दायरा बड़ा है और जो बाजार में निरंतर चलन में हैं। भाषाएं और बोलियां हमारे सांस्कृतिक व्यवहार का हिस्सा हैं। जब हमारा सांस्कृतिक व्यवहार ही भूमंडलीकरण के कारण एक जैसा होता जा रहा है, तो भाषाएं और बोलियां अलग कैसे रहेंगी? यह किसी देश-समाज में निरंतर चलनेवाली और बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है। पहले संचार के इतने साधन नहीं थे, इसलिए लगभग स्वायत्त भौगोलिक और सांस्कृतिक इकाइयों में अलग-अलग भाषाओं-बोलियों का विकास हुआ। अब हालात बदल गए हैं। तकनीक के विकास और संचार क्रांति ने इन इकाइयों की स्वायत्तता ख़त्म कर दी हैं, इसलिए भाषाएं और बोलियां और इनका विकास भी अब स्वायत्त नहीं रहा।

हिंदी प्रदेश में भाषा और बोलियों का द्वंद्व औपनिवेशिक मानसिकता की देन है। भाषा के एकाधिक क्षेत्रीय रूप होते हैं और उनसे मिलकर ही कोई भाषा बनती है। ये क्षेत्रीय रूप भाषा से अलग नहीं हैं, ये उसके अंग भी हैं और उसकी ताकत भी हैं। दुखद यह है कि उपनिवेशकाल में इन क्षेत्रीय रूपों को भाषा से अलग बोलियों का दर्जा देकर इनको भाषा के बरक्स खड़ा कर दिया गया। जार्ज ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण से यह विभाजन शुरू हुआ और फिर धीरे-धीरे यह तमाम भारतीय मनीषा की समझ और विवेक में भी सम्मिलित हो गया। भारतीय भाषा परिदृश्य अलग प्रकार का है- यहां भाषाएं या बोलियां एक-दूसरे से अलग नहीं होतीं, ये एक दूसरे में विलीन होती हैं। भारतीय भाषाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। खास बात यह है कि यह बात इन भाषाओं को जीने और बरतने वाला ही अच्छी तरह समझ सकता है। अकसर वे दूसरी भाषा की सीमा शुरू होने से पहले ही उसके जैसी होने लगती हैं। मीरां सहित कई प्राचीन और मध्यकालीन कवियों की कविता की भाषा में गुजराती, राजस्थानी, ब्रज आदि अलग-अलग भाषाएं नहीं हैं। ये एक ही भाषा के क्षेत्रीय रूप हैं, जो कुछ दूर चलकर एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। दरअसल इन कवियों की भाषा में एक ही भाषा के एक-दूसरे से संबद्ध और एक-दूसरे में घुले-मिले क्षेत्रीय रूप हैं, जो अब औपनिवेशिक भाषायी समझ के कारण हमें अलग-अलग भाषाओं के रूप में दिखाई पड़ते हैं। गुजराती और राजस्थानी या अवधी और भोजपुरी को अलग भाषाएं मान लिया गया, जबकि वे कुछ क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ एक हैं। ऐसा पूरे देश में है। अब इन भाषाओं-बोलियों को एक दूसरे से अलग दिखाने-समझने के सुनियोजित उपक्रम हो रहे हैं।

भाषाएं और बोलियां हमारी परंपरा में कभी अस्मिता से नहीं जोड़ी गईं, लेकिन अब यह हो रहा है। मध्यकाल में भक्ति चेतना के साहित्य में यह विभाजन नहीं है। मीरां आज की राजस्थानी, गुजराती, ब्रज आदि सभी भाषाओं में है। कबीर, दादू, रैदास आदि की अधिकांश पांडुलिपियां राजस्थानी में हैं। सूरदास की भाषा ब्रज है, लेकिन उनकी अधिकांश पांडुलिपियां राजस्थान में मिलती हैं। महाराणा सांगा ने अलग-अलग क्षेत्रों की 28 रानियों से विवाह किए, लेकिन अंतःपुर में संवाद को लेकर कभी कोई असुविधा नहीं थी। पद्मनाभ की कृति ‘कान्हडदेप्रबंध’ की रचना मध्यकाल में हुई- गुजराती के आग्रही कहते हैं कि यह गुजराती में है, जबकि राजस्थानीवालों का मानना है कि यह राजस्थानी भाषा की रचना है।

हिंदी प्रदेश की बोलियों की सामाजिकी अब बहुत अलग प्रकार की नहीं रही। यह सामाजिकी कमोबेश उत्तर भारतीय मध्यवर्ग की सामाजिकी हो गई है। यह समाज इधर अपनी धार्मिक अस्मिता को लेकर सचेत हुआ है, लेकिन धर्म इसके आचरण में नहीं है। परंपरा को लेकर इसमें आग्रह का भाव बढ़ा है, लेकिन यह केवल अस्मितायी संतोष तक सीमित है। भाषायी मामले में अधिकांश उत्तर भारतीय द्विभाषी हैं। वे अपने घर-परिवार में अपनी क्षेत्रीय भाषा-बोली का व्यवहार करते हैं, लेकिन सर्वजनिक जीवन की उनकी भाषा हिंदी या कहीं-कहीं अंग्रेजी है। यह अलग बात है कि नयी पीढ़ी, जो अपने गांव-कस्बों से बाहर जाकर पढ़ी-लिखी है और रोजगार के लिए महानगरों में बस गई है, अपने घर-गांव भाषा से कट गई है। उच्च मध्यम वर्ग की हालत यह है कि तमाम अस्मितायी आग्रह के बावजूद यह अपने बच्चों को अंगेजी माध्यम के स्कूल-कॉलेजों में गर्व सहित में पढ़ा रहा है। आनेवाली उत्तर भारतीय हिंदी भाषी पीढ़ी अपने पैतृक घर-परिवार की भाषा-बोलियों से जुड़ी रहेगी, इसकी कोई संभावना नहीं लगती।

हिंदी प्रदेश की बोलियों का महत्व और उपादेयता हिंदी भाषा की समृद्धि में है। हिंदी का संचार क्रांति के बाद लोकतंत्रीकरण हुआ है, तकनीक ने संचार माध्यमों का भी लोकतंत्रीकरण किया है, जिससे क्षेत्रीय भाषाओं की अभिव्यक्ति के कई रूप, शब्दावली और मुहावरे हिंदी में आए हैं। हिंदी साहित्य की नागरिकता का दायरा भी इधर बड़ा हुआ है- दूर-दराज़ के क्षेत्रों की स्त्री, दलित, आदिवासी आदि कई नई साहित्यिक प्रतिभाओं ने अपने घर-गांव की भाषा से हिंदी की अभिव्यक्ति को विस्तृत और समृद्ध किया है। क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व इस अर्थ में भी है कि इनमें साहित्य की बहुत समृद्ध परंपराएं हैं, जो अधिकांशतः श्रुत और स्मृत परंपराएं हैं। यह साहित्य हमारा सांस्कृतिक इतिहास है।

भारतीय संस्कृति की सही पहचान सार्वदेशिक इतिहास से नहीं हो सकती। यहां का इतिहास क्षेत्रीय सांस्कृतिक वैविध्य को ध्यान में रखकर लिखा जाना चाहिए। हमारे यहां अभी सांस्कृतिक इतिहास लेखन की कोई बहुत समृद्ध परंपरा नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं की ये साहित्यिक परंपराएं इस तरह के इतिहास लेखन का आधार बन सकती हैं। विडंबना यह है कि इस साहित्य का अभी तक अभिलेखीकरण भी नहीं हुआ है।

क्षेत्रीय बोलियों-भाषाओं को संरक्षित करने का आशय यह नहीं है कि हम उनका व्यवहार करें। भाषाएं और बोलियां भी ठहरती हैं, उनका भी विस्थापन होता है और यह बहुत सामान्य और स्वाभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। भाषाविद शेल्ड्न पोलक ने जब यह कहा कि ईसा की दूसरी सहस्राब्दी में देशी भाषाओं का तेजी प्रसार हुआ, इन्होंने संस्कृत के सामने चुनौती पेश की और अंततः इसकी जगह ले ली, तो भारत में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। हो सकता है पोलक की यह धारणा कुछ हद तक अतिशयोक्ति या सरलीकरण हो, लेकिन इससे इतना तो साफ है कि इस दौरान संपूर्ण दक्षिण एशिया में देश भाषाओं का चलन और उनका साहित्यिक व्यवहार तेजी से बढ़ा, जिससे संस्कृत के कुछ अभिव्यक्ति रूपों का रूपांतरण हुआ और क्षेत्रीय ऐतिहासिक-सांस्कृतिक जरूरतों के तहत कुछ नए रूप अस्तित्व में आए।

कुछ लोगों का आग्रह यह है कि शिक्षा इन भाषा-बोलियों में दी जाए। यह निर्णय पूरी प्रतिबद्धता के साथ आजादी के तत्काल बाद लिया जाता, तो संभव है, यह मान्य भी हो जाता और अब तक ये भाषाएं-बोलियां इसकी अर्हता भी अर्जित कर लेतीं, लेकिन जिस तरह के हालात अब हो गए हैं, उनमें पीछे लौटना बहुत आत्मघाती हो सकता है। जरूरत इन भाषाओं-बोलियों के साहित्य को सुरक्षित-संरक्षित करने की है। ये भाषाएं हमारी देशज ज्ञान परंपरा और संस्कृति की वाहक हैं। इन भाषा-बोलियों का अधिकांश साहित्य अभी अभिलेखित नहीं है, और जो है, वह ग्रंथागारों में बंद पड़ा हुआ ख़त्म होने के कगार पर है। हमारे विश्वविद्यालय और शोध संस्थान इसके संरक्षण, अभिलेखन और पाठालोचन की दिशा में पहल कर सकते हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश वर्तमान पर ठहरे हुए हैं और उस पर मुग्ध और अभिभूत हैं। विडंबना यह है कि हमारे सभी विवादों की जड़ें हमारे अतीत में हैं, लेकिन इसकी सबसे अधिक अनदेखी हम ही करते हैं।

हिंदी के साथ मेरी मातृभाषा राजस्थानी है। राजस्थानी के भी कई क्षेत्रीय रूप हैं, जिनमें एक मेवाड़ी मैं बोलता-समझता हूँ। राजस्थानी में साहित्य की बहुत विविध और समृद्ध परंपराएं हैं। राजस्थानी की चारण, जैन, भक्ति, लोक आदि साहित्य की परंपराओं ने हिंदी साहित्य को बहुत समृद्ध किया है। हिंदी साहित्य के आरंभिक काल की अधिकांश रचनाएं राजस्थानी की हैं। खास बात यह है कि राजस्थान में कवि शिक्षा ग्रंथों की रचना की भी परंपरा है, जो कम भारतीय भाषाओं में मिलती हैं। ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थान और गुजरात में नए मात्रिक छंदों का विकास हुआ और इनकी पहचान के लिए कई रचनाएं हुईं। ‘कविदर्पण’ (चौदहवीं सदी) में नए विकसित मात्रिक छंदों का सोदाहरण स्वरूप निरूपण है। ‘संदेशरासक’ में प्रयुक्त सभी छंद इसमें आ गए हैं। श्रीकृष्ण भट्ट कृत ‘वृत्तमुक्तावली’ (1699-1743 ई.), चंद्रशेखर भट्ट कृत ‘वृत्तमौक्तिक’ (सोलहवीं सदी) भी इसी तरह की रचनाएं हैं। ‘वृत्तमुक्तावली’ में दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि का भी संस्कृत में निरूपण है। ‘वृत्तमौक्तिक’ छंदशास्त्र की दृष्टि से एक परिपूर्ण रचना है और इसमें सर्वाधिक छंदों का निरूपण हुआ है। चारण कवि किशनाजी आढ़ा के ‘रघुवरजसप्रकास’ की रचना 1823-24 ई. में हुई। यह मरुधर भाख़ा (राजस्थानी) छंदशास्त्र विषयक सबसे अधिक विस्तृत और वैविध्यपूर्ण ग्रंथ है। इन रचनाओं के रचनाकार जैन और चारण, दोनों थे। ऐतिहासिक कथा-काव्यों की भी राजस्थान में दीर्घकालीन परंपरा है, जो भारतीय सांस्कृतिक इतिहास लेखन में बहुत उपयोगी हो सकती है। गद्य और आख्यान की राजस्थानी में कई परंपराएं हैं। राजस्थानी की जैन और चारण परंपराओं में साहित्य के अभिलेखन की भी परंपरा थी, इसलिए देश में सबसे अधिक पांडुलिपियां यहीं मिलती हैं। भक्ति चेतना का साहित्य भी राजस्थानी में पर्याप्त है। गोरखनाथ, कबीर, रैदास, दादू, चरणदास, वल्लभाचार्य आदि की परंपराओं का साहित्य यहां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। भक्ति साहित्यिक विमर्श की भक्तमाल, वार्ता, परची आदि कई रचनाएं यहीं हुईं। लोक सहित्य की दृष्टि से यह देश का सबसे उर्वर क्षेत्र है। मीरां यहीं हुई और वह आज भी यहां की लोक स्मृति में रची-बसी हुई है।

607, मैट्रिक्स पार्क, धनश्री वाटिका के पास, न्यू नवरतन कांपलेक्स, भुवाणा, उदयपुर- 310001, राजस्थान मो. 94143 25302

 

हिंदी की बोलियां एक समय प्रतिरोध की भाषा रही हैं

  पंकज चतुर्वेदी
अनुवादक और पर्यावरणविद के रूप में ख्यात। तीन हजार से ज्यादा आलेख और ‘जल मांगता जीवन’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित। बच्चों के लिए 50 से अधिक पुस्तकों का लेखन तथा अनुवाद।

 

(1)यदि सूचना, संचार, संप्रेषण और व्यापार के माध्यम से दुनिया पास आई है तो उसका असर लोक पर होना लाजिमी है। बोली भाषा इससे कैसे अछूती रहे? लेकिन यह असर विचित्र है- एक तरफ समाज सूचित हुआ कि बोली-भाषाओं पर संकट है- इसको बचाने के लिए लोग आगे आने लगे। दूसरी तरफ भारतेंदु हरिश्चंद का कथन चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी पर संकट आ गया है, समाज तेजी से घुल-मिल रहा है और हौले-हौले अपने काम की, रोजगार की या राज-काज की बोली में छोटी बोलियां लुप्त हो रही हैं। बस्तर में पता ही नहीं चला और दंदामी गोंडी में धुवी मिल कर गायब हो गई। झारखंड में माल पहाड़िया पहले पहाड़ से नीचे आते नहीं थे तो उनकी बोली बनी हुई थी, अब वह लोग शिक्षा, रोजगार को बाहर निकले तो उनकी बोली में दीगर बड़ी और व्यापक बोलियों का संक्रमण शुरू हो गया। यह सच है कि लोक भाषाएं अपनी शुद्धता का दावा कभी करती नहीं हैं। वे देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप बदलती, ढलती और सजती-संवरती रही हैं। जाहिर है भूमंडलीकरण से बोली-भाषा प्रभावित होना ही हैं।

(2)यह द्वंद्व शिक्षा के प्रसार और स्कूल जाने वाले बच्चों की बढ़ती संख्या और रोजगार के लिए पलायन ने बढ़ाया ही है। संप्रेषणीयता की दुनिया में बच्चे के साथ दिक्कतों का दौर स्कूल में घुसते ही शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, आओ, मिजो, मिसिंग, खासी, गढ़वाली, राजस्थानी, बुंदेली या भीली, गोंडी, धुरबी या ऐसी ही ‘अपनी’ बोली-भाषा। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी बोली हिंदी या अंग्रेजी या राज्य की भाषा में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है- ‘आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाषा को, जो उसे ‘सभ्य‘ बनाने का वायदा करती है, या फिर जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं।

स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारु रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है, अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है। भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मातृभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है। अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत’ उच्चारण करते हैं। बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातीया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयन न करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहा शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एक-साथ सवारी करने की मानिंद एहसास करवाता है।

(3)असल में हिंदी प्रदेश की बोलियों में एक तो सांस्कृतिक क्षेत्र के अनुसार विभाजन है- बुंदेली, राजस्थानी, ब्रज, अंगिका, वज्जिका, मैथिली, मालवी, निमाड़ी-आदि, आदि- फिर उसके साथ उनमें पेशागत शब्द का आगम और विशिष्टता भी है, मिट्टी के काम करने वाले या लुहार के पास उस बोली-भाषा के कुछ ऐसे शब्द होते हैं जो केवल उनका समाज ही इस्तेमाल करता है। हर भौगोलिक क्षेत्र के स्वर्णकार इसे बेहतर जानते हैं। लखनऊ में चिकनकारी की कई दुकानों में वैसे तो ग्राहक से सीधी खड़ी बोली में अवधी की मिठास के साथ बात होती है, लेकिन जब दुकान पर काम करने वाले आपस में बात करते हैं तो खासकर मोलभाव की, तो वे रफ वाली भाषा बोलने लगते हैं। हर जगह की सामाजिकी पर बाजार का असर बढ़ रहा है। बनारस हो या प्रयाग, जहां बंगाली ज्यादा आने लगे वहां दुकानों के बोर्ड बंगाली में दिखते हैं- मथुरा में होली गेट के भीतर जमकर गुजराती  चलती है।

(4) 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत, उससे पहले प्राकृत या पालि में, जिसे सीमित लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे। फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानी भारत के गोबर पट्टी की संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। इधर भक्तिकाल का दौर था। हिंदी साहित्य का भक्तिकाल 1375 से 1700 तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी उसकी लोक बोलियों में साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं। वास्तव में यह हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि हिंदी या देश की अन्य लोक बोलियों की रचना का काल था।

दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे- सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु। इसके अलावा कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझा संस्कृति की बात कर रहे थे। इस तरह से नई हिंदी के उदय ने लोक-ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसीलिए हिंदी और उसकी लोक बोलियों को प्रतिरोध या पंरपराएं तोड़ने वाली भाषा कहा जाता है।

भाषा का अपना स्वभाव होता है और हिंदी उसकी लोक बोलियों के इस विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हट कर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है।

आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है उसकी सबसे बड़ी दुविधा है मानक हिंदी यानी संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे, संस्कृत का स्वभाव शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही।

ऐसा नहीं कि आम लोगों की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तद्भव शब्द। जैसे- अग्नि से आग, उष्ट से ऊंट आदि। इसमें देशज शब्द भी थे, यानी बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए। आज भी और कल भी जब-जब प्रतिरोध, असहमति की बात होगी, लोक बोली और उससे जुड़ी हिंदी ही काम आएगी।

(5)बोलियां बहता पानी निर्मला हैं, बहती रहेंगी। प्रयोग में रहेंगी तो खुद ब खुद जीवित रहेंगी। लेकिन कम से कम प्राथमिक शिक्षा को बच्चे की मां की बोली- भाषा में अनिवार्य किया जाए तो इससे शिक्षा और बोली दोनों का भला होगा। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, विद्यालय स्तर पर बच्चे खड़ी भाषा पढ़ रहे हैं। वे भले ही आपस में अपनी स्थानीय बोली-भाषा में बात कर लें, लेकिन दफ्तर में, व्यवहार में, नौकरी में वे खड़ी हिंदी ही प्रयोग करते हैं। हो यह रहा है कि बोली जानने वाले यदि लाख हैं तो उसे पढ़ने वाले सौ और पढ़ कर उसका आनंद लेने वाले दस ही। अब विज्ञापन, फिल्म और अन्य माध्यम ही वे जगह हैं जिनसे बोली को जीवंत रखा जा सकता है।

(6)हमें समझना होगा कि लोक और शास्त्रीयता में फर्क होता है, लोक बोली लोकप्रिय होती है, जबकि शास्त्रीयता कुछ जानकार लोगों तक ज्ञान-सूचना का माध्यम होती है, यही भाषा का मिजाज है। लोक बोलियों में क्या लिखा गया इससे ज्यादा जरूरी है कि उन बोलियों में कितने पीढ़ी पुराना मौखिक  गीत, कहानी, संवाद, स्वांग, मान्यता अभी जिंदा है और किस तरह समाज ने समय के साथ उसमें भी बदलाव कर लिया। फिर पहले प्रश्न पर आते हैं, भूमंडलीकरण ने उन सूचना और सरोकारों को विस्तार दिया है कि बोली-भाषा पर संकट है। इसी के चलते अब हर बोली भाषा में जो भी लोग हैं वे उनके शब्दकोश, रचना आदि का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं। अब छपी किताब के भरोसे लोग हैं नहीं, ब्लॉग हैं सोशल मीडिया है, ऑडियो-वीडियो माध्यम हैं। बहुत कुछ रचा जा रहा है। सहेजा जा रहा है। एक बात समझनी होगी, जो बड़ी बोलिया हैं और जो बड़ा जनजाति समाज या लोक समाज है और जो सरकारी नौकरियों में आ गए, वहां की भाषाओँ में लेखक भी हैं और पाठक भी, झारखंड में उरांव-मुंडा-संथाल हों या बस्तर में हल्बी वाले या राजस्थान में मीणा, मैथिली हो या अवधी। जबकि असुरी, बिर्होरी जैसी छोटी भाषा, जिनके लोग नौकरी नहीं पा सके- संकट में हैं।

जहां तक मेरे निजी अनुभव की बात है, बड़ा विचित्र जीवन है- जन्म झाबुआ का- ठेठ भीली इलाका, प्राथमिक शिक्षा से लेकर आधा कॉलेज तक इंदौर, उज्जैन, जावरा, बडवानी- अर्थात मालवा-निमाड़। पोस्ट ग्रेजुएट में छतरपुर अर्थात बुंदेलखंड आए, फिर नौकरी के दौरान, हिंदी-अंग्रेजी सहित 31 बोली-भाषाओं में काम किया- कोंकणी भी, सिंधी भी, बस्तर और झारखंड की भाषाएं भी। एक बात मेरी समझ में आई, क्षेत्रीय बोलियों का रचना संसार अधिकांश कविता और लोकगीत तक ही सीमित है। असल में बोलियों की कविता उस श्रोता वर्ग के लिए थी, जिसे पढ़ना आता नहीं था। गांव का चौपाल हो या हरबोला आया हो या फिर शहरी इलाकों में मेले-ठेले या उत्सव में कवि सम्मलेन- लोग रात भर डट कर बैठते- संदेश के लिए, सूचना के लिए मनोरंजन के लिए, बदलाव के लिए, विद्रोह के लिए। अब कविता बुंदेली या भोजपुरी में पढ़ने वाले ही नहीं है। जबकि अभी भी इन बोलियों का लेखक या उसे बचाकर रखने वाला वही कविताएं लिख रहा है- भक्तिभाव की, व्यंग्य की या लोक पर्व या बिरहा की। अब कवि सम्मेलनों में खड़ी बोली के अखाड़ेबाज कवि हैं। बुंदेली के कवि अवध किशोर जड़िया को पद्मश्री मिल गया, लेकिन आज भी उन्हें सुननेवाले सैंकड़ा नहीं जुटते। इससे पहले कैलाश मडवैया को भी मिला, लेकिन उनकी बुंदेली किताबें सरकारी सप्लाई के अलावा चली नहीं। विंध्य कोकिल के नाम से मशहूर भैया लाल व्यास मंचों पर बुंदेली की रचनाएं करते, लेकिन उनकी मुद्रित चर्चित रचनाएं हिंदी में ही रही। गुणसागर शर्मा सत्यार्थी ने तो बुंदेली में विलक्षण कवित्त रचा- एक रचना ऐसी जिसमें कोई मात्रा नहीं है, लेकिन उन्हें वृंदावनलाल वर्मा या मैथिलीशरण या सियारामशरण गुप्त जैसे नाम मिला नहीं- कारण वही बुंदेली और खड़ी बोली में लेखन का।

आज चुनौती है कि बुंदेली या मालवी या मैथिली या अन्य किसी भाषा में रचनाओं में वैविध्य आए जिसमें केवल अतीत न हो- वर्तमान हो, विज्ञान और पर्यावरण भी हो- अर्थशास्त्र और प्रबंधन की बात भी हो। फिर जब पाठक का मन हो तो नया लिखा ऑडियो और मल्टीमीडिया की मदद से नई पीढ़ी तक भेजा जाए। सबसे बड़ी बात अपनी स्थानीयता पर गर्व करने की आदत बचपन से ही डालनी जरूरी है- वह बोली-भाषा, भोजन-संस्कार आदि सभी की स्थानीयता..

संपादक, पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, 5 नेहरू भवन, वसंत कुंज सांस्थानिक क्षेत्र, नई दिल्ली-110970 मो. 9716043446

 

लोक संस्कृति की राजनीति

रेगिना बेंडिक्स
(1958-) जर्मनी में नृजातिविज्ञान की प्रोफेसर

 

लोकगीत एक प्रमुख रचनात्मक मानवीय अभिव्यक्ति है। यह जीवन के प्रवाह से जुड़ा रहता है। इसे अब वैचारिक उपलब्धि के लिए एक वस्तु में बदला जाने लगा है। इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत-से सांस्कृतिक रूप, जिनसे हम गहरे रूप से जुड़े रहते हैं, अकसर राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। लोकगीत ऐसी अभिव्यक्ति है कि वह हमारी सभी इंद्रियों को प्रभावित करता है । हमारी आंखें, नाक, कान और अन्य सभी इंद्रियां एक-दूसरे से जुड़ जाती हैं और हम आनंद विभोर हो जाते हैं। यह इस हद तक होता है कि तर्कसंगत आपत्ति की लड़ी टूट जाती है। हम उत्पादन की प्रक्रिया और प्रकृति के नियमों को समझने में भी कम समय देते हैं।

लोक संस्कृति की राजनीति विकसित करते समय उसकी संवेदन-शक्ति की अनदेखी की जाती है। एक बार जब लोक संस्कृति पर सत्ता हावी हो जाती है, संवेदनापूर्ण आनंद कम हो जाता है।

18वीं शताब्दी के आखिरी दौर में जोहान गॉटफ्राइड ने बताया था कि लोकगीत जातीय संस्कृति के अंग हैं। ये सबको जोड़ते रहे और संपूर्ण का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। उनका एक संग्रह है, ‘वायस ऑफ पीपल्स इन सांग’। यह एक राजनीतिक घोषणापत्र है। इसने न केवल यूरोप, बल्कि पूरी दुनिया में पिछले दो सौ वर्षों में राष्ट्रवाद के विस्तार के लिए वातावरण बनाया। यह ऐसी भाषा में लिखा गया था, जो रूमानियत से भरे आरंभिक राष्ट्रवाद के लिए भावनात्मक आवेग पैदा करता था। हमने पाया कि गहरा भावनात्मक आवेग अतीत ही नहीं वर्तमान में भी राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा बना है। उदाहरणस्वरूप हम 1988 में रिचर्ड हैंडलर्स का संदर्भ ले सकते हैं। उन्होंने अपने अध्ययन में बताया था र्टीशलशलेळी ने अपने लोकनृत्य को उग्र राजनीतिक मकसद से जोड़ दिया, ताकि वह सांस्कृतिक विशिष्टता का बोध करा सके और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के सच्चे दावेदार होने का एहसास भी करा सके। हैती और निकारागुआ के मामलों के अध्ययन में ऐसा ही पाया गया। रैडिकल ‘हिस्ट्री रिव्यू’ ने 2002 के अंक में ‘द यूजेज ऑफ फोक’ शीर्षक से एक लेख छापा था, इससे यह स्पष्ट है।

कैथरीन बोरलैंड ने सैंडिनिस्टा आंदोलन के मामले में नृत्य के इस्तेमाल पर स्टडी करते हुए निष्कर्ष निकाला है,  ‘सामाजिक आधार को प्रमाणित करते हुए नृत्य के माध्यम से राजनीतिक वैधता और लोक प्रतिनिधित्व का दावा किया गया है। ऐसे में लोकनृत्य एक सांस्कृतिक अवतार बन जाता है और अपने शक्तिशाली वैचारिक रूप से एक प्रतिनिधि कला-रूप का एहसास कराता है।’ 

लोक संस्कृति की एक विशेष किस्म की राजनीति का लक्ष्य सत्ता का सामाजिक आधार तैयार करना होता है। वह सत्ता का न्यूनतम प्रतिनिधित्व करने लगती है। इस विषय की अनदेखी की गई है कि लोक संस्कृति में किसे शामिल किया जाए और किसे नहीं।

लोकवार्ता में राजनीतिक हस्तक्षेप का एक लंबा इतिहास है। अतीत में यह देखा गया है कि लोक संस्कृति की राजनीति को सिद्ध करने के लिए भाषाई स्तर पर और व्यावहारिक  स्तर पर ऐसी मीमांसाएं परोसी जाती रही हैं, जिनका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। लोक संस्कृति एक आलंकारिक आह्वान होती है। इसके पीछे वस्तुतः अभिजात वर्ग की भूमिका होती है। वही उस लोकसंस्कृति का सामाजिक आधार होता है जिसमें वह सक्रिय होता है।

रोमांटिक राष्ट्रवादी गूंज तथा ऐसी वे कई पुरानी परंपराएं लोक संस्कृति का दोहन करती हैं, जो आश्चर्यजनक रूप से 1990 के दशक में फिर से सक्रिय हो गई हैं। 21वीं सदी में लोक संस्कृति की राजनीति पर नजर डालने की जरूरत है, हालांकि लोक संस्कृति की राजनीति की जगह लोक संस्कृति के अर्थशास्त्र पर गौर करना चाहिए। यह बहुत सारे मामलों की जानकारी दे सकता है। ‘अस्मिता की राजनीति’ और ‘मान्यता की राजनीति’ की विशेष कार्यसूची में आर्थिक हित और एजेंडे कितने गहरे हैं, यह समझने की जरूरत है। ‘मान्यता की राजनीति’ में लोक या लोक-आधारित राजनीतिक आकांक्षा चाहे-अनचाहे केंद्र में होती है। इस आकांक्षा की चपेट में लोक अपने को वस्तु में बदलने के लिए आतुर रहता है। वस्तुकरण के लिए और सूचीबद्ध होने के लिए वह अपने को परोसता रहता है। कोई चाहे तो यहां तक कह सकता है कि लोक संस्कृति की एक असफल राजनीति भी लोक संस्कृति के सफल विपणन का कारण बन सकती है।

 

हिंदी को उसकी बोलियों ने समृद्ध विरासत दी है

  सुभाष राय
वरिष्ठ कविगद्यकार एवं दैनिक जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक। दो कविता संग्रह सलीब पर सचऔर मूर्तियों के जंगल में’, एक निबंध संग्रह जाग मछन्दर जागऔर संस्मरण एवं आलोचनात्मक लेखों का एक संग्रह अंधेरे के पार

 

भूमंडलीकरण के कारण गांवों का शहरों की ओर पलायन हुआ। नौकरी की तलाश में, काम के लिए लाखों लोग शहरों की ओर आए और वहां आते ही सभ्य शहरियों की तरह हिंदी या टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने लगे। अपनी बोलियां अछूत हो गईं, असभ्यों की भाषाएं हो गईं। भूमंडलीकरण ने सीधे बोलियों पर कोई खास असर नहीं डाला, लेकिन इसके चलते ग्रामीण इलाकों से हुए विस्थापन ने बोलियों के किले में जरूर सेंध लगाई। जो लोग जीविका की तलाश में गांवों से शहरों की ओर आए, उनका संबंध अपनी प्राचीन परंपराओं से, पुश्तैनी काम-धंधे से, दूर तक फैले हुए रिश्ते-नातों से, खेती-बाड़ी, बाग-बगीचे से टूट गया। इस तरह उनका संबंध एक ऐसे लोकवृत्त से टूट गया, जिसमें जीवन का उल्लास था, जिसमें लोकोत्सवों और लोकगीतों का अविरल अजस्र प्रवाह था, जिसमें सहयोग-सहकार था, अपनापन था और यह सब उनकी अपनी बोली में था।

धीरे-धीरे गांवों ने भी शहरों की चमक-दमक का स्पर्श महसूस किया, पारंपरिक जीवन की कड़ियां धीरे-धीरे टूटनी शुरू हुईं, उत्सव-त्योहारों का उल्लास कम हुआ और खेती-बाड़ी से भी मोह-भंग हुआ। शहरों से रिश्ता रखने के लिए बोलियों की जरूरत नहीं रह गई। बेशक इसका व्यापक असर हुआ। लोकगीतों की श्रुत परंपरा क्षीण हुई, ग्रामीण संस्कृति के कई उपकरण बेकार होने लगे और इस तरह उनकी शब्दावलियां भी निस्तेज हुईं। खूंटा, जाबी, हेंगा, हर, खांची, खुरपा, दंवरी, सोहर, बिरहा, गारी जैसे तमाम शब्द अब नई पीढ़ी के बच्चों को पता नहीं। उन्होंने मटर और सरसों के फूल, धान और गेहूं की बालियां कहां देखी होंगी। कभी हमारी बोलियां विद्वत्समाज की, साहित्य की भाषा हुआ करती थीं, अब उन्हें निर्धनों, लंपटों, अनपढ़ों, असभ्यों की भाषा समझा जाने लगा है। आर्थिक कारणों से बोलियों की समृद्ध और लोकोन्मुख संस्कृतियां खतरे में हैं। इसे भूमंडलीकरण का असर भी कह सकते हैं।

हिंदी उत्तर के दस राज्यों में बोली, लिखी-पढ़ी जाती है। इस बड़े भूभाग में अनेक बोलियां हैं। अपने-अपने इलाकों में वे संवाद की भाषाएं हैं। अनेक लोग मिलेंगे जो उतने ही अधिकार से अपनी बोली का प्रयोग करते हैं, जितने अधिकार से हिंदी का। जो लोग बोली और भाषा के जीवंत रिश्ते को जानते हैं, वे समझते हैं कि उनकी बोली ने उन्हें अपनी ‘हिंदी’ में कितना समृद्ध किया है। ग्रामीण क्षेत्रों की निरंतर उपेक्षा और राजनीतिक लाभ लेने की विभिन्न दलों की कोशिशों ने क्षेत्रवाद के नाम पर समाज को बांटने की जो रणनीति हाल के वर्षों में अपनाई है, उसने बोली-भाषा के द्वंद्व को बढ़ावा दिया है। कई महत्वपूर्ण बोलियों के समाजों ने अपनी बोलियों के संरक्षण और विकास के लिए उन्हें समवर्ती सूची में डालने की मांग शुरू कर दी है। मैथिली को यह दर्जा हासिल भी हो चुका है। अब अगर मिथिला के लोग कहें कि विद्यापति तो उनके हैं, हिंदी के नहीं तो क्या होगा। इस विभाजनकारी उपक्रम का सारा दोष केवल राजनीति को ही देना ठीक नहीं होगा। इसके लिए हिंदी के लेखक, चिंतक, साहित्यकार, विश्वविद्यालय और अकादमियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

हिंदी के कितने बड़े लेखक अपनी रचना भाषा के रूप में, अपने वक्तव्य और संवाद के लिए अपनी बोलियों का इस्तेमाल करते हैं? राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र जैसे कई उद्भट विद्वानों को हमने भोजपुरी में धाराप्रवाह बोलते देखा है, लेकिन उन्होंने भी अपने महत्वपूर्ण काम हिंदी में ही किए, अपनी बोली में नहीं। हम जानते हैं कि हिंदी अपनी बोलियों की ताकत से ही एक समृद्ध भाषा के रूप में स्थापित हुई है। बोलियों से आए स्थानीय मुहावरे, लोकोक्तियां, लोककथाएं, उनके क्षेत्र का जीवन हमेशा हिंदी में बड़ी कृतियों का आधार बना है। हिंदी का प्राण तत्व हैं उसकी बोलियां। वे सांस की तरह समायी हुईं हैं हिंदी में। हिंदी को अपनी बोलियों से अलग देखने की बात भी कैसे की जा सकती है।

बोलियों में ही हमारी भाषा की जड़ें हैं। भला जड़ों का तने से क्या द्वंद्व हो सकता है, फूल का अपनी सुगंध से क्या द्वंद्व हो सकता है, मां का अपनी बेटी से क्या द्वंद्व हो सकता है। अपनी बोलियों से अलग होकर हिंदी जीवित नहीं रह सकती। अगर दोनों में कोई द्वंद्व कहीं दिखता है तो वह गढ़ा हुआ है, बनावटी है, साजिशन है और ऐसी किसी भी साजिश को कामयाब नहीं होने देना चाहिए।

हिंदी प्रदेश कृषि आधारित सामाजिक ताने-बाने में बुना हुआ है। कृषि संस्कृतियां हमेशा लोकोन्मुख, पारिवारिक और उत्सवधर्मी संस्कृतियां रही हैं। वहां विभिन्न तरह के काम करने वाले परस्पर सहकार-सहयोग से रहते रहे हैं। अन्योन्याश्रित रिश्ते की डोर से बंधे हुए। सबके सुख-दुख में शामिल होने के कारण ये रिश्ते हजारों वर्षों तक अभेद्य, अटूट रहे। इसी जीवन से अनेक महान साहित्यिक रचनाएं निकलीं, लोकगीतों और लोकोत्सवों का अपार संसार बना। आर्थिक और जातिगत कारणों से छोटी जातियों का शोषण भी हुआ। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद बोलियां सबको जोड़े रहीं, लेकिन जब वक्त आया तो बोलियों ने ही वंचित समाजों को अपने अधिकारों के लिए विद्रोह का साहस भी दिया।

मैंने पहले भी कहा है कि बोलियां ही हमारी मातृभाषाएं हैं। बोलियों ने हिंदी को जो समृद्ध विरासत सौंपी है, उसका कोई शानी नहीं है। गोरख, सूरदास, तुलसीदास, मीरां, कबीर, जायसी और विद्यापति को हम सगर्व हिंदी के दायरे में रख लेते हैं। इन्हें हिंदी के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है। सूरसागर, पद्मावत, रामचरितमानस को हिंदी अपने महाकाव्यात्मक साहित्य के रूप में अपने आंचल में संभालकर रखती फूली नहीं समाती।

यह अधिकार हिंदी को मिलना चाहिए, लेकिन उसे अपने दायित्व का भी ध्यान रखना होगा कि वह अपनी बोलियों को अपनी धड़कन की तरह स्वीकार करे। एक समय तो ‘ब्रजबुली’ ही साहित्य की भाषा थी।  बिना ‘ब्रज भाखा’ में अपनी सामर्थ्य सिद्ध किए कोई बड़ा रचनाकार माना ही नहीं जाता था। दुर्भाग्य से आज हमने अपनी महान बोलियों को अकेला, नग्न, निहंग छोड़ दिया है। हिंदी ने स्थानिकता के नाम पर बोलियों के ताकतवर मुहावरों, लोकोक्तियों और लोककथाओं का इस्तेमाल तो किया है, लेकिन बोलियों को उत्कृष्ट रचनाओं का माध्यम बनाने से हमेशा परहेज किया है। उनकी और उनके समाजों की अक्षम्य उपेक्षा की है।

बोलियों के संरक्षण, उनकी समृद्धि और उनके विकास का रास्ता हिंदी से अलग होकर नहीं जाता। इसके लिए हिंदी के साथ ही बोलियों को भी साहित्य रचना का माध्यम तो बनाया ही जाना चाहिए, उनके प्रति हीनता की भावना को भी तिलांजलि देनी चाहिए। कितनी बड़ी विडंबना है कि ‘मानस’ और ‘पद्मावत’ तो हमारे लिए अपूर्व ग्रंथ हैं, लेकिन अवधी बोलने वाले और अवधी में साहित्य रचना करने वाले हमारे लिए दोयम दर्जे के लोग हैं। इसी तरह भिखारी ठाकुर हमारे लिए एक काव्य नायक हैं, लेकिन भोजपुरी में लिखने वाले ‘नालायक।’ हो सकता है कि बोलियों में अच्छी रचना नहीं लिखी जा रही हों, लेकिन जब प्रतिष्ठित लेखकों, रचनाकारों ने बोलियों को त्याज्य समझ लिया है, फिर क्या उम्मीद रखी जाए। इन बोलियों की समृद्धि के लिए इनके बोलने वालों की समृद्धि भी जरूरी है। ग्रामोन्मुख अर्थव्यवस्था ही इसका समाधान है ताकि शहरों, महानगरों की तरह ग्रामीण इलाके भी उत्सव और उल्लास के केंद्र बन सकें। वहां विश्वविद्यालय हों, वहां अकादमियां हों, वहां गोष्ठियां हों और बोलियां इनका माध्यम बनें।

मैंने अपनी मां से बोली पाई और बोली से अपनी भाषा। मेरी मां को सिर्फ भोजपुरी आती थी। मेरी पहली भाषा यही है। यही मेरी मातृभाषा है। दूसरी भाषा के रूप में हिंदी को मैंने अर्जित किया। स्कूलों में शिक्षकों से, किताबों से सीखा। अब मेरे आस-पास भोजपुरी कम, हिंदी ज्यादा है। मैं अपने बच्चों से हिंदी में ही बात करता हूँ, लेकिन वे भी अनजाने ही भोजपुरी से जुड़े हुए हैं। गांव से, घर से, ननिहाल से गहरा जुड़ाव होने के कारण उन्होंने भी भोजपुरी सीख ली। भोजपुरी मेरे बच्चों के लिए दूसरी भाषा है। गांवों से शहरों की ओर आए अधिकांश लोगों की यही कहानी है, चाहे वे किसी भी हिंदी प्रदेश से हों, किसी भी मातृभाषा, किसी भी बोली से जुड़े हों।

भोजपुरी क्षेत्र लंबे समय से अभाव, दुख, वंचना और शोषण का शिकार रहा। यद्यपि इसके खिलाफ लड़ाइयां भी कम नहीं लड़ी गईं, लेकिन यह दर्द, शोषण और युद्ध प्रतिभाशाली कवियों, लेखकों की कलम की नोंक पर बहुत कम आया। भिखारी ठाकुर जरूर भोजपुरी के श्रेष्ठ लोककवि और नाटककार के रूप में सामने आए, लेकिन जिस तरह भोजपुरी की बहन समझी जाने वाली मैथिली निरंतर समृद्ध होती गई, वैसा भोजपुरी के साथ नहीं हो सका। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में भोजपुरी पढ़ाई भी जाती है, लेकिन यह स्वांग से ज्यादा कुछ नहीं है। रोजगार के बिना भोजपुरी के पठन-पाठन का क्या मतलब? भोजपुरी में कविताएं, कहानियां, नाटक, उपन्यास बहुत लिखे गए, पत्र-पत्रिकाएं भी बहुत निकलीं, लेकिन कोई बहुत उल्लेखनीय काम नहीं हुआ। विवेकी राय, गोरख पांडेय, अवध बिहारी सुमन, रामनाथ पांडेय, भोलानाथ गहमरी, मोती बी ए, महेंद्र मिसिर, हरिहर सिंह, तेग अली तेग जैसे लोगों की सक्रियता के बावजूद भिखारी ठाकुर के ‘विदेसिया’ के बाद कोई बड़ा काम नजर नहीं आता। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। जरूरत यह भी है कि हिंदी समाज अपनी बोलियों पर गर्व करे, उन्हें सम्मान दे और उन्हें साथ लेकर चले।

डी-1/109,  विराज खंड, गोमतीनगर, लखनऊ-226010 मो.9455081894

 

भूमंडलीकरण बोलियों ही नहीं, राष्ट्रीय भाषाओं के समक्ष भी एक चुनौती है

  अनुपम श्रीवास्तव
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के सूचना एवं भाषा प्रौद्योगिकी विभाग में सहायक प्रोफेसर (भाषाविज्ञान)। भारतीय भाषाचिंतन एवं लेखन के साथ भाषा, संस्कृति और मीडिया अध्ययन में रुचि।

 

(1)बोलियां भाषाई सामासिकता की महत्वपूर्ण इकाई हैं। बोलियों का अपना लोक है जो अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ग्लोबल के बजाय लोकल में समूहित, संरचित और ध्वनित होता है। बोली की तुलना में भाषा की सत्ता अधिक व्यवस्था-केंद्रित और सत्ता-समर्थित होती है। जबकि बोली अपने नैसर्गिक परिवेश में पलती और फलती-फूलती है। इसीलिए संभवतः भर्तृहरि भाषा को मन की नदी के बजाय ‘मन की नहर’ और कबीर ‘भाखा बहता नीर’ कहते हैं।

बोलियों को देखने-परखने की दो दृष्टियां हैं। पहली, बोली को भाषा का प्राथमिक और अपरिष्कृत रूप मानती है। दूसरी दृष्टि बोली (बोलियों) को भाषा का स्वाभाविक, आधारभूत और वास्तविक रूप मानती है। इसी से बोलियों के प्रति हमारा बर्ताव बदल जाता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में सत्ता और बाजार द्वारा समर्थित एवं सशक्त भाषाएं अपने आस-पास के बाकी भाषाई रूपों को नियंत्रित और सीमित करती हैं। इस व्यवस्था में बोलियों की चिंता और उनका ख़याल केवल उतना और वहीं तक है जितना वे उत्पादकता, विक्रय और वितरण के तंत्र के लिए अपेक्षित होती हैं। सरल शब्दों में, कंपनियों को अपना माल तैयार करने, उसे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने और उसे खरीद लेने के लिए ग्राहक को प्रेरित करने के लिए भाषा के जिस रूप की जरूरत होती है, चाहे वह अपनी भाषा हो, बाहर की भाषा हो, विभाषा-अपभाषा हो या बोली हो, उसी का सिक्का बाजार में चलता है।

बोलियों के अस्तित्व और विकास के लिहाज से यह प्रवृत्ति सामान्यतः नकारात्मक प्रभाव डालती है, लेकिन कभी-कभी यही बोलियों को बचाती और बढ़ाती भी है। इसे हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों और सेवाओं से जुड़े विज्ञापनों के बोलीगत संस्करणों में देख सकते हैं। इसी के चलते कभी सुपरमैन भोजपुरी बोलता है तो कहीं बहुराष्ट्रीय खेल चैनलों को हिंदी की पिच पर आना पड़ता है। इसके बावजूद समझना होगा कि बड़े कारोबारी घराने भाषा या बोली को अपनी नफ़ानोशी के टूल की तरह ही इस्तेमाल करते हैं। बोलियों के संरक्षण या संवर्धन का कोई बहुत आत्मीय या नेक इरादा वहां नहीं होता।

बोलियों पर भूमंडलीकरण के असर का एक और पहलू है। वैश्विक उदारीकरण का असर देसी बाजार के साथ-साथ देशी राजनीति के हलकों में भी उतरता है। इस लिहाज से सत्ता और भाषा की राजनीति केवल किसी बड़ी प्रभावी भाषा बनाम छोटी भाषाओं के नाम पर ही अपने खेल नहीं खेलती। अब यह एक ही भाषा की बोलियों के बीच में भी अस्मिता संघर्ष के मोर्चे खोलती है। एक ओर भाषाओं-बोलियों से जुड़े अकादमिक और सांस्कृतिक महत्वाकांक्षी इन आपदाओं में अपने अनुकूल अवसर की जुगाड़ करते हैं, दूसरी ओर बाजार इन स्थितियों को अपने लाभ के हिसाब से फलाता है। इसका दूरगामी असर भाषाओं के अस्तित्व और विकास के भविष्य पर पड़ता है। बोलियों का तो खैर न उससे पहले कुछ भला होता था और न इसके बाद होता जान पड़ता है।

भूमंडलीकरण और इसकी आड़ में नए समीकरणों के साथ फैलते नव औपनिवेशिक साम्राज्यों के चलते कुछ चुनिंदा प्रभावी (वैश्विक) भाषाओं के अलावा लगभग सभी छोटी-बड़ी भाषाओं और बोलियों के लिए कई तरह की चुनौतियां सामने आई हैं। पहली चुनौती के तौर पर उपनिवेशी दौर के बाद की दुनिया में पिजिन और क्रियोल भाषा रूपों के बाद अब नई पीढ़ी और नए दौर की भाषा के तौर पर चिंगलिश, पिंगलिश, हिंगलिश, तमिलिश, बंगलिश जैसे हाइब्रिड भाषा रूपों के बढ़ते सम्मोहन या भाषिक संक्रमण को देखा जा सकता है। यह सिलसिला भाषाओं तक सीमित न रहकर बोलियों तक भी जाता है। भूमंडलीकरण के प्रभाव का दूसरा आयाम वह है, जहां चिनुआ अचेबे और उनके जैसे अनेक समर्थ लेखक अंग्रेजी का सामना करने के लिए अंग्रेजी में लेखन को अपना हथियार बनाते हैं। इस तरह के उदाहरण आपको हिंदी पट्टी सहित भारत के तमाम दूर-दराज भाषाई इलाकों तक भी फैले दिखाई देंगे। भले ही वहां चिनुआ जैसी कोई महान प्रेरणा हो या न हो। दुनिया भर के युवा बेहतर रोजगार और जीवन की उम्मीद में बिना किसी कसक के अपनी बोलियों को भूलकर अंग्रेजी, स्पेनिश, फ्रेंच या ऐसी ही कोई अन्य भाषा सीखने के लिए तैयार हैं, यह भूमंडलीकरण के प्रभाव की तीसरी और सबसे दर्दनाक तस्वीर है।

(2)हिंदी भाषा और इसकी बोलियों का द्वंद्व इकहरा और सरल स्तरित नहीं है। पहला द्वंद्व तो भाषाई व्यवस्था के द्वैत पर आधारित है जिसकी स्थिति किसी हद तक सैद्धांतिक है। इस व्यवस्था में भाषा और बोली का प्रायः उत्तराधर संबंध माना जाता है। यानी बोली प्राथमिक या आधारिक रूप और भाषा उसका द्वितीयक या उच्चतर रूप। हालांकि वह भाषाई रूप जिसे भाषा का दर्जा प्राप्त है अपने मूल रूप में कोई बोली है या मुख्यतः किसी एक बोली से विकसित है। इस दृष्टि से कई बोलियां मिलकर एक भाषा क्षेत्र या भाषिक परिवार की रचना करती हैं। एक भाषिक क्षेत्र की विभिन्न बोलियों में किसी श्रेणी तक परस्पर बोधगम्यता, व्याकरणिक अंतःसूत्रता, साझी शब्दावली जैसे गुण मौजूद रहते हैं। भाषा-बोलियों के इस द्वंद्व बोध में बोलियों का अस्मिता बोध गौण या नगण्य प्राय होता है और आपस में बड़े पैमाने पर सह अस्तित्व का भाव बना रहता है।

द्वंद्व का दूसरा संदर्भ किसी परिवार के सदस्यों के बीच संवाद और मन-मुटाव जैसा है जिसमें थोड़ी बहुत टस-मस के बावजूद परिवार के सदस्यों की आस्था परिवार में कायम रहती है। यहां पहली स्थिति की तुलना में अस्मिता बोध कुछ अधिक स्पष्ट होता है। दूसरी भाषिक इकाई को लेकर महीन व्यंग्यबोध, चुहलबाजी या तानाकशी देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, उद्धव-गोपी संवाद के बहाने क्षेत्रीय ज्ञान-बोध परंपराओं से जुड़े उपालंभ-गोकुल सबै गोपाल उपासी। जोग-अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी या फिर निरगुन कौन देस कौ बासी… वग़ैरह। यह कंट्रास्ट खास तौर पर किसी भाषिक परिवार के दो सीमांतों पर स्थित बोलियों के रूपात्मक और संप्रेषणात्मक विभेदों में सर्वाधिक मिलता है।

तीसरे संदर्भ में यह द्वंद्व एक भाषा के अंतर्गत विभिन्न बोली समूहों के अस्मिता बोध से जुड़ा होता है जो कभी-कभी राजनीतिक छलनाओं और षड्यंत्रों का शिकार होकर खुद का या अपनी भाषा का नुकसान कर डालता है।

हिंदी क्षेत्र में भाषा-बोली के द्वंद्व का एक स्तर भाषा द्वैत (डाइग्लोसिया) से संबंधित है जिसमें प्रयोक्ता व्यवहार क्षेत्र के अनुसार उपयुक्त भाषिक रूप (भाषा/बोली) का इस्तेमाल करता है। (जैसे, घर में घर की बोली, बाज़ार में बाजार की मिली-जुली बोली-भाषा, औपचारिक स्थानों में शिष्टभाषा का प्रयोग) दूसरे स्तर पर किसी प्रयोजन, प्रेरणा या मजबूरी के चलते एक भाषिक रूप को छोड़कर दूसरे भाषिक रूप की तरफ रुख करने वाला मामला होता है। (जैसे, ‘स्वांतःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबंध मंञ्जुलमातनोति’ वाली तुलसीदास की प्रेरणा या फिर भासा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास वाली केशव दास की विवशता।) तीसरे संदर्भ में अपनी मूल बोली से शिष्ट/मानक भाषा में अथवा एक बोली से दूसरी बोली या फिर एक भाषा से दूसरी भाषा में अधिकांशतः या पूर्णतः प्रतिस्थापित हो जाने की स्थिति देखी जाती है। (जैसे, किसी हिंदी या हिंदी की किसी खास बोली बोलने वाले लेखक द्वारा अन्य भाषा/बोली में लेखन)

(3)हिंदी प्रदेश एक व्यापक भू-भाषिक क्षेत्र में फैला है। यह क्षेत्र पर्याप्त भाषाई, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विविधताओं से भरा है। हिंदी की बोलियों की जटिल सामाजिकी को समझने के लिए यह तथ्य महत्वपूर्ण है। एक ओर हिंदी क्षेत्र में अवधी और ब्रजभाषा की प्रतिष्ठित साहित्यिक और सांस्कृतिक लोक धाराएं हैं। इनके साथ ही भोजपुरी और अन्य बोलियों का समृद्ध लोक साहित्य भी है। हर बोली के पास अपनी कुछ विशिष्ट शब्दावली और मुहावरे हैं जो वहां के लोक जीवन, स्थानीय काम-धंधों से जुड़ी कार्य पद्धतियों और उपकरण-संसाधनों को व्यक्त करते हैं। खास तौर पर राजस्थानी और पहाड़ी हिंदी बोलियों के भाषिक सीमांतों पर अनेक अनचीन्हे समस्यात्मक क्षेत्र हैं जो ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के समय से अब तक सुलझाव की प्रतीक्षा में हैं। इनके अलावा बोलियों के समुचित विकास, संरक्षण और प्रोत्साहन के मार्ग में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विशेषाधिकार और विषमताओं के द्वंद्व और अनेक अवांछित हस्तक्षेप हैं। भाषा, उपभाषा, बोली, उपबोली की मान्यता से जुड़े अनेक अनावश्यक विभेद हैं। इन सबका प्रभाव हिंदी की समग्र भाषाई पहचान पर पड़ता है।

(4)भाषा और बोली के लेबल बहु प्रचलित होने के बावजूद पूरी तरह से निरपेक्ष और निरापद नहीं हैं। वर्नाक्युलर और वेराइटी जैसे शब्दों ने इस विभेद को और गहराने का काम किया है। इस दृष्टि से भाषा-बोली के बजाय भाषिक लोकवृत्त और उसके अंतर्गत लोक भाषाओं की संकल्पना अधिक लोकतांत्रिक है। हिंदी की बोलियां हिंदी की सबॉर्डिनेट नहीं, बल्कि को-ऑर्डिनेट हैं। एक चर्चित न्यायिक टिप्पणी के संदर्भ से कहूं तो यह मामला ‘हेड एंड सबॉर्डिनेट’ का नहीं, बल्कि ‘फ़र्स्ट अमंग द ईक्वेेल्स’ का है।

बोलियां किसी भाषिक संस्कृति की सबसे जीवंत वाहक होती हैं, बशर्ते उनको बोलने वाले उन्हें ज़िंदा रखने के लिए तत्पर हों। हिंदी या कोई भी भाषा अपनी बोलियों से ही समृद्ध होती है। उनका इतिहास, भूगोल, सामाजिक ताना-बाना, संस्कृति, स्थानिक वैशिष्ट्य वगैरह भाषा को विविध संदर्भों में जीवंत और प्रासंगिक बनाए रखता है। हिंदी के संदर्भ में यह बात और भी महत्व के साथ इसलिए उभरती है कि हिंदी की व्याप्ति अपने मूल भाषा क्षेत्र से बढ़कर देश और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही है।

फिजी, सूरीनाम, मॉरीशस, गयाना, त्रिनिदाद-टुबैगो, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में हिंदी की ऐतिहासिक उपस्थिति इसकी बोलियों की वजह से ही संभव हुई। देश के अंदर हैदराबादी, कलकतिया, बंबइया, मद्रासी और शिलांगी हिंदी जैसे पिजिन/क्रिओल रूप-भेद हिंदी की समावेशी प्रकृति के कारण विकसित हुए। ऐसे ही अनेक तथ्यों और उदाहरणों के आधार पर कहना उचित लगता है कि हिंदी को केवल उसके एक खास भाषिक स्वरूप (मानक/ परिनिष्ठित हिंदी) के आधार पर समझना अधूरा प्रयास होगा। अगर देश विदेश हिंदी के अंतस में उतरना है तो इसकी बोलियों को बोलना और बचाना होगा।

(5)इस प्रश्न के उत्तर में बहुत विस्तार से कुछ न कहते हुए कुछ बिंदु रखना पर्याप्त है-

एक, हिंदी क्षेत्र की समाज-भाषिकी के मर्म को समझते हुए इसकी बोलियों के अस्तित्व और विकास से जुड़े वास्तविक खतरों को भांपना और अस्मिताबोध की अतिवादी मान्यताओं से बचना।

दो, बोली क्षेत्र में अपनी बोली और उसकी सामाजिक संस्कृति के प्रति लगाव जुड़ाव पैदा करने वाले उपायों को खोजना और उनको आत्मसात करना।

तीन, बोलियों के प्रलेखन और संरक्षण के लिए अत्याधुनिक भाषा तकनीकी और सूचना एवं संचार तकनीकी संसाधनों का उपयोग करने वाली योजनाओं का प्रारूपण और निष्पादन करना।

अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात- भाषा का कोई भी रूप केवल संख्या बल के आधार पर या फिर संरक्षण के कृत्रिम उपायों के साथ न तो आगे बढ़ सकता है और न लंबे समय तक अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब हो सकता है। इसके लिए अपनी भाषा-अपनी बोली के लिए सच्चा अनुराग, उसको अधिकाधिक गहराई के साथ जानना-सीखना और इस्तेमाल करना ही उपाय है।

(6)ब्रजभाषा मेरी मातृभाषा है। मेरे भाषाई, पारिवारिक, सामाजिक और साहित्यिक संस्कारों की शुरुआत ब्रजभाषा में हुई। हिंदी के ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक लोकवृत्त में ब्रजभाषा की उपस्थिति और महत्ता सर्वविदित है। भाषा के तौर पर कमोवेश आज भी यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बड़े क्षेत्र और इसकी सीमाओं से लगने वाले राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ-कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है। ब्रजभाषा का साहित्यिक-सांस्कृतिक और व्यापक संपर्क भाषाई क्षेत्र इसकी भौगोलिक परिधि से बहुत दूर तक विस्तृत रहा है। इसके भाषावैज्ञानिक विवरण में जाना फिलहाल अपेक्षित नहीं है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि प्राचीन काल से ही ब्रजमंडल भारत की भाषिक-साहित्यिक संस्कृति का महत्वपूर्ण केंद्र रहा। हिंदी साहित्य के मध्यकाल में यह अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी और आधुनिक हिंदी साहित्य की शुरुआत तक इसका प्रभाव किसी न किसी मात्रा में बना रहा।

मेरी जानकारी के अनुसार भाषा के अर्थ में ब्रजभाषा का शुरुआती प्रयोग संभवतः रीतिकालीन कवियों ने किया। इसका विकास लगभग 11वीं शताब्दी से शुरू हुआ। धीरेंद्र वर्मा के शोध अध्ययन के अनुसार 1499 ई. को साहित्यिक ब्रजभाषा के शिलान्यास का वर्ष माना जा सकता है। 16वीं सदी तक आते आते इसे मध्य देश की सर्वसमर्थ साहित्यिक भाषा के रूप में पहचान और प्रतिष्ठा हासिल हुई। सूरदास सहित अष्टछाप कवियों के अलावा श्रीभट्ट, हरिव्यासदेव, हितहरिवंश, हरिराम व्यास, जगन्नाथ गोस्वामी, गदाधर भट्ट, मीरा, रैदास, नानक, दादू दयाल, मलूकदास, सुंदरदास, केशवदास, सेनापति, अकबर, गंग, रहीम, रसखान, चिंतामणि, मतिराम, भूषण, बिहारी, रसनिधि, कुलपति मिश्र, आलम, बोधा, वृंद, देव, घनानंद, रसलीन, सोमनाथ, भिखारीदास, दूलह, गिरिधर, पद्माकर, जगतसिंह, दीनदयाल गिरि, द्विजदेव, कुलपति, गुरु गोविंदसिंह आदि कितने ही नाम हैं जिनको दर्ज करने के बावजूद कुछ न कुछ छूट जाने का भय लगता है।

आधुनिक काल में खड़ी बोली में कविता की शुरुआत होने के बावजूद भारतेंदु समेत उस समय के तमाम बड़े कवि समानांतर रूप से ब्रजभाषा में भी लिख रहे थे। भारतेंदु युग के बाद शुक्ल-द्विवेदी युग और कुछ अंशों में छायावादी युग की शुरुआत तक ब्रजभाषा ने मुख्यधारा में अपनी कुछ न कुछ जगह बनाए रखी। इसके बाद इसका क्षेत्र सिमटता गया। अंबिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, जगन्नाथदास रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न, लाला भगवान ‘दीन’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, अनूप शर्मा, किशोरीदास वाजपेयी, हृषीकेश चतुर्वेदी, राय राजेश्वर बली, गोपालप्रसाद व्यास, सत्येंद्र, प्रभुदयाल मीतल, रामनारायण अग्रवाल, अंबाप्रसाद सुमन, धीरेंद्र वर्मा, कैलाशचंद्र भाटिया, चंद्रभान रावत, श्रीराम शर्मा, राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी, सोम ठाकुर, शशि तिवारी, आशा शर्मा, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, राधागोविंद पाठक, प्रेमदत्त मैथिल, उमाशंकर मिश्र, गोपालप्रसाद मुद्गल आदि आधुनिक ब्रजभाषा के उल्लेखनीय रचनाकार और अध्येता हैं। (जिनका उल्लेख छूट गया, उनसे क्षमा)

केवल ब्रजभाषा ही नहीं, बल्कि विशाल हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों को शामिल करते हुए कहना चाहूंगा कि अपनी अनेकानेक समृद्ध लोक भाषाओं की ताकत से जुड़कर हिंदी आज इतनी समर्थ और सशक्त बन पाई है। भाषा-साहित्य शिक्षण के लिहाज से कहें तो ब्रजभाषा का साहित्य हिंदी साहित्य के पठन-पाठन के हर शैक्षणिक स्तर पर उपस्थित रहता है। देश-विदेश में अध्ययनरत हिंदी साहित्य के विद्यार्थी और शोधार्थी विभिन्न दृष्टियों से इस लोक भाषा का अध्ययन करना चाहते हैं। देश-दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह ब्रज क्षेत्र भी आधुनिकता के विभिन्न प्रभावों से अछूता नहीं है। यहां की स्थानीयता, परंपरागत जन-जीवन, काम-धंधे और लोक अनुभवों से जुड़ी ठेठ शब्दावली और उसके मुहावरे अब आधुनिकता की धुंध में लगभग खोते जा रहे हैं। फिर भी ब्रज क्षेत्र के लोग अपनी इच्छाओं की हद तक इसे आज भी जीते हैं। सरकारी रेडियो, टीवी, अकादमियां, शिक्षण-शोध संस्थान, गैर सरकारी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, मनोरंजन उद्यम वगैरह अपने-अपने दायरों या कंफर्ट जोन में ब्रजभाषा के लिए कुछ न कुछ योगदान कर रहे हैं, तमाम आलोचनाओं के बावजूद उसे सिरे से नकारा नहीं जा सकता।

सूचना एवं प्रोद्यौगिकी विभाग, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा282005 मो.8958832424

 

जनपदीय साहित्य

हजारीप्रसाद द्विवेदी
(1907-1979) हिंदी के सुप्रसिद्ध विद्वान और कथाकार।

 

आप इस प्रदेश की भाषा का और इस भाषा में प्रचलित लोकसाहित्य का अध्ययन करें तो केवल हिंदी साहित्य की नहीं, समूची भारतीय जनता की सेवा होगी। जिस प्रदेश में आपको कार्य करने का अवसर मिला है, वह बहुत बड़े ऐतिहासिक गौरव का साक्षी रहा है। आपके गांवों में उस ऐतिहासिक गौरव के विशिष्ट चिह्न बिखरे पड़े हैं। उनके प्रति आपकी दृष्टि सदा सतर्क बनी रहे तो आप हमारे इतिहास को बहुत कुछ दे सकते हैं।

ऐसा न समझिए कि मैं केवल पुरानी ईंटों और सिक्कों की ही बात कर रहा हूँ। ऐसा भी हो सकता है कि मैं यहां जनता के गीतों में, कहावतों में, किंवदंतियों में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य की गवाही बची रह गई हो। इसलिए इन सबका महत्व है। हो सकता है कि आज किसी को किसी गीत का या किंवदंती का महत्व समझ में न आए, फिर भी आपको उसे संग्रह कर लेना चाहिए। आगे चलकर किसी पंडित को उससे कुछ प्रकाश मिल सकता है। कुछ भी उपेक्षणीय नहीं है।…

आपके ईर्द-गिर्द जो जनता है, वह बहुत बड़ी चीज है। उसकी परंपरा महान है। उसी को आप अपने अध्ययन का प्रधान विषय बनाएं। जनता को पढ़ाइए। आपको इसी जनता के निकट-संपर्क में रहकर कार्य करना है। यदि आप इस जनता को सब प्रकार के ज्ञान के प्रति सचेष्ट बनाएंगे, तो आपका प्रयत्न अवश्य सफल होगा।…

पुस्तकालय और संग्रहालय को अपने कार्य का अत्यंत आवश्यक अंग तो समझिए ही, आस-पास की जनता की भाषा, रहन-सहन, आचार-विचार, जात-पांत, धर्म-कर्म सबकुछ के विषय में ज्ञान-संग्रह करने का प्रयत्न कीजिए। मैं निश्चत रूप से जानता हूँ कि भविष्य का निर्माण वही संस्थाएं कर सकती हैं जो जनता को उसकी संपूर्ण समस्याओं से परिचित कराएं और उसे इस योग्य बना दें कि वह अपने अतीत को समझ सके, वर्तमान को देख सके और भविष्य को बना सके।  (अंश)

संपर्क :​ द्वारा दिनेश सिंह, ग्रामअहिलाद, पोस्टबगली पिजड़ा, जनपदमऊ, उत्तर प्रदेश275101 मो. 9415772386